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जीवन बोझ-सा
समस्याएं नाग-सी
तब चाहिए
तुम्हारा साथ
हाथ पकड़ा है
मैं तुम्हें समस्याओं से बचाउं
तुम मेरे साथ
तो जीवन भी बोझ-सा नहीं
बस एक हिम्मत की चाह
होंगे हम साथ-साथ
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एकान्त की ध्वनियां
एकान्त काटता है,
एकान्त कचोटता है
किन्तु अपने भीतर के
एकान्त की ध्वनि
बहुत मुखर होती है।
बहुत कुछ बोलती है।
जब सन्नाटा टूटता है
तब कई भेद खोलती है।
भीतर ही भीतर
अपने आप को तलाशती है।
किन्तु हम
अपने आपसे ही डरे हुए
दीवार पार की आवाज़ें तो सुनते हैं
किन्तु अपने भीतर की आवाज़ों को
नकारते हैं
इसीलिए जीवन भर हारते है।
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अपनापन आजमाकर देखें
चलो आज यहां ही सबका अपनापन आजमाकर देखें
मेरी तुकबन्दी पर वाह वाह की अम्बार लगाकर देखें
न मात्रा, न मापनी, न गणना, छन्द का ज्ञान है मुझे
मेरे तथाकथित मुक्तक की ज़रा हवा निकालकर देखें
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असमंजस में रहते हैं हम
कितनी बार,
हम समझ ही नहीं पाते,
कि परम्पराओं में जी रहे हैं,
या रूढ़ियों में।
.
दादी की परम्पराएं,
मां के लिए रूढ़ियां थीं,
और मां की परम्पराएं
मुझे रूढ़ियां लगती हैं।
.
हमारी पिछली पीढ़ियां
विरासत में हमें दे जाती हैं,
न जाने कितने अमूल्य विचार,
परम्पराएं, संस्कृति और व्यवहार,
कुछ पुराने यादगार पल।
इस धरोहर को
कभी हम सम्हाल पाते हैं,
और कभी नहीं।
कभी सार्थक लगती हैं,
तो कभी अर्थहीन।
गठरियां बांधकर
रख देते हैं
किसी बन्द कमरे में,
कभी ज़रूरत पड़ी तो देखेंगे,
और भूल जाते हैं।
.
ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी
सौंपी जाती है विरासत,
किसी की समझ आती है
किसी की नहीं।
किन्तु यह परम्परा
कभी टूटती नहीं,
चाहे गठरियों
या बन्द कमरों में ही रहें,
इतना ही बहुत है।
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हमको छुट्टा दे सरकार
रंजोगम में डूब गये हैं, गोलगप्पे हो गये बीस के चार
कितने खायें, कैसे खायें, नोट मिला है दो हज़ार
कहता है भैया हमसे, सारे खाओ या फिर जाओ
हम ढाई आने के ग्राहक हैं, हमको छुट्टा दे सरकार
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ठकोसले बहुत हैं
न मन थका-हारा, न तन थका-हारा
किसी झूठ, किसी सच में फंसा बेचारा
यहां दुनियादारी के ठकोसले बहुत हैं
किस-किससे निपटे, बुरा फंसा बेचारा
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बंधनों का विरोध कर
जीवन बड़ा सरल सहज अपना-सा हो जाता है
रूढ़ियों के प्रतिकार का जब साहस आ जाता है
डरते रहते हैं हम यूं ही समाज की बातों से
बंधनों का विरोध कर मन तुष्टि पा जाता है
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तेरा ख़याल
उदास कर जाता है तेरा ख़याल
यादों में ले जाता है तेरा ख़याल
यूँ लगता है मानों युग बीत गये
मिलन की आस है तेरा ख़याल
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चिंगारी दर चिंगारी सुलगती
अच्छी नहीं लगती
घर के किसी कोने में
चुपचाप जलती अगरबत्ती।
मना करती थी मेरी मां
फूंक मारकर बुझाने के लिए
अगरबत्ती।
मुंह की फूंक से
जूठी हो जाती है।
हाथ की हवा देकर
बुझाई जाती है अगरबत्ती।
डब्बी में सहेजकर
रखी जाती है अगरबत्ती।
खुली नहीं छोड़ी जाती
उड़ जायेगी खुशबू
टूट जायेगी
टूटने नहीं देनी है अगरबत्ती।
क्योंकि सीधी खड़ी कर
लपट दिखाकर
जलानी होती है अगरबत्ती।
लेकिन जल्दी चुक जाती है
मज़ा नहीं देती
लपट के साथ जलती अगरबत्ती।
फिर गिर जाये कहीं
तो सब जला देगी अगरबत्ती।
इसलिए
लपट दिखाकर
अदृश्य धुएं में लिपटी
चिंगारी दर चिंगारी सुलगती
किसी कोने में सजानी होती है अगरबत्ती।
रोज़ डांट खाती हूं मैं।
लपट सहित जलती
छोड़ देती हूं अगरबत्ती।
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अठखेलियां करते बादल
आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
ज्यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल
डांट पड़ी तो रो दिये, मां का आंचल भीगा
शरारती-से, जाने कहां गये ज़रा देखो बादल
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नेताजी का आसन
नेताजी ने कुर्सी त्याग दी
और भूमि पर आसन बिछाकर बैठ गये।
हमने पूछा, ऐसा क्यों किया आपने।
वैसे तो हमें पता है,
कि आपकी औकात ज़मीन की ही है,
किन्तु
कुर्सी त्यागना तो बहुत महानता की बात है,
कैसे किया आपने यह साहस।
नेताजी मुस्कुराये, बोले,
क्या तुम्हें भी बताना पड़ेगा,
कि कुर्सी की चार टांगे होती हैं
और इंसान की दो।
कोई भी, कभी भी पकड़कर
कोई-सी भी टांग खींच देता था।
अब हम भूमि पर, आसन जमाकर
पालथी मारकर बैठ गये हैं,
कोई दिखाये हमारी टांग खींचकर।
समझदारी की बात यह
कि कुर्सी के पीछे
तो लोग भागते-छीनते दिखाई देते हैं,
कभी आपने देखा है किसी को
आसन छीनते।
अब गांधी जी भी तो
भूमि पर आसन जमाकर ही बैठते थे,
कोई चला उनकी राह पर
आज तक मांगा उनका आसन किसी ने क्या।
नहीं न !
अब मैं नेताजी को क्या समझाती,
गांधी जी का आसन तो उनके साथ ही चला गया।
और नेताजी आपका आसन ,
आधुनिक भारतीय राजनीति का आसन है,
आप पालथी मारे यूं ही बैठे रह जायेंगे,
और जनता कब आपके नीचे से
आपका आसन खींचकर चलती बनेगी,
आपको पता भी नहीं चलेगा।