चाहिए अब एक शंखनाद

हमें स्मरण हैं

कृष्ण की अनेक कथाएं

उनकी बाल लीलाएं

माखन चुराना, वन में  गैया घुमाना

बाल-गोपाल संग हंसना-बतियाना

गोपियों संग ठिठोलियां

रासलीला की अठखेलियां

और यशोदा मैया को सताना।

और कभी बस पूतना-वध,

कंस-वध, नाग-मर्दन

अथवा गोवर्धन धारण को स्मरण करके

हम वंदन कर लेते हैं।

लेकिन क्यों नहीं स्मरण करते हम

कि कृष्ण ने पांचजन्य से

उद्घोष किया था

एक युद्ध के आह्वान का

बुराई के विरूद्ध अच्छाई का।

अन्याय के विरूद्ध न्याय का।

विश्व की मंगल कामना का।

एक अन्यायमुक्त समाज की स्थापना का।

हमें तो बस आदत हो गई है

पर्वों में डूबे रहने की

उत्सव ही उत्सव मनाने की

बस कोई एक बहाना चाहिए।

और यही संस्कार हम

अपनी अगली पीढ़ी को दे रहे हैं

हां, यह और बात है कि

उनके उत्सव मनाने के तरीके बदल गये हैं।

फिर हम किस अधिकार से

दोषारोपण कर सकते हैं किसी पर

अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, शोषण

या अधिकारों के दुरूपयोग का।

अब शंख एक संग्रहणीय वस्तु बन कर रह गये हैं।

वैसे भी हम मुंह सिले और कान बन्द किये बैठे हैं

कि कहीं किसी पांचजन्य के उद्घोष

का आह्वान न हो

और किसी अन्य के शंखनाद की ध्वनि भी

हमारे कानों तक न पहुंचे

और कहीं हमारे उत्सवों में बाधा न आये।