जल लेने जाते कुएँ-ताल

बाईसवीं सदी के

मुहाने पर खड़े हम,

चाँद पर जल ढूँढ लाये

पर इस धरा पर

अभी भी

कुएँ, बावड़ियों की बात

बड़े गुरूर से करते हैं

कितना सरल लगता है

कह देना

चली गोरी

ले गागर नीर भरन को।

रसपान करते हैं

महिलाओं के सौन्दर्य का

उनकी कमनीय चाल का

घट भरकर लातीं

प्रेमरस में भिगोती

सखियों संग मदमाती

कहीं पिया की आस

कहीं राधा की प्यास।

नहीं दिखती हमें

आकाश से बरसती आग

बीहड़ वन-कानन

समस्याओं का जंजाल

कभी पुरुषों को नहीं देखा

सुबह-दोपहर-शाम

जल लेने जाते कुएँ-ताल।

 

कोई तो आयेगा

भावनाओं का वेग

किसी त्वरित नदी की तरह

अविरल गति से

सीमाओं को तोड़ता

तीर से टकराता

कंकड़-पत्थर से जूझता

इक आस में

कोई तो आयेगा

थाम लेगा गति

सहज-सहज।

.

जीवन बीता जाता है

इसी प्रतीक्षा में

और कितनी प्रतीक्षा

और कितना धैर्य !!!!

 

आवाज़ ऊँची कर

आवाज़ ऊँची कर

चिल्ला मत।

बात साफ़ कर

शोर मचा मत।

अपनी बात कह

दूसरे की दबा मत।

कौन है गूँगा

कौन है बहरा

मुझे सुना मत।

सबकी आवाज़ें

जब साथ बोलेंगीं

तब कान फ़टेंगें

मुझे बता मत।

धरा की बातें

अकारण

आकाश पर उड़ा मत।

जीने का अंदाज़ बदल

बेवजह अकड़

दिखा मत।

मिलजुलकर बात करें

तू बीच में

अपनी टाँग अड़ा मत।

मिल-बैठकर खाते हैं

गाते हैं

ढोल बजाते हैं

तू अब नखरे दिखा मत।

 

 

तिरंगे का  एहसास

जब हम दोनों

साथ खड़े होते हैं

तब

तिरंगे का

एहसास होता है।

केसरिया

सफ़ेद और हरा

मानों

साथ-साथ चलते हैं

बाहों में बाहें डाले।

चलो, यूँ ही

आगे बढ़ते हैं

अपने इस मैत्री-भाव को

अमर करते हैं।

 

शब्दों के घाव

दिल के

कुछ ज़ख्मों का दर्द

मानों दर्द नहीं होता,

स्मृतियों का

खजाना होता है,

उनकी टीस

आनन्द देती है

कुछ यादें

कुछ वफ़ाएँ

कुछ बेवफ़ाएँ

शब्दों के घाव

रिसते रहते हैं

चुभते हैं

पर भरने का

मन नहीं करता

आँखें बन्द कर

कुरेदने में मज़ा आता है

और जब आँख का पानी

रिसता है

उन जख़्मों पर,

तब टीस

और गहरी होती है

और आनन्द और ज़्यादा।

 

भीतर के भाव

हर पुस्तक के

आरम्भ और अन्त में

कुछ पृष्ठ

कोरे चिपका दिये जाते हैं

शायद

पुस्तकों को सहेजने के लिए।

किन्तु हम

बस पन्नों को ही

सहेजते रह जाते हैं

पुस्तकों के भीतर के भाव

कहाँ सहेज पाते हैं।

 

जीवन की आपा-धापी में

सालों बाद, बस यूँ ही

पुस्तकों की आलमारी

खोल बैठी।

पन्ना-पन्ना मेरे हाथ आया,

घबराकर मैंने हाथ बढ़ाया,

बहुत प्रयास किया मैंने

पर बिखरे पन्नों को

नहीं समेट पाई,

देखा,

पुस्तकों के नाम बदल गये

आकार बदल गये

भाव बदल गये।

जीवन की आपा-धापी में

संवाद बदल गये।

प्रारम्भ और अन्त

उलझ गये।

 

इन्द्रधनुष-सी   ज़िन्दगी

प्रतिदिन निरखती हूँ

आकाश को

भावों से सराबोर

कभी मुस्कुराता

कभी खिल-खिल हँसता

कभी रूठता-मनाता

सूरज, चंदा, तारों संग खेलता

कभी मुट्ठी में बाँधता कभी छोड़ता।

बादलों को अपने ऊपर ओढ़ता

फिर बादलों की ओट से

झाँक-झाँक देखता।

.

आकाश में बिखरे रंगों से

कभी मुलाकात की है आपने?

मेरे मन में अक्सर उतर आते हैं।

गिन नहीं पाती, परख नहीं पाती

बस हाथों में लिए

निरखती रह जाती हूँ।

आकाश से धरा तक बरसते

चाँद-तारों संग गीत गाते

बादलों में उलझते

दिन-रात, सांझ-सवेरे

नवीन आकारों में ढलते

पल-पल, हर पल रूप बदलते

वर्षा की रिमझिम बूँदों से झांकते।

पत्तों पर लहराती

ओस की बूँदों के भीतर

छुपन-छुपाई खेलते।

.

और फिर

सूरज की किरणों से झांकती

रिमझिम बारिश के बीच से

रंगों के बनते हैं भंवर

जिनमें डूबता-उतरता है मन

आकाश में लहराते हैं

लहरिए सात रँग।

.

इन रँगों को अपनी आँखों से

मन के भीतर तक ले जाती हूँ

और इस तरह

इन्द्रधनुष-सी रंगीन

हो जाती है ज़िन्दगी।

 

कड़वा सच
हिम्मत से मेरे घर आना

चाय-पानी भूलकर

कड़वा सच पिलवाऊँगी

 

 

कवियों की पंगत लगी

  कवियों की पंगत लगी, बैठे करें विचार

तू मेरी वाह कर, मैं तेरी, ऐसे करें प्रचार

भीड़ मैं कर लूंगा, तू अनुदान जुटा प्यारे

रचना कैसी भी हो, सब चलती है यार

सुन्दर इंद्रधनुष लाये बादल
शरारती से न जाने कहां -कहां जायें पगलाये बादल

कही धूप, कहीं छांव कहीं यूं ही समय बितायें बादल

कभी-कभी बड़ी अकड़ दिखाते, यहां-वहां छुप जाते

डांट पड़ी तब जलधार संग सुन्दर इंद्रधनुष लाये बादल

अपने कर्मों पर रख पकड़
चाहे न याद कर किसी को

पर अपने कर्मों से डर

न कर पूजा किसी की

पर अपने कर्मों पर रख पकड़ ।

न आराधना के गीत गा किसी के

बस मन में शुद्ध भाव ला ।

हाथ जोड़ प्रणाम कर

सद्भाव दे,

मन में एक विश्वास

और आस दे।  

 

कशमकश में बीतता है जीवन

सुख-दुख तो जीवन की बाती है

कभी जलती, कभी बुझती जाती है

यूँ ही कशमकश में बीतता है जीवन

मन की भटकन कहाँ सम्हल पाती है।

 

कशमकश

कशमकश

इस बात की नहीं

कि जो मुझे मिला

जितना मुझे मिला

उसके लिए

ईश्वर को धन्यवाद दूँ,

कशमकश इस बात की

कि कहीं

तुम्हें

मुझसे ज़्यादा तो नहीं मिल गया।

 

पहचान नहीं

धन-दौलत थी तो खुले द्वार थे हमारे लिए

जब लुट गई थी द्वार बन्द हुए हमारे लिए

नाम भूल गये, रिश्ते छूट गये, पहचान नहीं

जब दौलत लौटी, हार लिए खड़े हमारे लिए

समझाती है ज़िन्दगी

 कदम-दर-कदम यूँ ही आगे बढ़ती है ज़िन्दगी

कौन आगे, कौन पीछे, नहीं देखती है ज़िन्दगी।

बालपन क्या जाने, क्या पीठ पर, क्या हाथ में

अकेले-दुकेले, समय पर आप ही समझाती है ज़िन्दगी।

प्यार की तलाश करना

हरा-हराकर सिखाया है ज़िन्दगी ने आगे बढ़ना

फूलों ने सिखाया है पतझड़ से मुहब्बत करना

कलम जब साथ नहीं देती, तब अन्तर्मन बोलता है

नफ़रतें तो हम बोते हैं, बस प्यार की तलाश करना

सपने तो सपने होते हैं

सपने तो सपने होते हैं

कब-कब अपने होते हैं

आँखो में तिरते रहते हैं

बातों में अपने होते हैं।

मर्यादाओं की चादर ओढ़े

मर्यादाओं की चादर में लिपटी खड़ी है नारी

न इधर राह न उधर राह, देख रही है नारी

किसको पूछे, किससे  कह दे मन की व्यथा

फ़टी-पुरानी, उधड़ी चादर ओढ़े खड़ी है नारी

राख पर किसी का नाम नहीं होता

युद्ध की विभीषिका

देश, शहर

दुनिया या इंसान नहीं पूछती

बस पीढ़ियों को

बरबादी की राह दिखाती है।

हम समझते हैं

कि हमने सामने वाले को

बरबाद कर दिया

किन्तु युद्ध में

इंसान मारने से

पहले भी मरता है

और मारने के बाद भी।

बच्चों की किलकारियाँ

कब रुदन में बदल जाती हैं

अपनों को अपनों से दूर ले जाती हैं

हम समझ ही नहीं पाते।

और जब तक समझ आता है

तब तक

इंसानियत

राख के ढेर में बदल चुकी होती है

किन्तु हम पहचान नहीं पाते

कि यह राख हमारी है

या किसी और की।

 

 

 

मैंने चिड़िया से पूछा

मैंने चिड़िया से पूछा

क्यों यूं ही दिन भर

चहक-चहक जाती हो

कुट-कुट, किट-किट करती

दिन-भर शोर मचाती हो ।

 

पलटकर बोली

तुमको क्या ?

 

मैंने कभी पूछा तुमसे

दिन भर

तुम क्या करती रहती हो।

कभी इधर-उधर

कभी उधर-इधर

कभी ये दे-दे

कभी वो ले ले

कभी इसकी, कभी उसकी

ये सब क्यों करती रहती हो।

-

कभी मैं बोली सूरज से

कहां तुम्हारी धूप

क्यों चंदा नहीं आये आज

कभी मांगा चंदा से किसी

रोशनी का हिसाब

कहां गये टिम-टिम करते तारे

कभी पूछा मैंने पेड़ों से

पत्ते क्यों झर रहे

फूल क्यों न खिले।

कभी बोली फूलों से मैं

कहां गये वो फूल रंगीले

क्यों नहीं खिल रहे आज।

क्यों सूखी हरियाली

बादल क्यों बरसे

बिजली क्यों कड़की

कभी पूछा मैंने तुमसे

मेरा घर क्यों उजड़ा

न डाल रही, न रहा घरौंदा

कभी की शिकायत मैंने

कहाँ सोयेंगे मेरे बच्चे

कहाँ से लाऊँगी मैं दाना-पानी।

मैं खुश हूँ

तुम भी खुश रहना सीखो

मेरे जैसे बनना सीखो

इधर-उधर टाँग अड़ाना बन्द करो

अपने मतलब से मतलब रख आनन्द करो।

 

धर्मगुरुओं के अधार्मिक आचरण

 

हमारे देश में धर्मगुरुओं की बहुत बात होती है और अनगिनत धर्मगुरु हमारे चारों ओर छाये हुए हैं।

किन्तु ये धर्मगुरु कौन हैं? हम किसे धर्मगुरु कह सकते हैं? वे कौन से धर्म के ज्ञाता हैं? किस धर्म की व्याख्या वे करते हैं, कौन से धर्म की चर्चा कर रहे हैं, समझ ही नहीं आ पाता। कौन से ग्रंथों का वाचन करते हैं अथवा कौन सी परम्पराओं, आचरण, व्यवहार, संस्कृति का विश्लेषण करते हैं सम्भवतः वे स्वयं ही नहीं जानते। उनके भाषण सुनने पर कई बार ऐसा प्रतीत होता है मानों वे पांचवी कक्षा की नैतिक शिक्षा की पुस्तक से पाठ सुना रहे हैं।

वास्तव में ये तथाकथित धर्मगुरु अपने समय के कथा-वाचक हैं। पहले समय में ये अपनी मंडलियों के साथ जीवन-यापन के लिए गांवों -शहरों में कथाएं सुनाते घूमते थे। लोगों की छोटी-छोटी दान-दक्षिणा से इनका जीवन-यापन होता था। ये बंजारों की तरह घुमंतू हुआ करते थे। किन्तु समय के साथ इनके श्रोता कम होने लगे और इन लोगों ने भी किसी मन्दिर, सामाजिक स्थानों के निकट  अपना एक निश्चित ठिकाना बनाना शुरू कर दिया। इन कथा-वाचकों के साथ अब निठल्लों, अपराधियों, बेरोज़गारों का भी साथ होने लगा। जीवन-यापन के लिए इन्होंने धर्म की आड़ लेनी शुरू कर दी। धर्म के साथ पाखंड जुड़ा, फिर राजनीति।

 ऐसे लोगों पर देश का प्रायः कोई कानून लागू नहीं होता। इस बात का ही फा़यदा उठाकर; देश में फैले अंधविश्वास, निर्धनता, निरक्षरता, और दूसरी ओर राजनीति, काली कमाई के चलते इन लोगों को हमने ही उच्च पदासीन कर दिया और अपनी गाढ़ी कमाई से इनके बड़े-बडे़ करोड़ों-अरबों के आश्रम, मन्दिर, मूर्तियां, सिंहासन रच दिये। जब ये धर्मगुरू ही नहीं तो धार्मिक आचरण की अपेक्षा ही कैसे?

 ऐसे तथाकथित गुरुओं, स्वामियांे के लिए कानून होना चाहिए कि वे एक सीमा से अधिक सम्पत्ति अर्जित न कर सकें, अपनी आय का सम्पूर्ण विवरण जनता को दें, इन्हें कर के दायरे में लिया जाना चाहिए एवं सरकारी सम्पत्ति अथवा भूमि पर कार्यक्रमों की अनुमति प्रदान नहीं की जानी चाहिए। सबसे बड़ी बात मीडिया को इनका प्रचारक नहीं बनना चाहिए फिर वे विज्ञापन हों अथवा धार्मिक प्रसारण।

 

  

 

उठ बालिके उठ बालिके

सुनसान, बियाबान-सा

सब लगता है,

मिट्टी के इस ढेर पर

क्यों बैठी हो बालिके,

कौन तुम्हारा यहाँ

कैसे पहुँची,

कौन बिठा गया।

इतनी विशाल

दीमक की बांबी

डर नहीं लगता तुम्हें।

द्वार बन्द पड़े

बीच में गहरी खाई,

सीढ़ियाँ न राह दिखातीं

उठ बालिके।

उठ बालिके,

चल घर चल

अपने कदम आप बढ़ा

अपनी बात आप उठा।

न कर किसी से आस।

कर अपने पर विश्वास।

उठ बालिके।

 

 

जीवन की डोर पकड़

पुष्प-पल्लवविहीन वृक्षों का

अपना ही

एक सौन्दर्य होता है।

कुछ बिखरी

कुछ उलझी-सुलझी

किसी छत्रछाया-सी

बिना झुके,

मानों गगन को थामे

क्षितिज से रंगीनियाँ

सहेजकर छानतीं,

भोर की मुस्कान बाँटतीं

मानों कह रही

राही बढ़े चल

कुछ पल विश्राम कर

न डर, रह निडर

जीवन की डोर पकड़

राहों पर बढ़ता चल।

 

 

 

करें किससे आशाएँ

मन में चिन्ताएँ सघन

मानों कानन में अगन

करें किससे आशाएँ

कैसे बुझाएँ  ये तपन

कैसी कैसी है ज़िन्दगी

कभी-कभी ठहरी-सी लगती है, भागती-दौड़ती ज़िन्दगी ।

कभी-कभी हवाएँ महकी-सी लगती हैं, सुहानी ज़िन्दगी।

गरजते हैं बादल, कड़कती हैं बिजलियाँ, मन यूँ ही डरता है,

कभी-कभी पतझड़-सी लगती है, मायूस डराती ज़िन्दगी।

जीना चाहती हूँ

पीछे मुड़कर

देखना तो नहीं चाहती

जीना चाहती हूँ

बस अपने वर्तमान में।

संजोना चाहती हूँ

अपनी चाहतें

अपने-आपमें।

किन्तु कहाँ छूटती है

परछाईयाँ, यादें और बातें।

उलझ जाती हूँ

स्मृतियों के जंजाल में।

बढ़ते कदम

रुकने लगते हैं

आँखें नम होने लगती हैं

यादों का घेरा

चक्रव्यूह बनने लगता है।

पर जानती हूँ

कुछ नया पाने के लिए

कुछ पुराना छोड़ना पड़ता है,

अपनी ही पुरानी तस्वीर को

दिल से उतारना पड़ता है,

लिखे पन्नों को फ़ाड़ना पड़़ता है,

उपलब्धियों के लिए ही नहीं

नाकामियों के लिए भी

तैयार रहना पड़ता है।

 

प्रश्न सुलझा नहीं पाती मैं

वैसे तो

आप सबको

बहुत बार बता चुकी हूँ

कि समझ ज़रा छोटी है मेरी।

आज फिर एक

नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ

मेरे सामने।

पता नहीं क्यों

बहुत छोटे-छोटे प्रश्न

सुलझा नहीं पाती मैं

इसलिए

बड़े प्रश्नों से तो

उलझती ही नहीं मैं।

जब हम छोटे थे

तब बस इतना जानते थे

कि हम बच्चे हैं

लड़का-लड़की

बेटा-बेटी तो समझ ही नहीं थी

न हमें

न हमारे परिवार वालों को।

न कोई डर था न चिन्ता।

पूजा-वूजा के नाम पर

ज़रूर लड़कियों की

छंटाई हुआ करती थी

किन्तु और किसी मुद्दे पर

कभी कोई बात

होती हो

तो मुझे याद नहीं।

 

अब आधुनिक हो गये हैं हम

ठूँस-ठूँसकर भरा जाता है

सोच में

लड़का-लड़की एक समान।

बेटा-बेटी एक समान।

किसी को पता हो तो

बताये मुझे

अलग कब हुए थे ये।

 

महिला अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष

1975 में लिखी गई रचना

************-*********

तुम हर युग में बनो रहो राम

पर मैं नहीं बनूंगी सीता।

तुम बने रहो अंधे धृतराष्ट्र्

पर मैं बनूंगी गांधारी।

 

तुम बजाओ मुरली

पर मैं नहीं बनूंगी राधा।

उर्मिला हूं अगर

तो नहीं बैठी रहूंगी

चौदह वर्ष तुम्हारी प्रतीक्षा में।

मैं ब्याही गई थी तुम संग

या तुम ब्याहे गये थे राम संग।

राम संग गई थी सीता

किसे छोड़ गये थे तुम मेरे संग।

 

द्रौपदी हूं अगर

तो पांडवों की चालाकी जान चुकी हूं।

माता की आज्ञा के इतने ही थे अनुसार

तो क्यों खाने पहुंचे थे

दुर्योधन से जुए में हार।

द्रौपदी अब बनेगी नारी

नहीं चाहिए उसे तुम्हारे मणि हार।

नहीं रह गई है वह केवल

तुम्हारी इच्छा पूर्त्तियों का आधार।

कर लेगी वह अपनी रक्षा

स्वयं ही जयद्रथ से

हे युधिष्ठिर !

नहीं चाहिए उसे तुम्हारी सम्बल।

तुम स्वयं तो बच लो पहले कर्ण से।

 

तुम्हारी सोलह हज़ार रानियों में

हे कृष्ण ! नहीं चाहिए स्थान मुझे।

रह लूंगी कुंवारी ही

नहीं चाहिए तुम्हारा एहसान मुझे।

 

तुम्हारे लिए हे राम !

मैंने छोड़ी सारी सुख सुविधा, राज पाट

और तुमने ! तुमने !

एक धोबी के कहने से छोड़ दिया मुझे।

तो स्वयं ही सिद्ध किया

कि अग्नि-परीक्षा

मेरे अपमान का एक अद्भुत ढंग था।

और बहाना  ! क्या सुन्दर था।

प्रजा का सुख था।

मैंने छोड़ दिया था तुम्हारे लिए सुख साज।

तो क्या तुम नहीं छोड़ सकते थे

मेरे लिए वही सुख राज।

 

और अब चाहते हो मैं गांधारी बनूं

फिरूं तुम्हारे पीछे पीछे आंखों पर पट्टी बांधे।

नहीं ! उस बंधी पट्टी को खोल

अपनी दृष्टि अपने पर ही डाल

बनूंगी स्वयं ही वज्र।

पर जानती हूं यह भी,

कि कृष्ण और दुर्योधन

अभी भी तुम्हारे अन्दर विद्यमान हैं।

लेकिन फिर भी हे पुरूष !

हर युग में तुम आओगे

मेरे ही आगे हाथ पसारे

हे मात: ! मुझे बना दो वज्र समान

जिससे, हर युग में मैं

कभी राम तो कभी कृष्ण

कभी कौरव तो कभी पाण्डव

तो कभी धृतराष्ट्र् बनकर

तुम्हें ही चोट पर चोट दे सकूं।

तुम्हारे ही अस्त्र से तुम्हें ही दबाउं

मुक्ति के गीत सुनाकर तुम्हें ही बन्दी बनाउं।

 

पर आज !

आज भी क्या है मेरे पास ?

सीता न बनूं, न बनूं गांधारी

राधा न बनूं, न बनूं द्रौपदी

या गांधारी भी न बनूं

तो क्या बन कर रहूं

बीसवीं सदी की नारी?

तो क्या यहां स्थितियां कुछ नेक हैं ?

हां हैं !

तुम्हारे हथकण्डे नये, बढ़िया, अनेक हैं।

या यूं कहूं फारेन मेक हैं।

यहां जकड़न और भी गहरी है।

नारी अभिशप्त हर जगह बेचारी है।

उसे देवी के आसन पर बिठाओ

मुक्ति के गीत सुनाओ, स्वपन दिखाओ

हर  जगह तुम्हारी जीत है।

हर जगह तुम्हारी जीत है।

आज तो तुमने नया हथकण्डा अपनाया है

सारे संसार में

महिला अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष का नारा गुंजाया है।

नारी को स्वाधीन बनाने का,

अधिकार दिलाने का स्वांग रचाया है।

तुम देवी हो, तुममें प्रतिभा है,

बुद्धिमती हो, तुम सब कुछ कर सकती हो।

सफल गृहिणी हो।

यानी कि आया भी हो

मेहरी भी हो अवैतनिक

और रसोईये का काम तो

भली भांति जानती ही हो।

और दफ्तर !

वहां तो आज नारी ही प्रधान है।

बिल्कुल ठीक !

पहले पिसती थी एक पाट में

अब उसे पीसो चक्की के दो पाटों में।

घर के भीतर भी और घर के बाहर भी।

इस तरह नारी के शोषण की

व्यंग्य प्रहारों से उसे पीड़ित करने की

एक नई राह पाई है।

नारी ने एक बार फिर मार खाई है।

हर युग में यही होता आया है

यह युग भी इसका अपवाद नहीं।

यत्र नारयस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता

भुलावे का मन्त्र यह,

नारी का जीवन था, नारी का जीवन है।

 

दिमाग़ में भरे भूसे का

घर जितना पुराना होता  जाता है

अनचाही वस्तुओं का

भण्डार भी

उतना ही बड़ा होने लगता है।

सब अत्यावश्यक भी लगता है

और निरर्थक भी।

यही हाल आज

हमारे दिमाग़ में

भरे भूसे का है

अपने-आपको खन्ने खाँ

समझते हैं

और मौके सिर

आँख, नाक, कान, मुँह पर

सब जगह ताले लग जाते हैं।