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जीवन-अंकुरण
प्रकृति का स्व-नियम है।
नई राहें
आप ढूंढती है प्रकृति।
जिजीविषा, न जाने
किसके भीतर कहां तक है,
इंसान कहां समझ पाया।
जीवन में हम
बनाते रह जाते हैं
नियम कानून,
बांधते हैं सरहदें,
कहां किसका अधिकार,
कौन अनधिकार।
प्रकृति
जब तेवर दिखाती है,
सब उलट-पुलट कर जाती है।
हालात तो यही कहते हैं,
किसी दिन रात में उगेगा सूरज
और दिन में दिखेंगें तारे।
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जीवन की गति एक चक्रव्यूह
जीवन की गति
जब किसी चक्रव्यूह में
अटकती है
तभी
अपने-पराये का एहसास होता है।
रक्त-सम्बन्ध सब गौण हो जाते हैं।
पता भी नहीं लगता
कौन पीठ में खंजर भोंक गया ,
और किस-किस ने सामने से
घेर लिया।
व्यूह और चक्रव्यूह
के बीच दौड़ती ज़िन्दगी,
अधूरे प्रश्र और अधूरे उत्तर के बीच
धंसकर रह जाती है।
अधसुनी, अनसुनी कहानियां
लौट-लौटकर सचेत करती हैं,
किन्तु हम अपनी रौ में
चेतावनी समझ ही नहीं पाते,
और अपनी आेर से
एक अधबुनी कहानी छोड़कर
चले जाते हैं।
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हे विधाता ! किस नाम से पुकारूं तुम्हें
शायद तुम्हें अच्छा न लगे सुनकर,
किन्तु, आज
तुम्हारे नामों से डरने लगी हूं।
हे विधाता !
कहते हैं, यथानाम तथा गुण।
कितनी देर से
निर्णय नहीं कर पा रही हूं
किस नाम से पुकारूं तुम्हें।
जितने नाम, उतने ही काम।
और मेरे काम के लिए
तुम्हारा कौन-सा नाम
मेरे काम आयेगा,
समझ नहीं पा रही हूं।
तुम सृष्टि के रचयिता,
स्वयंभू,
प्रकृति के नियामक
चतुरानन, पितामह, विधाता,
और न जाने कितने नाम।
और सुना है
तुम्हारे संगी-साथी भी बहुत हैं,
जो तुम्हारे साथ चलाते हैं,
अनगिनत शस्त्र-अस्त्रों से सुसज्जित।
हे विश्व-रचयिता !
क्या भूल गये
जब युग बदलते हैं,
तब विचार भी बदलते हैं,
सत्ता बदलती है,
संरचनाएं बदलती हैं।
तो
हे विश्व रचयिता!
सामयिक परिस्थितियों में
गुण कितने भी धारण कर लो
बस नाम एक कर लो।
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कुछ सपने कुछ सच्चे कुछ झूठे
कागज़ की नाव में
जितने सपने थे
सब अपने थे।
छोटे-छोटे थे, पर मन के थे ।
न डूबने की चिन्ता
न सपनों के टूटने की चिन्ता।
तिरती थी, पलटती थी
टूट-फूट जाती थी, भंवर में अटकती थी।
रूक-रूक जाती थी।
एक जाती थी, एक और आ जाती थी।
पर सपने तो सपने थे,
सब अपने थे।
न टूटते थे न फूटते थे ।
जीवन की लय यूं ही बहती जाती थी ।
फिर एक दिन हम बड़े हो गये ।
सपने भारी-भारी हो गये ।
अपने ही नहीं, सबके हो गये ।
पता ही नहीं लगा
वह कागज़ की नाव कहां खो गई ।
कभी अनायास यूं ही
याद आ जाती है,
तो ढूंढने निकल पड़ते हैं ।
किन्तु भारी सपने कहां
पीछा छोड़ते हैं,
सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं ।
अब नाव नहीं बनती।
मेरी कागज़ की नाव
न जाने कहां खो गई,
मिल जाये तो लौटा देना ।
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छाता लेकर निकले हम
छाता लेकर निकले हम
देखें बारिश में
कितना है दम।
भीगने से
न जाने क्यों
लोगों का निकलता है दम।
छाता कर देंगे बंद
जमकर भीगेंगे हम।
जब लग जायेगी ठण्डी
तब लौटेंगे घर को हम
मोटी मोटी डांट पड़ेगी
फिर हलवा-पूरी,
चाट पकौड़ी जी भर
खायेंगे हम।
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मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे
मेरा यह आलेख उस समय का है जब मीडिया में तरह-तरह के बाबा छाये हुए थे, उनके पास खरीदा हुआ समय था, अपने चैनल थे, बहुत बड़ा प्रचार माध्यम था, जिनमें से आज कुछ कारागार में, कुछ की दुकानदारी बन्द हो चुकी है। किन्तु अपने समय में इन्होने जिन उंचाईयों को छुआ वे समझने वाली थीं। उस पर ही मेरी यह व्यंग्य रचना।
*-*-*-*-*-*-*-*-*-*
आजकल जब टी.वी. पर बाबाओं को देखती हूँ तो मन में एक हूक उठती है, मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे? यह एक समय की बात है जब मेरे भी एक बाबाजी हुआ करते थे। वैसे मेरे एक नहीं पाँच- पाँच बाबा हुआ करते थे किन्तु मेरे एक भी बाबा ऐसे क्यों न थे यही मेरी पीड़ा है। मेरे बाबा अर्थात् मेरे पिता के पिता जिन्हें आजकल बड़े पा, दादू, दद्दा, बड़े डैड, सीनियर डैड वगैरह कहा जाता है उन्हें ही हमारे ज़माने में बाबाजी कहा जाता था। और फिर मेरे तो एक नहीं पाँच- पाँच बाबा थे। एक मेरे सगे बाबाजी और चार उनके भाई। और वे पाँचों एक ही घर में रहा करते थे। किन्तु मेरा दुख यह कि मेरे एक भी बाबाजी ऐसे क्यों न थे?
अब आप जानना चाहेंगे कि मेरे बाबाजी ‘ऐसे’ क्यों न थे अर्थात् ‘कैसे’ क्यों न थे? अब इसमें बताने की क्या बात है। आज जब मैं टी. वी. पर, समाचार-पत्रों में इन बाबाओं को देखती-सुनती हूँ तो मेरे मन में एक कसक पैदा होती है कि मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे। मेरे बाबाजी - बड़े हुए, शादी कर ली, ईमानदारी का व्यवसाय किया, परिवार को ईमानदारी, सच्चाई, त्याग, सच्चरित्रता, आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया और यही सब कुछ विरासत में अपने परिवार को देकर चल बसे। अब आप ही बताईए कितना पीड़ादायक है ऐसे बाबा के परिवार का सदस्य होना।
एक मेरे बाबा थे और एक ये आजकल के बाबा हैं। हां, धोती-कुर्ता वे भी पहनते थे ये भी पहनते हैं। सच्चाई, ईमानदारी, त्याग, दान का महत्व वे भी समझाते थे और ये भी समझाते हैं। वे भी गांव में पैदा हुए थे और ये भी। किन्तु मेरे बाबाजी मिट्टी को ही सोना कहकर पुकारते रहे और ये मिट्टी में सोना गाढ़ते रहे। मेरे बाबाजी के कुर्ते के नीचे एक बंडी हुआ करती थी और इनके कुर्ते के नीचे बुलेट पू्रफ जैकेट। मेरे बाबाजी ने सारे उपदेश अपने पर थोप रखे थे और इन बाबाओें के उपदेश दूसरों को देने के लिए हैं।
काश! मेरे बाबाओं ने इन आधुनिक बाबाओं से कुछ सीखा होता तो आज हमारा जीवन कितना सुखी-सम्पन्न, आध्यात्मिक होता। एक मेरे बाबा थे छोटा-सा परिवार बसाया, उसके लिए कमाया और चल दिए। और एक ये बाबा हैं सारी दुनिया के लिए कमाते हैं। विवाह नहीं करते क्योंकि पूरा विश्व इनका परिवार है । इसी कारण इतना कमाते हैं कि पूरे विश्व का पालन-पोषण कर सकें; करें या न करें यह अलग बात है। हर गाँव, हर शहर, हर राज्य और और यहां तक कि विदेशों में भी इनके आवास हैं जिन्हें सम्मान से आश्रम कहा जाता है। अब ये आश्रम मेरे बाबाजी के पैतृक घर की तरह मिट्टी-गारे के तो होते नहीं, बायोमीट्रिक होते हैं। अब यह बायोमीट्रिक क्या होता है यह तो मुझे भी पता नहीं किन्तु कुछ तो ज़्यादा ही होता होगा तभी तो चर्चा का विषय बना हुआ है। द्वीपों पर भी इनका साम्राज्य है।
ये परिवार नहीं समर्थक और अनुयायी पैदा करते हैं। और मेरे पाँचों बाबाओं को देखो, एक ही घर में एक साथ रहते थे। अरे कोई उन्हें सद्बुद्धि देता। अपने-अपने आश्रम बनाते, क्षमा कीजिएगा अपने-अपने घर बनाते, अपनी-अपनी सम्पत्ति, अपनी-अपनी सत्ता, अपना-अपना धर्म और अपने-अपने अनुयायी। तब आज शायद मैं भी गर्व से अपने बाबाओं को स्मरण करती।
मेरे बाबाजी पैंतीस रुपये महीना कमाते थे और ये पैंतीस करोड़ के कमरे में रहते हैं। किसी के पास पचास हज़ार करोड़ की सम्पत्ति है तो किसी के पास ग्यारह हज़ार करोड़ की। जब भी एक नया कमरा खोला जाता है तो वहां कुछ किलो सोना-चांदी निकल आता है । इधर तो साड़ियाँ , विदेशी प्रसाधन का सामान और इस तरह का पता नहीं क्या-क्या सामान मिल रहा है। और दूसरी ओर मेरे बाबाजी तो तोले-माशे की बात करते ही चल बसे और यहां सोना-चांदी किलो में तोला जा रहा है। हमारी सारी आयु बीत गई उन किस्सों को सुनते-सुनते कि तुम्हारे बाबाजी ये हुआ करते थे वे हुआ करते थे। हमारे पास ये था हमारे पास वो था। उनके पास बैल थे, अपना टांगा-गाड़ी थी। घर के आगे आंगन था। अपनी ज़मीन-खेत थे। लेकिन ये बाबा करोड़ों के विमानों, वातानुकूलित गाड़ियों में यात्रा करते हैं। पूरी दुनिया में जहाँ चाहें वहां सरकारी या गैर-सरकारी ज़मीन पर अपना पैर रखकर वैधानिक तौर पर उसे अपना बना लेते की ताकत रखते हैं। हमारे बाबा नून-तेल-लकड़ी में ही उलझे रहे किन्तु इन बाबाओं के अनुयायी इनकी नून-तेल-लड़की क्षमा कीजिए लड़की फिर ज़बान फ़िसल गई मेरा अभिप्राय है लकड़ी का प्रबन्ध करते हैं क्योंकि इन्हें तो अपने आश्रमों, व्यवसायिक प्रतिष्ठानों, उद्योगों, क्रय-विक्रय, लाभ-हानि, नव-निर्माण, सम्पत्तियों-परिसम्पत्तियों का भी हिसाब रखना होता है। फिर देश-विदेश की यात्राएं, अनुयायियों, समर्थकों को निरन्तर दान देने के लिए प्रेरित करते रहना, राजनीतिक सम्पर्क बनाए रखना, शिविर लगा-लगाकर उपदेश दे-देकर लोगों को सार्वजनिक तौर पर लूटना जैसे कितने ही महत्वपूर्ण कार्य हैं इनके पास।
लेकिन मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे?
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झूठी-सच्ची ख़बरें बुनते
नाम नहीं, पहचान नहीं, करने दो मुझको काम।
क्यों मेरी फ़ोटो खींच रहे, मिलते हैं कितने दाम।
कहीं की बात कहीं करें और झूठी-सच्ची ख़बरें बुनते
समझो तुम, मिल-जुलकर चलता है घर का काम।
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वसुधैव कुटुम्बकम्
एक आस हो, विश्वास हो, बस अपनेपन का भास हो
न दूरियां हो, न संदेह की दीवार, रिश्तों में उजास हो
जीवन जीने का सलीका ही हम शायद भूलने लगे हैं
नि:स्वार्थ, वसुधैव कुटुम्बकम् का एक तो प्रयास हो
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कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर
जीवन एक बहती धारा है, जब चाहे, नित नई राहें बदले
कभी दुख की घनघोर घटाएं, कभी सरस-सरस घन बरसें
पल-पल साथी बदले, कोई छूटा, कभी नया मीत मिला
कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर यही जीवन है, पगले
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स्वाधीनता हमारे लिए स्वच्छन्दता बन गई
एक स्वाधीनता हमने
अंग्रेज़ो से पाई थी,
उसका रंग लाल था।
पढ़ते हैं कहानियों में,
सुनते हैं गीतों में,
वीरों की कथाएं, शौर्य की गाथाएं।
किसी समूह,
जाति, धर्म से नहीं जुड़े थे,
बेनाम थे वे सब।
बस एक नाम जानते थे
एक आस पालते थे,
आज़ादी आज़ादी और आज़ादी।
तिरंगे के मान के साथ
स्वाधीनता पाई हमने
गौरवशाली हुआ यह देश।
मुक्ति मिली हमें वर्षों की
पराधीनता से।
हम इतने अधीर थे
मानों किसी अबोध बालक के हाथ
जिन्न लग गया हो।
समझ ही नहीं पाये,
कब स्वाधीनता हमारे लिए
स्वच्छन्दता बन गई।
पहले देश टूटा था,
अब सोच बिखरने लगी।
स्वतन्त्रता, आज़ादी और
स्वाधीनता के अर्थ बदल गये।
मुक्ति और स्वायत्तता की कामना लिए
कुछ शब्दों के चक्रव्यूह में फ़ंसे हम,
नवीन अर्थ मढ़ रहे हैं।
भेड़-चाल चल रहे हैं।
आधी-अधूरी जानकारियों के साथ
रोज़ मर रहे हैं और मार रहे हैं।
-
वे, जो हर युग में आते थे
वेश और भेष बदल कर,
लगता है वे भी
हार मान बैठ हैं।
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जीवन में यह उलट-पलट होती है
बहुत छोटी हूं मैं
कुछ समझने के लिए।
पर
इतनी छोटी भी तो नहीं
कि कुछ भी समझ न आये।
मेरे आस-पास लोग कहते हैं
हर औरत मां होती है
बहन होती है,पत्नी होती है
बेटी और सखा होती है।
फिर मुझे देखकर कहते हैं
देखो,कष्टों में भी मुस्कुरा लेती है
ममतामयी, देवी है देवी।
मुझे नहीं पता
औरत क्या, मां क्या,
बेटी क्या, बहन क्या, देवी क्या
और ममता क्या होती है।
मुझे नहीं पता
मेरी गोद यह में कौन है
बेटा है, भाई है
पति है, या कोई और।
बहुत सी बातें
नहीं समझ पाती हूं
और जो समझ जाती हूं
वह भी कहां समझ पाती हूं।
लोग कहते हैं, देखो
भाई की देख-भाल करती है।
बड़ा होकर यही तो है
इसकी रक्षा करेगा
राखी बंधवायेगा, हाथ पीले करेगा,
अपने घर भेजेगा।
कोई समझायेगा मुझे
जीवन में यह उलट-पलट कैसे होती है।
बहुत सी बातें
नहीं समझ पाती हूं
और जो समझ जाती हूं
वह भी कहां समझ पाती हूं।