समझाने की बात नहीं

आजकल न जाने क्यों

यूं ही 

आंख में पानी भर आता है।

कहीं कुछ रिसता है,

जो न दिखता है,

न मन टिकता है।

कहीं कुछ जैसे

छूटता जा रहा है पीछे कहीं।

कुछ दूरियों का एहसास,

कुछ शब्दों का अभाव।

न कोई चोट, न घाव।

जैसे मिट्टी दरकने लगी है।

नींव सरकने लगी है।

कहां कमी रह गई,

कहां नमी रह गई।

कई कुछ बदल गया।

सब अपना,

अब पराया-सा लगता है।

समझाने की बात नहीं,

जब भीतर ही भीतर

कुछ टूटता है,

जो न सिमटता है

न दिखता है,

बस यूं ही बिखरता है।

एक एहसास है

न शब्द हैं, न अर्थ, न ध्वनि।