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चोट दिल पर लगती है
आंसू आंख से बहते हैं
दर्द जिगर में होता है
बात चेहरा बोलता है
आघात कहीं पर होता है
घाव कहीं पर बनता है
जख्म शब्दों के होते हैं
बदला कलम ले लेती है
दूर रहना ज़रा मुझसे
चोट गहरी हो तो
प्रतिघात घातक होता है।
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मौसम के रूप समझ न आयें
कोहरा है या बादलों का घेरा, हम बनते पागल।
कब रिमझिम, कब खिलती धूप, हम बनते पागल।
मौसम हरदम नये-नये रंग दिखाता, हमें भरमाता,
मौसम के रूप समझ न आयें, हम बनते पागल।
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प्रेम की एक नवीन धारा
हां, प्रेम सच्चा रहे,
हां , प्रेम सच्चा रहे,
हर मुस्कुराहट में
हर आहट में
रूदन में या स्मित में
प्रेम की धारा बही
मन की शुष्क भूमि पर
प्रेम-रस की
एक नवीन छाया पड़ी।
पल-पल मानांे बोलता है
हर पल नवरस घोलता है
एक संगीत गूंजता है
हास की वाणी बोलता है
दूरियां सिमटने लगीं
आहटें मिटने लगीं
सबका मन
प्रेम की बोली बोलता है
दिन-रात का भान न रहा
दिन में भी
चंदा चांदनी बिखेरने लगा
टिमटिमाने लगे तारे
रवि रात में भी घाम देने लगा
इन पलों का एहसास
शब्दातीत होने लगा
बस इतना ही
हां, प्रेम सच्चा रहे
हां, प्रेम सच्चा लगे
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ज्योति प्रज्वलित है
क्यों ढूंढते हो दीप तले अंधेरा जब ज्योति प्रज्वलित है
क्यों देखते हो मुड़कर पीछे, जब सामने प्रशस्त पथ है
जीवन में अमा और पूर्णिमा का आवागमन नियत है
अंधेरे में भी आंख खुली रखें ज़रा, प्रकाश की दमक सरस है
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सूखी धरती करे पुकार
वातानुकूलित भवनों में बैठकर जल की योजनाएं बनाते हैं
खेल के मैदानों पर अपने मनोरंजन के लिए पानी बहाते हैं
बोतलों में बन्द पानी पी पीकर, सूखी धरती को तर करेंगे
सबको समान सुविधाएं मिलेंगी, सुनते हैं कुछ ऐसा कहते हैं
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लौटाकर खड़ा कर दिया शून्य पर
अभिमान
अपनी सफ़लता पर।
नशा
उपलब्धियों का।
मस्ती से जीते जीवन।
उन्माद
अपने सामने सब हेठे।
घमण्ड ने
एक दिन लौटाकर
खड़ाकर दिया
शून्य पर।
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मन गीत गुने
मृदंग बजे
सुर-साज सजे
मन-मीत मिले
मन गीत गुने
निर्जन वन में
वन-फूल खिले
अबोल बोले
मन-भाव बने
इस निर्जन में
इस कथा कहे
अमर प्रेम की
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मन के मन्दिर ध्वस्त हुए हैं
मन के मन्दिर ध्वस्त हुए हैं,नव-नव मन्दिर गढ़ते हैं
अरबों-खरबों की बारिश है,धर्म के गढ़ फिर सजते हैं
आज नहीं तो कल होगा धर्मों का कोई नाम नया होगा
आयुधों पर बैठे हम, कैसी मानवता की बातें करते हैं
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मन आनन्दित होता है
लेन-देन में क्या बुराई
जितना चाहो देना भाई
मन आनन्दित होता है
खाकर पराई दूध-मलाई
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द्वार खुले हैं तेरे लिए
विदा तो करना बेटी को किन्तु कभी अलविदा न कहना
समाज की झूठी रीतियों के लिए बेटी को न पड़े कुछ सहना
खीलें फेंकी थीं पीठ पीछे छूट गया मेरा मायका सदा के लिए
हर घड़ी द्वार खुले हैं तेरे लिए,उसे कहना,इस विश्वास में रहना
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फूल तो फूल हैं
फूल तो फूल हैं
कहीं भी खिलते हैं।
कभी नयनों में द्युतिमान होते हैं
कभी गालों पर महकते हैं
कभी उपवन को सुरभित करते हैं,
तो कभी मन को
आनन्दित करते हैं,
मन के मधुर भावों को
साकार कर देते हैं
शब्द को भाव देते हैं
और भाव को अर्थ।
प्रेम-भाव का समर्पण हैं,
कभी किसी की याद में
गुलदानों में लगे-लगे
मुरझा जाते हैं।
यही फूल स्वागत भी करते हैं
और अन्तिम यात्रा भी।
और कभी किसी की
स्मृतियों में जीते हैं
ठहरते हैं उन पर आंसू
ओस की बूंदों से।