मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे

मेरा यह आलेख उस समय का है जब मीडिया में तरह-तरह के बाबा छाये हुए थे, उनके पास खरीदा हुआ समय था, अपने चैनल थे, बहुत बड़ा प्रचार माध्यम था, जिनमें से आज कुछ कारागार में, कुछ की दुकानदारी बन्द हो चुकी है। किन्तु अपने समय में इन्होने जिन उंचाईयों को छुआ वे समझने वाली थीं। उस पर ही मेरी यह व्यंग्य रचना।

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आजकल जब टी.वी. पर बाबाओं को देखती हूँ  तो मन में एक हूक उठती है, मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे? यह एक समय की बात है जब मेरे भी एक बाबाजी हुआ करते थे। वैसे मेरे एक नहीं पाँच- पाँच बाबा हुआ करते थे किन्तु मेरे एक भी बाबा ऐसे क्यों न थे यही मेरी पीड़ा है। मेरे बाबा अर्थात् मेरे पिता के पिता जिन्हें आजकल बड़े पा, दादू, दद्दा, बड़े डैड, सीनियर डैड वगैरह कहा जाता है उन्हें ही हमारे ज़माने में बाबाजी कहा जाता था। और फिर मेरे तो एक नहीं पाँच- पाँच बाबा थे। एक मेरे सगे बाबाजी और चार उनके भाई। और वे पाँचों एक ही घर में रहा करते थे। किन्तु मेरा दुख यह कि मेरे एक भी बाबाजी ऐसे क्यों न थे?

अब आप जानना चाहेंगे कि मेरे बाबाजी ‘ऐसे’ क्यों न थे अर्थात् ‘कैसे’ क्यों न थे? अब इसमें बताने की क्या बात है। आज जब मैं टी. वी. पर, समाचार-पत्रों में इन बाबाओं को देखती-सुनती हूँ तो मेरे मन में एक कसक पैदा होती है कि मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे। मेरे बाबाजी - बड़े हुए, शादी कर ली, ईमानदारी का व्यवसाय किया, परिवार को ईमानदारी, सच्चाई, त्याग, सच्चरित्रता, आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया और यही सब कुछ विरासत में अपने परिवार को देकर चल बसे। अब आप ही बताईए कितना पीड़ादायक है ऐसे बाबा के परिवार का सदस्य होना।

एक मेरे बाबा थे और एक ये आजकल के बाबा हैं। हां, धोती-कुर्ता वे भी पहनते थे ये भी पहनते हैं। सच्चाई, ईमानदारी, त्याग, दान का महत्व वे भी समझाते थे और ये भी समझाते हैं। वे भी गांव में पैदा हुए थे और ये भी। किन्तु मेरे बाबाजी मिट्टी को ही सोना कहकर पुकारते रहे और ये मिट्टी में सोना गाढ़ते रहे। मेरे बाबाजी के कुर्ते के नीचे एक बंडी हुआ करती थी और इनके कुर्ते के नीचे बुलेट पू्रफ जैकेट। मेरे बाबाजी ने सारे उपदेश अपने पर थोप रखे थे और इन बाबाओें के उपदेश दूसरों को देने के लिए हैं।

काश! मेरे बाबाओं ने इन आधुनिक बाबाओं से कुछ सीखा होता तो आज हमारा जीवन कितना सुखी-सम्पन्न, आध्यात्मिक होता। एक मेरे बाबा थे छोटा-सा परिवार बसाया, उसके लिए कमाया और चल दिए। और एक ये बाबा हैं सारी दुनिया के लिए कमाते हैं। विवाह नहीं करते क्योंकि पूरा विश्व इनका परिवार है । इसी कारण इतना कमाते हैं कि पूरे विश्व का पालन-पोषण कर सकें; करें या न करें यह अलग बात है। हर गाँव, हर शहर, हर राज्य और और यहां तक कि विदेशों में भी इनके आवास हैं जिन्हें सम्मान से आश्रम कहा जाता है। अब ये आश्रम मेरे बाबाजी के पैतृक घर की तरह मिट्टी-गारे के तो होते नहीं, बायोमीट्रिक होते हैं। अब यह बायोमीट्रिक क्या होता है यह तो मुझे भी पता नहीं किन्तु कुछ तो ज़्यादा ही होता होगा तभी तो चर्चा का विषय बना हुआ है। द्वीपों पर भी इनका साम्राज्य है।

  ये परिवार नहीं समर्थक और अनुयायी पैदा करते हैं। और मेरे पाँचों बाबाओं को देखो, एक ही घर में एक साथ रहते थे। अरे कोई उन्हें सद्बुद्धि देता।  अपने-अपने आश्रम बनाते, क्षमा कीजिएगा अपने-अपने घर बनाते, अपनी-अपनी सम्पत्ति, अपनी-अपनी सत्ता, अपना-अपना धर्म और अपने-अपने अनुयायी। तब आज शायद मैं भी गर्व से अपने बाबाओं को स्मरण करती।

मेरे बाबाजी पैंतीस रुपये महीना कमाते थे और ये पैंतीस करोड़ के कमरे में रहते हैं। किसी के पास पचास हज़ार करोड़ की सम्पत्ति है तो किसी के पास ग्यारह हज़ार करोड़ की।  जब भी एक नया कमरा खोला जाता है तो वहां कुछ किलो सोना-चांदी निकल आता है । इधर तो साड़ियाँ , विदेशी प्रसाधन का सामान और इस तरह का पता नहीं क्या-क्या सामान मिल रहा है। और दूसरी ओर  मेरे बाबाजी तो तोले-माशे की बात करते ही चल बसे और यहां सोना-चांदी किलो में तोला जा रहा है। हमारी सारी आयु बीत गई उन किस्सों को सुनते-सुनते कि तुम्हारे बाबाजी ये हुआ करते थे वे हुआ करते थे। हमारे पास ये था हमारे पास वो था। उनके पास बैल थे, अपना टांगा-गाड़ी थी। घर के आगे आंगन था। अपनी ज़मीन-खेत थे। लेकिन ये बाबा करोड़ों के विमानों, वातानुकूलित गाड़ियों में यात्रा करते हैं। पूरी दुनिया में जहाँ चाहें वहां सरकारी या गैर-सरकारी ज़मीन पर अपना पैर रखकर वैधानिक तौर पर उसे अपना बना लेते की ताकत रखते हैं। हमारे बाबा नून-तेल-लकड़ी में ही उलझे रहे किन्तु इन बाबाओं के अनुयायी इनकी नून-तेल-लड़की क्षमा कीजिए लड़की फिर ज़बान फ़िसल गई मेरा अभिप्राय है लकड़ी  का प्रबन्ध करते हैं क्योंकि इन्हें तो अपने आश्रमों, व्यवसायिक प्रतिष्ठानों, उद्योगों, क्रय-विक्रय, लाभ-हानि, नव-निर्माण, सम्पत्तियों-परिसम्पत्तियों का भी हिसाब रखना होता है। फिर देश-विदेश की यात्राएं, अनुयायियों, समर्थकों को निरन्तर दान देने के लिए प्रेरित  करते रहना, राजनीतिक सम्पर्क बनाए रखना, शिविर लगा-लगाकर उपदेश दे-देकर लोगों को सार्वजनिक तौर पर लूटना जैसे कितने ही महत्वपूर्ण कार्य हैं इनके पास।

लेकिन मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे?

  

अमूल्य धन

कुछ हँसती, खिलखिलाती, गुनगुनाती स्मृतियाँ अनायास मानस पटल पर आयें, अच्छा लगता है। इन सिक्कों को देखकर सालों-साल पुरानी एक घटना मानस-पटल पर उभर आई।

वर्ष 1974

एम.ए. का प्रथम वर्ष।

उस समय इन सिक्कों का कितना महत्व होता था यह तो आप भी जानते ही होंगे। रुपये खर्च करना तो बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। जेब-खर्च के लिए भी पचास पैसे, ज़्यादा से ज़्यादा एक रुपया जो बहुत बड़ी बात हुआ करती थी, लेकर घर से निकलते थे। पांच रुपये में तीन महीने का लोकल पास बनता था, शिमला रेलवे स्टेशन से समरहिल का, जहाँ हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय है।

मैं हिन्दी में एम. ए. और कर रही थी और मेरी एक सखी संस्कृत में। हमें ज्ञात हुआ कि बी.ए. के विषयानुसार विश्वविद्यालय में अधिकतम अंक प्राप्त होने के कारण हम दोनों को 150 रूपये मासिक छात्रवृत्ति मिलेगी।

हमारे लिए तो जैसे यह कुबेर का खजाना था। 6-6 महीने की राशि एकसाथ मिलनी थी। हमें कार्यालय से 900-900 रुपये के चैक मिले। पहले तो वे ही हमारे लिए एक अद्भुत अमूल्य पत्र थे, जिसे हम ऐसे देख और सम्हाल रहे थे मानों कहीं हाथ लगने से भी गल न जायें।

उपरान्त हम दोनों विश्वविद्याय परिसर में ही स्थित भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में डरते-डरते गईं।

वहाँ के कर्मचारियों का शायद हम  जैसे विद्यार्थियों से सामना होता ही होगा। हम दोनों कांउटर पर डरते-डरते गईं और कहा कि पैसे लेने हैं। हम दोनों ने चैक उनके सामने रख दिये।

कर्मचारी हमारी उत्तेजना और उत्सुकता भांप गया और पूछा कौन से पैसे चाहिए आपको?

हम दोनों ही अचानक बोल बैठीं, रेज़गारी दे दीजिए।

रेज़गारी? 900 रुपये की?

और क्या, लेकर निकलेंगे तो किसी को पता तो लगेगा कि हमें छात्रवृत्ति मिली है, कोई तो पूछेगा कि आपके पास यह क्या है?

कर्मचारी हँसने लगा 1800 रुपये की रेज़गारी तो हमारे पास नहीं है, यदि यही चाहिए तो आप डिमांड दे जाईये, रिज़र्व बैंक से मंगवा देंगे।

नहीं, नहीं, आप नोट ही दे दीजिए।

और इस तरह हम 900-900 रूपये के नोट लेकर वहाँ से सीधे माल रोड आ गईं। उस समय नोट भी बड़े आकार के होते थे।

दो घंटे से भी ज़्यादा समय तक मालरोड के चक्कर काटे, कितने अपने मिले, लेकिन किसी ने हमारे मन की बात नहीं पूछी।

मालरोड पर जो भी परिचित  मिले, हम यहीं सोचें कि यह ज़रूर पूछेंगे कि भई आपके बैग आज भारी लग रहे हैं क्या है इनमें।

लेकिन किसी ने नहीं पूछा। और हम घर लौट आईं, मायूस, उदास। छात्रवृत्ति मिलने का सारा आनन्द किरकिरा हो गया।

  

भारत

मुझे गहन आश्चर्य हुआ कि मैंने जब भी किसी को “भारत” पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए कहा तो जो विचार मुझे मिले उनका सारांश यह था कि भारत एक अत्यन्त प्राचीन, सभ्यता-संस्कृति-सम्पन्न, वेद, पुराण, गीता, रामायण, कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, नानक आदि की धरती है यह। कुछ ऐसे ही कथन और वक्तव्य का समापन। कुछ लोगों ने इससे आगे बढ़कर आज़ादी और शहीदों की बात की। आज़ादी के वीरों के नाम और उनको नमन।

और जो वर्तमान में थे, उन्होंने भ्रष्टाचार, महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों, रिश्वतखोरी, बिखरते पारिवारिक सम्बन्धों, वर्तमान में भटकी हुई, स्वार्थान्धता में जीती युवा पीढ़ी, आधुनिक नार, आदि के बारे में ही बात की।

मैं चकित !

क्या हमारा भारत बस यहीं तक सीमित है ? जब हम भारत के बारे में बात करते हैं तो इससे आगे कहने के लिए क्या हमारे पास कुछ भी नहीं है? आश्चर्य होता है।

यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हम एक संस्कृति-सम्पन्न प्राचीन राष्ट्र के नागरिक हैं। वे, जो हमें आज़ादी के भारत में जीवन दे गये, नमन्य हैं।

किन्तु क्या भारत इतना ही है?

आज हम एक स्वतन्त्र, आत्मनिर्भर, सुशिक्षित, साधन सम्पन्न, विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र, गणतन्त्र, विकसित भारत के नागरिक हैं। भारत एक विकासशील नहीं विकसित देश है। भारतीय नागरिक के पास सर्वाधिक मौलिक अधिकार हैं। सूचना का अधिकार है। यह विश्व का एकमात्र देश है जहां धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, स्वतन्त्रता है, धर्म, जाति, क्षेत्र से इतर। जल, थल और नभ तीनों क्षेत्रों पर हमारी सेनाओं का अधिकार है। भारत ऐसा पहला देश है जिसने अपनी संचार प्रणाली के लिए स्वदेशी सैटेलाईट का निर्माण किया।

चांद तक की यात्रा भारत ने तय कर ली है। स्वविकसित परमाणु उर्जा से सम्पन्न राष्ट्र होने का गौरव हमें प्राप्त है। विश्व की सवार्धिक 325 भाषाएं तथा 1650 बोलियां भारत में बोली जाती हैं। जिसमें से 29 भाषाएं संविधान में स्वीकृत हैं।

विश्व की चैथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत की है। भारत में जीवन की औसत आयु 32 वर्ष से बढ़कर 65 वर्ष हो गई है। भारतीय नागरिक को आधुनिक सुख सुविधाओं से सम्पन्न जीवन मिला है।

1951 में शिक्षा की दर मात्र 18.23 प्रतिशत थी जो वर्तमान में 77.8 प्रतिशत से भी अधिक हो चुकी है। देश में लगभग 1000 विश्वविद्यालय तथा 45,000 महाविद्यालय हैं। इनके अतिरिक्त लगभग 1500 अन्य क्षेत्रों के उच्च शिक्षा संस्थान हैं। विदेशों से लाखों विद्यार्थी भारत में शिक्षा ग्रहण करने के आते हैं। चिकित्सा की आयुर्वेद पद्धति एवं योग के लिए पूरा विश्व भारत के समक्ष नतमस्तक है।

विश्व के सबसे अधिक समाचार पत्र भारत में प्रकाशित होते हैं।

विश्व में सबसे अधिक दोपहिया वाहनों का निर्माण भारत में होता है। दुग्ध एवं मक्खन का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। चीनी उत्पादन के क्षेत्र में दूसरे नम्बर पर तथा कपास के क्षेत्र में तीसरा बड़ा उत्पादक देश है। विश्व का 90 प्रतिशत हीरे तराशने का कार्य भारत में होता है। विश्व के सर्वाधिक बैंक खाते तथा डाकघर भारत में हैं।

विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक मेला भारत में कुम्भ का मेला आयोजित होता है जिसमें लगभम 30 करोड़ लोग हिस्सा लेते हैं।

देश ने सर्वांगीण विकास किया है। आज विश्व की निर्भरता भारतीय वैज्ञानिक, चिकित्सक, इंजीनीयर, आई टी, व्यवसायी, पत्रकार, समाजसेवी, सब पर बढ़ी है।

विश्व के बड़े-बड़े देश आज भारतीय मेधा पर आश्रित हैं। डाक्टर, इंजीनियर, आई.टी, के क्षेत्र में पूरे विश्व में भारतीयों की धाक है।

मेरे प्रस्तुत आंकड़े पुराने हो सकते हैं, और इनमें और भी बढ़ोतरी निश्चित रूप से हुई होगी।

फिर भारत के बारे में बात करते हुए हमारा ध्यान इस ओर क्यों नहीं जाता?

यदि कुछ अच्छा नहीं है तो उस पर विचार करें, समाधान का प्रयास करें, अपना सहयोग दें और जो अच्छा है उसकी अधिक से अधिक चर्चा करें, सकारात्मक वातावरण बनायें।

  

सफ़लता के लिए संघर्ष क्यों ज़रूरी

सफ़लता के लिए प्रथम लक्ष्य का चयन चाहिए, उपरान्त मार्ग का नियमन, परिश्रम और  प्रयास की अनवरत सीढ़ी चाहिए। फिर यदि उपलब्धि न हो तो संघर्ष तो जीवन स्वयं देता है।

कुछ बातें हम कभी नहीं भूलते। जब हम बच्चे तब बड़े आत्मविश्वास से कहते थे कि परिश्रम से, संघर्ष से, प्रयास से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है तब मेरे पिता एवं एक अन्य घनिष्ठ सम्बन्धी मेरी बात पर हँसकर रह जाते थे, किन्तु हतोत्साहित नहीं करते थे। तो हम लोग समझ नहीं पाते थे कि वे हमारी बात का समर्थन कर रहे हैं अथवा हमें जीवन का सत्य समझाना चाहते हैं। उस समय मैं भाग्य को बिल्कुल नहीं मानती थी। मेरा कहना था कि यदि हमने ठान लिया है तो जो हम चाहते हैं मिलेगा ही।

किन्तु जीवन ने, काल ने परिश्रम, प्रयास एवं लक्ष्यों के संधान के उपरान्त भी गहन संघर्ष दिया और उपलब्धियों के रास्ते कंटक भरे रहे, और मैं पूर्णतया भाग्यवादी हो गई। संघर्ष कितना भी कर लें, प्रयास, परिश्रम कितना भी कर लें किन्तु मिलना वही है जो भाग्य का लेखा है, ऐसा मैं अपने जीवन के अनुभव से कह सकती हूँ।

एक बात जो मुझे कभी नहीं भूलती, वह यह कि मेरे पिता कहा करते थे कि यदि आपके भाग्य में भोजन लिखा है तो आपके पास कुछ नहीं है तो भी कोई आपको छत्तीस पकवान की थाली दे जायेगा।

और यदि आपके भाग्य में भोजन नहीं लिखा है तो आप दिल से अपने लिए छत्तीस पकवान बनाकर थाली सजाते हैं, गिर जायेगी, इसलिए बेटा मेहनत मत छोड़ना, जीवन में संघर्ष में लगे रहना किन्तु बहुत आस मत लगाकर रखना।

  

औरत की दुश्मन औरत
एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है कि औरत औरत की दुश्मन होती है। बड़ी सरलता से हमारे समाज में, व्यवहार में, परिवारों में, महिलाओं का उपहास करने के लिए इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है।

कारण प्रायः केवल सास-बहू के बनते-बिगड़ते सम्बन्धों के आधार पर सत्यापित किया जाता है। अथवा कभी-कभी ननद-भाभी की परस्पर अनबन को लेकर।

किन्तु जितनी कहानियाँ हमारे समाज में इस तरह की बुनी जाती रही हैं और महिलाओं को इन कहानियों द्वारा अपमानित किया जाता है वे सत्य में कितनी हैं? क्या हम ही अपने परिवारों में देखें तो कितनी महिलाएँ परिवारों में दुश्मनों की तरह रह रही हैं। और केवल परिवारों में ही नहीं, समाज में, कार्यस्थलों में, राहों में , कहीं भी इस वाक्य को सुनाकर महिलाओं का अपमान कर दिया जाता है।

अनबन पिता-पुत्र में भी होती है, भाईयों में भी होती है, विशेषकर कार्यस्थलों में तो बहुत ही गहन ईर्ष्या-द्वेष भाव होता है किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन है।

ऐसा क्यों ? क्यों महिलाओं के विरुद्ध इस तरह की कहावतें, मुहावरे बने हैं?

 कहने को कुछ भी कह लें कि समाज बदल गया है, परिवारों में अब लड़का-लड़की समान हैं किन्तु कहीं एक क्षीण रेखा है जो भेद-भाव बताती है।

एक युवती अपना वह घर छोड़कर जाती है जहां उसने परायों की तरह  बीस पच्चीस वर्ष बिताये हैं कि यह उसका घर नहीं है। और  जिस घर में प्रवेश करती है वहां उसके लिए नये नियम.कानून पहले ही निर्धारित होते हैं जिनको उसे तत्काल भाव से स्वीकार करना होता है, मानों बिजली का बटन है वह, कि इस कमरे की बत्ती बुझाई और  उस कमरे की जला दी। उसे अपने आपको नये वातावरण में स्थापित करने में जितना अधिक समय लगता है उतनी ही वह बुरी होती जाती है।

वास्तव में यदि सास-बहू अथवा ननद-भाभी की अनबन देखें तो वह वास्तव में अधिकार की लड़ाई है। एक युवती को मायके में अधिकार नहीं मिलते, वहाँ भाई और पिता ही सर्वोपरि होते हैं। ससुराल में वह इस आशा के साथ प्रवेश करती है कि यह उसका घर है और यहाँ उसके पास अधिकार होंगे। किन्तु उसके प्रवेश के साथ ही सास और ननद के मन में भय समा जाता है कि उनके अधिकार जाते रहेंगे। और उनकी इस मनोवैज्ञानिक समस्या में परिवार के पुरुषों का व्यवहार प्रायः आग में घी का काम करता है। वे न किसी का सहयोग देते हैं, न उचित पक्ष लेते हैं, न राह दिखाते हैं, बस औरतें तो होती ही ऐसी हैं कह कर पतली गली से निकल लेते हैं।

कभी आपने सुना कि माँ ने बेटी को घर से निकाल दिया अथवा इसके विपरीत। अथवा बेटी ने सम्पत्ति के लिए माँ के विरुद्ध कार्य किया। किन्तु पुरुषों में आप नित्य-प्रति कथाएँ सुनते हैं कि भाई भाई को मार डालता है, बेटा सम्पत्ति के लिए पिता की हत्या कर देता है। चाचे-भतीजे की लड़ाईयाँ। ज़रा-सा पढ़-लिख जाता है तो उसे अपने माता-पिता पिछड़े दिखाई देने लगते हैं ऐसी सत्य अनगिनत कथाएं हम जानते हैं, किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन होता है। आज भी नारी: पुरूष अथवा परिवार की पथगामिनी ही है, वह अपने चुने मार्ग पर कहां चल पाती है। हां, परिवार में कुछ भी गलत हो तो आरोपी वही होती है। मां-बेटे, पिता-पुत्र, अन्य सम्बन्धियों के साथ कुछ भी बिगड़े, दोषारोपण नारी पर ही आता है।

दुख इस बात का कि हम स्वयं ही अपने विरूद्ध सोचने लगे हैं क्योंकि हमारा समाज हमारे विरूद्ध सोचता है।

  

हमारा बायोडेटा

हम कविता लिखते हैं।
कविता को गज़ल, गज़ल को गीत, गीत को नवगीत, नवगीत को मुक्त छन्द, मुक्त छन्द को मुक्तक,

मुक्तक को चतुष्पदी बनाना जानते हैं और  ज़रूरत पड़े तो इन सब को गद्य की सभी विधाओं में भी

परिवर्तित करना जानते हैं। 
जैसे कृष्ण ने गीता में लिखा है कि वे ही सब कुछ हैं, वैसे ही मैं ही लेखक हूँ ,

मैं ही कवि, गीतकार, गज़लकार, साहित्यकार, गद्य पद्य की रचयिता,

कहानी लेखक, प्रकाशक , मुद्रक, विक्रेता, क्रेता, आलोचक,

समीक्षक भी मैं ही हूँ ,मैं ही संचालक हूँ , मैं ही प्रशासक हूँ ।
अहं सर्वत्र रचयिते

पश्चाताप
काश हमने भी कुछ वर्ष कष्ट उठाकर एक झोंपड़पट्टी बनाई होती, सरकारी ज़मीन कब्ज़ाई होती तो 6-8 हज़ार किराया देने की बजाय चंडीगढ़ जैसे शहर  में आज की तारीख में छोटे-से ही सही लेकिन एक फ्लैट के मालिक होते। 20 वर्ष में केवल 800 रूपये प्रतिमाह देकर कुल 182000 राशि चुकाकर फ्लैट के मालिक बन जाते। 

आज यदि चंडीगढ़ में ऐसे ही किसी क्षेत्र में ज़मीन-मकान बनाने की सोचें तो 50-60 लाख रूपये चाहिए। और यदि किसी बैंक से ऋण की बात करें तो भी 20-25 लाख तो हाथ में चाहिए ही ओैर बीस वर्ष तक ऋण चुकाते-चुकाते अगली-पिछली दो पीढ़ियां ऋणी हो जाती हैं क्योंकि बैंक का ऋण चुकाने में ब्याज सहित राशि लगभग दो-ढाई गुनी हो जाती है। 6-7 वर्ष तक तो केवल ब्याज ही अदा होता रहता है।

घोर पश्चाताप!!!!! 

  

समाचार पत्रों के समाचार पर विचार

14.3.2021

आज के एक समाचार पत्र के सम्पादकीय पृष्ठ पर एक आलेख बताता है कि देश में अधिकांश राज्यों में निर्धनों के लिए सस्ता भोजन उपलब्ध करवाया जा रहा है। उड़ीसा के 30 ज़िलों एवं मध्य प्रदेश, राजस्थान में 5  में भोजन, तमिलनाडु में अम्मा कैंटीन में दस रुपये में भोजन, आन्ध्र प्रदेश में एन टी आर अन्ना कैंटीन, एवं दिल्ली, बेंगलुरू आदि और भी शहरों में निर्धनों के लिए सस्ते भोजन की व्यवस्था की जा रही है। किन्तु वास्तव में देश की 25 प्रतिशत जनसंख्या आज भी भूखे पेट सोती है। भूखे देशों की श्रेणी में 118 देशों में भारत  97 स्थान पर है।

दूसरी ओर किसी उत्सव पर हज़ारों किलो का मोदक, केक, मिठाईयां बनती हैं। हमारे आराध्य करोड़ों के आभूषण पहनते हैं, उनका अरबों का बीमा होता है। यह धन कहां से आता है और इनके निवेश का क्या मार्ग है।

इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि सस्ते भोजन का लाभ उठाने वाली जनता एवं 25 प्रतिशत भूखे पेट सोने वाली जनता का भी इस अमीरी में योगदान होता है। आज सस्ता भोजन उपलब्ध करवाने के नाम पर एक नाकारा पीढ़ी तैयार की जा रही है, जिसे बिना काम किये भोजन मिल जाता है, फिर वह काम की खोज क्यों करे और काम ही क्यों करे। बेहतर है वह किसी के साथ जुड़ जाये, आराधना करे, वन्दना करे और मुफ़्त भोजन पाये। परिश्रम और  शिक्षा से ऐसा क्या मिलेगा जो यहां नहीं मिलता। और एक समय बाद यदि निःशुल्क सुविधाएँ जब बन्द हो जायेंगी तो आप समझ ही सकते हैं कि एक अपराधी पीढ़ी की भूमिका लिखी जा रही है, नींव डाली जा रही है।

  

 

संस्मरण /यात्रा संस्मरण

 

 

रविवार 3 जुलाई का दिन बहुत अच्छा बीता। एक नया अनुभव, फ़ेसबुक के वे मित्र जिनसे वर्षों से कविताओं एवं प्रतिक्रियाओं के माध्यम से मिलते थे, ऑनलाईन कवि सम्मेलन में मिलते थे एवं कभी फ़ोन पर भी बात होती थी, उनसे मिलना और एक सुन्दर, भव्य कवि सम्मेलन का हिस्सा बनना।

फ़ेसबुक का पर्पल पैन साहित्यिक मंच एवं मंच की संस्थापक/संचालक वसुधा कनुप्रिया जी का दूर से ही मिलने वाला नेह मुझे कल दिल्ली ले गया।

इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनने के लिए मैंने कल पंचकूला से दिल्ली तक की आने-जाने की टैक्सी की और लगभग दस घंटे की यात्रा की। प्रातः सात बजे जब घर से निकली तो मूसलाधार वर्षा, सड़कों पर बने तालाब, रुकता-चलता ट्रैफ़िक प्रतीक्षा कर रहा था। मेरी अधिक यात्रा तो सोते ही बीतती है। करनाल से पहले से मौसम ठीक होने लगा था। वसुधा जी से और घर में भी निरन्तर बात अथवा वाट्सएप संदेष चल रहे थे। उन्होंने मुझे लोकेशन, निकटवर्ती स्थल आदि की सूचना भी भेज दी। करनाल में अल्पाहार कर जब दिल्ली की सीमा के निकट पहुँचे तो मोबाईल ने कुछ पूछा, हाँ अथवा कैंसल। मैं ऐसे मामलों में अपना दिमाग़ कदापि नहीं लगाती, बेटे से पूछा, शायद मैं उसे कुछ ठीक बता नहीं पाई और रोमिंग बंद। वाट्सएप बन्द। मैं समझाने पर भी नहीं समझ पाई। इस बीच हम कार्यक्रम स्थल तक पहुँच चुके थे। फिर वसुधा जी का सहारा लिया। भाग्य रहा कि निकट ही एक छोटी सी दुकान मिल गई और उन्होंने रोमिंग चला दी। सांस में सांस आई।

वसुधा जी की चिन्ता मन को छू जाती है। उनका प्रातः भी फ़ोन आया कि मौसम देखकर निकलिएगा। वे इस बात की भी चिन्ता कर रही थीं कि मैं दोपहर में एक-दो बजे पहुँचूंगी तो भूख लगी होगी। वे मेरे लिए और मेरे टैक्सी चालक के लिए विशेष रूप ढोकला लेकर आईं। वसुधा जी एवं डॉण् इन्दिरा शर्माए मीनाक्षी भटनागर ए रजनी रामदेवए गीता भाटियाए वंदना मोदी गोयलए वीणा तँवरए शारदा मदराए रामकिशोर उपाध्यायए एवं एक-दो मित्र-परिचित और जिनके मैं नाम भूल रही हूँ, लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं। एक अपनत्व की धारा थी। अन्य कवि भी प्रथम परिचय में आत्मीय भाव से मिले। वसुधा जी की मम्मी से मिलना भी बहुत सुखद रहा।

मधुश्री जी की पुस्तक का विमोचन भी हुआ।

कवि सम्मेलन का अनुभव बहुत अच्छा रहा। एक नयापन, विविधात्मक रचनाएँ, एवं सहज वातावरण, सुव्यवस्थित कार्यक्रम एवं आयोजन मन आनन्दित कर गया।

आयोजन की अध्यक्षता मशहूर उस्ताद शायर श्री सीमाब सुल्तानपुरी ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में विधि भारती परिषद् की संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री संतोष खन्ना, विष्णु प्रभाकर संस्थान के संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार श्री अतुल प्रभाकर और विख्यात शायर श्री मलिकज़ादा जावेद की गरिमामयी उपस्थिति एवं उनका काव्य पाठ सुनना अत्यन्त सुखद अनुभव रहे।

दोपहर में दिल्ली में वर्षा के कारण कार्यक्रम कुछ विलम्ब से आरम्भ हो पाया और समाप्त होते-होते साढ़े सात बज गये। अब भूख तो लग ही रही थी। रात्रि किसी ढाबे में भोजन के लिए रुकना बनता ही नहीं था। इस कारण विलम्ब होते हुए भी मैं समोसे और चने खाने से अपने-आपको रोक नहीं पाई। रात्रि आठ बजकर दस मिनट में दिल्ली से निकले और रात्रि 12.15 पर पंचकूला पहुंची।

किन्तु इस बीच दो दुर्घटनाएँ देखीं। एक कार पीछे से तेज़ गति से आ रही थी, चालक ने देख लिया और उसे रास्ता देने का प्रयास किया । वह तेज़ी से निकली किन्तु अनियन्त्रित हो चुकी थी। हमारी टैक्सी से बाईं ओर चल रहे ट्रक के सामने घूम गई, ट्रक चालक ने भी गति धीमी कर उसे बचाने का प्रयास किया किन्तु कार तेज़ी से घूमती हुई बाईं ओर बैरीकेड मोड़ से टकराई और तीन-चार बार पलटकर बड़े धुएँ के   गुबार में खो गई। उसके बाद मेरी नींद उड़ गई। थोड़ी ही आगे जाने पर सड़क बीच में एक ट्रैक्टर ट्राली पलटी हुई थी। थकावट और टांगों में दर्द तो थी ही, मैंने जल्दी से पर्स से कांबीफ्लेम निकाली और खा ली, और फिर मैं सो गई।

इस बीच घर तो बात चल ही रही थी, वसुधा जी का भी दो बार कुशलता जानने के लिए फ़ोन आया। अपनी सारी व्यस्तताओं के बीच वे सबकी जानकारी ले रही थीं। ऐसे मित्र और ऐसा नेह कठिनाई से मिलता है, नेह बना रहे।

  

गुरु शिष्य परम्परा

 

समय के साथ गुरु और शिष्य दोनों की धारणा बदली है और हम इस बदली हुई धारणा एवं व्यवस्था में ही जी रहे हैं। परन्तु पता नहीं क्यों हमें पिष्ट-पेषण में आनन्द मिलता है। आज के गुरुओं की बुराई, शिष्यों के प्रति अनादर भाव हमारी प्रकृति बन गया है। प्राचीन गुरु शिष्य परम्परा निःसंदेह अति उत्तम थी किन्तु काल परिवर्तन के साथ वर्तमान में वह सम्भव ही नहीं है। जो आज है हम उस पर विचार नहीं करते कि उसे और अच्छा कैसे बनाया जा सकता है, प्राचीनता के निरर्थक मोह में वर्तमान को कोसना हमारी आदत बन चुका है। हमारे प्राचीन साहित्य से अच्छा कुछ नहीं, किन्तु वर्तमान में मिल रही शिक्षा का भी अपना महत्व है उसे हम नकार नहीं सकते। समयानुसार आज के गुरु भी समर्पित हैं और शिष्य भी, भेद तो प्राचीन काल में भी रहा है।

तो चलिए आज से वर्तमान में जीने का , उसे समझने का, उसे और बेहतर बनाने का प्रयास करें और पिछले को स्मरण अवश्य रखें, उसका पूरा सम्मान करें किन्तु वर्तमान के सम्मान के साथ।

  

वृक्ष संरक्षण

वृक्षों को अनावश्यक रूप से काटना अपराध है तो वृक्षों को केवल इस कारण न काटना कि वृक्ष काटना अपराध है, अपराध से भी आगे की सीढ़ी बन जाता है कभी-कभी।

अभी चण्डीगढ़ में एक विद्यालय में 250 वर्ष पुराना वृक्ष गिरा और एक बड़ा हादसा हुआ। पुराने वृक्षों को काटने के लिए अथवा छंटाई के लिए अनुमति प्राप्त करना एक कठिन एवं लम्बा कार्य है। कौन सा वृक्ष कहाँ लगा है, किसके अधीन आता है, किस विभाग की सीमा में है, पहले तो यही तय होने में समय लग जाता है। बरसात में ऐसे बहुत हादसे होते हैं जब पुराने पेड़ गाड़ियों पर गिर जाते हैं। यहाँ तक कि वृक्षों की कटाई-छंटाई के लिए भी अनुमति लेनी पड़ती है। और बहुत बार इस अनुमति में लगने वाला समय हादसों में परिवर्तित हो जाता है।  गम्भीर दुर्घटनाएँ हो जाती हैं, अतः जितना आवश्यक वृक्षारोपण है उतना ही आवश्यक पुराने वृक्षों पर दृष्टि रखना भी है।

  

बस ऐसे ही
पलक और विधान दोनों ही अपने माता-पिता से बहुत निराश थे। पलक ने  दसवीं उत्तीर्ण की थी और विधान ने बारहवीं। दोनों ही बहुत उदास थे। माता-पिता चिन्तित। इतने अच्छे अंक आये हैं फिर भी उदासी। कहीं कुछ कर न बैठें। 

बार-बार पूछने पर पहले पलक बोली, मां आप बैंक में क्यों नौकरी करती हो, इतनी बड़ी पोस्ट पर? क्या कोई छोटा काम नहीं कर सकती थीं? जैसे किसी के घर झाड़ू-पोचा या कोई बहुत छोटी नौकरी?

साथ ही विधान बोल बैठा, पापा आपको आई. ए. एस. होने की क्या ज़रूरत थी ? क्या आप रिक्शा नहीं चला सकते थे अथवा कोई रेढ़ी, सब्जी-भाजी की छोटी-मोटी दुकान?

जैसे आप हतप्रभ, वैसे ही मैं और वैसे ही पलक और विधान के माता-पिता!

माता-पिता और मैं भी चकित, अचम्भित!

यह है एक काल्पनिक कथा।

अब आते हैं वास्तविकता पर

दसवीं और बाहरवीं के परिणाम घोषित हुए। यदि किसी श्रमिक, दलित, पिछड़े वर्ग अथवा साधन हीन व्यक्ति का बच्चा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण होता है तो उसे मीडिया में बहुत उछाला जाता है। समाचार पत्रों में उनकी, उनके परिवार की खूब चर्चा होती है। नेता-वेत्ता उन्हें सम्मानित करते हैं। पता नहीं कितनी घोषणाएँ की जाती हैं। यह और बात है कि वे कितनी फलित होती हैं कौन देखने जाता है।

देखिए एक सब्जी बेचने वाले के बच्चे ने लिए 95 प्रतिशत अंक।

एक किसान का बेटा पहुंचा यू एस। करोड़ों का वेतन।

रिक्शा चलाने वाले का बेटा बना आई. ए. एस.।

फिर उनके जन्म से लेकर 95 प्रतिशत अंकों तक की पूरी कहानी। सब्जी वाले के बच्चे ने ढेले में बैठकर पढ़ाई की, किसान का बच्चा बैलों के साथ भी पुस्तक लेकर घूमता था और रिक्शा चालक के बेटा रिक्शा भी चलाता था। मोमबत्ती की रोशनी में पढ़ते थे और न जाने क्या-क्या। कई दिन तक उनकी फ़ोटो और साक्षात्कार मीडिया में , समाचार-पत्रों में छाये रहते हैं। फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर पर सब जगह छाये रहते हैं वे। और पलक और विधान को सब भूल जाते हैं।

हम यह बात समझ सकते हैं कि कम सुविधाओं में भी जो बच्चे गुणी, प्रतिभावान निकलते हैं वे निश्चित ही सम्मान-योग्य हैं किन्तु हमें यह समझना होगा कि मीडिया उन्हें उनकी योग्यता के लिए नहीं अपने प्रचार के लिए प्रयोग करता है, हल्की विज्ञापनबाजी के लिए और कभी-कभी अत्याधिक प्रचार-प्रसार ऐसे बच्चों का भविष्य बरबाद भी कर जाता है। वे एक ऐसे मोह से घिर जाते हैं जिसके बारे में वे जानते ही नहीं और अपना वास्तविक लक्ष्य भूल बैठते हैं और  जिन बच्चों के माता-पिता शिक्षित, सुविधा-सम्पन्न हैं उन बच्चों का  क्या दोष?

ऐसी स्थितियों में अनेक बार निर्धन परिवारों के बच्चे चकाचैंध में भटक जाते हैं और अच्छे परिवारों के बच्चे हीनभावना से ग्रस्त होने लगते हैं।

  


 

   

कोरोना काल:एक संस्मरण

जीवन और समय कब क्या रूप दिखा दे, पता नहीं होता। परिवार पर एक साथ कई समस्याएं आईं।

पिछले 15 दिन बहुत कठिन थे। मेरे पति को 16 तारीख को सांय अनायास छाती में और बाजू में दर्द हुआ। पहले तो उन्होंने बताया नहीं, जब कष्ट बढ़ा तो बताया और कहने लगे कि शायद कंधे की कोई नस खिंच गई है, जिसके कारण यह दर्द हो रहा है। हमने अपने स्थानीय चिकित्सक से सम्पर्क किया। उन्होंने तत्काल ई. सी. जी. करवाने के लिए कहा। पांच बजे के बाद सब सैंटर बन्द मिले। तो हम सीधे अस्पताल ही भागे। एलकैमिस्ट पंचकूला आपातकालीन में पहुंचे तो पता लगा दिल का दौरा पड़ा है, जिसका हमें एहसास हो चुका था। तीनों arteries में blockage थी, किन्तु जिसके कारण हृदयाघात हुआ था उसमें दो स्टंट डले। शेष चिकित्सा लगभग 6 माह बाद होगी। तीन दिन ICU में काटकर 19 को घर लौटे। स्वास्थ्य सुधर रहा है। इन शहरों का यही लाभ है कि तत्काल चिकित्सा उपलब्ध हो जाती है।

उधर कसौली में मेरे देवर का दिल का आपरेशन 2000 में हुआ था, तब से कोई दवाई नियमित चल रही थी। पिछले दिनों भूलवश उस दवाई का डबल डोज़ ले लिया, वह भी चार-पांच दिन। रक्त स्त्राव होने लगा, और शिमला ICU में भर्ती रहे दस दिन। अभी भी अस्पताल में ही हैं, गम्भीर अवस्था में।

पंचकूला में मेरी भतीजी का संयुक्त परिवार है, 11 सदस्यों में से 5 सदस्य कोरोना पाजिटिव हुए और उनके अतिरिक्त घर में रहने वाला नौकर भी। जो ठीक थे वे 5 बच्चे और एक महिला सदस्य। जबकि पाजिटिव होने वाले दो सदस्य वैक्सीनेशन की पहली डोज़ ले चुके  थे  । किसी का ब्लड प्रैशर लो तो किसी का आक्सीजन लैवल कम। अब सब ठीक हो रहे हैं, बस यही अच्छी बात है।

और मैं ! मेरे कंधे स्टिफ होने लगे हैं। बेटा कहता है गेम कम खेला करो, उसी का दुष्परिणाम है।

जीवन ऐसे ही चलता रहता है और चलता रहेगा।

   

एक संस्मरण  पर्पल पैन कवि सम्मेलन दिल्ली

कल का दिन बहुत अच्छा बीता। एक नया अनुभव, फ़ेसबुक के वे मित्र जिनसे वर्षों से कविताओं एवं प्रतिक्रियाओं के माध्यम से मिलते थे, ऑनलाईन कवि सम्मेलन में मिलते थे एवं कभी फ़ोन पर भी बात होती थी, उनसे मिलना और एक सुन्दर, भव्य कवि सम्मेलन का हिस्सा बनना।

फ़ेसबुक का पर्पल पैन साहित्यिक मंच एवं मंच की संस्थापक/संचालक वसुधा कनुप्रिया जी का दूर से ही मिलने वाला नेह मुझे कल दिल्ली ले गया।

इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनने के लिए मैंने कल पंचकूला से दिल्ली तक की आने-जाने की टैक्सी की और  लगभग दस घंटे की यात्रा की। प्रातः सात बजे जब घर से निकली तो मूसलाधार वर्षा, सड़कों पर बने तालाब, रुकता-चलता ट्रैफ़िक प्रतीक्षा कर रहा था। मेरी अधिक यात्रा तो सोते ही बीतती है। करनाल से पहले से मौसम ठीक होने लगा था। वसुधा जी से और घर में भी निरन्तर बात अथवा वाट्सएप संदेश चल रहे थे। उन्होंने मुझे लोकेशन, निकटवर्ती स्थल आदि की सूचना भी भेज दी। करनाल में अल्पाहार कर जब दिल्ली की सीमा के निकट पहुँचे तो मोबाईल ने कुछ पूछा, हाँ अथवा कैंसल। मैं ऐसे मामलों में अपना दिमाग़ कदापि नहीं लगाती, बेटे से पूछा, शायद मैं उसे कुछ ठीक बता नहीं पाई और रोमिंग बंद। वाट्सएप बन्द। मैं समझाने पर भी नहीं समझ पाई। इस बीच हम कार्यक्रम स्थल तक पहुँच चुके थे। फिर वसुधा जी का सहारा लिया। भाग्य रहा कि निकट ही एक छोटी सी दुकान मिल गई और उन्होंने रोमिंग चला दी। सांस में सांस आई।

वसुधा जी की चिन्ता मन को छू जाती है। उनका प्रातः भी फ़ोन आया कि मौसम देखकर निकलिएगा। वे इस बात की भी चिन्ता कर रही थीं कि मैं दोपहर में एक-दो बजे पहुँचूंगी तो भूख लगी होगी। वे मेरे लिए और मेरे टैक्सी चालक के लिए विशेष रूप ढोकला लेकर आईं। वसुधा जी एवं डॉ इन्दिरा शर्मा, मीनाक्षी भटनागर, रजनी रामदेव, गीता भाटिया, वंदना मोदी गोयल, वीणा तँवर, शारदा मदरा, रामकिशोर उपाध्याय, एवं एक-दो मित्र-परिचित और जिनके मैं नाम भूल रही हूँ, लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं। एक अपनत्व की धारा थी। अन्य कवि भी प्रथम परिचय में आत्मीय भाव से मिले। वसुधा जी की मम्मी से मिलना भी बहुत सुखद रहा।

मधुश्री जी की पुस्तक का विमोचन भी हुआ।

 कवि सम्मेलन का अनुभव बहुत अच्छा रहा। एक नयापन, विविधात्मक रचनाएँ, एवं सहज वातावरण, सुव्यवस्थित कार्यक्रम एवं आयोजन मन आनन्दित कर गया।

आयोजन की अध्यक्षता मशहूर उस्ताद शायर श्री सीमाब सुल्तानपुरी ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में विधि भारती परिषद् की संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री संतोष खन्ना, विष्णु प्रभाकर संस्थान के संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार श्री अतुल प्रभाकर और विख्यात शायर श्री मलिकज़ादा जावेद की गरिमामयी उपस्थिति एवं उनका काव्य पाठ सुनना अत्यन्त सुखद अनुभव रहे।

दोपहर में दिल्ली में वर्षा के कारण कार्यक्रम कुछ विलम्ब से आरम्भ हो पाया और समाप्त होते-होते साढ़े सात बज गये। अब भूख तो लग ही रही थी। रात्रि किसी ढाबे में भोजन के लिए रुकना बनता ही नहीं था। इस कारण विलम्ब होते हुए भी मैं समोसे और चने खाने से अपने-आपको रोक नहीं पाई।

रात्रि आठ बजकर दस मिनट में दिल्ली से निकले और रात्रि 12.15 पर पंचकूला पहुंची। इस बीच घर तो बात चल ही रही थी, वसुधा जी का भी दो बार कुशलता जानने के लिए फ़ोन आया। अपनी सारी व्यस्तताओं के बीच वे सबकी जानकारी ले रही थीं। ऐसे मित्र और ऐसा नेह कठिनाई से मिलता है, नेह बना रहे।

  

भ्रष्टाचार
जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और  दूसरे की ओर उंगली उठाते हैं तो चार उंगलियां स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।

वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रू. की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रू वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और  अपना आवश्यकता, विवशता।

यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार उंगलियों के प्रश्न और  उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:

पहली उंगली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकते हूं कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं।

दूसरी उंगली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूं ?

तीसरी उंगली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूं।

और  अंत में  चौथी उंगली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की उंगली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और  मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और   सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।

यदि प्रत्येक नागरिक आत्मनियन्त्रण करे तो भ्रष्टाचार अवश्य ही दूर होगा।

   

सचेत रहना या संदेह करना To
कुछ समय पूर्व मेरी अपनी महिला सहकर्मी से चर्चा हुई फेसबुक मित्रों पर, जो मेरी फेसबुक मित्र भी है। उसने बताया कि उसके फेसबुक मित्रों में केवल परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं, कोई भी अपरिचित नहीं है जिसे उसने फेसबुक पर ही मित्र बनाया हो । वाट्सएप, एवं अन्य प्रकार से भी वे उसी दायरे में हैं। मैंने सोचा तो नया क्‍या ।

मैंने बताया कि एक अपने पुत्र, उसके मित्र एवं कुछ महिला मित्रों के अतिरिक्त मेरी मित्र सूची में अधिकांश अपरिचित हैं जिन्हें मैंने फेसबुक पर ही मित्र बनाया है। अलग से उनसे न तो कोई पारिवारिक, मैत्री सम्बन्ध है, न कोई पूर्व परिचय। ऐसे ही कुछ समूहों की भी सदस्य हूं और  वहां भी कोई पूर्व परिचित नहीं है।
आज ज्ञानचक्षु खुले , बात एक ही है।
मेरे संदेश बाक्स में प्रतिदिन लगभग दस मित्रों के सुप्रभात से लेकर शुभरात्रि तक के संदेश प्राप्त् होते थे, जिनका मैं यथासमय उत्तर भी देती हूं। पिछले एक माह से संदेश निरन्तर आ रहे हैं मैं उत्तर नहीं दे पाई, किन्तु। एक भी प्रश्न नहीं हैं, ‘’कहां हैं आप’’।
शिकायत नहीं है किसी से, मैं भी कौन-सा किसी को पूछती हूं।

फिर मैंने और  जानने का प्रयास किया तो जाना कि अधिकांश महिलाओं की मित्र सूची में  परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं। अर्थात वे अपने सामाजिक, पारिवारिक जीवन में, मोबाईल, वाट्स एप पर भी उनसे निरन्तर सम्पर्क में हैं और  वे ही फेसबुक पर भी हैं।

फिर फेसबुक पर उनके लिए नया क्या ?

क्या हमें सत्य ही इतना डर कर रहना चाहिए जितना डराया जाता है।

क्यों हम सदैव ही किसी अपरिचित को अविश्वास की दृष्टि से ही देखे ?

जीवन में यदि हम अपरिचितों की उपेक्षा, संदेह, दूरियां ही बनाये रखेंगे तो समाज कैसे चलेगा।

सचेत रहना अलग बात है, अकारण संदेह में रहना अलग बात।

  

कोरोनामय वातावरण में मानसिकता

 

एक बात समझ नहीं पा रही हूं। जब से कोरोना या कोविड -19 आया है, पहले की तरह साधारण बुखार, वायरल, गला खराब, खांसी-जुकाम होना बन्द हो गया है क्या? मौसम बदलने पर, बारिश में भीगने पर, सर्दी लग जाने पर, ज़्यादा धूप में घूमने या लू लग जाने पर, ए सी या कूलर की सीधी हवा लग जाने  से उक्त समस्याएं हो जाती थीं। अब क्या ये सब बन्द हो गई हैं, सीधा कोरोना ही होता है क्या? आजकल  चिकित्सकों की बात से तो ऐसा ही लगता है। घर में किसी को इनमें से कोई समस्या होने पर किसी चिकित्सक को फोन कीजिए कि एक-दो दिन से बुखार है अथवा उक्त सारी समस्याओं में से कोई समस्या है। सीधा दो टूक उत्तर मिलता है कोरोना टैस्ट करवा लीजिए।

नहीं डाक्टर ऐसी बात नहीं है।

डाक्टर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं।

नहीं पहले आप कोरोना टैस्ट करवा लीजिए, फिर देखेंगे।

लेकिन डाक्टर, उसमें तो दो दिन लग जायेंगे, बुखार तो तेज़ है।

तो ठीक है ये दो गोली नोट कर लीजिए, 100 बुखार होने तक पहली गोली दे देना दिन में एक बार। 101 से ज़्यादा होने पर पी सी एम दे देना।

मिलते-जुलते उत्तर ही मिलते हैं।

अब मान लीजिए 1 तारीख को बुखार हुआ। हर कोई पहले तो घर में ही रखी पी सी एम या क्रोसीन ले लेता है। दूसरे दिन बुखार न उतरने पर डाक्टर को फोन किया। डाक्टर का उत्तर आपने पढ़ लिया। तीसरे दिन टैस्ट करवाया। पांचवें दिन रिपोर्ट मिली। नैगेटिव।

डाक्टर ने नैगेटिव रिपोर्ट की बात सुनकर कहा, चलो ठीक है, आप बुखार की ये दवाई ले लीजिए।

किन्तु वे पांच दिन कितने भारी थे, उन पांच दिन में बुखार बिगड़कर कोई भी रूप ले लेता है, कोरोना  का नहीं।  क्या उन पांच दिन के लिए साधारण बुखार की या वायरल की दवाई नहीं दी जा सकती थी, मैं तो डाक्टर नहीं हूं। कोई बतायेगा क्या?

जीवन की अनहोनी घटना
मेरे जीवन में ऐसी बहुत-सी घटनाएं घटी हैं जो अनहोनी हैं।

हमारे परिवार पर एक प्रकोप रहा है न जाने क्यों, कि कभी भी परिवार में एक मृत्यु नहीं होती थी, दो होती थीं। एक साथ नहीं किन्तु तेहरवीं से पहले। जैसे जब मेरे पिता का निधन हुआ तब मेरे चाचाजी के बेटे का चैथे दिन निधन हुआ। इसी प्रकार दूर-पार की रिश्तेदारी में किसी न किसी का निधन हो जाता था। वर्षों तक ये सब हमने देखा।

यह परम्परा है कि यदि क्रिया से पूर्व कोई पातक मृत्यु या सूतक जन्म हो जाये तो क्रिया उस दिन से 13 दिन आगे बढ़ जाती है।

अर्थात मेरे पिता की क्रिया और चाचाजी के बेटे की क्रिया जिसे तेरहवीं कहते हैं एक ही दिन पर हुई।

सबसे बड़ा हादसा हमारे परिवार में नर्वदा बहन के निधन के बाद हुआ।

नर्वदा का निधन 26 फ़रवरी को हुआ। उनकी क्रिया अर्थात तेरहवीं 10 मार्च को होनी थी। 9 मार्च को मेरी चाचाजी के घर पोते ने जन्म लिया। अर्थात सूतक हो गया। अब नर्वदा की क्रिया 13 दिन आगे बढ़ गई और शायद 22 मार्च निर्धारित हुई। किन्तु 20 मार्च को मेरी मां का निधन हो गया। अर्थात पातक। अब 3 अप्रैल को दोनों की एक साथ क्रिया सम्पन्न हुई, नर्वदा के निधन के लगभग सवा महीने बाद। वे अत्यन्त खौफ़नाक दिन थे हमारे लिए।

  

हमारा व्यवहार हमारी पहचान
हमारा व्यवहार हमारी पहचान Our Behavior Our Identity

निःसंदेह हमारा व्यवहार हमारी पहचान है।

किन्तु कभी आपने सोचा है कि हमारा व्यवहार कैसे बनता है? व्यवहार क्या है? हम किसी से कैसे बात करते हैं, कैसे प्रतिक्रिया करते हैं, अपने मनोभावों को कैसे प्रकट करते हैं, यही व्यवहार है। हँसना, बोलना, बात करना, प्रतिक्रिया देना, हाँ-ना, सहायता करना, न करना, प्रसन्नता, नाराज़गी, सम्मान-अपमानसभी व्यवहार ही तो हैं।

हर व्यक्ति का प्रयास रहता है कि वह सामने वाले से अच्छा व्यवहार करे कि उसकी छवि अच्छी बनी रहे। किन्तु क्या सदैव ऐसा हो पाता है? नहीं।

कारण, बहुत बार हमारा व्यवहार सामने वाले के व्यवहार की प्रतिच्छाया होता है। क्योंकि हम एक साधारण इंसान हैं, कोई पहुँचे हुए धर्मात्मा नहीं, इस कारण सामने वाले का व्यवहार हमारे व्यवहार को बदल सकता है।

जैसे मैं अपना ही उदाहरण देती हूँ। मैं नहीं कह सकती कि मेरा व्यवहार बहुत अच्छा है, ये तो मुझे जानने वाले ही बता सकते हैं। किन्तु मेरे व्यवहार में तात्कालिक प्रतिक्रिया है

मैं अपने साथ बात अथवा व्यवहार करने वाले के प्रति प्रतिक्रिया बहुत जल्दी देती हूँ। जैसा कि आप जानते हैं हमारे समाज में अपशब्दों का एवं और अनेक तरीकों से महिलाओं के साथ शाब्दिक, सांकेतिक दुव्र्यवहार होता है। ऐसे समय मेरा व्यवहार बदल जाता है। मैं अत्यधिक क्रोधित एवं आक्रामक हो जाती हूँ, मेरी सहनशक्ति मेरा साथ छोड़ देती है और मैं तत्काल प्रतिक्रिया करती हूँ। जो निश्चित रूप से क्रोध एवं प्रतिकार ही होती है।

ऐेसे समय में मेरा व्यवहार मेरा अपना नहीं होता , सामने वाले के व्यवहार की प्रतिच्छाया होता है। मेरा यह व्यवहार अथवा स्वभाव मेरा स्थायी व्यवहार नहीं है किन्तु मेरी पहचान अवश्य है कि मैं गलत का विरोध करने का साहस रखती हूँ।

अतः मेरी दृष्टि में हमारा व्यवहार परिस्थितियों, कार्य-क्षेत्र, हमारे आस-पास के वातावरण, लोगों पर बहुत निर्भर करता है और सम्भव है हमारा ऐसा व्यवहार स्थायी न हो और हमारी पहचान न हो।

अतः किसी के व्यवहार और उस व्यवहार से उसकी पहचान मानने के लिए किसी भी व्यक्ति की कोई एक बात से उसे समझा और जाना नहीं जा सकता, एक जीवन जीना पड़ता है किसी के व्यवहार को समझने के लिए और पहचान बनाने के लिए।

   

कोविड वातावरण के कारण अस्त-व्यस्त मन की बातें

आजकल कुछ लिखने के लिए मन करता है पर लिखना हो नहीं पाता। क्यों? पता नहीं। वैसे भी मैं जल्दी कुछ लिख नहीं पाती और लेखन में भटकाव आ जाता है। इस समय भी कुछ विचार एक साथ उलझे पड़े हैं जैसे कोरोना, विस्थापित होते मज़दूर, हमारी चिकित्सीय व्यवस्थाएं, वेतन एवं वसूली, धार्मिक स्थल, मदिरालय एवं हमारे समाचार वाहक।

इस कारण एक अटपटा, उलझा-सा आलेख।

एक ओर तो कोरोना से घर में बैठे हैं, टी. वी. पर चलने वाले समाचार, समाचार कम, एक तीसरी श्रेणी का धारावाहिक अधिक प्रतीत होते हैं। वास्तविकता से हम कोसों दूर हैं। अब  समाचार पत्र भी मिलने लगे हैं क्योंकि हम रैड ज़ोन से औरेंज ज़ोन में प्रवेश कर गये हैं।

विस्थापित मज़दूरों को पैदल चलते, जिनमें बच्चे, वृद्ध, रोगी सब हैं, सिर पर सामान उठाये, देखकर ही मन भयाक्रातं है। एक सरकार कहती है हम भेज रहे हैं, दूसरी कहती है हमारे पास इनको रखने के लिए जगह नहीं है। किसकी गलती है, कौन क्या कर रहा है, सब उलझा पड़़ा है। कल किसके साथ क्या होगा, पता नहीं। जो कल तक दैनिक मजदूर थे, परिश्रमी थे, आज भिक्षुक बनकर रह गये।

क्या करते थे ये सब। कहां रहते थे, अचानक सड़क पर आ गये, छतविहीन, भोजन रहित। दो-चार नहीं , लाखों की संख्या में। अनेक शहरों में , अनेक राज्यों में। कोई इनकी यूनियन तो थी नहीं कि पूरे देश में वाट्सएप किया और निकल लिए। जिस राज्य में रह रहे थे वहां न छत मिल रही थी न भोजन। जहां भी कार्य कर रहे थे, सब बन्द हो गये। रोज़गार जाने के साथ ही निवास भी चले गये और भोजन की व्यवस्था भी। अब क्या करें? जहां जाना चाहते थे, मार्ग नहीं था, सुविधा नहीं थी, धन नहीं था, व्यवस्था नहीं थी। किन्तु रहें कहां। जब कुछ नहीं मिला तो पैदल ही चल दिये, किसी ने राह में भोजन दे दिया तो ठीक, नहीं तो चले जा रहे हैं मुंह पर कपड़ा लपेटे। सड़कों पर भटक रहे हैं, पुलिस रोक रही है, मत जाओ, लेकिन कहां रहें ये तो वह भी नहीं बता सकती। केवल रास्ते खाली करवा सकती है। किसी की समझ ने यह काम किया कि गाड़ी जिस राह जाती है वही राह वे पैदल चलेंगें तो अपने घर पहुंच जायेंगे, चल दिये रेल लाईन पर पैदल। ज़िन्दगी और मौत के बीच एक रेल लाईन भी होती है, किसे पता था।

ये वे श्रमिक हैं जो वर्षों से अथवा जन्म से ही इस देश के लिए काम कर रहे हैं, छोटे-छोटे कार्यों से लेकर बड़े कामों तक। इनके काम का कोई नाम नहीं है, श्रम का कोई मूल्य नहीं है, कोई महत्व नहीं है, किन्तु इनके श्रम के बिना देश की अर्थव्यवस्था भी नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था में इनका कितना प्रतिशत योगदान है कभी किसी अर्थशास्त्री ने गणना की, मुझे नहीं पता।

वे छात्र किस श्रेणी के थे जिन्हें ए सी बसों में भेजा गया, निश्चित रूप से किसी श्रमिक के बच्चे तो रहे नहीं होंगे, नहीं तो वे भी पैदल ही जाते रेल-लाईन पर।

हां, अब मुझे यह पता लगा कि हमारे देश में जन्म लेकर यहां से पढ़लिखकर लोग विदेश जा बसे, वहां अपने श्रम का योगदान देने लगे, उनकी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने लगे। अपने देश का अमूल्य धन विदेशों में लगाने लगे। पता नहीं कितने वर्षोे से। किन्तु इस समय उन्हें अपने देश की याद आई और वे लौटना चाहते हैं।

उनके लिए विमान सजे, तीन-तारा और पंचतारा होटलों में उनके एकान्तवास की व्यवस्था हो रही है। सरकारी ए सी बसों से उन्हें पहुंचाया जा रहा है।

और देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रेलवे लाईन पर सो रही है, पैदल चल रही है, एक सरकार कहती है जाना है तो जाओ, दूसरी कहती है मत आओ, तुम्हारे लिए हमारे पास जगह नहीं है।

आज हम अपने-आपको घर के भीतर राशन जमाकर सुरक्षित अनुभव कर रहे हैं। किन्तु कल क्या होगा, पता नहीं।

बात तो पुरानी हो गई किन्तु लिखने का मन आज बना तो क्या करेे, अब बासी रोटी ही सही, कुछ न कुछ पेट तो भरेगा ही।

कुछ चैनल चार-पांच लोगों  को, जिन्हें वे बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक, राजनीतिज्ञ, समाजसेवी , धार्मिक नेता आदि-आदि कहते हैं, उनके बीच शब्द-युद्ध में मग्न समय काट रहे हैं। इस धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म की कितनी महत्ता है, यह टीवी पर प्रसारित होने वाले वाक्-युद्ध से हम समझ सकते हैं।

कहीं भी समाचारों से ज्ञात नहीं हो पा रहा कि लाखों की फ़ीस लेने वाले निजी अस्पताल इस विकराल समस्या में अपना क्या योगदान दे रहे हैं। ज़रूर दे रहे होंगे, किन्तु जानकारी नहीं मिली। समाचारों में एक भी बार नहीं सुना कि फौर्टीज़, मैक्स, एल-कैमिस्ट जैसे बड़े-बड़े निजी अस्पताल इस समय क्या कर रहे हैं। गली-गली में बैठे निजी चिकित्सालय खोले एक विज़िट के 500 से 1000 तक की फ़ीस लेने वाले चिकित्सक इस समय कहां हैं? उलझी पड़ी हूं मैं।

उधर सुनने में आया है कि पड़ोसी देश सीमा पर गोलीबारी कर रहा है और हमारे पांच सैनिक शहीद हुए हैं। उनकी शहादत की कथा हम पिछले कई दिन से टी. वी. पर देख रहे हैं। समाचार पत्रों में भी कई पृष्ठ उन्हें ही समर्पित हैं।  किन्तु उससे ही अगले दिन बार्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स के तीन जवान शहीद हुए उनके बारे में बस इतना ही समाचार मिला। समाचार पत्र में भी एक ही पंक्ति। क्या कैटेगरी अलग होने से शहादत का भाव भी बदल जाता है?

आजकल हम बहुत धार्मिक हो रहे हैं। वैसे तो सदा  से ही हैं किन्तु इधर परेशानी बढ़ गई है।

धार्मिक स्थल, मन्दिर तो नहीं खुले, मदिरालय खोल दिये गये।

कपाट खोलने ज़रूरी हो गये हैं। अब यह सरकार की मर्ज़ी कि कौन  से  कपाट खोले। कौन  से  कपाट खोलने पर सरकार की तिज़ोरी सीधे-सीधे भरेगी, यह सरकार ही समझती है, मेरी आपकी समझ ऐसी कहां।मदिरालय खोलने का निर्णय सरकार का गलत हो सकता है किन्तु मन्दिर खोलने से क्या हो जायेगा मैं यह नहीं समझ पा रही हूं, ऐसे विषयों पर मंद बुद्धि हूं।

क्या किसी ने मांग की थी कि मदिरालय खोले जायें? शायद नहीं ! सरकार की राजस्व की आवश्यकता थी। कोरोना के नाम पर अरबों-खरबों से सरकार की तिजोरी भरी, कितनी, नहीं पता।

किन्तु मदिरा आम आदमी की कितनी आवश्यकता है यह ठेकों के सामने लगी दो-दो किलोमीटर लम्बी लाईन से पता लगा। ओले-बारिश में भी लोग जमे रहे।

मदिरा ठेकों पर बोतलों में मिलती है, हर प्रकार की, जहां से खरीद कर आप उसे घर ले जा सकते हैं। ठेके रात 12 और 2 बजे तक खुले रहते हैं। साथ आहाते होते हैं जहां आप बैठकर पी भी सकते हैं और खा भी सकते हैं। इसके बाद अनेक होटल, रैस्टोरैंट, पब में भी मिलती है, जिसे आपको वहीं खरीद कर, वहीं बैठकर पीना होता है, आप घर नहीं ला सकते, जहां उसका मूल्य कई गुणा बढ़़ जाता है। इसकी होम डिलीवरी भी नहीं है। किसी माॅल में, बिग बाज़ार में अथवा जनरल आपूर्ति की दुकानों पर भी नहीं मिलेगी। लेकिन क्यों, इसी बात को समझने का प्रयास कर रही थी।

मदिरालय के ठेके करोड़ों-करोड़ों में बिकते हैं, बोली लगती है।

यदि मदिरा एवं धूम्रपान सरकार की एवं आम आदमी की इतनी बड़ी आवश्यकता है तो खुले आम क्यों नहीं।

हमारे देश में मदिरा एवं धूम्रपान को लेकर एक अलग-सा दृष्टिकोण है। पीने वालों को बुरा समझा जाता है। मान लिया जाता है कि इनका चरित्र 50 प्रतिशत तो गिरा हुआ ही होगा, परिवार के प्रति आर्थिक अपराधी हैं, अथवा ये बहुत बड़े आदमी हैं। महिलाओं के लिए तो बात करना भी अपराध है। सरकार का कौन सा दृष्टिकोण है समझ से बाहर है। मतलब यह कि जिसने पीनी है, उसके लिए सरकार प्रबन्ध करके ही रहेगी, तो छिपना-छिपाना क्यों, खुलकर पिलाईये, बेचिए, बांटिए।

बस इतना है कि हमारे फ़ेसबुकीय कवियों को एक और  नया विषय मिल चुका है]  मन्दिर या मदिरालय]  वाह ! बढ़िया तुकबन्दी बन गई।।

मैं भी प्रयासरत हूं इस विषय पर एक  अच्‍छी  कविता के   लिए 

  

निकम्मे कर्मचारी

एक छोटा-सी हास्य रचना

एक पुरानी और बड़ी आई. टी. कम्पनी। वे दोनों मित्र घर से दूर, एक इस एक अच्छी आई. टी. कम्पनी में कार्यरत । वैसे तो शनिवार और रविवार को छुट्टी रहती थी, किन्तु नया-नया शौक, पैसे कमाने की ललक, और सोचते घर रहकर भी क्या करेंगे, चलो आफ़िस चलते हैं। पहली नौकरी थी । शौक भी था कि काम ज्यादा करेंगे तो आगे बढ़ेंगें।  और यदि कोई कर्मचारी ज्.यादा काम करना चाहता है तो प्रबन्धक क्यों मना करेंगे। आईये, आपको कोई अतिरिक्त भत्ता तो देना नहीं था।

सो अब शनिवार और रविवार को प्रायः आफ़िस खुलता। पहले ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि  कि छुट्टी के दिन कभी आफिस खुलता हो। फिर जब कर्मचारी आयेंगे, तो सहायक कर्मचारियों को भी आना पड़ता है, उन्हें चाहे ओवर-टाईम मिलता हो, किन्तु छुट्टी तो खराब हो जाती है।

नई भर्तियों के बाद अब कुछ ज्यादा ही होने लगा था।

एक दिन उनके बॉस ने उन दोनों नये कर्मचारियों को बुलाया और कहा कि तुम्हारे विरूद्ध शिकायत आई है कि तुम दोनों बहुत निकम्मे हो।

दोनों घबरा गये कि क्या हुआ।

बॉस ने कहा कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों ने शिकायत की है कि कैसे निकम्मे नये कर्मचारी भर्ती किये हैं, कि छुट्टी के दिन भी काम करने आना पड़ता है।

  

बैठे ठाले
चित्राधारित रचना हास्य

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मैं जिस डाल पर बैठा हूं, उसे ही काट रहा हूं, आपको कोई आपत्ति, कोई कष्ट आपको? नहीं न, तो काटने दीजिए, गिरूंगा तो मैं गिरूंगा, हड्डियां टूटेंगी तो मेरी टूटेंगी, आपको क्या? क्यों अपनी टांग अड़ाते हैं आप किसी और के मामले में। बता दूं कि दूसरों के मामलों में टांग अड़ाने पर भी टांग टूट जाती है।

हा हा! आजकल आरी से पेड़ कौन काटता है भला। आजकल तो मशीने हैं, पलभर में पूरा वृक्ष धराशायी। मैं जानता हूं कि आप क्या कहेंगे। आप कहेंगे कि यह तो मूर्खता प्रदर्शित करने का प्रतीक है कि जिस डाली पर बैठे उसी को काटना। मुहावरा है।  किन्तु मूर्खता प्रदर्शित करने की आवश्यकता ही क्या ? प्रदर्शित करना है तो बुद्धिमानी कीजिए, चतुराई कीजिए, दक्षता कीजिए। किसी की भी मूर्खता तो उसके मुंह खोलते ही पता लग जाती है।

 और हर समय गम्भीर बात करना ज़रूरी होता है क्या? जानता हूं मैं कि वृक्ष पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ज़रूरी हैं। हमने विकास की आंधी में बहुत कुछ खो दिया है।  आधुनिकता के पीछे भाग कर हम अपनी बहुत हानि कर रहे हैं। पर सूखा वृक्ष है तो काटेंगे ही, लकड़ी काम आयेगी और नये वृक्ष लगायेंगे किन्तु  आपने तो पता नहीं कितनी कहानियां बना डालीं कि जिस डाल पर बैठा है, उसे ही काट रहा है।

मैं तो आप सबकी कल्पनाशक्ति देख रहा था कि मेरे इस चित्र को देखकर आप क्या सोचते हैं। आप ही इस चित्र को ध्यान से देखकर बताईये ज़रा, मैं इस वृक्ष पर चढ़ा कैसे? न डाली, न सहारा, न सीढ़ी। और लक्कड़हारे की तो मेरी यूनिफ़ार्म भी नहीं है।  तो फिर ! प्रतीकात्मक है, मूर्खता प्रदर्शित करने का।

  

करिये योग भगाये रोग

कैसी विडम्बना एवं आश्चर्य की बात है कि जिस  योग पद्धति का उल्लेख हमारे प्राचीनतम ग्रंथों ऋग्वेद एवं कठोपनिषद ग्रंथों में मिलता है, जो ईसा पूर्व के ग्रंथ हैं, उस प्राचीनतम योग पद्धति को  हम आज प्रदर्शन के रूप में योगा डे के रूप में मना रहे हैं। पतंजलि का योगसूत्र योग का सबसे महत्वपूर्ण गं्रथ है। अन्य अनेक ग्रंथों में भी योग की परिभाषाएँ महत्व एवं क्रियाएँ उल्लिखित हैं। योग केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं है, अपितु एक मानसिक, चिकित्सीय पद्धति भी है।

वर्तमान में हम इस बात से ज़्यादा प्रसन्न नहीं हैं कि एक हमारी प्राचीनतम योग पद्धति जो लुप्त हो रही थी, पुनः प्रकाश में आई है, हमारे जीवन का हिस्सा बनने लगी है, उसके गुणों को हम अपने जीवन में उतारने में लगे हैं बल्कि हम इस बात की ज़्यादा खुशियाँ मनाने में लगे हैं कि देखिए हमारा योगा अब विश्व में मनाया जाने लगा है। हमारे योगा का अब अन्तर्राष्ट्रीय दिवस है।

यदि सत्य को समझने का साहस रखते हों तो आज भी योग हमारे दैनिक जीवन का, नित्यप्रति का हिस्सा नहीं बन सका है। चाहे विद्यालयों में यह एक विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा है किन्तु बच्चे भी इसे एक विषय के रूप में ही लेते हैं न कि दैनिक जीवन की एक अपरिहार्य क्रिया के रूप में, जीवन-शैली के रूप में अथवा चिकित्सा-पद्धति के रूप में। बड़े-बुजुर्ग पार्क में एकत्र होकर अनुलोम-विलोम आदि करते दिखाई दे जायेंगे अथवा एक-दो और क्रियाएँ , और हमारा योगा डे सम्पन्न हो जाता है।

21 जून को सड़कों पर छपी टी-शर्ट पहने, बढ़िया-सी चटाई बिछाये और बाद में कुछ खान-पानी ही योगा-डे की उपलब्धि बनकर रह जाते हैं।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में योग का जो महत्व दर्शाया गया है एवं क्रियाएँ बताईं गईं हैं हम उनसे अभी भी बहुत-बहुत दूर हैं। आवश्यकता है प्रत्येक स्तर पर प्रयास की, अभ्यास की, सम्मान की और इसे अपने दैनिन्दन जीवन का हिस्सा बनाने की। योग को उचित रूप में जीवन का हिस्सा बनाने से निश्चित रूप से आधुनिक जीवन शैली से उत्पन्न मानसिक, शारीरिक एवं अने मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समाधान हो पायेगा।

शिक्षक दिवस : एक संस्मरण

वर्ष 1959 से लेकर 1983 तक मैं किसी न किसी रूप में विद्यार्थी रही। विविध अनुभव रहे। किन्तु पता नहीं क्यों सुनहरी स्मृतियाँ नहीं हैं मेरे पास।

मुझे बचपन से ही मंच पर चढ़कर बोलना, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना बहुत अच्छा लगता था। मेरा उच्चारण एवं स्मरण-शक्ति भी अच्छी थी। सब पसन्द भी करते थे किन्तु सदैव किसी न किसी कारण से मेरा नाम प्रतियोगिताओं से कट जाता था और मैं रोकर रह जाती थी। अध्यापक कहते सबसे अच्छा इसने ही बोला किन्तु बाहर भेजते समय किसी और का नाम चला जाता और मैं मायूस होकर रह जाती।

जब कालेज पहुंची तो मैंने सोचा अब तो भेद-भाव नहीं होगा और यहां मेरी योग्यता को वास्तव में ही देखा जायेगा। किन्तु वहां तो पहले से ही एक टीम चली आ रही थी और हर जगह उसका ही चयन होता था । यहां भी वही हाल।

तभी कालेज में हिन्दी साहित्य परिषद का गठन हुआ और मैं उसकी सदस्य बन गई। कहा गया कि आप यहां कविता-कहानी आदि कुछ भी सुना सकते हैं। मेरे घर में तो पुस्तकों का भण्डार था। एक पुस्तक से मैंने निम्न पंक्तियाँ सुनाईं 1972 की बात कर रही हूं

हर आंख यहां तो बहुत रोती है

हर बूंद मगर अश्क नहीं होती है

देख के रो दे जो ज़माने का गम

उस आंख से जो आंसू झरे मोती है

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सबने समझा यह मेरी अपनी लिखी है और मुझे बहुत सराहना मिली। तब मुझे लगा कि मैं अपनी पहचान कविताएं लिख कर ही क्यों न बनाउं। किन्तु समझ नहीं थी।

फिर उसके कुछ ही दिन बाद कालेज में ही वाद-विवाद प्रतियोगिता थी, संचालक ने मेरा नाम ही नहीं पुकारा। बाद में मैंने पूछा कि सूची में मेरा भी नाम था तो बोले कि मेरा ध्यान नहीं गया।

 मैं आहत हुई और मैंने सोचा अब मैं कविताएं लिखूंगी जो यहां कोई नहीं लिखता और अपनी अलग पहचान बनाउंगी। उस दिन मैंने इसी भूलने  के विषय पर अपनी पहली  मुक्त-छन्द कविता लिखी 

चाहे इसे शिक्षकों द्वारा किये जाने वाला भेद-भाव कहें अथवा उनकी भूल, किन्तु मेरे लिए लेखन का नवीन संसार उन्मुक्त हुआ जहां मैं आज तक हूं।

  

बड़ी याद आती है शिमला तुम्हांरी
एक संस्मरण

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आज जाने कौन-सी स्मृतियों में खींच कर ले गया मुझे मेरा मन। । शिमला का माल-रोड, वहां खड़ी फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ी, बर्फ से ढके दूर-दूर तक फैले चीड़-देवदार के वृक्ष। अनायास बिछी एक सफ़ेद चादर। कभी रूईं के फ़ाहों सी, कभी श्वेत रजत-सी, जैसे कहीं दूर से दौड़ती आती और सब कुछ ढककर चली जाती। धरा से आकाश तक। एक स्वर्गिक अनुभव जिसकी अभिव्यक्ति के लिए शब्द नहीं होते।

 शिमला में बर्फ़ क्या पड़ी] न जाने कौन-सी स्मृतियों में खींच कर ले गई मुझे। हरीतिमा को अद्भुत सौन्दर्य प्रदान करती एक श्वेत आभा।

शीत ऋतु से लड़ाई के लिए सब तैय्यार रहते थे।नवम्बर आरम्भ होते ही सर्दी की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। चार-पांच महीने का राशन, कोयला-लकड़ी भरवानी है, अंगीठियां तैयार रहें, रजाईयां और रजाईयां ही रजाईयां। परिवार में जितने सदस्‍य उतनी गर्म पानी की बोतलें, वह भी गिलाफ़ चढ़ाकर, कोट, मोटे स्वेटर, छाते, बरसाती यानी रेनकोट, टोपी, मफलर, स्कार्फ, दस्ताने, गर्म जुराबें, गमबूट और न जाने क्या क्या।

प्रायः दिसम्बर में बर्फ पड़ जाती थी किन्तु कभी किसी ने छुट्टी लेने का सोचा ही नहीं। तीन-तीन चार-चार फुट बर्फ में भी सभी प्रायः चार-पांच किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल, कालेज, कार्यालयों में पहुंचा करते थे। हर दफ्तर में स्टीम कोयले की अंगीठियां जला करती थीं जिन्हे महाम कहा जाता था। बाद में हीटर भी मिलने लगे। घरों में भी ऐसी ही अंगीठियां जलाते थे जिन पर साथ ही पानी भी गर्म हो सके। और पानी ! न जी न! पानी कहां। शून्य से नीचे के तापमान में पानी नलों में जम जाता था।  पानी की पाईप फ़ट जाती थीं। पानी भरकर रखना पड़ता था और  बर्तनों में भरकर रखे पानी में भी स्लेट जम जाती थी। सबसे आनन्द की बात तो यह होती थी कि न पानी आयेगा, न गर्म होगा न नहाना पड़ेगा।

 25  दिसम्बर से 28 फरवरी तक सर्दी की छुट्टियां। दिन-रात अंगीठियां जली रहतीं। सारा दिन या तो अंगीठियों को घेरकर कम्बल-रजाईयां लपेटे बैठे रहते, खूब खाते। दिन भर में 12-15 चाय तो आम बात होती और वह भी आज के शब्दों में लार्ज। और बस मूंगफली।  अथवा बिस्तरों में ही दुबके बैठे । आज सोचती हूं तो देखती हूं 8 सदस्यों के परिवार में 12-15 चाय अर्थात दिन-भर में 100 से अधिक चाय। काश! तब ठीक से सोचा होता तो परिवार से कोई तो प्रधानमंत्री बन सकता था। तभी तो दादी मां से कहती थी ‘’लाड़ी, पाणिये दी टांकिया बिच ही चीनी-पत्ती पाई देया कर, सारा दिन चाई दा  डबरू इ चढ़ी रहंदा।‘’ (बहू, पानी की टांकी में ही चीनी-पत्ती डाल दिया कर, सारा दिन चाय का पतीला चढ़ा रहता है।) और बस मूंगफली और गुड़-शक्कर। 

बर्फ को गिरते देखना, महसूस करना, हर बार एक  नया आनन्द और अनुभव होता। बर्फ को हाथों से छूते, गोले बनाते, बर्फ के बुत बनाते, खाते और घर के अन्दर लाकर बर्तनों में भी रख देते। आश्चर्य होता था कि कैसे एक-एक पत्ती, कण-कण ढक जाता, एक कोमल श्वेत आभा से। टेढ़ी टीन की छतों पर से बर्फ धीरे-धीरे फ़िसलती, मानों कोई शरारत कर रहा हो। और हम नीचे खड़े प्रतीक्षा करते कि अब गिरी और तब गिरी।  कभी धीरे-धीरे तो कभी धड़ाम से धमाका करती गिरती। ऐसे पलों की मानों हम प्रतीक्षा करते थे। जब बर्फ पिघलती, तो छत से टपकती बूंदों का स्वर आनन्दिन करता। तापमान शून्य से नीचे रहने पर छतों से टपकती बूंदे हवा में ही जमने लगतीं, और छतों से लटकती, लम्बी-लम्बी, मोटी पारदर्शी नलियाँ सुन्दर आकार ले लेंतीं, जिन्हें  हम  नलपियां कहते थे। उनका सौन्दर्य अद्भुत होता था। जब सूरज चमकता तो उनके भीतर से रंग-बिरंगी धाराएं दिखतीं। उन्हें तोड़-तोड़कर खाने का आनन्द लेते। वे इतनी सख्त और नुकीलीं होती थीं कि किसी को चुभ जाये अथवा मारी जाये तो गहरी चोट लग सकती थी।

और बर्फ में बनी कुल्फी ! जब रात को मौसम साफ होता था तो लोटे में चीनी मिश्रित गर्म दूध ढककर बर्फ में दबा देते थे और उसके चारों ओर नमक डाला जाता था। वाह ! क्या आनन्द था उस स्वाद का।

जब बर्फ गिरने लगती तो बाहर बरामदे में आकर बैठ जाते। मां चिल्लाती रह जाती, पर कौन सुनता। हाथों से छूते, गोले बनाते, बर्फ के बुत बनाते, खाते और घर के अन्दर लाकर बर्तनों में भी रख देते।

आज जब सब याद करती हूं तो देखती हूं कि कितनी भी समस्याएं होती थीं कभी समस्या लगी ही नहीं। बिजली नहीं, पानी नहीं, आवागमन का कोई साधन  नहीं, किन्तु कभी इस बारे में सोचते ही नहीं थे, बस आनन्द ही लेते थे। कैसा भी मौसम हो शाम को माल-रोड के तीन चक्कर तो लगाने ही हैं स्कैंडल-प्वाईंट से लेडीज़ पार्क तक। और हाथ में बालज़ीस की आईसक्रीम-कोण।

बड़ी याद आती है शिमला तुम्‍हारी ।।।

इस ऋतु के लिए तैय्यारियां तो पूरा वर्ष ही चली रहती थीं। स्वेटर, गर्म जुराबें ,दस्ताने , मफ़लर तो घर पर ही बुने जाते थे।  शिमला की महिलाएं इस बात के लिए बहुत प्रसिद्ध रही हैं कि उनके हाथ में सदैव उन-सिलाईयां रहती थीं। 

प्रायः दिसम्बर में बर्फ पड़ जाती थी किन्तु कभी किसी ने छुट्टी लेने का सोचा ही नहीं। और वैसे कभी छुट्टी लें भी लें, किन्‍तु बर्फ में तो जाना ही है। और यदि छुट्टी है तो पहली बर्फ़ का आनन्द लेने तो माल-रोड जाना ही होगा।  तीन-तीन चार-चार फुट बर्फ में भी सभी प्रायः चार-पांच यहां तक कि आठ-दस  किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल, कालेज, कार्यालयों में पहुंचा करते थे और वह भी समय से। उस समय वाहन की सुविधाएं न के बराबर थीं। हम शिमला में लोअर कैथू रहते थे, स्कूल था छोटा-शिमला में ,लगभग पांच किलोमीटर। पांच वर्ष से 17 वर्ष तक हज़ारों किलोमीटर सफ़र तो इसी रूट पर तय कर लिया होगा  आज सोचती हूं। बाद में कालेज, विश्‍वविद्यालय, बैंक। चढ़ाई-उतराई कुछ न महसूस होती। प्रतिदिन इतनी लम्बी यात्रा का भरपूर आनन्द उठाते थे। बर्फ गिरने के बाद जब दिन भर धूप रहती अथवा बादल, तो बर्फ़ पिघलने लगती। और यदि रात को मौसम साफ़ हो तो सड़कों पर पानी की अदृश्य स्लेटें जम जातीं। खूब फ़िसलन होती,  लोगों को गिरते देखने में बड़ा आनन्द आता था।

 

आज जब सब याद करती हूं तो देखती हूं कि कितनी भी समस्याएं होती थीं कभी समस्या लगी ही नहीं। बिजली नहीं, पानी नहीं, आवागमन का कोई साधन  नहीं,  किन्तु कभी इस बारे में सोचते ही नहीं थे, बस आनन्द ही लेते थे। कैसा भी मौसम हो शाम को माल-रोड के तीन चक्कर तो लगाने ही हैं स्कैंडल-प्वाईंट से लेडीज पार्क तक। और आकाश से गिरती बर्फ़ और  हाथ में बालजीस की आईसक्रीम-कोण।

बड़ी याद आती है शिमला तुम्हांरी ।।।

  

चेतना का जागरण
जब मैं अपना शोध कार्य कर रही थी तब मैंने पढ़ा था कि एक सामाजिक चेतना हुआ करती है जो कालिक होती है। जैसे हिन्दी साहित्य के मध्यकाल में भक्ति भाव की चेतना थी। कवि, चित्रकार, गायक, संगीतकार, शिल्पी सब भक्ति-भाव में डूबे थे। उसके बाद चेतना में परिवर्तन आया और रीति काल का आगमन हुआ। इस काल में सब श्रृंगारिक भाव में डूब गये, यह एक कालिक चेतना हुआ करती थी, जिस कारण सबके मन में एक से ही भाव उमड़ते थे, और समान भाव पर सृजन होता था। यही छायावादी काल, प्रगतिवाद और कुछ और वादों के काल में भी हुआ। यह मैं नहीं कह रही, मैंने कहीं पढ़ा था इस सामाजिक चेतना के बारे में।

आप कहेंगे, आज क्यों याद आ गई मुझे इस चेतना की।

अब मुझे क्यों याद आई इस चेतना की , बताने के लिए ही तो यह लिखना शुरू किया है, यह तो मात्र भूमिका था, आपको उलझाने के लिए।

तो ऐसा है कि पहले यह चेतना शताब्दियों की होती थी। शायद 250-300 वर्षों की। जैसे भक्ति काल और रीति काल। फिर अवधि घटने लगी। दशकों तक आ गई, जैसे भारतेन्दु युग, छायावादी काल, प्रगतिवाद, नई कविता आदि। मेरा ज्ञान थोड़ा कच्चा और जिसे Time out कहते हैं, यदि आपको लगे तो सम्हाल लीजिएगा।

फिर दशक छूटे, साल रह गये। और वर्तमान में  यह चेतना दैनिक हो गई है।

मुझे इतना ज्ञान कैसे मिला, यहीं फ़ेसबुक से मित्रो, आपकी जिज्ञासा शांत करती हूं। यह मेरा शोध कार्य है।

वर्तमान में चेतनाओं का रूप बहुत विस्तृत हो गया है।

पिछले वर्ष से  कोरोना की चेतना गतिमान  है। इस बीच  मदिरा की चेतना आई थी और फिर श्रमिकों  की। वास्‍तविक  श्रमिक चेतना एक मई को आती है। अनेक बार मातृ चेतना होती है। आजकल सरकारी तौर  पर  बेटी चेतना का बहुत विस्‍तार  हुआ है।

वर्तमान में  चेतनाएं  दैनिक अधिक होने लगी हैं, जो कभी-कभी एक-दो दिन तक विस्तारित हो जाती  हैं। 14 फ़रवरी को प्रेम के देवता की दैनिक चेतना होती है। ऐसे ही 8 मार्च को महिलाओं की दैनिक चेतना होती है, किसी दिन बेटी की। वर्ष में  एक  दिन  योग  की  भी  चेतना होती है ।  वर्ष में तीन-चार अलग-अलग दिनों में राष्ट्र प्रेम की चेतना होती है। देवियों की चेतना वर्ष में दो बार नौ-नौ दिन की होती है। पूरे वर्ष में 25-30 या इससे भी ज़्यादा देवी देवताओं की चेतना दैनिक होती है।  कुछ चेतनाएं घटनावश सृजित होती हैं। जैसे किसी आतंकवादी घटना के घटने पर, प्राकृतिक प्रकोप पर, मानवीय दुर्घटना आदि पर।

इन सबके अतिरिक्‍त राजनीतिक चेतना, व्यापारिक चेतना, धार्मिक चेतना, नकल चेतना, रिश्वत चेतना आदि  का भी विस्‍तार  है,  जिन पर  अभी मैं शोध  कार्य कर  रही  हूं।

इनके अतिरिक्त राजनीतिक चेतना, व्यापारिक चेतना, धार्मिक चेतना, नकल चेतना, रिश्वत चेतना आदि चेतनाएँ भी अत्यन्त महत्वपूर्ण चेतनाएँ हैं जिन पर भविष्य में अवश्य एक नवीन चेतना के साथ चिन्तन होगा।बेटा पूछता है, पुत्र दिवस की चेतना  कब होती  है मां। किसी को पता हो तो बताईएगा।

 मैं भी आजकल प्रतिदिन योगासन कर रही हूं नवीन चेतनाओं  के जागरण के लिए।

  

परिधान

हमारे समाज में महिलाओं के परिधान की अनेक तरह से बहुत चर्चा होती है। वय-अनुसार, पारिवारिक पोस्ट के अनुसार, अर्थात अविवाहित युवती, भाभी, ननद, बहन, माँ, दादी आदि के लिए। इसके अतिरिक्त भारत में रीति-परम्पराओं, राज्यानुसार प्रचलित, एवं धार्मिक आख्यानों में भी इतनी विविधता है कि उसके अनुसार भी महिलाओं के वस्त्रों पर दृष्टि रहती है।

और सबसे बड़ी बात यह कि हमारे आधुनिक समाज में महिलाओं के परिधानों के अनुसार ही उनका चरित्र-चित्रण किया जाता है। आधुनिक वस्त्र धारण करने वाली युवती के लिए मान लिया जाता है कि यह बहुत तेज़ होगी, घर-गृहस्थी के योग्य नहीं होगी, पति, सास-ससुर की सेवा करने वाली नहीं होगी। ( किन्तु जब महिलाओं की बात होती है तब सेवा-भाव वाली बात आती ही क्यों है, उसके अपने अस्तित्व की बात क्यों नहीं की जाती। परिवार के सदस्य की बात क्यों नहीं आती?, पुरुषों के सन्दर्भ में तो इस तरह की बात कभी नहीं आती। इस विषय पर चर्चा को विराम देती हूँ, यह भिन्न चर्चा का विषय है।)

किन्तु पुरुषों के परिधान, वस्त्रों पर कभी कोई बात नहीं करता।

क्योंकि महिलाएं खुलेआम टिप्पणी नहीं कर पातीं इस कारण कहती नहीं।

सबसे बुरा लगता है जब पुरुष केवल अन्तर्वस्त्रों में अथवा तौलिए में प्रातःकाल बरामदे में घूमते दिखते हैं। गर्मियों में तो जैसे उनका अधिकार होता है अर्द्धनग्न रहना। मुझे नहीं पता कि उनके घर की महिलाएं उन्हें टोकती हैं अथवा नहीं।

मैं शिमला से हूँ। वहां हमने सदैव ही यही देखा है कि पुरुष भी महिलाओं की भांति स्नानागार से पूरे वस्त्रों में ही तैयार होकर निकलते हैं। किन्तु जब मंै यहां आई तो मुझे बहुत शर्म आती थी कि घर के बच्चे क्या, युवा, अधेड़, बुजुर्ग सब आधे-अधूरे कपड़ों में घूमते हैं। हमें यह अश्लील लगता है।  अभिनेत्रियों के वस्त्रों पर भी बहुत कुछ लिखा जाता है किन्तु जब बड़े.बड़े मंचों पर बड़े नामी कलाकार नग्न प्रदर्शन करते हैं तब  वह भव्यता होती है।  इन नग्नता की तुलना हम किसी कार्य या खेल में पहने जाने वस्त्रों से नहीं कर सकते।

पुरुष की वस्त्रहीनता उसका सौन्दर्य है और स्त्री के देह-प्रदर्शनीय वस्त्र अश्लीलता।

सबसे बड़ी बात जो मुझे अचम्भित भी करती है और हमारे समाज की मानसिकता को भी प्रदर्शित करती है वह यह कि हमारे प्रायः सभी प्राचीन पात्रों के चित्रों में  उपरि वस्त्र धारण नहीं दिखाये जाते। फिर वह चित्रकारी हो अथवा अभिनय। किसने देखा है वह काल कि ये लोग उपरि वस्त्र पहनते थे अथवा नहीं। क्यों यह अश्लीलता नहीं दिखती और कभी भी क्यों इस पर आपत्ति नहीं होती। निश्चित रूप से उस युग को तो किसी ने नहीं देखा, यह हमारी ही मानसिकता का प्रतिफल है। किसने देखा है कि देवता, भगवान क्या पहनते थे। यह उस कलाकार की अथवा भक्त की मानसिकता है जो अपने आराध्य की सुन्दर, सुघड़ देहयष्टि दिखाना चाहता है।

 महिलाएं पुरुषों के पहनावे से आहत होती हैं। प्रकृति ने पुरुष को छूट  दी है, यह हमारी सोच है। मुझे आश्चर्य तब होता है जब हम महिलाएं भी उसी बनी.बनाई लीक पर चलती हैं।

एक अन्य तथ्य यह कि जब भी भारतीय संस्कृति, परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों के अनुसार पहनावे की बात उठती है तब केवल महिलाओं के सन्दर्भ में ही चर्चा होती है, पुरुषों के पहरावे पर कोई बात नहीं की जाती।

इतना और कहना चाहूंगी कि कमी मर्दों की मानसिकता में नहीं महिलाओं की मानसिकता में है जो पुरुष नग्नता का विरोध नहीं करतीं।

  

 

मूर्तियों  की आराधना

 

चित्राधारित रचना

जब मैं अपना शोध कार्य रही थी तब मैंने मूर्तिकला एवं वास्तुकला पर भी कुछ पुस्तकें पढ़ी थीं।

मैंने अपने अध्ययन से यह जाना कि प्रत्येक मूर्ति एवं वास्तु के निर्माण की एक विधि होती है। किसी भी मूर्ति को यूँ ही सजावट के तौर पर कहीं भी बैठकर नहीं बनाया जा सकता यदि उसका निर्माण पूजा-विधि के लिए किया जा रहा है। स्थान, व्यक्ति, निर्माण-सामग्री, निर्माण विधि सब नियम-बद्ध होते हैं।  जो व्यक्ति मूर्ति का निर्माण करता है वह अनेक नियमों का पालन करता है, शाकाहारी एवं बहुत बार उपवास पर भी रहता है जब तक उसका कार्य पूरा नहीं हो जाता।

हमारे धर्म में अनेक देवी-देवताओं की पूजा होती है उनमें गणेश जी भी एक हैं। प्राचीन काल में प्रत्येक देवी-देवता की सम्पूर्ण पूजा विधि का पालन किया जाता था और उसी के अनुसार मूर्ति-निर्माण एवं स्थापना का कार्य।

आज हमारी पूजा-अर्चना व्यापारिक हो गई है। यह सिद्ध है कि प्रत्येक देवी-देवता की पूजा-विधि, मूर्ति-निर्माण विधि, पूजन-सामग्री एवं पूजा-स्थल में उनकी स्थापना विधि अलग-अलग है। किन्तु आज इस पर कोई विचार ही नहीं करता। एक ही धर्म-स्थल पर एक ही कमरे में सारे देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती है, जबकि प्राचीन काल में ऐसा नहीं था।

सबसे बड़ी बात यह कि हम यह मानते हैं कि हमारा स्थान ईश्वर के चरणों में है न कि ईश्वर हमारे चरणों में।

हम निरन्तर यह तो देख रहे हैं कि कौन किसे खींच रहा है, कौन देख रहा है किन्तु यह नहीं देख पा रहे कि  गणेश जी की मूर्ति को पैरों में रखकर ले जाया जा रहा है, कैसे होगी फिर उनकी पूजा-आराधना?

   

पर उपदेश कुशल बहुतेरे
यह मुहावरा सुना तो बहुत बार था किन्तु कभी इसकी गुणवत्ता की ओर ध्यान ही नहीं गया। धन्यवाद इस मंच का जिसने इस मुहावरे की महत्ता एवं विशेषताओं पर चिन्तन करने का अवसर प्रदान किया।

पर उपदेश कुशल बहुतेरे!!

वाह!!

इसका अर्थ यह है कि जो कुशल होगा वही तो पर को अर्थात अन्य को बहुत सारे उपदेश दे सकेगा। जो कुशल ही नहीं है वह किसी को क्या उपदेश देगा और क्या मार्ग-दर्शन करेगा।

हम जीवन में कोई भी कार्य करते हैं हमारी जवाबदेही तय होती है। घर-परिवार में, समाज में, नौकरी में, कार्यालय में, व्यवसाय में, सड़क पर चलते हुए, हर जगह, हर जगह। हानि-लाभ, अच्छा-बुरा, खरा-खोटा, उत्तर-प्रति-उत्तर, लिखित, मौखिक। हम बच नहीं पाते।

किन्तु उपदेश देने में किसी उत्तरदायित्व का वहन नहीं होता। आप उपदेश दीजिए, चाय-नाश्ता  लीजिए और निकल लीजिए। किन्तु ध्यान रहे कि न तो अपने घर बुलाकर उपदेश दीजिए और न किसी उपवन-बात में। जिसे उपदेश देना हो सीधे उसके घर जाकर ही स्थापित रहिए। उपदेशात्मक संस्था खोल लीजिए, दान-दक्षिणा लीजिए, दिल खोलकर परामर्श दीजिए।

किन्तु बस पहले से ही बचने का उपाय बांधकर चलिए।

कुछ ऐसे ‘‘ देखिए मैं तो अपने मन से एक अच्छा परामर्श आपको दे रहा हूँ /दे रही हूँ, यह तो आप पर और परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि फ़लित हो। और आपकी मनोभावनाओं का भी इस पर प्रभाव रहेगा। बस कोई कमी नहीं रहनी चाहिए हमारे बताये उपाय में। ’’

और जब आपका बताया परामर्श फ़लित न हो तो आपके पास पहले से ही तैयार  उत्तर होगा कि ‘‘देखिए मैंने तो पहले ही कहा था कि मन से कीजिएगा, अथवा आपने कोई न कोई विधि तो छोड़ दी होगी। ’’

और साथ ही कुछ अगली सलाहें परोस दीजिए।। और आप जब अपना समय दे रहे हैं, दिमाग़ दे रहे हैं तो कुछ न कुछ मूल्य तो लेंगे ही, चाहे अच्छा चाय-पानी ही।

किन्तु यह उपदेश मैं आप सब मित्रों को दे रही हूँ, मेरे अपने लिए नहीं है।

  

 

अपनेपन की दुविधा

हमारे भारतीय परिवारों में दो ऐसे समय होते हैं जब निकट-दूर के सब अपरिचित-परिचित अगली-पिछली भूलकर एक साथ होते हैं अथवा कहें कि दिखाई देते हैं। एक
विवाह-समारोहों में और दूसरा किसी के निधन पर। विवाह-समारोह तो केवल दो-तीन दिन के ही होते हैं, और इस अवसर वे ही लोग होते हैं, जिन्हें सही से निमन्त्रित किया गया हो।
किन्तु किसी के निधन पर तो 16-17 दिन ऐसे लोगों के बीच बीतते हैं, जिनमें से कुछ बहुत अपने होते हैं। कुछ कभी-कभार चिट्ठी-पत्री जैसे, जिनका नाम देखकर हम बन्द लिफ़ाफा रख देते हैं, बाद में पढ़ लेंगे। कुछ समाचार पत्र की सूचनाओं जैसे, कुछ दीपावली, जन्मदिवस, नये वर्ष पर शुभकामनाओं जैसे, और कुछ ऐसे जिन्हें हम बरसों-बरस नहीं मिले होते, और कुछ ऐसे जो न जाने कहां-कहां से अलमारी की पुरानी पुस्तकों से निकलकर सामने आ खड़े होते हैं । ऐसी पुस्तकें जिन्हें हम न तो रद्दी में बेच पाते हैं और न सहेज पाते हैं, इसलिए अलमारी के किसी कोने में पीछे-से रख देते हैं। और ऐसी ही दो-चार अधूरी पढ़ी, छूटी पुस्तकों के माध्यम से हम जीवन के सारे अध्याय पुन: पढ़ डालते हैं न चाहते हुए भी।
जीवन में कौन साथ है और कौन नहीं, हम कभी जान ही नहीं पाते और हमें ही कोई कितना जान पाया है, ऐसे ही समय ज्ञात होता है। बस हवाओं में जीते हैं, हवाओं से लड़ते हैं, और उन्हें ही ओढ़-बिछाकर सो जाते हैं।