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यह दुनिया है। आप कहेंगे कि आपको पता है कि यह दुनिया है। किन्तु बहुत बार ऐसा होता है कि हमें वह भी स्मरण करना पड़ता है जो है, जो दिखाई देता है, सुनाई देता है, चुभता है, चीखता है अथवा जो हम जानते हैं। क्योंकि सत्य का सामना करने में बहुत जोखिम होते हैं, उलझनें, समस्याएँ होती हैं। इस कारण इसे हम नकारते हैं और बस अपना राग अलापते हैं। क्या सच में ही आपके आस-पास कोई हलचल, खलबली, हंगामा, उपद्रव, उथल-पुथल, सनसनी, आन्दोलन नहीं है ? आस-पास, आपके परिवेश में, सड़क पर, समाचार-पत्रों से मिल रहे ज्ञान से, मीडिया से मिलने वाले समाचारों से, न जाने कितने विषय हैं जो हमारे आस-पास तैरते रहते हैं किन्तु हम उन्हें नकारते रहते हैं।
ऐसा तो नहीं हो सकता, कुछ तो होगा और अवश्य होगा। और हम जो तथाकथित कवि अथवा साहित्यकार कहलाते हैं या अपने को ऐसा समझते हैं तो हम ज़्यादा भावुक और संवेदनशील कहलातेे हैं। फिर हमें आज ऐसी आवाज़ें क्यों सुनाई नहीं दे रहीं। सबसे बड़ी समस्या यह कि यदि हम भुक्तभोगी भी होते हैं तब भी ऐसी बात कहने से, अथवा खुली चर्चा से डरने लगे हैं।
कुछ बने-बनाये विषय हैं आज हमारे पास लेखन के लिए। सबसे बड़ा विषय नारी है, बेचारी है, मति की मारी है, संस्कारी है, लेकिन है बुरी। या तो गंवार है अथवा आधुनिका, किन्तु दोनों ही स्थितियों में वह सामान्य नहीं है। भ्रूण हत्या है, बेटी है, निर्धनता है आदि-आदि। कहीं बहू बुरी है तो कहीं सास। कहीं दोनों ही। बेटा कुपूत है। बुरे बहू-बेटा हैं, कुपूत हैं, माता-पिता के धन के लालची हैं, उनकी सेवा न करने वाले बुरे बच्चे हैं। उनकी सम्पत्ति पर नज़र रखे हैं।जितने पति हैं सब पत्नियों के गुलाम हैं। उनके कहने से अपने माता-पिता की सेवा नहीं करते उन्हें वृद्धाश्रम भेज देते हैं। और जब यह सब चुक जाये तो हम अत्यन्त आस्तिक हैं और इस विषय पर हम अबाध अपनी कलम चला सकते हैं। विशेषकर फ़ेसबुक का सारा कविता संसार इन्हीं विषयों से घिरा हुआ है। मुझे क्यों आपत्ति? मुझे नहीं आपत्ति। मैं भी तो आप सबके साथ ही हूँ।
सोचती हूँ आज इनमें से कौन-सा विषय चुनूँ कि रचना नवीन प्रतीत हो।
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मेरे हिस्से का सूरज
कैसे कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज खा भी गये।
यूं देखा जाये
तो रोशनी पर सबका हक़ है।
पर सबके पास
अपने-अपने हक का
सूरज भी तो होता है।
फ़िर, क्यों, कैसे
कुछ लोग
मेरे हिस्से का सूरज खा गये।
बस एक बार
इतना ही समझना चाहती हूं
कि गलती मेरी थी कहीं,
या फिर
लोगों ने मेरे हक का सूरज
मुझसे छीन लिया।
शायद गलती मेरी ही थी।
बिना सोचे-समझे
रोशनियां बांटने निकल पड़ी मैं।
यह जानते हुए भी
कि सबके पास
अपना-अपना सूरज भी है।
बस बात इतनी-सी
कि अपने सूरज की रोशनी पाने के लिए
कुछ मेहनत करनी पड़ती है,
उठाने पड़ते हैं कष्ट,
झेलनी पड़ती हैं समस्याएं।
पर जब यूं ही
कुछ रोशनियां मिल जायें,
तो क्यों अपने सूरज को जलाया जाये।
जब मैं नहीं समझ पाई,
इतनी-सी बात।
तो होना यही था मेरे साथ,
कि कुछ लोग
मेरे हिस्से का सूरज खा गये।
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अपना ही साथ हो
उम्र के इस पड़ाव पर
अनजान सुनसान राहों पर
जब नहीं पाती हूं
किसी को अपने आस पास
तब अपनी ही प्रतिकृति तराशती हूं ।
मन का कोना कोना खोलती हूं उसके साथ।
बालपन से अब तक की
कितनी ही यादें और कितनी ही बातें
सब सांझा करती हूं इसके साथ।
लौट आता है मेरा बचपना
वह अल्हड़पन और खुशनुमा यादें
वो बेवजह की खिलखिलाहटें
वो क्लास में सोना
कंचे और गोटियां, सड़क पर बजाई सीटियां
छत की पतंग
आमपापड़ और खट्टे का स्वाद
पुरानी कापियां देकर
चूरन और रेती खाने की उमंग
गुल्लक से चुराए पैसे
फिल्में देखीं कैसे कैसे
टीचर की नकल, उनके नाम
और पता नहीं क्या क्या
अब सब तो बताया नहीं जा सकता।
यूं ही
खुलता है मन का कोना कोना।
बांटती हूं सब अपने ही साथ।
जिन्हें किसी से बांटने के लिए तरसता था मन
अपना ही हाथ पकड़कर आगे बढ़ जाती हूं
नये सिरे से।
यूं ही डरती थी, सहमी थी।
अब जानी हूं
ज़िन्दगी को पहचानी हूं।
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हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक
किसी के कदमों के छूटे निशान न कभी देखना
अपने कदम बढ़ाना अपनी राह आप ही देखना
शिखर तक पहुंचने के लिए बस चाहत ज़रूरी है
अपनी हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक देखना
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मानसिकता कहां बदली है
मांग भर कर रखना बेटी, सास ससुर की सब सहना बेटी
शिक्षा, स्वाबलम्बन भूलकर बस चक्की चूल्हा देखना बेटी
इस घर से डोली उठे, उस घर से अर्थी, मुड़कर न देखना कभी
कहने को इक्कीसवीं सदी है, पर मानसिकता कहां बदली है बेटी
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मन के पिंजरे खोल रे मनवा
मन विहग!
मन के पिंजरे खोल रे मनवा,
मन के बंधन तोड़ रे मनवा।
कुछ तो टूटेगा,
कुछ तो बिखरेगा,
कुछ तो बदलेगा।
गगन विशाल,
उड़ान बड़ी है,
पंख मिले छोटे,
कुछ कतरे गये।
कुछ टूटे,
कुछ बिखर गये।
चाहत न छोड़,
मन को न मोड़,
उड़ान भर,
आज नहीं तो कल,
कल नहीं तो कभी,
या फिर अभी
चाहतों को जोड़,
मन को न मोड़।
उड़ान भर।
न डर, बस
मन के पिंजरे खोल रे मनवा,
मन के बंधन तोड़ रे मनवा।
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ज़िन्दगी लगती बेमानी है
जन्म की अजब कहानी है, मरण से जुड़ी रवानी है।
श्मशान घाट में जगह नहीं, खो चुके ज़िन्दगानी हैं।
पंक्तियों में लगे शवों का टोकन से होगा संस्कार,
फ़ुटपाथ पर लगी पंक्तियां, ज़िन्दगी लगती बेमानी है।
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आदरणीय शिव जी पर एक रचना
कुछ कथाएं
मुझे कपोल-कल्पित लगती हैं
एक आख्यान
किसी कवि-कहानीकार की कल्पना
किसी बीते युग का
इतिहास का पुर्नआख्यन,
कहानी में कहानी
कहानी में कहानी और
फिर कहानी में कहानी।
जाने-अनजाने
घर कर गई हैं हमारे भीतर
इतने गहरे तक
कि समझ-बूझ से परे हो जाती हैं।
** ** ** **
भूत-पिचाश हमारे भीतर
बुद्धि पर भभूत चढ़ी है,
विषधर पाले अपने मन में
नर-मुण्डों-सा भावहीन मन है।
वैरागी की बातें करते
लूट-खसोट मची हुई है।
आंख-कान सब बंद किये हैं
गौरी, सुता सब डरी हुई हैं।
त्रिपुरारी, त्रिशूलधारी की बातें करते
हाथों में खंजर बने हुए हैं।
गंगा की तो बात न करना
भागीरथी रो रही है।
डमरू पर ताण्डव करते
यहां सब डरे हुए हैं।
** ** ** **
फिर कहते
शिव-शिव, शिव-शिव,
शिव-शिव, शिव-शिव।
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क्रांति
क्रांति उस चिड़िया का नाम है
जिसे नई पीढ़ी ने जन्म दिया।
पुरानी पीढ़ी उसके पैदा होते ही
उसके पंख काट देना चाहती है।
लेकिन नई पीढ़ी उसे उड़ना सिखाती है।
जब वह उड़ना सीख जाती है
तो पुरानी पीढ़ी
उसके लिए,
एक सोने का पिंजरा बनवाती है
और यह कहकर उसे कैद कर लेती है
कि नई पीढ़ी तो उसे मार ही डालती।
यह तो उसकी सुरक्षा सुविधा का प्रबन्ध है।
वर्षों बाद
जब वह उड़ना भूल जाती है
तो पिंजरा खोल दिया जाता है
क्योंकि
अब तक चिड़िया उड़ना भूल गई है
और सोने का मूल्य भी बढ़ गया है
इसलिए उसे बेच दिया जाता हे
नया लोहे का लिया जाता है
जिसमें नई पीढ़ी को
इस अपराध में बन्द कर दिया जाता है
आजीवन
कि उसने हमें खत्म करने,
मारने का षड्यन्त्र रचा था
हत्या करनी चाही थी हमारी।
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दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है
मैं भाषण देता हूं
मैं राशन देता हूं
मैं झाड़ू देता हूं
मैं पैसे देता हूं
रोटी दी मैंने
मैंने गैस दिया
पहले कर्ज़ दिये
फिर सब माफ़ किया
टैक्स माफ़ किये मैंने
फिर टैक्स लगाये
मैंने दुनिया देखी
मैंने ढोल बजाये
नये नोट बनाये
अच्छे दिन मैं लाया
सारी दुनिया को बताया
ये बेईमानों का देश था,
चोर-उचक्कों का हर वेश था
मैंने सब बदल दिया
बेटी-बेटी करते-करते
लाखों-लाखों लुट गये
पर बेटी वहीं पड़ी है।
सूची बहुत लम्बी है
यहीं विराम लेते हैं
और अगले पड़ाव पर चलते हैं।
*-*-*-*-*-*-*-**-
चुनावों का अब बिगुल बजा
किसका-किसका ढोल बजा
किसको चुन लें, किसको छोड़ें
हर बार यही कहानी है
कभी ज़्यादा कभी कम पानी है
दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है
आंखों पर पट्टी बंधी है
बस बातें करके सो जायेंगे
और सुबह फिर वही राग गायेंगे।
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जीवन में सुमधुर गीत रचे हैं
एक बार हमारा आतिथेय स्वीकार करके तो देखो
आनन्दित होकर ही जायेंगे, विश्वास करके तो देखो
मन-उपवन में रंग-बिरंगे भावों की बगिया महकी है
जीवन में सुमधुर गीत रचे हैं संग-संग गाकर तो देखो