चेतना का जागरण
जब मैं अपना शोध कार्य कर रही थी तब मैंने पढ़ा था कि एक सामाजिक चेतना हुआ करती है जो कालिक होती है। जैसे हिन्दी साहित्य के मध्यकाल में भक्ति भाव की चेतना थी। कवि, चित्रकार, गायक, संगीतकार, शिल्पी सब भक्ति-भाव में डूबे थे। उसके बाद चेतना में परिवर्तन आया और रीति काल का आगमन हुआ। इस काल में सब श्रृंगारिक भाव में डूब गये, यह एक कालिक चेतना हुआ करती थी, जिस कारण सबके मन में एक से ही भाव उमड़ते थे, और समान भाव पर सृजन होता था। यही छायावादी काल, प्रगतिवाद और कुछ और वादों के काल में भी हुआ। यह मैं नहीं कह रही, मैंने कहीं पढ़ा था इस सामाजिक चेतना के बारे में।

आप कहेंगे, आज क्यों याद आ गई मुझे इस चेतना की।

अब मुझे क्यों याद आई इस चेतना की , बताने के लिए ही तो यह लिखना शुरू किया है, यह तो मात्र भूमिका था, आपको उलझाने के लिए।

तो ऐसा है कि पहले यह चेतना शताब्दियों की होती थी। शायद 250-300 वर्षों की। जैसे भक्ति काल और रीति काल। फिर अवधि घटने लगी। दशकों तक आ गई, जैसे भारतेन्दु युग, छायावादी काल, प्रगतिवाद, नई कविता आदि। मेरा ज्ञान थोड़ा कच्चा और जिसे Time out कहते हैं, यदि आपको लगे तो सम्हाल लीजिएगा।

फिर दशक छूटे, साल रह गये। और वर्तमान में  यह चेतना दैनिक हो गई है।

मुझे इतना ज्ञान कैसे मिला, यहीं फ़ेसबुक से मित्रो, आपकी जिज्ञासा शांत करती हूं। यह मेरा शोध कार्य है।

वर्तमान में चेतनाओं का रूप बहुत विस्तृत हो गया है।

पिछले वर्ष से  कोरोना की चेतना गतिमान  है। इस बीच  मदिरा की चेतना आई थी और फिर श्रमिकों  की। वास्‍तविक  श्रमिक चेतना एक मई को आती है। अनेक बार मातृ चेतना होती है। आजकल सरकारी तौर  पर  बेटी चेतना का बहुत विस्‍तार  हुआ है।

वर्तमान में  चेतनाएं  दैनिक अधिक होने लगी हैं, जो कभी-कभी एक-दो दिन तक विस्तारित हो जाती  हैं। 14 फ़रवरी को प्रेम के देवता की दैनिक चेतना होती है। ऐसे ही 8 मार्च को महिलाओं की दैनिक चेतना होती है, किसी दिन बेटी की। वर्ष में  एक  दिन  योग  की  भी  चेतना होती है ।  वर्ष में तीन-चार अलग-अलग दिनों में राष्ट्र प्रेम की चेतना होती है। देवियों की चेतना वर्ष में दो बार नौ-नौ दिन की होती है। पूरे वर्ष में 25-30 या इससे भी ज़्यादा देवी देवताओं की चेतना दैनिक होती है।  कुछ चेतनाएं घटनावश सृजित होती हैं। जैसे किसी आतंकवादी घटना के घटने पर, प्राकृतिक प्रकोप पर, मानवीय दुर्घटना आदि पर।

इन सबके अतिरिक्‍त राजनीतिक चेतना, व्यापारिक चेतना, धार्मिक चेतना, नकल चेतना, रिश्वत चेतना आदि  का भी विस्‍तार  है,  जिन पर  अभी मैं शोध  कार्य कर  रही  हूं।

इनके अतिरिक्त राजनीतिक चेतना, व्यापारिक चेतना, धार्मिक चेतना, नकल चेतना, रिश्वत चेतना आदि चेतनाएँ भी अत्यन्त महत्वपूर्ण चेतनाएँ हैं जिन पर भविष्य में अवश्य एक नवीन चेतना के साथ चिन्तन होगा।बेटा पूछता है, पुत्र दिवस की चेतना  कब होती  है मां। किसी को पता हो तो बताईएगा।

 मैं भी आजकल प्रतिदिन योगासन कर रही हूं नवीन चेतनाओं  के जागरण के लिए।

  

परिधान

हमारे समाज में महिलाओं के परिधान की अनेक तरह से बहुत चर्चा होती है। वय-अनुसार, पारिवारिक पोस्ट के अनुसार, अर्थात अविवाहित युवती, भाभी, ननद, बहन, माँ, दादी आदि के लिए। इसके अतिरिक्त भारत में रीति-परम्पराओं, राज्यानुसार प्रचलित, एवं धार्मिक आख्यानों में भी इतनी विविधता है कि उसके अनुसार भी महिलाओं के वस्त्रों पर दृष्टि रहती है।

और सबसे बड़ी बात यह कि हमारे आधुनिक समाज में महिलाओं के परिधानों के अनुसार ही उनका चरित्र-चित्रण किया जाता है। आधुनिक वस्त्र धारण करने वाली युवती के लिए मान लिया जाता है कि यह बहुत तेज़ होगी, घर-गृहस्थी के योग्य नहीं होगी, पति, सास-ससुर की सेवा करने वाली नहीं होगी। ( किन्तु जब महिलाओं की बात होती है तब सेवा-भाव वाली बात आती ही क्यों है, उसके अपने अस्तित्व की बात क्यों नहीं की जाती। परिवार के सदस्य की बात क्यों नहीं आती?, पुरुषों के सन्दर्भ में तो इस तरह की बात कभी नहीं आती। इस विषय पर चर्चा को विराम देती हूँ, यह भिन्न चर्चा का विषय है।)

किन्तु पुरुषों के परिधान, वस्त्रों पर कभी कोई बात नहीं करता।

क्योंकि महिलाएं खुलेआम टिप्पणी नहीं कर पातीं इस कारण कहती नहीं।

सबसे बुरा लगता है जब पुरुष केवल अन्तर्वस्त्रों में अथवा तौलिए में प्रातःकाल बरामदे में घूमते दिखते हैं। गर्मियों में तो जैसे उनका अधिकार होता है अर्द्धनग्न रहना। मुझे नहीं पता कि उनके घर की महिलाएं उन्हें टोकती हैं अथवा नहीं।

मैं शिमला से हूँ। वहां हमने सदैव ही यही देखा है कि पुरुष भी महिलाओं की भांति स्नानागार से पूरे वस्त्रों में ही तैयार होकर निकलते हैं। किन्तु जब मंै यहां आई तो मुझे बहुत शर्म आती थी कि घर के बच्चे क्या, युवा, अधेड़, बुजुर्ग सब आधे-अधूरे कपड़ों में घूमते हैं। हमें यह अश्लील लगता है।  अभिनेत्रियों के वस्त्रों पर भी बहुत कुछ लिखा जाता है किन्तु जब बड़े.बड़े मंचों पर बड़े नामी कलाकार नग्न प्रदर्शन करते हैं तब  वह भव्यता होती है।  इन नग्नता की तुलना हम किसी कार्य या खेल में पहने जाने वस्त्रों से नहीं कर सकते।

पुरुष की वस्त्रहीनता उसका सौन्दर्य है और स्त्री के देह-प्रदर्शनीय वस्त्र अश्लीलता।

सबसे बड़ी बात जो मुझे अचम्भित भी करती है और हमारे समाज की मानसिकता को भी प्रदर्शित करती है वह यह कि हमारे प्रायः सभी प्राचीन पात्रों के चित्रों में  उपरि वस्त्र धारण नहीं दिखाये जाते। फिर वह चित्रकारी हो अथवा अभिनय। किसने देखा है वह काल कि ये लोग उपरि वस्त्र पहनते थे अथवा नहीं। क्यों यह अश्लीलता नहीं दिखती और कभी भी क्यों इस पर आपत्ति नहीं होती। निश्चित रूप से उस युग को तो किसी ने नहीं देखा, यह हमारी ही मानसिकता का प्रतिफल है। किसने देखा है कि देवता, भगवान क्या पहनते थे। यह उस कलाकार की अथवा भक्त की मानसिकता है जो अपने आराध्य की सुन्दर, सुघड़ देहयष्टि दिखाना चाहता है।

 महिलाएं पुरुषों के पहनावे से आहत होती हैं। प्रकृति ने पुरुष को छूट  दी है, यह हमारी सोच है। मुझे आश्चर्य तब होता है जब हम महिलाएं भी उसी बनी.बनाई लीक पर चलती हैं।

एक अन्य तथ्य यह कि जब भी भारतीय संस्कृति, परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों के अनुसार पहनावे की बात उठती है तब केवल महिलाओं के सन्दर्भ में ही चर्चा होती है, पुरुषों के पहरावे पर कोई बात नहीं की जाती।

इतना और कहना चाहूंगी कि कमी मर्दों की मानसिकता में नहीं महिलाओं की मानसिकता में है जो पुरुष नग्नता का विरोध नहीं करतीं।

  

 

मूर्तियों  की आराधना

 

चित्राधारित रचना

जब मैं अपना शोध कार्य रही थी तब मैंने मूर्तिकला एवं वास्तुकला पर भी कुछ पुस्तकें पढ़ी थीं।

मैंने अपने अध्ययन से यह जाना कि प्रत्येक मूर्ति एवं वास्तु के निर्माण की एक विधि होती है। किसी भी मूर्ति को यूँ ही सजावट के तौर पर कहीं भी बैठकर नहीं बनाया जा सकता यदि उसका निर्माण पूजा-विधि के लिए किया जा रहा है। स्थान, व्यक्ति, निर्माण-सामग्री, निर्माण विधि सब नियम-बद्ध होते हैं।  जो व्यक्ति मूर्ति का निर्माण करता है वह अनेक नियमों का पालन करता है, शाकाहारी एवं बहुत बार उपवास पर भी रहता है जब तक उसका कार्य पूरा नहीं हो जाता।

हमारे धर्म में अनेक देवी-देवताओं की पूजा होती है उनमें गणेश जी भी एक हैं। प्राचीन काल में प्रत्येक देवी-देवता की सम्पूर्ण पूजा विधि का पालन किया जाता था और उसी के अनुसार मूर्ति-निर्माण एवं स्थापना का कार्य।

आज हमारी पूजा-अर्चना व्यापारिक हो गई है। यह सिद्ध है कि प्रत्येक देवी-देवता की पूजा-विधि, मूर्ति-निर्माण विधि, पूजन-सामग्री एवं पूजा-स्थल में उनकी स्थापना विधि अलग-अलग है। किन्तु आज इस पर कोई विचार ही नहीं करता। एक ही धर्म-स्थल पर एक ही कमरे में सारे देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती है, जबकि प्राचीन काल में ऐसा नहीं था।

सबसे बड़ी बात यह कि हम यह मानते हैं कि हमारा स्थान ईश्वर के चरणों में है न कि ईश्वर हमारे चरणों में।

हम निरन्तर यह तो देख रहे हैं कि कौन किसे खींच रहा है, कौन देख रहा है किन्तु यह नहीं देख पा रहे कि  गणेश जी की मूर्ति को पैरों में रखकर ले जाया जा रहा है, कैसे होगी फिर उनकी पूजा-आराधना?

   

अपनेपन की दुविधा

हमारे भारतीय परिवारों में दो ऐसे समय होते हैं जब निकट-दूर के सब अपरिचित-परिचित अगली-पिछली भूलकर एक साथ होते हैं अथवा कहें कि दिखाई देते हैं। एक
विवाह-समारोहों में और दूसरा किसी के निधन पर। विवाह-समारोह तो केवल दो-तीन दिन के ही होते हैं, और इस अवसर वे ही लोग होते हैं, जिन्हें सही से निमन्त्रित किया गया हो।
किन्तु किसी के निधन पर तो 16-17 दिन ऐसे लोगों के बीच बीतते हैं, जिनमें से कुछ बहुत अपने होते हैं। कुछ कभी-कभार चिट्ठी-पत्री जैसे, जिनका नाम देखकर हम बन्द लिफ़ाफा रख देते हैं, बाद में पढ़ लेंगे। कुछ समाचार पत्र की सूचनाओं जैसे, कुछ दीपावली, जन्मदिवस, नये वर्ष पर शुभकामनाओं जैसे, और कुछ ऐसे जिन्हें हम बरसों-बरस नहीं मिले होते, और कुछ ऐसे जो न जाने कहां-कहां से अलमारी की पुरानी पुस्तकों से निकलकर सामने आ खड़े होते हैं । ऐसी पुस्तकें जिन्हें हम न तो रद्दी में बेच पाते हैं और न सहेज पाते हैं, इसलिए अलमारी के किसी कोने में पीछे-से रख देते हैं। और ऐसी ही दो-चार अधूरी पढ़ी, छूटी पुस्तकों के माध्यम से हम जीवन के सारे अध्याय पुन: पढ़ डालते हैं न चाहते हुए भी।
जीवन में कौन साथ है और कौन नहीं, हम कभी जान ही नहीं पाते और हमें ही कोई कितना जान पाया है, ऐसे ही समय ज्ञात होता है। बस हवाओं में जीते हैं, हवाओं से लड़ते हैं, और उन्हें ही ओढ़-बिछाकर सो जाते हैं।

निजी एवं सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर
मेरे विचार में यदि केवल एक नियम बना दिया जाये कि सभी सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों के बच्चे उनके अपने ही विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करेंगे तो इन विद्यालयों के अध्यापक स्वयं ही शिक्षा के स्तर को सुधारने का प्रयास करेंगे।

निजी विद्यालयों एवं सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के स्तर में अन्तर के मुख्य कारण मेरे विचारानुसार ये हैं:

निजी विद्यालयों में स्थानान्तरण नहीं होते, अवकाश भी कम होते हैं तथा  जवाबदेही सीधे सीधे एवं तात्कालिक होती है।

निजी विद्यालयों में प्रवेश ही चुन चुन कर अच्छे विद्यार्थियों को दिया जाता है चाहे वह प्रथम कक्षा ही क्यों न हो।

कमज़ोर विद्यार्थियों को बाहर का रास्ता दिखा  दिया जाता है।

- भारी भरकम वेतन पर अध्यापकों की नियुक्ति, मिड डे मील,यूनीफार्म आदि बेसिक सुविधाओं से शिक्षा का स्तर नहीं उठाया जा सकता। बदलती सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप शिक्षा के बदलते मानदण्डों , शिक्षा की नवीन पद्धति, समयानुकूल पाठ्यक्रमों में परिवर्तन की ओर जब तक ध्यान नहीं दिया जायेगा सरकारी विद्यालयों की शिक्षा पिछड़ी ही रहेगी।

, यदि हम यह मानते हैं कि निजी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा है तो यह हमारी भूल है। वर्तमान में निजी विद्यालयों में भी शिक्षा नाममात्र रह गई है। क्योंकि यहां उच्च वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं तो वे ट्यूशन पर ही निर्भर होते हैं। निजी विद्यालयों में तो नाम, प्रचार, अंग्रेज़ी एवं अन्य गतिविधियों की ओर ही ज़्यादा ध्यान दिया जाने लगा है।

सबसे बड़ी बात यह कि हम निजी विद्यालयों की शिक्षा पद्धति एवं शिक्षा नीति को बहुत अच्छा समझने लग गये हैं । किन्तु वास्तव में यहाँ प्रदर्शन अधिक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि निजी विद्यालयों की तुलना में सरकारी विद्यालय पिछड़े हुए दिखाई देते हैं किन्तु इसका कारण केवल सरकारी अव्यवस्था, अध्यापकों पर शिक्षा के स्तर को बनाये रखने के लिए किसी भी प्रकार के दबाव का न होना एवं निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों का ही इन विद्यालयों में प्रवेश लेना, जिनकी पढ़ाई में अधिक रुचि ही नहीं होती।

मेरे विचार में कमी व्यवस्था में है। सरकार विद्यालय दूर दराज के क्षेत्रों में भी हैं जहां कोई भी जाना नहीं चाहता।

भ्रष्टाचार पर चर्चा
जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और  दूसरे की ओर अंगुली उठाते हैं तो चार अंगुलियाँ स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।

वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रुपये की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रुपये वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और  अपना आवश्यकता, विवशता।

यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार अंगुलियों के प्रश्न और  उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:

पहली अंगुली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकती हूँ कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूँ ।

दूसरी अंगुली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूँ ?

तीसरी अंगुली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूँ ।

और  अंत में  चौथी अंगुली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की अंगुली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और  मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और   सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।

  

एक किस्सागोई

कुछ बातें बेवजह याद आती हैं लेकिन निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पातीं।

वैसे तो 22 मार्च 2020 से ही घर पर हूं, जब पहला लॉक डाउन हुआ था किन्तु आधिकारिक तौर पर 20 जुलाई 2020 को त्यागपत्र देकर घर ही हूं।

       तो कल तक जब यानी 20 जुलाई 2020 से पूर्व कोई मुझे पूछता था कि आप क्या करती हैं तो मैं पहले कहा करती थी, बैंक में कार्यरत हूं, उपरान्त मैं इस विद्यालय में वरिष्ठ लेखाकार हूं।

21 जुलाई 2020 से मेरी पोस्ट बदल गई। अब मेरी पोस्ट क्या है, यही विचार करने के लिए यह आलेख लिख रही हूं।

       बात यह कि कुछ वर्ष पहले तक जो महिला नौकरी नहीं करती थी, उसे घरेलू महिला हाउस वाईफ़ कहा जाता था, और इसे बड़े सामान्य तौर पर लिया जाता था, चाहे वह महिला कितनी ही उच्च शिक्षा प्राप्त क्यों न हो। और नौकरी न करना कोई अपराध अथवा हीन भावना भी नहीं होती थी।

वर्तमान में स्थिति बदल चुकी है।

विद्यालय में बच्चों के प्रवेश फ़ार्म में माता-पिता के विवरण के विस्तृत काॅलम होते हैं, जिनमें उनकी शिक्षा, नौकरी, कार्यक्षेत्र, कार्यस्थल, वेतन, अन्य अनुभवों आदि की जानकारी मांगी जाती है।

इसी काॅलम से मेरा यह आलेख निकला। मैंने देखा कि कुछ फ़ार्मों में माता के विवरण में जाॅब/बिजनैस के आगे लिखा मिलने लगा: हाउस मेकर, हाउस मैनेजर, हाउस इंचार्ज। किन्तु विभाग के आगे कोई सूचना नहीं लिखी गई थी।  मैं महामूर्ख। मुझे लगा सम्भवतः किसी हास्पिटैलिटीए होटल आदि में कोई पोस्ट होगी।

मैं एक महिला से पूछ बैठी मैम आपने  डिपार्टमैंट नहीं लिखा। डिपार्टमैंट मतलब? मैंने लिखा तो है हाउस मैनेजर। जी हां, पोस्ट तो लिखी है, डिपार्टमैंट, आफिॅस का पता भी तो लिखिए।

उसे बड़ा अपमानजनक लगा मेरा प्रश्न। क्रोध से बोली, आप कहना क्या चाहती हैं कि जो लेडीज जाॅब नहीं करतीं, वो केवल घरेलू, अनपढ़, गंवार, निकम्मी होती हैं क्या? मैं हाउस मेकर, हाउस मैनेजर हूं, घर हम औरतें ही बनाती हैं।

मैं एकदम हकबका-सी गई, तो क्या ये पोस्ट हो गई। तो फिरघर में पति की क्या पोस्ट है, पूछ नहीं पाई।

मैं अचानक ही बोल बैठी, तो आप हाउस-वाईफ़ हैं। आपने पोस्ट के सामने हाउस मैनेजर लिखा है न, मुझे लगा किसी विभाग में पोस्ट का नाम होगा। साॅरी अगर आपको बुरा लगा।

अब नाराज़गी चरम पर थी। बोली, हाउस वाईफ़ का क्या मतलब होता है? मैं कोई अनपढ़, गंवार औरत हूं कि बस एक घरेलू औरत हूं। घर हम औरतें ही चलाती हैं। क्या वह काम नहीं है?  क्या आपकी तरह बाहर नौकरी न करने वाली औरतें क्या बस घरेलू ही हैं।  क्या आप ही काम करती हैं जो घर से बाहर नौकरी करती हैं। हम घर चलाती हैं, घर सम्हालती हैं तो हाउस मैनेजर, हाउस मेकर हुई या नहीं। हमारे बिना घर चल सकता है क्या? हमारे काम की कोई वैल्यू नहीं है क्या? घर तो हम औरतें ही बनाती हैं न।

मैं भी सिरे की ढीठ। उल्टी खोपड़ी। पीछे हटने वाली कहां। मैंने आगे से कहा, मैम वो तो सारी ही महिलाएं करती हैं, हम नौकरी वाली भी करती हैं तो क्या मुझे अपनी पोस्ट के साथ ओब्लीग करके हाउस मेकर भी लिखना चाहिए। और घर सम्हालना कोई नौकरी तो नहीं हुई न। यहां काॅलम जाॅब/बिज़नेस है।

वह महिला देर तक बड़बड़ाती रही। और उसने वर्तमान में महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय, विरोध, शोषण, उनके अधिकारों के हनन, सम्मान की कमी, पारिवारिक समस्याओं और न जाने कितने विषयों पर भाषण दे डाला।

मैं समझ नहीं पाई कि घर से बाहर नौकरी न करना हीन भावना क्यों बनने लगा है और घर में रहना एक जाॅब या नौकरी कैसे बना। निःसदेह महिलाओं के साथ अनेक क्षेत्रों में अन्याय, विरोधाभास है किन्तु इन बातों के अत्यधिक प्रचार-प्रसार ने  महिलाओं की सोच को भी प्रभावित कर दिया है। इसका दुष्परिणाम यह कि महिलाओं की परिवार के प्रति सोच संकुचित होने लगी है और वे उन क्षेत्रों में भी अधिकारों की बातें करने लगी हैं जो उनके अधिकार क्षेत्र की नहीं हैं। मुझे लगता है महिलाओं में इस तरह की सोच, प्रवृत्ति, उन्हें आत्मनिर्भर, स्वाबलम्बी, स्वतन्त्र नहीं बना रही, पुरुष समाज के विरुद्ध अकारण खड़ा कर रही है। उनमें पारिवारिक दायित्वों के प्रति एक विमुखता ला रही है। अपने पारिवारिक दायित्वों को एक जाॅब या नौकरी समझने से सोच बहुत बदली है और महिलाओं की मानसिकता में गहरी नकारात्मकता आने लगी है।

  

आत्म संतोष क्या जीवन की उपलब्धि है 2

पिछले कुछ समय से मैं एक गम्भीर प्रश्न का उत्तर ढूंढ रही हूं। प्रश्न आर्थिक/वित्तीय है। अपने इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए मैं शहर के विभिन्न बैंकों में गई, वित्तीय संस्थानों में पूछताछ की। स्टॉक एक्सचेंज की खाक छानी, विदेशी मुद्रा विनिमय केन्द्रों में गई, बड़े-बड़े वित्तीय अधिकारियों से मिली, किन्तु मेेरी समस्या का समाधान नहीं हुआ।

अब मैं अपना प्रश्न लेकर आपके सामने उपस्थित हूँ। जब बड़ी-बड़ी संस्थाएँ और बड़े-बडे़ लोग मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाये तो मैं अपने वयोवृद्ध दादाजी के पास जा बैठी। मुझे रुंआसी देखकर दादाजी ने कारण पूछा। डूबते को क्या चाहिए एक तिनके का सहारा। मैंने अपना प्रश्न दादाजी के मामन रख दिया। दादाजी, लोग रुपये की बात करते हैं डॅालर, पौंड, यूरो और न जाने कितना विदेशी मुद्राओं की बात करते हैं किन्तु मैंने एक नये धन का नाम सुना है जिसे सन्तोष धन कहा जाता है। यह धन तो मैंने किसी के पास नहीं देख।

जिससे पूछती हूं वही मेरा उपहास करता हे कि अरे इस पगली लड़की को देखो, भला आज के ज़माने में भी कहीं संतोष धन पाया जाता है। दादाजी कोई नहीं मानता कि संतोष भी कोई धन होता है। अब आप ही बताईये दादाजी , यह संतोष धन कौन-सा धन है कहां मिलता है, कहां पाया जाता है , कौन प्रयोग करता है । किस काम आता है। यह कैसा गुप्त धन है जिसके बारे में बड़े-बड़े लोग नहीं जानते।

दादाजी मेरी बात सुनकर ठठाकर हंस दिये। बोले बेटी, संतोष धन तो मनुष्य ने सदियों पहले ही खो दिया। और तुम पुरातात्विक विभाग की वस्तु को आधुनिक विज्ञान की मशीनों में खोजोगी तो भला बताओ कैसे मिलेगी? अब आधुनिकता की दौेड़ में जुटे लोगों की रुचि भला पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी की वस्तुओं में कैसे हो सकती है।

लेकिन वे चकित भी थे कि मुझे इस संतोष धन का पता कैसे लगा। क्या मैंने इस धन को पा लिया है। मैं हंस दी नहीं दादाजी मुझे यह धन नहीं मिला। मैंने उन्हें बताया कि कोई कबीरदास हुआ करते थे वे लिख गये हैं जब आवे संतोष धन सब धन धूरी समान। अब दादाजी से तो बहुत बातें हूईं किन्तु उनसे वार्तालाप में मेरे सामने अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए। उन्हीं पर चिन्तन करते हुए मैं आपके समक्ष हूं।

क्या सत्य में ही आधुनिकता के पीछे भाग रहे मनुष्य ने संतोष धन खो दिया है। कबीरदास ने कहा कि जिस मनुष्य के पास संतोष धन है उसके सामने सब धन धूल के समान हैं अर्थात उनका कोई महत्व नहीं।

 किन्तु वर्तमान में इस दोहे के अर्थ बदल गये हैं। वर्तमान में इस दोहे का अर्थ है कि जिस व्यक्ति के पास संतोष धन है उसके लिए सब धन धूल के समान हो जातेे हैं अर्थात उसे जीवन में कोई उपलब्धि प्राप्त नहीं हो पाती।

तो क्या जीवन में सचमुच संतोष ही सबसे बड़ी उपलब्धि है? मेरी दृष्टि में नहीं। मेरी दृष्टि में संतोष का अभिप्राय है एक ठहराव, निप्क्रियता, इच्छाओं का दमन। यदि मानव ने अपनी स्थितियों पर संतोेष कर लिया होता तो वह आज भी वन में पत्थर रगड़ कर आग जला रहा होता, पत्तों के वस्त्र धारण कर वृक्षों पर सो रहा होता। मेरी दृप्टि में संतोष न करने का अभिप्राय है, आगे बढ़ने की इच्छा, प्रगति की कामना, प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता, नव-नवोन्मेष प्रतिभा एवं विचारो का स्तवन, अनुसंधान, स्वाबलम्बन, अच्छे से अच्छा करने की कामना।

संतोष न करने का ही परिणाम हे कि आज हम चांद पर पहुंच गये हैं, समुद्र की अतल गहराईयों को नाप रहे हैं। लाखों मीलों की दूरी कुछ ही घंटों में तय कर लेते हैं।

विश्व के एक कोने में बैठकर सम्पूर्ण विश्व के लोगों से वार्तालाप कर सकते हैं, उन्हें देख सकते हैं।

यदि मैं संतोष धन अपना लूं तो कभी भी अच्छे अंक प्राप्त करने का प्रयास ही न करुं। उत्तीर्ण होकर भी क्या करता है, संतोष धन तो पा ही लिया है। माता-पिता से कहूँगी मैंने संतोष धन प्राप्त कर लिया है मुझे आगे मत पढ़ाईये।

मेरे कुछ साथी संतोष-असंतोष की तुलता कर सकते हैं कि संतोष न होने का अर्थ है असंतोष। किन्तु मेरी दृष्टि में असंतोष एक मानसिक वेदना है जो ईर्ष्या-द्वेष-भाव से उपजती है जबकि संतोष न करने की भावना प्रगति के पथ पर अग्रसर करती है।

  

खामोशियां भी बोलती है

नई बात। अब कहते हैं मौन रहकर अपनी बात कहना सीखिए, खामोशियाँ भी बोलती हैं। यह भी भला कोई बात हुई। ईश्वर ने गज़ भर की जिह्वा दी किसलिए है, बोलने के लिए ही न, शब्दाभिव्यक्ति के लिए ही तो। आपने तो कह दिया कि खामोशियाँ बोलती हैं, मैंने तो सदैव धोखा ही खाया यह सोचकर कि मेरी खामोशियाँ समझी जायेगी। न जी न, सरासर झूठ, धोखा, छल, फ़रेब और सारे पर्यायवाची शब्द आप अपने आप देख लीजिएगा व्याकरण में।

मैंने तो खामोशियों को कभी बोलते नहीं सुना। हाँ, हम संकेत का प्रयास करते हैं अपनी खामोशी से। चेहरे के हाव-भाव से स्वीकृति-अस्वीकृति, मुस्कान से सहमति-असहमति, सिर से सहमति-असहमति। लेकिन बहुत बार सामने वाला जानबूझकर उपेक्षा कर जाता है क्योंकि उसे हमें महत्व देना ही नहीं है। वह तो कह जाता है तुम बोली नहीं तो मैंने समझा तुम्हारी मना है।

कहते हैं प्यार-व्यार में बड़ी खामोशियाँ होती हैं। यह भी सरासर झूठ है। इतने प्यार-भरे गाने हैं तो क्या वे सब झूठे हैं? जो आनन्द अच्छे, सुन्दर, मन से जुड़े शब्दों से बात करने में आता है वह चुप्पी में कहाँ, और यदि किसी ने आपकी चुप्पी न समझी तो गये काम से। अपना ऐसा कोई इरादा नहीं है।

मेरी बात बड़े ध्यान से सुनिए और समझिए। खामोशी की भाषा अभिव्यक्ति करने वाले से अधिक समझने वाले पर निर्भर करती है। शायद स्पष्ट ही कहना पड़ेगा, गोलमाल अथवा शब्दों की खामोशी से काम नहीं चलने वाला।

मेरा अभिप्राय यह कि जिस व्यक्ति के साथ हम खामोशी की भाषा में अथवा खामोश अभिव्यक्ति में अपनी बात कहना चाह रहे हैं, वह कितना समझदार है, वह खामोशी की कितनी भाषा जानता है, उसकी कौन-सी डिग्री ली है इस खामोशी की भाषा समझने में। बस यहीं हम लोग मात खा जाते हैं।

इस भीड़ में, इस शोर में, जो जितना ऊँचा बोलता है, जितना चिल्लाता है उसकी आवाज़ उतनी ही सुनी जाती है, वही सफ़ल होता है। चुप रहने वाले को गूँगा, अज्ञानी, मूर्ख समझा जाता है।

ध्यान रहे, मैं खामोशी की भाषा न बोलना जानती हूँ और न समझती हूँ, मुझे अपने शब्दों पर, अपनी अभिव्यक्ति पर, अपने भावों पर पूरा विश्वास है और ईश प्रदत्त गज़-भर की जिह्वा पर भी।

  

विश्व चाय दिवस

सुबह से भूली-भटकी अभी मंच पर आगमन हुआ तो ज्ञात हुआ कि आज तो अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस अथवा विश्व चाय दिवस है।

ऐसा कैसे सम्भव है। चाय का और केवल एक दिवस! नहीं, नहीं, यह तो चाय का और चाय के नशेड़ियों का घोर अपमान है।

शिमला में हम परिवार में आठ सदस्य थे, दिन-भर में 80-90 चाय तो बनती ही होगी और वह भी लार्ज पटियाला साईज़, पीतल के बड़े गिलास। मेरी दादी मेरी माँ से कहती थी पानी की टंकी में ही चीनी-पत्ती डाल दे, अपने-आप सब दिन-भर पीते रहेंगे।

दिन भर में पाँच-छः चाय तो अब भी पी ही लेती हूँ। कुछ वर्ष पहले तक दस-बारह हो ही जाती थी। उससे पहले 12-15। गज़ब की पाचन-क्षमता  रही है मेरी। प्रातः घर से 7.30 निकल जाती थी किन्तु आम बात थी कि चार से पांच चाय पी लेती थी। काम करते-करते एक कप खाली हुआ, दूसरा तैयार। एक नाश्ते के साथ और दूसरा नाश्ते के बाद। फिर कार्यालय पहुँचकर टेबल पर सबसे पहले चाय। चाय देने वाले को भी पता था कि मैडम को कितनी चाय चाहिए होती है। वैसे भी छोटे-छोटे गिलास में आती चाय वैसे ही मूड खराब कर देती है इस कारण मुझे हर जगह अपना ही कप या गिलास रखना पड़ता था। जब मेरा स्थानान्तरण हुआ तो मज़ाक किया जाता था कि कंटीन तो अब बन्द हो जायेगी, कविता तो जा रही है।

मेरे लिए चाय का अर्थ है शुद्ध चाय। अर्थात पानी, ठीक-सा दूध, चीनी और पत्ती। कुछ लोग चाय के नाम पर काढ़ा पीना पसन्द करते हैं। हाय! अदरक नहीं डाला, छोटी इलायची के बिना तो स्वाद ही नहीं आता, दालचीनी वाली चाय बड़ी स्वाद होती है। दूध वाली गाढ़ी चाय होनी चाहिए। अरे तो दूध ही पी लीजिए, चाय के बहाने दूध क्यों पी रहे हैं, सीधे-सीधे कहिए कि दूध पीना है। कुछ लोग चाय का मसाला बनाकर रखते हैं। अरे ! ऐसी ही चाय पीनी है तो गर्म मसाला ही पी लीजिए, चाय को क्यों बदनाम कर रहे हैं।

लोग कहते हैं चाय से गैस हो जाती है, नींद नहीं आती है अथवा नींद आ जाती है। पता नहीं कैसे हैं यह लोग।

आह! किसी समय, कितनी बार, कहीं भी, बस चाय, चाय और चाय।

  

जीवन और परिवर्तन

परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, जिस पर मनुष्य का नियन्त्रण नहीं।  मानव कितना ही शक्तिशाली हो जाये, प्रकृति में नित्य प्रति आने वाले परिवर्तन पर नियन्त्रण नहीं कर सकता। शीत को ग्रीष्म में और ग्रीष्म को शिशिर में नहीं बदल सकता।

वास्तव में परिवर्तन विकास, चेतना, चिन्तन का प्रतीक है। परिवर्तन हमारी इच्छाओं, कामनाओं, लालसाओं का दूसरा नाम है।  जिस दिन परिवर्तन रुक जायेगा, उस दिन मानवता भी ठहर जायेगी। हम कह सकते हैं कि परिवर्तन विकास का ही दूसरा नाम है।

एक परिवर्तन सहज-स्वाभाविक है और दूसरा परिवर्तन सप्रयास। परिवर्तन प्रायः आवश्यकता आधारित होता है और अब आवश्यकताएँ लगभग पूर्ण होने लगती हैं तब लालसा एवं प्रदर्शन के कारण भी हम जीवन में परिवर्तन करने लगते हैं।

मनुष्य की चेतना उसकी सर्वोत्तम उपलब्धि तथा अन्य सभी गुणों का आधार है। यह व्यक्ति मानस की प्रमुख विषेशता होने के साथ.साथ निरन्तर परिवर्तनशील हैए अतः विकासोन्मुख हैए स्थिर या जड़ नहीं। यही उसे पाशव स्तर से उठाकर मानव स्तर तक ले आती है।

इसी कारण सृष्टि के आरम्भ होते ही परिवर्तन, विकास और चिन्तन की प्रक्रिया आरम्भ हुई, इसी कारण आज मानव आधुनिकता के इस द्वार पर खड़ा है। जंगल में रहते हुए मानव ने अपने हित में, अपनी सुरक्षा और जीवन-यापन के लिए प्रकृति के साथ मिलकर परिवर्तन की प्रक्रिया आरम्भ की होगी। गुफ़ाओं को घर बनाया होगा, उन्हें सुरक्षित किया होगा, जीवन-यापन के लिए, भोज्य सामग्री की तलाश की होगी। प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए सुरक्षा साधनों का विकास किया होगा। परिवर्तन और विकास की यह प्रक्रिया इतनी लम्बी रही होगी कि हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। एकल मानव संगठित हुआ, समूह बने होंगें, और अन्ततः परिवर्तन और विकास की आँधी ने उसे आज आधुनिकता के चरम तक पहुँचा दिया है।

जीवन के इस परिवर्तन को यदि हम सहज-स्वाभाविक रूप में स्वीकार कर लेते हैं तो जीवन सहज हो जाता है। क्योंकि जब भौतिक परिवर्तन होता है तब विचारों, भावों, रीति-परम्पराओं, रहन-सहन, शिक्षा, संस्कारों, व्यवहार, सामाजिकता, पारिवारिक संगठन, परिवेश, वेश-भूषा सबमें परिवर्तन अवश्यम् भावी है। भौतिक परिवर्तन एवं विकास के साथ बहुत कुछ पुराना छूटना स्वाभाविक है और नये को स्वीकार करना जीवनगत आवश्यकता।

इस वास्तविकता को, इस परिवर्तन को, हम जितनी सहजता से स्वीकार कर लें, जीवन की प्रक्रिया भी उतनी ही सरल-सहज होने लगती है।

किन्तु समस्या यह कि हम भौतिक परिवर्तन को तो स्वीकार कर रहे हैं किन्तु कहीं-कहीं पुरातनता का लबादा ओढ़ने में, प्रदर्शन करने में हमें आनन्द मिलता है। हम भौतिक परिवर्तन एवं वैचारिक परिवर्तन में तालमेल नहीं बिठाना चाहते।

हमारे आधुनिक समाज की यही समस्या है कि हम आधुनिक तो होना चाहते हैं, सब सुविधाएँ भी चाहिए किन्तु न जाने कहाँ-कहाँ पुरातनता ढूँढते हैं और अपने सुखमय वर्तमान को कोसते रहते हैं। आवश्यकता है, भौतिक परिर्वतन अर्थात भौतिक विकास एवं वैचारिक परिवर्तन अर्थात विचारधारा में एक परिपक्व समझ की। 

परिवर्तन सकारात्मक भी होते हैं और विरोधाभासी भी। नकारात्मक परिवर्तन हमारे विचारों में होते हैं जिस कारण अनेक बार विकासात्मक परिवर्तन बाधित होता है।

 ​​​​​​​वर्तमान में परिवर्तन में जिस विषय पर सर्वाधिक चर्चा की जाती है वह है हमारे विचारों, भावों, संस्कारों, रीति-रिवाज़ों, व्यवहार आदि में परिवर्तन की। निःसंदेह हमारी प्राचीन संस्कृति, रीति, परम्पराएँ, व्रतोपवास, पूजा-विधि, उपचार-पद्धति आदि उत्कृष्ट रहे हैं किन्तु वर्तमान जीवन पद्धति में प्राचीन काल की भाँति इनका अनुपालन सम्भव ही नहीं है। विशेषकर नई पीढ़ी आधुनिकता की सीढ़ियाँ चढ़ती प्राचीनता के प्रति आग्रही नहीं हो पा रही है। हम बच्चों को प्रत्येक क्षेत्र में आधुनिकतम् सुविधाएँ प्रदान करना चाहते हैं, विलासितापूर्ण जीवन देना चाहते हैं, जीवन की प्रत्येक सुख-सुविधा प्रदान करना चाहते हैं फिर वह शिक्षा हो, रहन-सहन हो, पहनावा हो अथवा अन्य कोई भी सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक अथवा भौतिक आवश्यकता। किन्तु हम इस बात पर कदापि विचार नहीं करते कि जब भौतिक सुख-साधन बदलते हैं तब मानसिक विचारधाराएँ स्वयंमेव ही बदल जाती हैं। इस परिवर्तन में कुछ भी ठीक अथवा गलत नहीं होता, यह स्वाभाविक होता है। परिवर्तन के इस दोहरे रूप को समझना और स्वीकार करना ही जीवन की सफ़लता है।

  

 

आत्म संतोष क्या जीवन की उपलब्धि है

प्रायः कहा जाता है कि जीवन में आत्म-संतोष ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, यही परम संतोष है।

किन्तु आत्म संतोष क्या है?

क्या अपनी इच्छाओं, अभिलाषाओं का दमन आत्म-संतोष का मार्ग है?

वास्तविक धरातल पर जीवन जीना जितना कठिन और कटु है  उपदेश देना और सुनाना उतना ही सरल।

पर उपदेश कुशल बहुतेरे।

वर्तमान उलझनों भरे जीवन, भागम-भाग की जीवन शैली, प्रतियोगिताओं, एक-दूसरे से आगे निकल जाने की दौड़, प्रतिदिन कुछ नया पाने की चाहत, पुरातनता और  नवीनता के बीच उलझते, परम्पराओं, संस्कृति और आधुनिकतम जीवन शैली; तब आत्म संतोष कहाँ और परम संतोष कहाँ! हम अपनी इच्छाओं, आवश्यकताओं को किसी सीमा में नहीं बांध सकते, क्योंकि हमारी इच्छाएँ और सीमाएँ केवल हमारी नहीं होती, हमारे परिवेश से जुड़ी होती हैं।

आत्म संतोष की सीमा क्या है, कौन सा द्वार है जहाँ पहुँच कर हम यह समझ लें कि अब बस। जीवन की समस्त उपलब्धियाँ प्राप्त कर ली हमने। अब परम धाम चलते हैं। क्या ऐसा सम्भव है?

जी नहीं, बनी-बनाई उपदेशात्मक सूक्तियाँ सुना देना, कुछ आप्त वाक्य बोल देना, ग्रंथों से सूक्तियाँ उद्धृत करना और यह कहना कि हममें आत्म संतोष होना चाहिए और वह ही परम संतोष है, किसी के भी जीवन का सबसे बड़ा झूठ और छल है।

हम यह नहीं कह सकते कि आत्म-संतोष मिल गया और हम परम संतोष की अवस्था में पहुँच गये।

मेरे विचार में आत्म संतोष क्षणिक है, सीमित है, इसका विस्तार जीवनगत नहीं है। जैसे हम कहते हैं आज मेरे बच्चे को मेरा बनाया भोजन बहुत पसन्द आया, मुझे आत्म संतोष मिला। अथवा आज मैंने किसी की सहायता की, मन आत्म-संतोष से भर गया, और मैं परम संतोष की अवस्था में पहुँच गई। अथवा मेरे व्यवहार से वे प्रसन्न हुए, मुझे आत्म-संतोष मिला अथवा परम संतोष मिला।

संतोष की अन्तिम स्थिति हमारे जीवन में सम्भव ही नहीं क्योंकि हम सामाजिक, पारिवारिक प्राणी हैं और आत्म संतोष एवं परम संतोष के लिए प्रतिदिन हम प्रयासरत रहते हैं।

सामाजिक जीवन में, समाज में रहते हुए, अपनी इच्छाओं का दमन करना आत्म संतोष नहीं है, आत्म-संतोष है जीवन में उपलब्धि, लक्ष्य की प्राप्ति, सफ़लता। जीवन में आत्म संतोष किसी एक कार्य से नहीं मिलता, प्रति दिन और बार-बार किये जाने वाले कार्यों से मिलता रहता है, यह एक आजीवन प्रक्रिया है।

अतः आत्म संतोष अथवा परम संतोष जीवन की चरम प्राप्ति अथवा उपलब्धि नहीं है, हमारे कार्यों, व्यवहार से उपजा भाव है जिसकी प्राप्ति के लिए हम हर समय प्रयासरत रहते हैं।

  

धर्मगुरुओं के अधार्मिक आचरण

 

हमारे देश में धर्मगुरुओं की बहुत बात होती है और अनगिनत धर्मगुरु हमारे चारों ओर छाये हुए हैं।

किन्तु ये धर्मगुरु कौन हैं? हम किसे धर्मगुरु कह सकते हैं? वे कौन से धर्म के ज्ञाता हैं? किस धर्म की व्याख्या वे करते हैं, कौन से धर्म की चर्चा कर रहे हैं, समझ ही नहीं आ पाता। कौन से ग्रंथों का वाचन करते हैं अथवा कौन सी परम्पराओं, आचरण, व्यवहार, संस्कृति का विश्लेषण करते हैं सम्भवतः वे स्वयं ही नहीं जानते। उनके भाषण सुनने पर कई बार ऐसा प्रतीत होता है मानों वे पांचवी कक्षा की नैतिक शिक्षा की पुस्तक से पाठ सुना रहे हैं।

वास्तव में ये तथाकथित धर्मगुरु अपने समय के कथा-वाचक हैं। पहले समय में ये अपनी मंडलियों के साथ जीवन-यापन के लिए गांवों -शहरों में कथाएं सुनाते घूमते थे। लोगों की छोटी-छोटी दान-दक्षिणा से इनका जीवन-यापन होता था। ये बंजारों की तरह घुमंतू हुआ करते थे। किन्तु समय के साथ इनके श्रोता कम होने लगे और इन लोगों ने भी किसी मन्दिर, सामाजिक स्थानों के निकट  अपना एक निश्चित ठिकाना बनाना शुरू कर दिया। इन कथा-वाचकों के साथ अब निठल्लों, अपराधियों, बेरोज़गारों का भी साथ होने लगा। जीवन-यापन के लिए इन्होंने धर्म की आड़ लेनी शुरू कर दी। धर्म के साथ पाखंड जुड़ा, फिर राजनीति।

 ऐसे लोगों पर देश का प्रायः कोई कानून लागू नहीं होता। इस बात का ही फा़यदा उठाकर; देश में फैले अंधविश्वास, निर्धनता, निरक्षरता, और दूसरी ओर राजनीति, काली कमाई के चलते इन लोगों को हमने ही उच्च पदासीन कर दिया और अपनी गाढ़ी कमाई से इनके बड़े-बडे़ करोड़ों-अरबों के आश्रम, मन्दिर, मूर्तियां, सिंहासन रच दिये। जब ये धर्मगुरू ही नहीं तो धार्मिक आचरण की अपेक्षा ही कैसे?

 ऐसे तथाकथित गुरुओं, स्वामियांे के लिए कानून होना चाहिए कि वे एक सीमा से अधिक सम्पत्ति अर्जित न कर सकें, अपनी आय का सम्पूर्ण विवरण जनता को दें, इन्हें कर के दायरे में लिया जाना चाहिए एवं सरकारी सम्पत्ति अथवा भूमि पर कार्यक्रमों की अनुमति प्रदान नहीं की जानी चाहिए। सबसे बड़ी बात मीडिया को इनका प्रचारक नहीं बनना चाहिए फिर वे विज्ञापन हों अथवा धार्मिक प्रसारण।

 

  

 

अहंकार द्वेष ईर्ष्या

तीनों शब्द अहंकार ,द्वेष ,ईर्ष्या बोलने में हम साथ साथ बोल लेते हैं किन्तु सभी भिन्नार्थक हैं।

अहंकार मानव अपने आप पर करता है। जब मनुष्य को अपने गुणों, स्थिति, धन-सम्पत्ति अथवा योग्यता अर्थात व्यक्तिगत उपलब्धियों पर अभिमान होने लगता है और  वह दूसरे को अपने से हीन मानने लगता है तब वह अहंकार की स्थिति में जाता है।

ईर्ष्या प्रतियोगिता की अगली सीढ़ी है। जब हम प्रतियोगिता में किसी से आगे नहीं बढ़ सकते, तब उससे ईर्ष्या करने लगते हैं

ईर्ष्या तब होती है जब हम अपने आप को दूसरों से हीन समझने लगते हैं तभी तो किसी की प्रगति, उपलब्धि, धन-सम्पत्ति, योग्यता आदि की जब अकारण ही आलोचना करने लगते हैं, उसकी योग्यताओं में कमियां ढूंढने लगते हैं तब वह ईर्ष्या की स्थिति बन जाती है।

द्वेष ईर्ष्या की अगली सीढ़ी है। ईर्ष्या में वैर-भाव, हानि पंहुचाने का भाव नहीं रहता, जबकि द्वेष-भाव की स्थिति में मनुष्य सामने वाले से आगे बढ़ने के लिए कोई भी तरीका अपनाने का प्रयास करता है, उसका बुरा चाहने लगता है। फिर वह उसका रास्ता काटना हो, उसके रास्ते में रोड़े अटकाना हो अथवा स्वयं गलत रास्ते पर चलकर उससे आगे बढ़ना।

प्रतियोगिता का भाव मानव मन में बने रहना आवश्यक है तभी वह प्रगति कर सकता है। किन्तु कब वह अंहकार, ईर्ष्या, द्वेष में परिवर्तित हो जाता है वह मानव स्वयं भी नहीं जानता।

  

असमंजस में नई पीढ़ी

आज हमारी पीढ़ी तीन कालखण्डों में जी रही है।

एक वह जो हमारे पूर्वज हमें सौंप गये। दूसरा हमारा स्वयं का विकसित वर्तमान और  तीसरा हमारी भावी पीढ़ी  जिसमें हम अपना भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों खोजते हैं।

वर्तमान समाज की सबसे कठिन समस्या है इन तीनों के मध्य सामंजस्य बिठाना। अतीत हमें छोड़ता नहीं, वर्तमान हमारी आवश्यकता है। और  भविष्य हमें अपने हाथ से निकलता दिखाई दे रहा है।

एक असमंजस की स्थिति है। धर्म, परम्परा, संस्कृति, रीति रिवाज़, संस्कार, व्यवहार, जो हमें पूर्वजों से मिले हैं उनकी गठरी अपनी पीठ पर बांधे हम विवश से घूम रहे हैं। न ढोने की स्थिति में हैं और  न परित्याग कर सकते हैं क्योंकि हमारी कथनी और  करनी में अन्तर है। हम उस गठरी का परित्याग करना तो चाहते हैं किन्तु समाज से डरते हैं। और  इस चिन्ता में भी रहते हैं कि इसमें न जाने कब कुछ काम का मिल जाये। अपनी आवश्यकतानुसार, सुविधानुसार उसमें कांट छांट कर लेते हैं। अपनी जीवन शैली को सरल सहज, सुविधाजनक बनाने के लिए कुछ जोड़ लेते हैं कुछ छोड़ देते हैं। और  जो मनभावन प्रतीत नहीं होता उसे तिरोहित कर देते हैं। उनका गुणगान तो करते हैं किन्तु निभा नहीं पाते।

इसका दुष्परिणाम हमारी भावी पीढ़ी भुगत रही है। हमने अपनी पीठ की गठरी के साथ साथ अपने समय की भी एक गठरी भी तैयार कर ली है और  हम चाहते हैं कि हमारी भावी पीढ़ी अपनी नवीन जीवन शैली के साथ इन दोनों के बीच संतुलन एवं सामंजस्य स्थापित करे। उसका अपना एक नवीन, आधुनिक, विकसित, वैज्ञानिक समाज है जहां हमने स्वयं उसे भेजा है। किन्तु उसे हम स्वतन्त्रतापूर्वक आगे बढ़ने नहीं दे रहे, अपनी तीनों गठरियों का बोझ उनके कंधे पर लाद कर चले हैं।

  

सम्बन्धों का सम्मान
हमारे पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों में एक शब्द बहुत महत्व रखता है –“जैसा,जैसे,“समान क्या आपका किन्हीं सम्बन्धों के बीच इन शब्दों का सामना हुआ है।

सीधे-सीधे अपने मन की बात कहती हूं।

किसी ने मुझसे पूछा क्या यह आपकी बेटी है?”

मैंने कहा जी नहीं, मेरी बहू है।

उन्होंने मुझे कुछ तिरस्कार, कुछ उपेक्षा भरी दृष्टि से देखा और  बोले, बहू भी तो बेटी-समान ही होती है। क्या आप अपनी बहू को बेटी-जैसी नहीं मानते

मैंने कहा ,नहीं, मैं अपनी बहू को, बेटी जैसीनहीं मानती। बहू ही मानती हूं

उनके लिए एवं समाज के लिए मेरा यह उत्तर पर्याप्त नकारात्मक है।

 

मेरे इस कथन पर मुझे बहुत उपदेश मिले, तिरस्कार-पूर्ण भाव मिले, और मुझे समझाया गया कि सास-बहू में आज इसीलिए इतनी खटपट होती है क्योंकि सासें बहुंओं को अपनाती ही नहीं।

मैंने अपना स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया कि मैंने अपनाया है अपनी बहू को बहू के रूप में, बहू के अधिकार के रूप में , उसकी जो ‘‘पोस्’’ है उसी पर। इसी सम्बन्ध को बनाये रखने में हमारी गरिमा है, किन्तु प्रायः मेरा उत्तर किसी की समझ में नहीं आता। घर में कहते हैं तू क्यों सबसे पंगा लेती है, कहने दे जो कोई कहता है। मेरा प्रश्न है कि हर क्षेत्र के सम्बन्धों की अपनी गरिमा, रूप होता है, उस पर अन्य सम्बन्ध क्यों थोपे जाते हैं ? हम पारिवारिकसामाजिक सम्बन्धों में यह जैसा”, “समानजैसे शब्दों का प्रयोग क्यों करने लगे हैं। जो सम्बन्ध हैं, उनको उसी रूप में सम्मान क्यों नहीं दे पाते।

मैं कार्यरत हूं। अनेक बार कोई सहकर्मी कह देता है आप तो मेरी मां जैसी हैं।कोई कहता है आप तो हमारी बड़ी बहन जैसी हैं, किसी का वाक्य होता है : “मैं तो आपके बेटे जैसा हूं।

 मैं कहती हूं नहीं, आप केवल मेरे सहकर्मी हैं।

मेरा यह उत्तर नकारात्मक ही नहीं हास्यास्पद भी होता है।

हम अपने बच्चों को कहते हैं: भाभी को मां समान समझना, देवर को बेटे समान मानना। सास-ससुर की माता-पिता समान सेवा करना। एक महिला अपने ढाई वर्ष के बेटे को पड़ोस की दो वर्ष की बच्ची के लिए कह रही है, बेटा यह तेरी दीदी है। लेकिन साली को बहन समान समझना यह मैंने कभी नहीं सुना।

और  सबसे बड़ी बात: बेटी को बेटा जैसा मानें। जहां तक मेरी  समझ कहती है इसका अभिप्राय यह कि बेटे और बेटी के अधिकार समान रहें। तो मैंने कभी किसी को यह कहते नहीं सुना कि बेटे को बेटी जैसा मानें, जब समानता की बात करनी है तो दोनों ओर से की जा सकती है, अर्थात हम कहीं तो भेद-भाव लेकर चल ही रहे हैं।

हम वे ही रिश्ते क्यों मानें, जो वास्तव में हैं, उन्हीं सम्बन्धों में पूर्ण सम्मान दें, अधिकार एवं अपनत्व दें, तो क्या सम्बन्धों में ज़्यादा गहराई, ज़्यादा अपनत्व, ज़्यादा विश्वास का भाव नहीं उपजेगा।

क्या सामाजिक पारिवारिक सम्बन्धों को लेकर हमारे मन में कोई डर, कोई खौफ़ है जो हम हर सम्बन्ध पर एक लबादा ओढ़ाने में लगे हैं, अथवा परत-दर-परत चढ़ाने में लगे हैं।

लोग कहते हैं कि हम सम्बन्धों का नाम देकर सम्मान-भाव प्रदर्शित करते हैं। मेरा प्रश्र होता है कि जो सम्बन्ध वास्तव में है, उस पर कोई और  सम्बन्ध लादकर क्या हम वास्तविक सम्बन्धों का अपमान नहीं कर रहे।
  

ब्लाकिंग ब्लाकिंग

अब क्या लिखें आज मन की बात। लिखने में संकोच भी होता है और लिखे बिना रहा भी नहीं जा सकता। अब हर किसी से तो अपने मन की पीड़ा बांटी नहीं जा सकती। कुछ ही तो मित्र हैं जिनसे मन की बात कह लेती हूं।

तो लीजिए कल फिर एक दुर्घटना घट गई एक मंच पर मेरे साथ। बहुत-बहुत ध्यान रखती  हूं प्रतिक्रियाएं लिखते समय, किन्तु इस बार एक अन्य रूप में मेरी प्रतिक्रिया मुझे धोखा दे गई।

 हुआ यूं कि एक कवि महोदय की रचना मुझे बहुत पसन्द आई। हम प्रंशसा में प्रायः  लिख देते हैं: ‘‘बहुत अच्छी रचना’’, ‘‘सुन्दर रचना’’, आदि-आदि। मैं लिख गई ‘‘ बहुत सुन्दर, बहुत खूबसूरत’’ ^^रचना** शब्द कापी-पेस्ट में छूट गया।

मेरा ध्यान नहीं गया कि कवि महोदय ने अपनी कविता के साथ अपना सुन्दर-सा चित्र भी लगाया था।

लीजिए हो गई हमसे गलती से मिस्टेक। कवि महोदय की प्रसन्नता का पारावार नहीं, पहले मैत्री संदेश आया, हमने देखा कि उनके 123 मित्र हमारी भी सूची में हैं, कविताएं तो उनकी हम पसन्द करते ही थे। हमने सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी।

बस !! लगा संदेश बाक्स घनघनाने, आने लगे चित्र पर चित्र, कविताओं पर कविताएं, प्रशंसा के अम्बार, रात दस बजे मैसेंजर बजने लगा। मेरी वाॅल से मेरी ही फ़ोटो उठा-उठाकर मेरे संदेश बाक्स में आने लगीं। समझाया, लिखा, कहा पर कोई प्रभाव नहीं।

वेसे तो हम ऐसे मित्रों को  Block कर देते हैं किन्तु इस बार एक नया उपाय सूझा।

हमने अपना आधार कार्ड भेज दिया,

अब हम Blocked  हैं।

  

होलिका दहन की कथा: मेरी समझ मेरी सोच

एक अजीब-सा भटकाव है मेरी सोच में

मेरे दिमाग में

आपसे आज साझा करना चाहती हूं।

असमंजस में रहती हूं।

बात कुछ और चल रही होती है

और मैं अर्थ कुछ और निकाल लेती हूं।

जब होली का पर्व आता है तो हमें मस्ती सूझती है, रंग-रंगोली की याद आती है, हंसी-ठिठोली की याद आती है, राधा-कृष्ण की होली की मस्ती भरी कथाओं की बात होती है, इन्द्रधनुषी रंग सजने लगते हैं, मिठाईयों और  पकवानों की सुगन्ध से घर महकने लगते हैं। यद्यपि होली का सम्बन्ध कृषि से भी है किन्तु हम लोग क्योंकि कृषि व्यवसाय से जुड़े हुए नहीं हैं अत: होली के पर्व को इस रूप में नहीं देखते।

किन्तु मुझे केवल उस होलिका की याद आती है जो अपने बड़े भाई हिरण्यकशिपु के आदेशानुसार प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई थी और  जल मरी थी। उसके पास एक वरदानमयी चुनरी थी जिसे ओढ़ने से वह आग से नहीं जल सकती थी, किन्तु उस समय हवा चली और  चुनरी उड़ गई। इसका कारण यह बताया जाता है कि होलिका को चुनरी अच्छे कार्य करने के लिए मिली थी, किन्तु वह बुरा कार्य कर रही थी इसलिए चुनरी उड़ी और होलिका जल मरी।

ये चुनरियां क्यों उड़ती हैं ?  चुनरियां कब-कब उड़ती हैं

अब देखिए बात होली की चल रही थी और  मुझे चुनरी की याद आ गई और वह भी उड़ने वाली चुनरी की । अब आप इसे मेरे दिमाग की भटकन ही तो कहेंगे।

 लेकिन मैं क्या कर सकती हूं। जब भी चुनरी की बात उठती है, मुझे होलिका जलती हुई दिखाई देती है, और दिखाई देती है उसकी उड़ती हुई वरदानमयी चुनरी । शायद वैसी ही कोई चुनरी जो हम कन्याओं का पूजन करके उन्हें उढ़ाते हैं और आशीष देते हैं। किन्तु कभी देखा है आपने कि इन कन्याओं की चुनरी कब, कहां और कैसे कैसे उड़ जाती है। शायद नहीं।

क्योंकि ये सब किस्से कहानियां इतने आम हो चुके हैं कि हमें इसमें कुछ भी अनहोनी नहीं लगती।

 

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से और आपने रोका नहीं मुझे।

बात तो चुनरी की  और होलिका की चुनरी की कर रही थी और मैं होनी-अनहोनी की बात कर बैठी।

 फिर लौटती हूं अपनी बात की ओर

इस कथा से जोड़कर होली को बुराई पर अच्छाई, अधर्म पर धर्म एवं असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक-स्वरूप भी मनाया जाता है। अधिकांश ग्रंथों एवं पाठ्य- पुस्तकों में होलिका को बुराई का प्रतीक बताकर प्रस्तुत किया जाता है। होली से एक दिन पूर्व होलिका-दहन किया जाता है। यदि इस होलिका-दहन पर्व को मनाने की विधि को  हम सीधे शब्दों में लिखें तो हम होली से एक दिन पूर्व एक कन्या की हत्या का प्रतीक-स्वरूप एक उत्सव मनाते हैं। मेरी दृष्टि में यह उत्सव लगभग वैसा ही है जैसे कि दशहरे के अवसर पर रावण-दहन का उत्सव।

 

होलिका की बात मेरे लिए स्त्री-पुरूष रूप में नहीं है, केवल इतना है कि हमारी सोच एक ही तरह से क्यों चलती है? प्रह्लाद को तो नहीं मरना था, उसे तो हिरण्यकशिपु ने और भी बहुत बार मारने का प्रयास किया था किन्तु वह नहीं मरा था,  तो इस बार भी नहीं मरा। किन्तु ये पौराणिक कथाएं वर्तमान में क्या बन चुकी हैं मुझे तो नहीं पता। होलिका एक छोटी सी बालिका थी। बुरा तो हिरण्यकशिपु था, मेरी समझ में  होलिका का तो एक अस्त्र के रूप में उसने प्रयोग किया था।

और एक अन्य बात यह कि मैंने अपने आलेख में चुनरी का एक अन्य प्रतीक के रूप में भी प्रयोग करने का प्रयास किया है किन्तु सम्भवतः वह प्रतीक धर्म-अधर्म,  बुराई-अच्छाई, स्त्री-पुरूष के चिन्तन के बीच उभर ही नहीं पाया।

होलिका-दहन  के अवसर पर उपले जलाने की भी परंपरा है। गाय के गोबर से बने उपलों के मध्य  में छेद होता है जिसमें  मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात उपले होते हैं। होली में आग लगाने से पूर्व इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घुमा कर फेंक दिया जाता है। रात्रि को होलिका-दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। जिससे यह माना जाता है कि  होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।  अर्थात बहन की चिता में भाईयों की बुरी नज़र उतारी जाती है।

इस कथा की किस रूप में व्याख्या की जाये ?

होलिका  के पास एक वरदानमयी चुनरी थी जिसे पहनकर उसे आग नहीं जला सकती थी। किन्‍तु वह एक अत्याचारी,  बुरे  भाई की बहिन थी  जिसने राजाज्ञा का पालन किया था। उसकी आयु क्या थी ? क्‍या वह जानती थी  भाई के अत्याचारों, अन्याय को अथवा प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति को और अपने वरदान या श्राप को। पता नहीं । क्या वह जानती थी कि उसके बड़े भाई ने उसे प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठने के लिए क्यों कहा है ? यदि वह राजाज्ञा का पालन नहीं करती तब भी मरती और  पालन किया तो भी मरी।

किन्‍तु वह भी बुरी थी इसी कारण उसने भाई की आज्ञा का पालन किया। अग्नि देवता आगे आये थे प्रह्लाद की रक्षा के लिए। किन्तु होलिका की चुनरी न बचा पाये, और होलिका जल मरी।  वैसे भी चुनरी की ओर  ध्यान ही कहां जाता हैहर पल तो उड़ रही हैं चुनरियां। और हम ! हमारे लिए एक पर्व हो जाता है।  एक औरत जलती है  उसकी चुनरी उड़ती है और हम आग जलाकर खुशियां मनाते हैं।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से और आपने रोका नहीं मुझे।

  जिस दिन होलिका जली थी उस दिन बुराई का अन्त नहीं हुआ था, हिरण्यकशिपु उस दिन भी जीवित ही था, केवल होलिका जली थी, जिसके जलने की खुशी में हम होली मनाते हैं। फिर वह दिन बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक कैसे बन गया ? क्या केवल इसलिए कि एक निरीह कन्या जल मरी क्योंकि उसने भाई की राजाज्ञा का पालन किया था, जो सम्भवत: प्रत्येक वस्तुस्थति से अनभिज्ञ थी। और यदि जानती भी तो भी क्‍यों  

होलिका-दहन एवं होली के पर्व में मैं कभी भी एकरूपता नहीं समझ पाई।

अब आग तो बस आग होती है  जलाती है और जिसे बचाना हो बचा भी लेती है। अब देखिए न, अग्नि देव सीता को ले आये थे सुरक्षित बाहर, पवित्र बताया था उसे। और राम ने अपनाया था। किन्तु कहां बच पाई थी उसकी भी चुनरी , घर से बेघर हुई थी अपमानित होकर। फिर मांगा गया था उससे पवित्रता का प्रमाण। और वह समा गई थी धरा में एक आग लिए।

कहते हैं धरा के भीतर भी आग है।

आग मेरे भीतर भी धधकती है।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से और आपने रोका नहीं मुझे।

यह भी जानती हूं कि एेसे प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं होते क्योंकि हम कोई प्रश्न करते ही नहीं, उत्तर चाहते ही नहीं, बस अच्छे-से निभाना जानते हैं, फिर वह अर्थहीन हो अथवा सार्थक !!

मैंने अपने आलेख में चुनरी का एक अन्य प्रतीक के रूप में भी प्रयोग करने का प्रयास किया है किन्तु सम्भवतः वह प्रतीक धर्म.अधर्म,  बुराई.अच्छाई, स्त्री.पुरूष के चिन्तन के बीच उभर ही नहीं पाया।

   

वर्तमान स्वागत-सत्कार

श्रेष्ठि वर्ग / High Society

आपके सामने शानदार डोंगे भर-भर कर काजू, किशमिश, बादाम, अखरोट जैस सूखे मेवे रख दिये जाते हैं। आप एक नहीं, दो अथवा तीन दाने उठाकर खा लेंगे। फिर वे स्वयं ही बार बार चाय, कोल्ड ड्रिंक से होने वाली हानियों को सविस्तार बतायेंगे और  बतायेंगे कि वे तो एेसा कुछ भी सेवन नहीं करते। साथ ही  आपसे बार बार पूछेंगे आप क्या लेंगे। फिर छोटे छोटे cut glasses में आपको तीन-चार घूंट कोई energy drink serve की जायेगी जिससे आप अपना गला तर करके, कुछ दाने टूंग कर चल देंगे।

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उच्च मध्यम वर्ग  ः  एक बिस्कुट की प्लेट और  नमकीन की एक-दो प्लेट आपके सामने जायेगी  और  दो-तीन बार आपके सामने घूम कर लौट जायेगी। साथ आधा कप चाय अथवा कोई चलती सी कोल्ड ड्रिंक

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और  आह ! सही लोग : सही स्वागत-सत्कार

समासे, पकौड़े, गुलाबजामुन, रसगुल्ले, और  इनके सारे रिश्तेदार और  कम से कम दो-तीन बार चाय।

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आप मुझे जलपान पर कब आमन्त्रित कर रहे हैं

  

कामयाबी और भटकाव’

 

ओलम्पिक पदक विजेता सुशील कुमार पर गम्भीर आपराधिक मामले हैं। प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद नामी खिलाड़ी नकारात्मक दुनिया में कदम रखने लगे हैं। यह उनकी आकांक्षाओं का विस्तार और भटकाव तो है ही, किन्तु विचारणीय यह कि कारण क्या है? निःसंदेह ओलम्पिक में पदक प्राप्त करना बहुत बड़ी उपलब्धि है, और वे सम्मान के पात्र भी हैं। किन्तु इन विजेताओं को इतना महिमा-मण्डित किया जाता है कि वे अपने-आपको अति श्रेष्ठ समझने लग जाते हैं। कामयाबी और अहंकार उनके सर चढ़कर बोलने लगता है।  पुरस्कारों, पदकों, नकद राशि, ज़मीन, फ़्री की उंची नौकरी, उपहारों की झड़ी लग जाती है और यहां तक राजनीति में भी इनकी पूछ होने लगती है। राजीव गांधी खेल-रत्न, अर्जुन पुरस्कार, पद्म श्री, आदि न जाने कितने पुरस्कार मिले। कितने ही खिलाड़ियों को खेल एकेडमी खोलने के लिए ज़मीन दी जाती है। किन्तु जिस ओलम्पिक तक वे पहुंचते हैं, परिश्रम उनका होता है किन्तु उन पर किया जाने वाला व्यय, अभ्यास, प्रयास सब देश करता है और आम नागरिक के  धन से होता है। इसका एहसास उन्हें कभी भी नहीं कराया जाता। उन पर कोई दायित्व नहीं होते । इतना सब मिल जाने के बाद वे प्राप्त धनराशि, पद, ज़मीन का क्या कर रहे हैं कोई नहीं पूछता। उपलब्धियों के बाद वे अपने खेल के प्रति अथवा देश के प्रति क्या उत्तरदायित्व निभा रहे हैं कोई जांच नहीं होती। सात पीढ़ियों की सुविधाएं उनके पास आ जाती हैं और उन्हें कोई कर्तव्य बोध नहीं कराया जाता। हमारी यही नीतियां उन्हें नाकारा, उच्छृंखल और अपराधी बना देती हैं।

  

तूफान (मन के अंदर और बाहर) एक बोध कथा

तूफ़ान कभी अकेले नहीं आते। आंधी-तूफ़ान संयुक्त शब्द ही अपने-आप में पूर्ण अभिव्यक्ति माना जाता है। वैसे बात तो एक ही है। आंधी हो या तूफ़ान, बाहर हो अथवा अन्तर्मन में, बहुत कुछ उजाड़ जाता है, जो कभी दिखता है कभी नहीं। अभी कुछ दिन पूर्व ताउते एवं यास तूफ़ान ने लाखों लोगों को बेघर कर दिया।  हम दूर बैठे केवल बात ही कर सकते हैं। जिनके घर उजड़ गये, व्यवसाय डूब गये, उन पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन तूफ़ानों का प्रभाव रह जाता है। ये बाहरी तूफ़ान कितने गहरे तक प्रभावित करते हैं मन को, जीवन-शैली को, सामाजिक-पारिवारिक रहन-सहन को, शब्दों में समझाया नहीं जा सकता।

कोरोना भी तो किसी तूफ़ान से कम नहीं। हां, इसकी गति मन  और प्रकृति के तूफ़ान से अलग है। दिखता नहीं किन्तु उजाड़ रहा है। एक के बाद एक लहर, सम्हलने का समय ही नहीं मिल रहा। पूरे-पूरे परिवार, नौकरियां, व्यवसाय इस तूफ़ान ने लील लिए, और कोई आवाज़ तक नहीं हुई। किस राह से किस घर में और किस देह में प्रवेश कर जायेगा, कोई नहीं जानता।  किस दरार से, किस द्वार से हमारे घर के भीतर प्रवेश कर गई पता ही नहीं लगा। पांचों सदस्य एक साथ प्रभावित हुए। एक माह बाद भी अभी सम्हल नहीं पाये। कोविड उपरान्त अनेक समस्याएं हो रही हैं और हो सकती हैं।  यह और भी भयंकर इसलिए कि अपनों की अपनों से पहचान ही मिटा रहा है। पड़ोसियों ने हमारे घर की ओर देखना बन्द कर दिया, मानों कहीं हवा से उनके घर में प्रवेश न कर जाये। हम बीस दिन घर में पूरी तरह बन्द रहे। कोई किसी की सहायता नहीं कर सकता अथवा करता, एक अव्यक्त भय ने घेर लिया है।

पिछले लगभग एक महीने में यहां पंचकूला में तीन-चार बार भयंकर तूफ़ान आया। हमारे दो सुन्दर फूलों के गमले गिर कर टूट गये। कोई दिन नहीं जाता जब मैं उन गमलों और फूलों को याद नहीं करती। फिर सोचती हूं, मैं दो गमलों के लिए इतनी परेशान हूं, जिनका पूरा जीवन ही उजड़ गया इन तूफ़ानों में, उनका क्या हाल हुआ होगा।

शायद मैं अपनी अभिव्यक्ति में उलझ रही हूं। एक ओर प्राकृतिक तूफ़ान की बात है और दूसरी ओर मन के अथवा आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक स्तर पर आने वाले तूफ़ानों की।

एक विचारों का, चिन्तन का झंझावात ऐसा भी होता है जो शब्दरहित होता है, न उसकी अभिव्यक्ति होती है, न अभिप्राय, न अर्थ। जिसके भीतर उमड़ता है बस वही जानता है।

एक बोध कथा है कि तूफ़ान आने पर घास ने विशाल वृक्षों से कहा कि झुक जाओ, नहीं तो नष्ट हो जाओगे। वृक्ष नहीं मानें और आकाश की ओर सिर उठाये खड़़े रहे। तूफ़ान बीत जाने के बाद वृक्ष धराशायी थे किन्तु झुकी हुई घास मुस्कुरा रही थी। किन्तु कथा का दूसरा पक्ष जो बोध कथा में कभी पढ़ाया ही नहीं गया, वह यह कि झुकी हुई घास सदैव पैरों तले रौंदी जाती रही और वृ़क्ष अपनी जड़ों से फिर उठ खड़े हुए आकाश की ओर।

किन्तु यह तो बोध कथाएं हैं। वास्तविक जीवन में ऐसा कहां होता है। जब तूफ़ान आते हैं तो निर्बल को पहले दबोचते हैं। किन्तु उसकी चर्चा नहीं होती। चर्चा होती है शेयर बाज़ार में तूफ़ान। राजनीति में तूफ़ान। जब हम समाचार सुनना चाहते हैं और तरह-तरह के तूफ़ानो से चिन्तित वास्तविकता जानना चाहते हैं तब वहां उन तूफ़ानों पर चर्चा चल रही होती है जो आये ही नहीं। और हम घंटों मूर्ख बने उसे ही सुनने लग जाते हैं, वास्तविकता से बहुत दूर उन्हें ही सत्य मान बैठते हैं।

  

‘‘लकीर का फ़कीर ’’ मुहावरे की चीर –फ़ाड़

लकीर का फ़कीर! कौन होता है लकीर का फ़कीर? किसने बनाया यह मुहावरा। मुझे तो दोनों शब्दों में कोई सामंजस्य अर्थात ताल-मेल ही समझ नहीं आ रहा। इस कारण मैं स्वयं ही असमंजस में हूं। अब आप सब मेरे मित्र हैं, आप सबसे अपने मन की बात नहीं बांटूंगी तो कहां जाउंगी भला!

चलिए पहले फ़कीर की बात करती हूं। फ़कीर वही होते हैं न लम्बे चोगे वाले, पठानी से, बड़े-उंचे कद वाले।

आजकल हमें गूगल देवता की बहुत आदत हो गई है। मैंने सोचा, देखूं गूगल देवता फ़कीर को जानते भी हैं या नहीं। लीजिए, उन्होंने तो चित्रों की झड़ी लगा दी। एक से बढ़कर एक फ़कीर। कोई बड़ी-सी पगड़ी वाले, लम्बी सफ़ेद दाढ़ी, हार-मालाएं पहने, हाथ में फ़कीरी का कटोरा। कोई इकतारा बजाते हुए, कोई सुट्टा लगाते हुए। लाठी, मालाएं और सफ़ेद लम्बी दाढ़ी सबके पास।

हमारे ज़माने में स्तरीय भिक्षुकों को फ़कीर ही कहा जाता था। हम बच्चे साधारणतः इनके लिए ‘‘मांगने वाले’’ शब्द का प्रयोग करते थे, जिसके लिए बहुत डांट पड़ती थी। मां कहती थी, ‘जा, फ़कीर को रोटी दे आ’।

फ़कीरी शब्द लापरवाही से जीवन-यापन करने वालों के लिए भी प्रयोग किया जाता है।  जीवन में दुख-सुख से ऊपर, धन-दौलत को मिट्टी समझने वाले। ईष्र्या, द्वेष, प्रेम-नेह सबसे दूर। किन्तु इनके साथ लकीर कहां से आ गई? ऐसे लोगों के जीवन में तो लकीरें होती ही नहीं।  यदि कोई, किसी भी तरह की लकीर है तो फिर फ़कीरी कैसी! मैं अपनी क्षुद्र बुद्धि से इतनी बड़ी समस्या का समाधान करने निकली हूं, साहस है मेरा।

चलिए, अब लकीर की बात करते हैं। फिर दोनों में तालमेल, सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करेंगे।

लकीर वही न जिसे हिन्दी में ‘रेखा’ कहते हैं। किन्तु जिस गहन भाव का अनुभव ‘लकीर’ शब्द प्रयोग से होता है वह ‘रेखा ’में कहां। और यही बात लकीर पर भी लागू होती है कि जो उत्तम भाव रेखा शब्द प्रयोग से मिलता है वह ‘लकीर’ से कहां! अब आप ही बताईये मैं लकीर से बात करुं या रेखा से?

पर्यायवाची शब्द के रूप में तो रेखा शब्द का प्रयोग किया जा सकता है किन्तु क्योंकि हम एक मुहावरे के पीछे पड़े हैं और वहां ‘लकीर’ है तो लकीर पर ही बात करना उचित होगा।

लकीर का अभिप्राय बाधा भी होता है। जैसे ‘मैं तो यह कार्य करना चाहती थी किन्तु ऐसी लकीर खिंची कि क्या बताउं’। ‘किस्मत ने ऐसी लकीर खींची कि सब उजड़ गया’। आदि-आदि

चलिए, दोनों का घालमेल करते हुए बात करते हैं कुछ तो निष्कर्ष निकलेगा और नहीं भी निकला तो मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा।

 ‘रेखा’ ने तो ‘लक्ष्मण रेखा’ से असीम प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी। ‘रेखा’ का महत्व गणित में बहुत है। किन्तु मैं अब यहां शिक्षा के क्षेत्र में पदार्पण नहीं करने वाली कि आपकी मेरा आलेख पढ़ने में रुचि ही न रहे।

 किन्तु लकीर तो एक समय बाद फ़कीरों के हाथ से निकलकर समाज में आ पसरी। घरों के भीतर, घरों के बाहर, हमारे मन में, सम्बन्धों में, सहारों में, जहां-तहां लकीरें खिंची देखी जा सकती हैं। और दुख की बात यह कि ये लकीरें फ़कीरी की नहीं होतीं। मन-मुटाव की, धन-दौलत की, ज़मीन-जायदाद की, अपने-अपने अधिकारों की या अधिकारों के हनन की, उंची-उंची दीवारों की, न जाने कितनी तरह की लकीरें खिंचने लगी हैं। ये लकीरें दिखती नहीं हैं, बस चुभती हैं, तोड़ती हैं, काटती हैं और विभाजित करती हैं। इसे कहते हैं लकीर की फ़कीरी!

 

अब वास्तविकता के धरातल को छोड़कर इतिहास में चलते हैं।

‘लकीर का फ़कीर’ मुहावरा का उद्गम कब, कैसे हुआ?

कहा जाता है कि एक महाज्ञानी गुरु थे। वे अपने शिष्यों से  आग्रह करते थे कि वे जो भी पढ़ाते हैं उसे लिपिबद्ध अवश्य करें और अपनी इस पुस्तिका को सदैव अपने साथ रखें व अपने जीवन में प्रत्येक कार्य पुस्तिका में लिखे अनुसार ही करें और यदि पुस्तिका में कोई कार्य नहीं लिखा तो उसे न करें क्योंकि गुरुजी की दृष्टि में पुस्तिका में आवश्यकता से अधिक ज्ञान था और, और ज्ञान की आवश्यकता नहीं थी। गुरुजी के अनुसार वे अपने शिष्यों को पूर्ण ज्ञान प्रदान कर चुके थे। उन्होंने अपने शिष्यों से पुस्तिका में कुछ भी नया लिखने से मना कर दिया, चाहे वे ही आदेश क्यों न दें एवं यह भी कहा कि वे अपनी बुद्धि का प्रयोग न करें। इस प्रकार शिष्यों के जीवन में कोई समस्या न रही, हर समस्या का समाधान पुस्तिका में उपलब्ध था।

एक बार गुरुजी शिष्यों के साथ नदी पार कर रहे थे कि उनका पैर फ़िसल गया और वे नदी में जा गिरे और डूबने लगे। उन्होंने अपने शिष्यों को बचाने के लिए पुकारा। शिष्यों ने तत्काल पुस्तिका खोली और पाया कि पुस्तिका में किसी डूबते को बचाने के बारे में कुछ नहीं लिखा गया। शिष्य चुपचाप खड़े रहे। तब गुरुजी ने फिर पुकारा कि मुझे क्यों नहीं बचा रहे हो? तब शिष्यों ने कहा कि इस पुस्तिका में ऐसी परिस्थिति के बारे में कुछ नहीं लिखा। और वे उनके ही आदेशानुसार पुस्तक से इतर कोई कार्य नहीं कर सकते। तब गुरुजी चिल्लाकर बोले कि अब लिख लो कि डूबते व्यक्ति को बचाना चाहिए। किन्तु शिष्यों ने कहा कि ऐसा करने के लिए आपने ही मना किया है, हम नहीं लिख सकते।

अन्ततः वहां से जा रहे कुछ नाविकों ने गुरुजी को डूबते देखा और उन्हें बचाया। और साथ ही आश्चर्य व्यक्त किया कि गुरुजी आपने अपने शिष्यों को न तैरना सिखाया और न ही किसी की सहायता करना अथवा शोर मचाकर सहायता मांगना।

तब गुरुजी की समझ में आया कि उन्होंने अपने शिष्यों को जीवन का व्यावहारिक ज्ञान न देकर, पुस्तिका का अनुसरण करने को कहकर उन्हें लकीर का फ़कीर बना दिया था। अपनी गलती समझकर उन्होंने सभी शिष्यों से उनकी पुस्तिका लेकर फ़ाड़ दी और उन्हें व्यवहारिक जीवन जीने का निर्देश दिया

लीजिए, खोदा पहाड़ और निकली चुहिया, किन्तु ज़िन्दा है। हमारे भीतर ही यह गुरु भी है और सारे के सारे शिष्य भी। इसे कहते हैं लकीर की फ़कीरी!

  

यात्रा संस्‍मरण शिमला

हमें स्‍वयं ही पता नहीं होता, हमारे भीतर कितने शहर कुलबुलाते हैं। बस हम यूं ही कुछ यादों में सिमटे सालों-साल बिता देते हैं तब जाकर पता लगता है कि हम तो खंडहर ढो रहे थे।

एक अलग-सी बात कहती हूं। हमारे आस-पास लाखों-करोड़ों पशु-पक्षी रहते हैं। किन्‍तु क्‍या आपने किसी का मृत शरीर देखा है कभी। शायद नहीं। हां , अनहोनी मौत होने पर, अर्थात किसी घटना-दुर्घटना में मौत होने पर अवश्‍य मृत शरीर दिखाई दे जाते हैं, वैसे नहीं।

 

जब किसी बन्‍दर के बच्‍चे की ऐसी ही असामयिक मौत हो जाती है, तब बन्‍दरिया अपने उस मृत बच्‍चे को अपनी छाती से लगाये रहती है जब तक उसक मांस सूख कर और हड्डियां गल कर गिर नहीं जातीं। यह सत्‍य है।

कभी कभी हम अपनी स्‍मृतियों, भावनाओं के साथ भी ऐसा ही करते हैं  बरसों-बरस छूटे रिश्‍ते, सम्‍बन्‍ध, शहर, स्‍मृतियां हम यूं ही ढोते रहते हैं, कलपते हैं, सिसकते हैं, अन्‍दर ही अन्‍दर घाव बनाते हैं। कुछ रिश्‍ते आवाज़ देकर टूटते हैं और कुछ बेआवाज़। बेआवाज़ टूटे रिश्‍ते अर्न्‍तात्‍मा को तोड़ते हैं किन्‍तु  बहुत बाद में पता लगता है हम तो खण्‍डहर ढो रहे थे।

शिमला

पिछले तीस वर्ष से मेरे भीतर कुलबुलाता था। स्‍कूल, कालेज, विश्‍वविद्यालय, बैंक, आकाशवाणी, विधान-सभा, माल रोड, लोअर बाजार, लक्‍क्‍ड़ बाज़ार, रिज, गुफा, आशियाना, चुडै़ल बौड़ी, जाखू, तारादेवी, अनाडेल में उतरते हैलिकाप्‍टर, वहां का दशहरे का मेलाछोले-टिक्‍की की दुकानें, बालजीस का डोसा, हिमानी के छोले-भटूरेदस पैसे के बीस गोलगप्‍पे, पांच पैसे का चूरण और फ्री की रेती सब जगह घूमता था। पांच-पांच फुट बर्फ में भी टिप-टाप होकर घूमते, न बरसात की चिन्‍ता, न सर्दी की, रोज़ दो-तीन घंटे पैदल चलना।  और लोअर कैथू, गार्डन व्‍यू जहां मैंने अपनी जीवन के 34 वर्ष बिताए। माता-पिता, भाई-‍बहन, भरा-पूरा आठ लोगों का परिवार। लड़ते-झगड़ते, हंसते-बोलते, जीवन की समस्‍याओं को झेलते,  जैसे भी थे,  सब साथ थे। हर शाम बरामदे में पेटी पर बैठने के लिए झगड़ा होता। वहां से डूबते सूरज को हर रोज नये रंगों में देखते, और देखते सैंकड़ों के समूह में विविध पक्षियों को रेखाओं में अपने घर की ओर उड़ान भरते हुए। कभी न भूलने वाले पल।   

जब से शिमला जाने की बात हुई मेरे लिए मेरे परिवार के सदस्‍य तनाव में थे। वे जानते थे कि शिमला में मेरे कुछ उजड़े-बिखरे सम्‍बन्‍ध हैं, जो  पिछले बीस-तीस वर्षों से मेरे भीतर नासूर बनकर बह रहे हैं। कहीं कोई गहरा घाव न लगा बैठूं, वे सब डरे हुए थे।

होटल कहां लिया, अप्‍पर कैथू, घर से बस 15-20 मिनट के रास्‍ते पर। किन्‍तु मन तो लोअर कैथू घूम रहा था, पीली कोठी, बिट्टू हलवाई की दुकान, जोंजी की दुकान, स्‍कूल, चिटकारा निवास, वो डिस्‍पैंसरी की खड़ी उतराई और न जाने क्‍या-क्‍या ।

कहानी तो लम्‍बी है किन्‍तु संक्षेप में, दो दिन जगह-जगह घूमे, पर्यटकों की भांति, किन्‍तु मन न जाने किसे किसे खोज रहा था।

प्रात: सात बजे निकलकर लगभग 11 बजे हम होटल पहुंच गये। यह मेरे जीवन की पहली यात्रा थी कि मैं सारे रास्‍ते सोई नहीं। खोये हुए हर पल को पकड़ लेना चाहती थी।  मेरा पहला लक्ष्‍य था मेरा पोर्टमार स्‍कूल छोटा शिमला, जहां मैं केजी से 11वीं तक पढ़ी थी, वर्ष 1959 से 1971 तक। अब मैं यह सोचकर जाउंगी कि आज भी वही भवन, प्रांगण, कक्षाएं मिलेंगी तो भूल तो मेरी ही थी। किन्‍तु वही सादगी, शान्‍त वातावरण, सहजता अवश्‍य मिली। और एक बात जो सबसे बड़ी कि आज भी उस विद्यालय की वही यूनीफार्म : मैरून चैक कमीज़ और सफेद सलवार ।  वहां से पैदल मालरोड।

घर से स्कूल लगभग पांच किलोमीटर था, सीधी चढ़ाई और उतराई। और पांच-दस किलो के बैग। किन्तु कभी न तो दूरी का अनुभव होता था और न ही भार का।खेलते-कूदते, छलांगें लगाते, पहाड़ियों पर चढ़ते पूरे एक घंटे में घर पहुंचते थे। लिफ्ट के सामने चुड़ैल बौड़ी हुआ करती थी जहां पानी की एक बावड़ी थी और स्कूल से लौटते समय हम ज़रूर पानी पिया करते थे। पांच पैसे की खरी हुई रेती और चूरण पानी में मिलाकर पीते थे किन्तु कभी हमारे गले खराब नहीं होते थे। और साथ ही तीखी-उंची चट्टानों की खड़ी पहाड़ी थी जहां हम प्रतिदिन चुड़ैल ढूंढते थे किन्तु अब वहां अब वहां बहुमंजिला इमारत खड़ी थी राजीव गांधी सपोर्ट्स काम्‍पलैक्‍स । कम्‍बरमीयर पोस्‍ट आफिस भी नहीं मिला। लिफ्ट के पास पहुंचते- पहुंचते अपना पी एन बी का क्षेत्रीय कार्यालय ढूंढने लगी, अरे कहां गया मेरा आर एम आफिस कहां गया, और दोनों मुझ पर चिल्‍ला पड़े, पागल हुई है, धीरे बोल, आस-पास लोग देख रहे हैं । आंखों में आंसू आ गये जो फोटोक्रोम चश्‍मे में छुप जाते हैं, अब इन्‍हें क्‍या पता क्‍या ढूंढ रही थी मैं। चलो छोड़ो, आगे बढ़ गई मैं माल रोड की ओर।

 काली बाड़ी का रास्ता, 129 सीढ़ियां, और रास्ते में जहां भी नल लगा हो वहां बस्ते रखकर शेर के मुंह वाले नल से पानी पीना। रास्ते से फूल तोड़ना, कैंथ खाना, नाख और खट्टे सेब। और दस पैसे के बीस गोलगप्पे। इतना सब और पता नहीं क्या-क्या करके पहुंचते थे घर।

मन में एक भटकाव था, कैसा कह नहीं सकती।

जहां दिन में 15-20 किलोमीटर चलना आम बात थी , जाखू मन्दिर जाने के लिए टैक्‍सी की ।

वाह ! माल रोड पर लोकल गाड़ी जहां कभी एंबुलैंस और फायर ब्रिगेड के अतिरिक्‍त कोई गाड़ी नहीं चल सकती थी वहां हाथ देकर लोकल छोटी बस रूकवाई जा सकती थी।

दो दिन पोर्टमोर स्‍कूल, मालरोड, लक्‍कड़ बाज़ार, रिज, जाखू, अनाडेल, एडवांस स्‍टडीज़ घूमते रहे किन्‍तु मेरे भीतर तो कुछ और ही घुमड़ रहा था। मन ही मन क्‍या खोज रही थी शायद अपने से ही छुपा रह थी।
अचानक कोई सामने से या पीछे से आकर मुझे रोक लेगा, और कहेगा ‘नीतू’। और देर तक एक चुप्‍पी होगी हमारे बीच, मेरी बांह पकड़ेगा और मैं उसके गले लगकर फफककर रो दूंगी। क्‍यों, क‍ब, कैसे, सब छूट जायेगा। ‘’चल, घर चलो, उठाओ होटल से सामान,’’ और सब एकाएक बदल जायेगा। अथवा कोई पीछे से आकर पीठ पर हाथ मारकर कहेगा अरे तू इतने सालों बाद। कहां थी आज तक और हम घंटों सालों की बातें करेंगे। हा-हा, ही-ही, इसकी-उसकी। कोई सामने से आयेगा और मैं उसे रोककर कहूंगी ‘पछाण्‍या नीं, मैं नीतू”  या ‘‘मैं कविता’’। या कोई मिलेगा ‘ओ सरिता बड़े दिनां दुस्‍सी‘’ मैं फिक् से हंस दूंगी ‘सरिता नीं कविता मैं’, अज्‍जे ताईं नीं पछाणया सई, तू बी अडि़ए।‘ या फिर शायद सरिता ही कहीं दूर से पुकार ले।  

भीड़ में आंखे गडाये घूम रही थी, शायद कोई, शायद कोई ।

किन्‍तु ऐसा कुछ नहीं हुआ, कुछ भी नहीं हुआ ऐसा। तो क्‍या यही उपलब्धि थी मेरे उस जीवन की जिसकी यादों को मैं वर्षों से अपने भीतर संजोये थी, कभी लौटूंगी तेरे पास, अपनी यादों के साथ, कुछ पुनर्जीवित करने के लिए, कौन, कोई, क्‍या मिलेगा, कभी समझा ही नहीं, जाना ही नहीं।

इतने दिन बीत गये किन्‍तु समझ नहीं पाई कि खण्‍डहर अभी जीवन्‍त हैं अथवा मैंने उन्‍हें तिलांजलि दे दी।