एक किरण लेकर चला हूँ

रोशनियों को चुराकर चला हूँ,

सिर पर उठाकर चला हूँ

जब जहां अवसर मिलेगा

रोश्नियां बिखेरने का

वादा करके चला हूँ

अंधेरों की आदत बनने लगी है,

उनसे दो-दो हाथ करने चला हूँ

जानता हूं, है कठिन मार्ग

पर अकेल ही अकेले चला हूँ

दूर-दूर तक

न राहें हैं, न आसमां, न जमीं,

सब तलाशने चला हूं।

ठोकरों की तो आदत हो गई है,

राहों को समतल बनाने चला हूँ

कोई तो मिलेगा राहों में,

जो संग-संग चलेगा,

साथ उम्मीद की, हौंसलों की भी

एक किरण लेकर चला हूँ