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मौन की भाषा समझी न

शब्दों की भाषा समझी न, नयनों की भाषा क्या समझोगे

रूदन समझते हो आंसू को, मुस्कानों की भाषा क्या समझोगे

मौन की भाषा समझी न, क्या समझोगे मनुहार की भाषा

गुलदानों में रखते हो सूखे फूल, प्यार की भाषा क्या समझोगे

 

भेदभावकारी योजनाएं

(पंजाब नैशनल बैंक में एक योजना है “बहुलाभकारी”

बैंक में लिखा था “बहू लाभकारी”

इस मात्रा भेद ने मुझे इस रचना के लिए प्रेरित किया)

 

प्रबन्धक महोदय हैरान थे।

माथे पर

परेशानी के निशान थे।

बैंक के बाहर शहर भर की सासें जमा थीं

और मज़े की बात यह

कि इन सासों की नेता

प्रबन्धक महोदय की अपनी अम्मां थीं।

 

उनके हाथों में

बड़ी बड़ी तख्तियां थीं

नारे थे और फब्तियां थीं :

“प्रबन्धक महोदय को हटाओ

नहीं तो सासलाभकारी योजना चलाओ।

ये बैंक में परिवारवाद फैला रहे हैं

पत्नियों के नाम से

न जाने कितना कमा रहे हैं।

और हम सासों को

सड़क का रास्ता दिखा रहे हैं।

 

वे नये नये प्रबन्धक बने थे।

शादी भी नयी नयी थी।

अपनी पत्नी और माता के संग

इस शहर में आकर

अभी अभी बसे थे

फिर सास बहू में खूब पटती थी,

प्रबन्धक महोदय की जिन्दगी

बढ़िया चलती थी।

 

पर यह आज क्या हो गया?

अपनी अम्मां को देख

प्रबन्धक महोदय घबराये।

केबिन से उठकर बाहर आये।

और अम्मां से बोले

“क्या हो गया है तुम्हें अम्मां

ये तख्तियां लिए जुलूस में खड़ी हो।

क्यों मुझे नौकरी से निकलवाने पर तुली हो।

घर जाओ, खाओ पकाओ

सास बहू मौज उड़ाओ।

 

अम्मां ने दो आंसू टपकाए

और भरे गले से बोलीं

“बेटा, दुनिया कहती थी

शादी के बाद

बेटे बहुओं के होकर रह जाते हैं

पर मैं न मानती थी।

पर आज मैंने

अपनी आंखों से देख ली तुम्हारी करतूत।

बहू के आते ही

हो गये तुम कपूत।

सुन लो,

मैं इन सासों की नेता हूं।

और हम सासों की भीड़

यहां से हटानी है

तो इस बोर्ड पर लिख दो

कि तुम्हें

सासलाभकारी योजना चलानी है।“

 

यह सुन प्रबन्धक महोदय बोले,

“सुन ओ सासों की नेता,

जो कहता है तेरा बेटा,

ये योजनाएं तो उपर वाले बनाते हैं

इसमें हम प्रबन्धक कुछ नहीं कर पाते हैं।“

 

“झूठ बोलते हो तुम,

“परबन्धक “ अपनी बहू के”

सासों की नेता बोलीं

“शादी के बाद इधर आये हो

तभी तो ये बोर्ड लगवाए हो।

पुराने दफ्तर में तो

ये योजनाएं न थीं

वहां तो कोई तख्तियां जड़ीं न थीं।“

 

“ओ सासों की नेता

मैं पहले क्षेत्रीय कार्यालय में काम था करता।

किसी योजना में हाथ नहीं होता मेरा

किसने तुम्हें भड़का दिया

मैं सच्चा सुपूत हूं तेरा।“

प्रबन्धक महोदय बोले

“किसी भी योजना में

धन लगा दो, ओ सासो !

बैंक सबको

 

बिना भेद भाव

समान दर से है ब्याज है देता।

इस सासलाभकारी योजना की याद

तुम्हें क्यों आई ?

मेरे बैंक की

कौन सी योजना तुम्हें नहीं भाई ?

 

सासों की सामूहिक आवाज़ आई,

“यदि बैंक भेद भाव नहीं करता

तो यह बहू लाभकारी योजना क्यों चलाई?

तभी तो हमें

सासलाभकारी योजना की याद आई।

यदि सासों की भीड़ यहां से हटानी है

तो इस तख्ती पर लिख दो

कि तुम्हें

सास लाभकारी योजना चलानी है।

और यदि

सास लाभकारी योजना न चलाओ,

तो अपनी यह

बहू लाभकारी योजना हटाओ,

और सास बहू के लिए

कोई एक सी योजना चलाओ।“

 

अपना मान करना सीख

आधुनिकता के द्वार पर खड़ी नारी

कहने को आकाश छू रही है

पाताल नाप रही है

पुरुषों के साथ

कंधे से कंधा मिलाकर

चलने की शान मार रही है

घर-बाहर दोनों मोर्चों पर

जीतती नज़र आ रही है।

अपने अधिकारों की बात करती

कहीं भी कमतर

नज़र न आ रही है।

किन्तु यहां

क्यों मौन साध रही है?

न मोम की गुड़िया है,

न लाचार, अपंग।

फिर क्यों इस मोर्चे पर

हर बार

पराजित-सी हार रही है।

.

पाखण्डों और परम्पराओं में

भेद करना सीख।

अपने हित में

अपने लिए बात करना सीख।

रूढ़ियों और रीतियों में

पहचान करना सीख।

अपनी कोमल-कान्त छवि से

बाहर निकल

गलत-सही में भेद करना सीख।

आवाज़ उठा

अपने लिए निर्णय लेना सीख।

सिर उठा,

आंख तरेर, आंख दिखा

आंख से आंख मिला

न डर।

तर्क कर, वितर्क कर

दो की चार कर

अपनी राहें आप नाप

हो निडर।

अपने कंधे पर अपना हाथ रख

अपने हाथ में अपना हाथ ले

न डर

सब बदल गये, सब बदल गया

तू भी बदल

अपना मान करना सीख

अपना मान रखना सीख।

 

अपनी पहचान की तलाश

नाम ढूँढती हूँ पहचान पूछती हूँ ।

मैं कौन हूँ बस अपनी आवाज ढूँढती हूँ ।

प्रमाणपत्र जाँचती हूँ

पहचान पत्र तलाशती हूँ

जन्मपत्री देखती हूँ

जन्म प्रमाणपत्र मांगती हूँ

बस अपना नाम मांगती हूँ।

परेशान घूमती हूँ

पूछती हूँ सब से

बस अपनी पहचान मांगती हूं।

खिलखिलाते हैं सब

अरे ! ये कमला की छुटकी

कमली हो गई है।

नाम  ढूँढती है, पहचान ढूँढती है

अपनी आवाज ढूँढती है।

अरे ! सब जानते हैं

सब पहचानते हैं

नाम जानते हैं।

कमला  की बिटिया, वकील की छोरी

विन्नी बिन्नी की बहना,

हेमू की पत्नी, देवकी की बहू,

और मिठू की अम्मा ।

इतने नाम इतनी पहचान।

फिर भी !

परेशान घूमती है, पहचान पूछती है

नाम मांगती है, आवाज़ मांगती है।

मैं पूछती हूं

फिर ये कविता कौन है

कौन है यह कविता ?

बौखलाई, बौराई घूमती हूं

नाम पूछती हूं, अपनी आवाज ढूँढती हूं

अपनी पहचान मांगती हूं

अपना नाम मांगती हूं।

मज़दूर दिवस मनाओ

तुम मेरे लिए

मज़दूर दिवस मनाओ

कुछ पन्ने छपवाओ

दीवारों पर लगवाओ

सभाओं का आयोजन करवाओ

मेरी निर्धनता, कर्मठता

पर बातें बनाओ।

मेरे बच्चों की

बाल-मज़दूरी के विरुद्ध

आवाज़ उठाओ।

उनकी शिक्षा पर चर्चा करवाओ।

अपराधियों की भांति

एक पंक्ति में खड़ाकर

कपड़े, रोटी और ढेर सारे

अपराध-बोध बंटवाओ।

एक दिन

बस एक दिन बच्चों को

केक, टाफ़ी, बिस्कुट खिलाओ।

.

कभी समय मिले

तो मेरी मेहनत की कीमत लगाओ

मेरे बनाये महलों के नीचे

दबी मेरी झोंपड़ी

की पन्नी हटवाओ।

मेरी हँसी और खुशी

की कीमत में कभी

अपने महलों की खुशी तुलवाओ।

अतिक्रमण के नाम पर

मेरी उजड़ी झोंपड़ी से

कभी अपने महल की सीमाएँ नपवाओ।

 

असमंजस में रहते हैं हम

कितनी बार,

हम समझ ही नहीं पाते,

कि परम्पराओं में जी रहे हैं,

या रूढ़ियों में।

.

दादी की परम्पराएं,

मां के लिए रूढ़ियां थीं,

और मां की परम्पराएं

मुझे रूढ़ियां लगती हैं।

.

हमारी पिछली पीढ़ियां

विरासत में हमें दे जाती हैं,

न जाने कितने अमूल्य विचार,

परम्पराएं, संस्कृति और व्यवहार,

कुछ पुराने यादगार पल।

इस धरोहर को

कभी हम सम्हाल पाते हैं,

और कभी नहीं।

कभी सार्थक लगती हैं,

तो कभी अर्थहीन।

गठरियां बांधकर

रख देते हैं

किसी बन्द कमरे में,

कभी ज़रूरत पड़ी तो देखेंगे,

और भूल जाते हैं।

.

ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी

सौंपी जाती है विरासत,

किसी की समझ आती है

किसी की नहीं।

किन्तु यह परम्परा

कभी टूटती नहीं,

चाहे गठरियों

या बन्द कमरों में ही रहें,

इतना ही बहुत है।

 

चींटियों के पंख

सुना है

चींटियों की

मौत आती है

तो पर निकल आते हैं।

.

किन्तु चिड़िया के

पर नहीं निकलते

तब मौत आती है।

.

कभी-कभी

इंसान के भी

पर निकल आते हैं

अदृश्य।

उसे आप ही नहीं पता होता

कि वह कब

आसमान में उड़ रहा है

और कब धराशायी हो जाता है।

क्योंकि

उसकी दृष्टि

अपने से ज़्यादा

औरों के

पर गिनने पर रहती है।

 

जीवन क्या होता है

जीवन में अमृत चाहिए

तो पहले विष पीना पड़ता है।

जीवन में सुख पाना है

तो दुख की सीढ़ी पर भी

चढ़ना पड़ता है।

धूप खिलेगी

तो कल

घटाएँ भी घिर आयेंगी

रिमझिम-रिमझिम बरसातों में

बिजली भी चमकेगी

कब आयेगी आँधी,

कब तूफ़ान से उजड़ेगा सब

नहीं पता।

जीवन में चंदा-सूरज हैं

तो ग्रहण भी तो लगता है

पूनम की रातें होती हैं

अमावस का

अंधियारा भी छाता है।

किसने जाना, किसने समझा

जीवन क्या होता है।

 

लिख नहीं पाती

मौसम बदल रहा है

बाहर का

या मन का

समझ नहीं पाती अक्सर।

हवाएं

तेज़ चल रही हैं

धूल उड़ रही है,

भावों पर गर्द छा रही है,

डालियां

बहकती हैं

और पत्तों से रुष्ट

झाड़ देती हैं उन्हें।

खिली धूप में भी

अंधकार का एहसास होता है,

बिन बादल भी

छा जाती हैं घटाएं।

लगता है

घेर रही हैं मुझे,

तब लिख नहीं पाती।

 

ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक

वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है

शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है

ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया

शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया

शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया

मन में एक जंगल है

मन में एक जंगल है

विचारों का, भावों का।

एक झंझावात की तरह आते हैं

अन्तर्मन को झिंझोड़ते हैं,

तहस-नहस करते हैं

और हवा के झोंके के साथ

अचानक

कहीं दूर उड़ जाते हैं।

कभी शब्द दे पाती हूं

और कभी नहीं।

लिखे शब्द पिघलने लगते हैं

आसमानी बादलों की तरह।

कहीं दूर उड़ जाते हैं

पक्षी की तरह।

हर बार एक कही-अनकही

आधी-अधूरी कहानी रह जाती है।

क्षमा-मंत्र

कोई मांगने ही नहीं आता

हम तो

क्षमाओं का पिटारा लिए

कब से खड़े हैं।

सबकी ग़लतियां तलाश रहे हैं

भरने के लिए

टोकरा उठाये घूम रहे हैं।

आपको बता दें

हम तो दूध के धुले हैं,

महान हैं, श्रेष्ठ हैं,

सर्वश्रेष्ठ हैं,

और इनके

जितने पर्यायवाची हैं

सब हैं।

और समझिए

कितने दानी , महादानी हैं,

क्षमाओं का पिटारा लिए घूम रहे हैं,

कोई तो ले ले, ले ले, ले ले।

 

सब साथ चलें बात बने

भवन ढह गये, खंडहर देखो अभी भी खड़ा है।

लड़खड़ाते कदमों से कौन पर्वत तक चढ़ा है।

जीवन यूं चलता है, सब साथ चलें, बात बने,

कठिन समय सहायक बनें, इंसान वही बड़ा है।

बालपन को जी लें

अपनी छाया को पुकारा, चल आ जा बालपन को फिर से जी लें

यादों का झुरमुट खोला, चल कंचे, गोली खेलें, पापड़, इमली पी लें

कैसे कैसे दिन थे वे सड़कों पर छुपन छुपाई, गुल्ली डंडा खेला करते

वो निर्बोध प्यार की हंसी ठिठोली, चल उन लम्हों को फिर से जी लें

जीवन की नैया ऐसी भी होती है

जल इतना

विस्तारित होता है

जाना पहली बार।

अपने छूटे,

घर-वर टूटे।

लकड़ी से घर चलता था।

लकड़ी से घर बनता था।

लकड़ी से चूल्हा जलता था,

लकड़ी की चौखट के भीतर

ठहरी-ठहरी-सी थी ज़िन्दगी।

निडर भाव से जीते थे,

अपनों के दम पर जीते थे।

पर लकड़ी कब लाठी बन जाती है,

राह हमें दिखलाती है,

जाना पहली बार।

अब राहें अकेली दिखती हैं,

अब, राहें बिखरी दिखती हैं,

पानी में कहां-कहां तिरती हैं।

इस विस्तारित सूनेपन में

राहें आप बनानी है,

जीवन की नैया ऐसी भी होती है,

जाना पहली बार।

अब देखें, कब तक लाठी चलती है,

अब देखें, किसकी लाठी चलती है।

छोटी रोशनियां सदैव आकाश बड़ा देती हैं

छोटी-सी है अर्चना,

छोटा-सा है भाव।

छोटी-सी है रोशनी।

अर्पित हैं कुछ फूल।

नेह-घृत का दीप समर्पित,

अपनी छाया को निहारे।

तिरते-तिरते जल में

भावों का गहरा सागर।

हाथ जोड़े, आंख मूंदे,

क्या खोया, क्या पाया,

कौन जाने।

छोटी रोशनियां

सदैव आकाश बड़ा देती हैं,

हवाओं से जूझकर

आभास बड़ा देती हैं।

सहज-सहज

जीवन का भास बड़ा देती हैं।

हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या

इस जग में एक सुन्दर जीवन मिला है, मर्त्यन लोक है इससे क्या

सुख-दुख तो आने जाने हैं,पतझड़-सावन, प्रकाश-तम है हमको क्या

जब तक जीवन है, भूलकर मृत्यु के डर को जीत लें तो क्या बात है

कोई कुछ भी उपदेश देता रहे, हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या

बरसती बूॅंदें

बरसती बूंदों को रोककर जीवन को तरल करती हूं

बादलों से बरसती नेह-धार को मन से परखती हूं

कौन जाने कब बदलती हैं धाराएं और गति इनकी

अंजुरी में बांधकर मन को सरस-सरस करती हूं।

 

औरत

अपने आस-पास

नित नये-नये रंगों को,

घिरते-बिखरते अंघेरों को

देखते-देखते,

अक्सर मेरी मुट्ठियां

भिंच जाया करती हैं

पर कैसी विडम्बना है यह

कि मैं चुपचाप

सिर झुकाकर

उन कसी मुट्ठियों से

आटा गूंथने लग जाती हूं

और इसे ही

अपनी सफ़लता मान लेती हूं।

मेरी समझ कुछ नहीं आता

मां,

मास्टर जी कहते हैं

धरती गोल घूमती।

चंदा-तारे सब घूमते

सूरज कैसे आता-जाता

बहुत कुछ बतलाते।

मेरी समझ नहीं कुछ आता

फिर हम क्यों नहीं गिरते।

पेड़-पौधे खड़े-खड़े

हम पर क्यों नहीं गिरते।

चंदा लटका आसमान में

कभी दिखता

कभी खो जाता।

कैसे कहां चला जाता है

पता नहीं क्या-क्या समझाते।

इतने सारे तारे

घूम-घूमकर

मेरे बस्ते में क्यों नहीं आ जाते।

कभी सूरज दिखता

कभी चंदा

कभी दोनों कहीं खो जाते।

मेरी समझ कुछ नहीं आता

मास्टर जी

न जाने क्या-क्या बतलाते।

 

नहले पे दहला
तू 

नहले पे दहला

लगाना सीख ले

नहीं तो

गुलाम

बनकर

रह जायेगा

 

कुछ पल बस अपने लिये

उदित होते सूर्य की रश्मियां

मन को आह्लादित करती हैं।

विविध रंग

मन को आह्लादमयी सांत्वना

प्रदान करते हैं।

शांत चित्त, एकान्त चिन्तन

सांसारिक विषमताओं से

मुक्त करता है।

सांसारिकता से जूझते-जूझते

जब मन उचाट होता है,

तब पल भर का ध्यान

मन-मस्तिष्क को

संतुलित करता है।

आधुनिकता की तीव्र गति

प्राय: निढाल कर जाती है।

किन्तु एक दीर्घ उच्छवास

सारी थकान लूट ले जाता है।

जब मन एकाग्र होता है

तब अधिकांश चिन्ताएं

कहीं गह्वर में चली जाती हैं

और स्वस्थ मन-मस्तिष्क

सारे हल ढूंढ लाता है।

 

इन व्यस्तताओं में

कुछ पल तो निकाल

बस अपने लिये।

 

 

 

ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई

किसी ने कहा

ज़िन्दगी पर

एक उपन्यास लिखो।

सालों-साल का

हिसाब-बेहिसाब लिखो।

स्मृतियों को

उलटने-पलटने लगी।

समेटने लगी

सालों, महीनों, दिनों

और घंटों का,

पल-पल का गणित।

बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।

न जाने कितने झंझावात,

कितने विप्लव,

कितने भूचाल बिखर गये।

कहीं आंसू, कहीं हर्ष,

कहीं आहों के,

सुख-दुख के सागर उफ़न गये।

 

न जाने

कितने दिन-महीने, साल लग गये

कथाओं का समेटने में।

और जब

अन्तिम रूप देने का समय आया

तो देखा

एक क्षणिका भी न बन पाई।

 

ठहरा-सा लगता है  जीवन

नदिया की धाराओं में टकराव नहीं है

हवाओं के रुख वह में झनकार नहीं है

ठहरा-ठहरा-सा लगता है अब जीवन

जब मन में ही अब कोई भाव नहीं हैं

क्यों न कहे

आंखें देखती हैं,

कान सुनते हैं,

दिल जलता है,

माथा तपता है,

सब चुपचाप चलता है।

.

किन्तु यह जिह्वा

सह नहीं पाती,

सब कह बैठती है।

 

आंखों में तिरते हैं सपने

आंखों में तिरते हैं सपने,

कुछ गहरे हैं कुछ अपने।

पलकों के साये में

लिखते रहे

प्यार की कहानियां,

कागज़ पर न उकेरी कभी

तेरी मेरी रूमानियां।

 

कुछ मोती हैं,

नयनों के भीतर

कोई देख न ले,

पलकें मूंद सकते नहीं

कोई भेद न ले।

 

यूं तो कजराने नयना

काजर से सजते हैं

पर जब तुम्हारी बात उठती है

तब नयनों में तारे सजते हैं।

 

मिलन की घड़ियाॅं

चुभती हैं

मिलन की घड़ियाॅं,

जो यूॅं ही बीत जाती हैं,

कुछ चुप्पी में,

अनबोले भावों में,

कुछ कही-अनकही

शिकायतों में,

बातों की छुअन

वादों की कसम

घुटता है मन

और मिलन की घड़ियाॅं

बीत जाती हैं।

 

पाषाणों में पढ़ने को मिलती हैं

वृक्षों की आड़ से

झांकती हैं कुछ रश्मियां

समझ-बूझकर चलें

तो जीवन का अर्थ

समझाती हैं ये रश्मियां

मन को राहत देती हैं

ये खामोशियां

जीवन के एकान्त को

मुखर करती हैं ये खामोशियां

जीवन के उतार-चढ़ाव को

समझाती हैं ये सीढ़ियां

दुख-सुख के पल आते-जाते हैं

ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां

पाषाणों में

पढ़ने को मिलती हैं

जीवन की अनकही कठोर दुश्वारियां

समझ सकें तो समझ लें

हम ये कहानियां

अपनेपन से बात करती

मन को आश्वस्त करती हैं

ये तन्हाईयां

अपने लिए सोचने का

समय देती हैं ये तन्हाईयां

और जीवन में

आनन्द दे जाती हैं

छू कर जातीं

मौसम की ये पुरवाईयां

ज़िन्दगी के गीत

ज़िन्दगी के कदमों की तरह

बड़ा कठिन होता है

सितार के तारों को साधना।

बड़ा कठिन होता है

इनका पेंच बांधना।

यूँ तो मोतियों के सहारे

बांधी जाती हैं तारें

किन्तु ज़रा-सा

ढिलाई या कसाव

नहीं सह पातीं

जैसे प्यार में ज़िन्दगी।

मंद्र, मध्य, तार सप्तक की तरह

अलग-अलग भावों में

बहती है ज़िन्दगी।

तबले की थाप के बिना

नहीं सजते सितार के सुर

वैसे ही अपनों के साथ

उलझती है जिन्दगी

कभी भागती, कभी रुकती

कभी तानें छेड़ती,

राग गाती,

झाले-सी दनादन बजती,

लड़ती-झगड़ती

मन को आनन्द देती है ज़िन्दगी।

 

कहीं सच न बोल बैठे

रहने दो मत छेड़ो दर्द को

कहीं सच न बोल बैठे।

राहों में फूल थे

न जाने कांटे कैसे चुभे।

चांद-सितारों से सजा था आंगन

न जाने कैसे शूल बन बैठे।

हरी-भरी थी सारी दुनिया

न जाने कैसे सूखे पल्लव बन बैठे।

सदानीरा थी नदियां

न जाने कैसे हृदय के भाव रीत गये।

रिश्तों की भीड़ थी मेरे आस-पास

न जाने कैसे सब मुझसे दूर हो गये।

स्मृतियों का अथाह सागर उमड़ता था

न जाने कैसे सब पन्ने सूख गये।

सूरज-चंदा की रोशनी से

आंखें चुंधिया जाती थीं

न जाने कैसे सब अंधेरे में खो गये।

बंद आंखों में हज़ारों सपने सजाये बैठी थी

न जाने कैसे आंख खुली, सब ओझल हो गये।

नहीं चाहा था कभी बहुत कुछ

पर जो चाहा वह भी सपने बनकर रह गये।