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चोट दिल पर लगती है
आंसू आंख से बहते हैं
दर्द जिगर में होता है
बात चेहरा बोलता है
आघात कहीं पर होता है
घाव कहीं पर बनता है
जख्म शब्दों के होते हैं
बदला कलम ले लेती है
दूर रहना ज़रा मुझसे
चोट गहरी हो तो
प्रतिघात घातक होता है।
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हां हुआ था भारत आज़ाद
कभी लगा ही नहीं
कि हमें आज़ाद हुए इतने वर्ष हो गये।
लगता है अभी कल ही की तो बात है।
हमारे हाथों में सौंप गये थे
एक आज़ाद भारत
कुछ आज़ादी के दीवाने, परवाने।
फ़ांसी चढ़े, शहीद हुए।
और न जाने क्या क्या सहन किया था
उन लोगों ने जो हम जानते ही नहीं।
जानते हैं तो बस एक आधा अधूरा सच
जो हमने पढ़ा है पुस्तकों में।
और ये सब भी याद आता है हमें
बस साल के गिने चुने चार दिन।
हां हुआ था भारत आज़ाद।
कुछ लोगों की दीवानगी, बलिदान और हिम्मत से।
और हम ! क्या कर रहे हैं हम ?
कैसे सहेज रहे हैं आज़ादी के इस उपहार को।
हम जानते ही नहीं
कि मिली हुई आजादी का अर्थ क्या होता है।
कैसे सम्हाला, सहेजा जाता है इसे।
दुश्मन आज भी हैं देश के
जिन्हें मारने की बजाय
पाल पोस रहे हैं हम उन्हें अपने ही भीतर।
झूठ, अन्नाय के विरूद्ध
एक छोटी सी आवाज़ उठाने से तो डरते हैं हम।
और आज़ादी के दीवानों की बात करते हैं।
बड़ी बात यह
कि आज देश के दुश्मनों के विरूद्ध खड़े होने के लिए
हमें पहले अपने विरूद्ध हथियार उठाने पड़ेंगे।
शायद इसलिए
अधिकार नहीं है हमें
शहीदों को नमन का
नहीं है अधिकार हमें तिरंगे को सलामी का
नहीं है अधिकार
किसी और पर उंगली उठाने का।
पहले अपने आप को तो पहचान लें
देश के दुश्मनों को अपने भीतर तो मार लें
फिर साथ साथ चलेंगे
न्याय, सत्य, त्याग की राह पर
शहीदों को नमन करेंगे
और तिरंगा फहरायेंगे अपनी धरती पर
और अपने भीतर।
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खोज रहा हूं उस नेता को
खोज रहा हूं उस नेता को
हर पांच साल में आता है
एक रोटी का टुकड़ा
एक घर की चाबी लाता है
कुछ नये सपने दिखलाता,
पैसे देने की बातें करता
देश-विदेश घूमकर आता
वेश बदल-बदलकर आता
बड़ी-बड़ी गाड़ी में आता
खूब भीड़ साथ में लाता
रोज़गार का वादा करता
अरबों-खरबों की बातें करता
नारों-हथियारों की बातें करता
जात-पात, धर्म, आरक्षण
का मतलब बतलाता
वोटों का मतलब समझाता
कारड बनवाने की बातें करता
हाथ में परचा थमा कर जाता
बच्चों के गाल बजाकर जाता
बस मैं-मैं-मैं-मैं करता
अच्छी-अच्छी बातें करता
थाली में रोटी आयेगी
लड़की देखो स्कूल जायेगी।
कभी-कभी कहता है
रोटी खाउंगा, पानी पीउंगा।
खाली थाली बजा रहे हैं
ढोल पीटकर बता रहे हैं
पिछले पांच साल से बैठे हैं
अगले पांच साल की आस में।
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धूप ये अठखेलियां हर रोज़ करती है
पुरानी यादें यूं तो मन उदास करती हैं
पर जब कुछ सुनहरे पल तिरते हैं
मन में नये भाव खिलते हैं
कोहरे में धुंधलाती रोशनियां
चमकने लगती हैं
कुछ बूंदे तिरती हैं
झुके-झुके पल्लवों पर
आकाश में नीलिमा तिरती है
फूल लेने लगते हैं अंगडाईयां
मन में कहीं आस जगती है
धूप ये अठखेलियां हर रोज़ करती है
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घुमक्कड़ हो गया है मन
घुमक्कड़ हो गया है मन
बिन पूछे बिन जाने
न जाने
निकल जाता है कहां कहां।
रोकती हूं, समझाती हूं
बिठाती हूं , डराती हूं, सुलाती हूं।
पर सुनता नहीं।
भटकता है, इधर उधर अटकता है।
न जाने किस किस से जाकर लग जाता है।
फिर लौट कर
छोटी छोटी बात पर
अपने से ही उलझता है।
सुलगता है।
ज्वालामुखी सा भभकता है।
फिर लावा बहता है आंखों से।
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शहर के बीचों बीच,
चौराहे पर,
हनुमान जी की मूर्ति
खड़ी थी।
गदा
ज़मीन पर टिकाये।
दूसरा हाथ
तथास्तु की मुद्रा में।
साथ की दीवार लिखा था,
गुप्त रोगी मिलें,
हर मंगलवार,
बजरंगी औषधालय,
गली संकटमोचन,ऋषिकेश।
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सुनो कृष्ण
सुनो कृष्ण !
मैं नहीं चाहती
किसी द्रौपदी को
तुम्हें पुकारना पड़े।
मैं नहीं चाहती
किसी युद्ध का तुम्हें
मध्यस्थ बनना पड़े।
नहीं चाहती मैं
किसी ऐसे युद्ध के
साक्षी बनो तुम
जहाँ तुम्हें
शस्त्र त्याग कर
दर्शक बनना पड़े।
नहीं चाहती मैं
तुम युद्ध भी न करो
किन्तु संचालक तुम ही बनो।
मैं नहीं चाहती
तुम ऐसे दूत बनो
जहाँ तुम
पहले से ही जानते हो
कि निर्णय नहीं होगा।
मैं नहीं चाहती
गीता का
वह उपदेश देना पड़े तुम्हें
जिसे इस जगत में
कोई नहीं समझता, सुनता,
पालन करता।
मैं नहीं चाहती
कि तुम इतना गहन ज्ञान दो
और यह दुनिया
फिर भी दूध-दहीं-ग्वाल-बाल
गैया-मैया-लाड़-लड़ैया में उलझी रहे,
राधा का सौन्दर्य
तुम्हारी वंशी, लालन-पालन
और तुम्हारी ठुमक-ठुमैया
के अतिरिक्त उन्हें कुछ स्मरण ही न रहे।
तुम्हारा चक्र, तुम्हारी शंख-ध्वनि
कुछ भी स्मरण न करें,
न करें स्मरण
युद्धों का उद्घोष
समझौतों का प्रयास
अपने-पराये की पहचान की समझ,
न समझें तुम्हारी निर्णय-क्षमता
अपराधियों को दण्डित करने की नीति।
झुकने और समझौतों की
क्या सीमा-रेखा होती है
समझ ही न सकें।
मैं नहीं चाहती
कि तुम्हारे नाम के बहाने
उत्सवों-समारोहों में
इतना खो जायें
तुम पर इतना निर्भर हो जायें
कि तनिक-से कष्ट में
तुम्हें पुकारते रहें
कर्म न करें,
प्रयास न करें,
अभ्यास न करें।
तुम्हारे नाम का जाप करते-करते
तुम्हें ही भूल जायें,
बस यही नहीं चाहती मैं
हे कृष्ण !
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समझाती है ज़िन्दगी
कदम-दर-कदम यूँ ही आगे बढ़ती है ज़िन्दगी
कौन आगे, कौन पीछे, नहीं देखती है ज़िन्दगी।
बालपन क्या जाने, क्या पीठ पर, क्या हाथ में
अकेले-दुकेले, समय पर आप ही समझाती है ज़िन्दगी।
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ज़िन्दगी बहुत झूले झुलाती है
ज़िन्दगी बहुत झूले झुलाती है
कभी आगे,कभी पीछे ले जाती है
जोश में कभी ज़्यादा उंचाई ले लें
तो सीधे धराशायी भी कर जाती है
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तिनके का सहारा
कभी किसी ने कह दिया
एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है,
किस्मत साथ दे
तो सीखा हुआ
ककहरा भी बहुत होता है।
लेकिन पुराने मुहावरे
ज़िन्दगी में साथ नहीं देते सदा।
यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को
यूं ही लांघ जाता है आदमी,
लेकिन कभी-कभी एक तिनके की चोट से
घायल मन
हर आस-विश्वास खोता है।
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झूठ के आवरण चढ़े हैं
चेहरों पर चेहरे चढ़े हैं
असली तो नीचे गढ़े हैं
कैसे जानें हम किसी को
झूठ के आवरण चढ़े हैं