आँख मूंद सपनों में जीने लगती हूँ
खिड़की से सूनी राहों को तकती हूँ
उन राहों पर मन ही मन चलती हूँ
भटकन है, ठहराव है, झंझावात हैं
आँख मूंद सपनों में जीने लगती हूँ।
एक मानवता को बसाने में
ये धुएँ का गुबार
और चमकती रोशनियाँ
पीढ़ियों को लील जाती हैं
अपना-पराया नहीं पहचानतीं
बस विध्वंस को जानती हैं।
किसी गोलमेज़ पर
चर्चा अधूरी रह जाती है
और परिणामस्वरूप
धमाके होने लगते हैं
बम फटने लगते हैं
लोग सड़कों-राहों पर
मरने लगते हैं।
क्यों, कैसे, किसलिए
कुछ नहीं होता।
शताब्दियाँ लग जाती हैं
एक मानवता को बसाने में
और पल लगता है
उसको उजाड़ कर चले जाने में।
फिर मलबों के ढेर में
खोजते हैं
इंसान और इंसानियत,
कुछ रुपये फेंकते हैं
उनके मुँह पर
ज़हरीले आंसुओं से सींचते हैं
उनके घावों को
बदले की आग में झोंकते हैं
उनकी मानसिकता को
और फिर एक
गोलमेज़ सजाने लगते हैं।
वनचर इंसानों के भीतर
कहते हैं
प्रकृति स्वयंमेव ही
संतुलन करती है।
रक्षक-भक्षक स्वयं ही
सर्जित करती है।
कभी इंसान
वनचर था,
हिंसक जीवों के संग।
फिर वन छूट गये
वनचरों के लिए।
किन्तु समय बदला
इंसान ने छूटे वनों में
फिर बढ़ना शुरु कर दिया
और अपने भीतर भी
बसा लिए वनचर ।
और वनचर शहरों में दिखने लगे।
कुछ स्वयं आ पहुंचे
और कुछ को हम ले आये
सुरक्षा, मनोरजंन के लिए।
.
अब प्रतीक्षा करते हैं
इंसान फिर वनों में बसता है
या वनचर इंसानों के भीतर।
कहते हैं
प्रकृति स्वयंमेव ही
संतुलन करती है।
रक्षक-भक्षक स्वयं ही
सर्जित करती है।
कभी इंसान
वनचर था,
हिंसक जीवों के संग।
फिर वन छूट गये
वनचरों के लिए।
किन्तु समय बदला
इंसान ने छूटे वनों में
फिर बढ़ना शुरु कर दिया
और अपने भीतर भी
बसा लिए वनचर ।
और वनचर शहरों में दिखने लगे।
कुछ स्वयं आ पहुंचे
और कुछ को हम ले आये
सुरक्षा, मनोरजंन के लिए।
.
अब प्रतीक्षा करते हैं
इंसान फिर वनों में बसता है
या वनचर इंसानों के भीतर।
बस विश्वास देना
कभी दुख हो तो बस साथ देना
दया मत दिखलाना बस हाथ देना
पीड़ा बढ़ जाती है जब दूरियाँ हों
आँसू मत बहाना बस विश्वास देना
इच्छाएँ हज़ार
छोटा-सा मन इच्छाएँ हज़ार
पग-पग पर रुकावटें हज़ार
ठोकरों से हम घबराए नहीं
नहीं बदलते राहें हम बार-बार
ईश्वर के रूप में चिकित्सक
कहते हैं
जीवन में निरोगी काया से
बड़ा कोई सुख नहीं
और रोग से बड़ा
कोई दुख नहीं।
जीवन का भी तो
कोई भरोसा नहीं
आज है कल नहीं।
किन्तु
जब जीवन है
तब रोग और मौत
दोनों के ही दुख से
कहाँ बच पाया है कोई।
किन्तु
कहते हैं
ईश्वर के रूप में
चिकित्सक आते हैं
भाग्य-लेख तो वे भी
नहीं मिटा पाते हैं
किन्तु
अपने जीवन को
दांव पर लगाकर
हमें जीने की आस,
एक विश्वास
और साहस का
डोज़ दे जाते हैं
और हम
यूँ ही मुस्कुरा जाते हैं।
जब भी दूध देखा
सुना ही है
कि भारत में कभी
दूध-घी की
नदियाँ बहा करती थीं।
हमने तो नहीं देखीं।
बहती होंगी किसी युग में।
हमने तो
दूध को सदा
टीन के पीपों से ही
बहते देखा है।
हम तो समझ ही नहीं पाये
कि दूध के लिए
दुधारु पशुओं का नाम
क्यों लिया जाता है।
कैसे उनका दूध समा जाता है
बन्द पीपों में
थैलियों में और बोतलों में।
हमने तो जब भी दूध देखा
सदा पीपों में, थैलियों में
बन्द बोतलों में ही देखा।
जीवन चलता तोल-मोल से
सड़कों पर बाज़ार बिछा है
रोज़ सजाते, रोज़ हटाते।
आज हरी हैं
कल बासी हो जायेंगी।
आस लिए बैठे रहते हैं
देखें कब तक बिक जायेंगी
ग्राहक आते-जाते
कभी ख़रीदें, कभी सुनाते।
धरा से उगती
धरा पर सजती
धरा पर बिकती।
धूप-छांव में ढलता जीवन
सांझ-सवेरे कब हो जाती।
तोल-मोल से काम चले
और जीवन चलता तोल-मोल से
यूँ ही दिन ढलते रहते हैं
जीवन का आनन्द ले
प्रकृति ने पुकारा मुझे,
खुली हवाओं ने
दिया सहारा मुझे,
चल बाहर आ
दिल बहला
न डर
जीवन का आनन्द ले
सुख के कुछ पल जी ले।
वृक्षों की लहराती लताएँ
मन बहलाती हैं
हरीतिमा मन के भावों को
सहला-सहला जाती है।
मन यूँ ही भावनाओं के
झूले झूलता है
कभी हँसता, कभी गुनगुनाता है।
गुनगुनी धूप
माथ सहला जाती है
एक मीठी खुमारी के साथ
मानों जीवन को गतिमान कर जाती है।
सदानीरा अमृत-जल- नदियाँ
नदियों के अब नाम रह गये
नदियों के अब कहाँ धाम रह गये।
गंगा, यमुना हो या सरस्वती
बातों की ही बात रह गये।
कभी पूजा करते थे
नदी-नीर को
अब कहते हैं
गंदे नाले के ये धाम रह गये।
कृष्ण से जुड़ी कथाएँ
मन मोहती हैं
किन्तु जब देखें
यमुना का दूषित जल
तो मन में कहाँ वे भाव रह गये।
पहले मैली कर लेते
कचरा भर-भरकर,
फिर अरबों-खरबों की
साफ़-सफ़ाई पर करते
बात रह गये।
कहते-कहते दिल दुखता है
पर
सदानीरा अमृत-जल-नदियों के तो
अब बस नाम ही नाम रह गये।
अपने केश संवरवा लेना
बंसी बजाना ठीक था
रास रचाना ठीक था
गैया चराना ठीक था
माखन खाना,
ग्वाल-बाल संग
वन-वन जाना ठीक था।
यशोदा मैया
गूँथती थी केश मेरे
उसको सताना ठीक था।
कुरुक्षेत्र की यादें
अब तक मन को
मथती हैं
बड़े-बड़े महारथियों की
कथाएँ अब तक
मन में सजती हैं।
पर राधे !
अब मुझको यह भी करना होगा!!
अब मुझको
राजनीति छोड़
तुम्हारी लटों में उलझना होगा!!!
न न न, मैं नहीं अब आने वाला
तेरी उलझी लटें
मैं न सुलझाने वाला।
और काम भी करने हैं मुझको
चक्र चलाना, शंख बजाना,
मथुरा, गोकुल, द्वापर, हस्तिनापुर
कुरुक्षेत्र
न जाने कहाँ-कहाँ मुझको है जाना।
मेरे जाने के बाद
न जाने कितने नये-नये युग आये हैं
जिनका उलटा बजता ढोल
मुझे सताये है।
इन सबको भी ज़रा देख-परख लूँ
और समझ लूँ,
कैसे-कैसे इनको है निपटाना।
फिर अपने घर लौटूँगा
थक गया हूँ
अवतार ले-लेकर
अब मुझको अपने असली रूप में है आना
तुम्हें एक लिंक देता हूँ
पार्लर से किसी को बुलवा लेना
अपने केश संवरवा लेना।
मुखौटे बहुत चढ़ाते हैं लोग
गुब्बारों में हँसी लाया हूँ
चेहरे पर चेहरा लगाकर
खुशियों का
सामान बांटने आया हूँ।
कुछ पल बांट लो मेरे साथ
जीवन को हँसी
बनाने आया हूँ।
चेहरों पर
मुखौटे बहुत चढ़ाते हैं लोग
पर मैं अपने मुखौटै से
तुम्हें हँसाने आया हूँ।
गुब्बारे फूट जायेंगे
हवा बिखर जायेगी,
या उड़ जायेंगे आकाश में
ग़म न करना
ज़िन्दगी का सच
समझाने आया हूँ।
वास्तविकता से परे
किसका संधान तू करने चली
फूलों से तेरी कमान सजी
पर्वतों पर तू दूर खड़ी
अकेली ही अकेली
किस युद्ध में तू तनी
कौन-सा अभ्यास है
क्या यह प्रयास है
इस तरह तू क्यों है सजी
वास्तविकता से परे
तेरी यह रूप सज्जा
पल्लू उड़ रहा, सम्हाल
बाजूबंद, करघनी, गजरा
मांगटीका लगाकर यूँ कैसे खड़ी
धीरज से कमान तान
आगे-पीछे देख-परख
सम्हल कर रख कदम
आगे खाई है सामने पहाड़
अब गिरी, अब गिरी, तब गिरी
या तो वेश बदल या लौट चल।
कहने की ही बातें हैं
छल-कपट से दुनिया चलती, छल-कपट करते हैं लोग
कहने की ही बातें हैं कि यहाँ सब हैं सीधे-सादे लोग
बस कहने की बातें हैं, सच बोलो, सन्मार्ग अपनाओ
झूठ पालते, हेरी-फ़ेरी करते, वे ही कहलाते अच्छे लोग
अपनी ज़िन्दगी
प्यास अपनी खुद बुझाना सीखो
ज़िन्दगी में बेवजह मुस्कुराना सीखो
कब तक औरों के लिए जीते रहोगे
अपनी ज़िन्दगी खुद संवारना सीखो
सीधी राहों की तलाश में जीवन
अपने दायरे आप खींच
न तकलीफ़ों से आंखें मींच
.
हाथों की लकीरें
अजब-सी
आड़ी-तिरछी होती हैं,
जीवन की राहें भी
शायद इसीलिए
इतनी घुमावदार होती हैं।
किन्तु इन
घुमावदार राहों
पर खिंची
आड़ी-तिरछी लकीरें
गोल दायरों में घुमाती रहती हैं
जीवन भर
और हम
इन राहों के आड़े-तिरछेपन,
और गोल दायरों के बीच
अपने लिए
सीधी राहों की तलाश में
घूमते रहते हैं जीवन भर।
मनोरम प्रकृति का यह रूप
कितना मनोरम दिखता है
प्रकृति का यह रूप।
मानों मेरे मन के
सारे भाव चुराकर
पसर गई है
यहां अनेक रूपों में।
कभी हृदय
पाषाण-सा हो जाता है
कभी भाव
तरल-तरल बहकते हैं।
लहरें मानों
कसमसाती हैं
बहकती हैं
किनारों से टकराती हैं
और लौटकर
मानों
मन मसोसकर रह जाती हैं।
जल अपनी तरलता से
प्रयासरत रहता है
धीरे-धीरे
पाषाणों को आकार देने के लिए।
हरी दूब की कोमलता में
पाषाण कटु भावों-से
नेह-से पिघलने लगते हैं
एक छाया मानों सान्त्वना
के भाव देती है
और मन हर्षित हो उठता है।
जीने की चाहत
जीवन में
एक समय आता है
जब भीड़ चुभने लगती है।
बस
अपने लिए
अपनी राहों पर
अपने साथ
चलने की चाहत होती है।
बात
रोशनी-अंधेरे की नहीं
बस
अपने-आप से बात होती है।
जीवन की लम्बी राहों पर
कुछ छूट गया
कुछ छोड़ दिया
किसी से नहीं कोई आस होती है।
न किसी मंज़िल की चाहत है
न किसी से नाराज़गी-खुशी
बस अपने अनुसार
जीने की चाहत होती है।
हम हार नहीं माना करते
तूफ़ानों से टकराते हैं
पर हम हार नहीं माना करते।
प्रकृति अक्सर अपना
विकराल रूप दिखलाती है
पर हम कहाँ सम्हलकर चलते।
इंसान और प्रकृति के युद्ध
कभी रुके नहीं
हार मान कर
हम पीछे नहीं हटते।
प्रकृति बहुत सीख देती है
पर हम परिवर्तन को
छोड़ नहीं सकते,
जीवन जीना है तो
बदलाव से
हम पीछे नहीं हट सकते।
सुनामी आये, यास आये
या आये ताउते
नये-नये नामों के तूफ़ानों से
अब हम नहीं डरते।
प्रकृति
जितना ही
रौद्र रूप धारण करती है
मानवता उससे लड़ने को
उतने ही
नित नये साधन जुटाती है।
तब प्रकृति भी मुस्काती है।
जग का यही विधान है प्यारे
जग का यही विधान है प्यारे
यहां सोच-समझ कर चल।
रोते को बोले
हंस ले, हंस ले प्यारे,
हंसते पर करे कटाक्ष
देखो, हरदम दांत निपोरे।
चुप्पा लगता घुन्ना, चालाक,
जो मन से खुलकर बोले
बड़बोला, बेअदब कहलाए
जग का यही विधान है प्यारे।
सच्चे को झूठा बतलाए
झूठा जग में झण्डा लहराए।
चलती को गाड़ी कहें
जब तक गाड़ी चलती रहे
झुक-झुक करें सलाम।
सरपट सीधी राहों पर
सरल-सहज जीवन चलता है
उंची उड़ान की चाहत में
मन में न सपना पलता है।
मुझको क्या लेना
मोटर-गाड़ी से
मुझको क्या लेना
ऊँची कोठी-बाड़ी से
छोटी-छोटी बातों में
मन रमता है।
चढ़ते सूरज को करें सलाम।
पग-पग पर अंधेरे थे
वे किसने देखे
बस उजियारा ही दिखता है
जग का यही विधान है प्यारे
यहां सोच-समझ कर चल।
विध्वंस की आशंका
विध्वंस की आशंका से
आज ही
नवनिर्माण में जुटे हैं
इसलिए
अपने-आप ही
तोड़- फ़ोड़ में लगे है।
एैसे भी झूले झुलाती है ज़िन्दगी
वाह! ज़िन्दगी !
.
कहाँ पता था
एैसे भी झूले झुलाती है ज़िन्दगी।
आकाश-पाताल
सब एक कर दिखाती है ज़िन्दगी।
क्यों
कभी-कभी इतना डराती है ज़िन्दगी।
शेर-चीते तो सपनों में भी आयें
तब भी नींद उड़ जाती है।
न जाने
किसके लिए कह गये हैं
हमारे बुज़ुर्ग
कि न दोस्ती भली न दुश्मनी।
ये दोस्ती निभा रहे हैं
या दुश्मनी,
ये तो पता नहीं,
किन्तु मेरे
धरा और आकाश
दोनों छीनकर
आनन्द ले रहे हैं,
और मुझे कह रहे हैं
जा, जी ले अपनी ज़िन्दगी।
घर की पूरी खुशियाँ
आंगन में चरखा चलता था
आंगन में मंजी बनती थी
पशु पलते थे आंगन में
आँगन में कुँआ होता था
आँगन में पानी भरते थे
आँगन में चूल्हा जलता था
आँगन में रोटी पकती थी
आँगन में सब्ज़ी उगती थी
आँगन में बैठक होती थी
आँगन में कपड़े धुलते थे
आँगन में बर्तन मंजते थे।
गज़ भर के आँगन में
सब हिल-मिल रहते थे
घर की पूरी खुशियाँ
इस छोटे-से आँगन में बसती थीं
पूरी दुनिया रचती थीं।
कविता लिखने की रैसिपी
काव्य-सृजन एवं स्वाधीनता के बीच की एवं मेरे जीवन की यह एक सत्य-कथा है ।
इधर मेरे लेखन में बहुत परिवर्तन आया है, आभारी हूं आप सब मित्रों की, साहित्यिक समूहों की, अन्यथा मेरी रचनाओं में बहुत ही नकारात्मकता रहती थी एवं सबसे बड़ी समस्या यह थी कि मेरी कविताएं “नारी–नुमा” कही जाती थी। एेसा मेरे कवि-मित्र कहा करते थे कि मेरी रचनाओं में नारी के अतिरिक्त कोई विषय ही नहीं होता।
बहुत पुरानी बात है, शायद 1996-97 की। 15 अगस्त पर होने वाले कवि-सम्मेलन के निमन्त्रण के साथ ही मुझे यह धमकी भी मिली कि मैं इस कवि-सम्मेलन में कोई नारीनुमा रचना लेकर नहीं आउंगी, देश-प्रेम की ही रचना होनी चाहिए। जब मैंने यह कहा कि मेरे मन में जो भाव उद्वेलित करते हैं उन पर ही लिख पाती हूं, तो उत्तर में संचालक महोदय ने मुझसे पूछा कि मेरे भीतर देश-भक्ति की भावना नहीं है? और यह भी समझाया कि देश-भक्ति पर कविता लिखना तो सबसे सरल है।
अब उन्होंने मुझे देश-भक्ति की रचना लिखने का लिए जो रैसिपी दी आप भी लीजिए, कवियों के स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त लाभप्रद है।
उन्होंने मुझे समझाया कि मैं अपने पुत्र की पांचवी-छठी कक्षा की राजनीति की कोई पुस्तक लूं और उसमें से स्वाधीनता सेनानियों के नाम लिख लूं। जैसे लाल, बाल, गोपाल, नेहरू, गांधी, पटेल, भगतसिंह, राजगुरू, चंद्रशेखर आज़ाद, तिलक, झांसी की रानी, नाना और न जाने कितने ही नाम। अब इनके साथ जलियांवाला बाग, स्वीधनता, आज़ादी, देश-प्रेम, त्याग, बलिदान, आहुति, फांसी, शहीद, वतन, देश, अंग्रेज, विदेशी, आततायी, राष्ट्र् जैसे शब्दों को लूं इन सबको मिलाकर थोड़ी सी तुकबन्दी और देशभक्ति की कविता तैयार।
क्या आप मित्रों के पास है कोई नुस्खा कविताएं लिखने का ?
वर्तमान स्वागत-सत्कार
श्रेष्ठि वर्ग / High Society
आपके सामने शानदार डोंगे भर-भर कर काजू, किशमिश, बादाम, अखरोट जैस सूखे मेवे रख दिये जाते हैं। आप एक नहीं, दो अथवा तीन दाने उठाकर खा लेंगे। फिर वे स्वयं ही बार बार चाय, कोल्ड ड्रिंक से होने वाली हानियों को सविस्तार बतायेंगे और बतायेंगे कि वे तो एेसा कुछ भी सेवन नहीं करते। साथ ही आपसे बार बार पूछेंगे आप क्या लेंगे। फिर छोटे छोटे cut glasses में आपको तीन-चार घूंट कोई energy drink serve की जायेगी जिससे आप अपना गला तर करके, कुछ दाने टूंग कर चल देंगे।
*******
उच्च मध्यम वर्ग ः एक बिस्कुट की प्लेट और नमकीन की एक-दो प्लेट आपके सामने आ जायेगी और दो-तीन बार आपके सामने घूम कर लौट जायेगी। साथ आधा कप चाय अथवा कोई चलती सी कोल्ड ड्रिंक
******************************
और आह ! सही लोग : सही स्वागत-सत्कार
समासे, पकौड़े, गुलाबजामुन, रसगुल्ले, और इनके सारे रिश्तेदार और कम से कम दो-तीन बार चाय।
******
आप मुझे जलपान पर कब आमन्त्रित कर रहे हैं ।
आस लिए जीती हूँ
सपनों में जीती हूँ
सपनों में मरती हूँ
सपनों में उड़ती हूँ
ऐसे ही जीती हूँ।
धरा पर सपने बोती हूँ
गगन में छूती हूँ ।
मन में चाँद-तारे बुनती हूँ।
बादलों-से उड़ जाते हैं,
हवाएँ बहकाती हैं
सहम जाता है मन
पंछी-सा,
पंख कतरे जाते हैं
फिर भी उड़ती हूँ।
लौट धरा पर आती हूँ,
पर गगन की
आस लिए जीती हूँ।
जीवन क्या होता है
जीवन में अमृत चाहिए
तो पहले विष पीना पड़ता है।
जीवन में सुख पाना है
तो दुख की सीढ़ी पर भी
चढ़ना पड़ता है।
धूप खिलेगी
तो कल
घटाएँ भी घिर आयेंगी
रिमझिम-रिमझिम बरसातों में
बिजली भी चमकेगी
कब आयेगी आँधी,
कब तूफ़ान से उजड़ेगा सब
नहीं पता।
जीवन में चंदा-सूरज हैं
तो ग्रहण भी तो लगता है
पूनम की रातें होती हैं
अमावस का
अंधियारा भी छाता है।
किसने जाना, किसने समझा
जीवन क्या होता है।
न जाने अब क्या हो
बस शैल्टर में बैठे दो
सोच रहे हैं न जाने क्या हो।
‘गर बस न आई तो क्या हो।
दोनों सोचे दूजा बोले
तो कुछ तो साहस हो।
बारिश शुरु होने को है
‘गर हो गई तो
भीग जायेंगे
कहीं बुखार हो गया तो।
कोरोना का डर लागे है
पास होकर पूछें तो।
घर भी मेरा दूर है
क्या इससे बात करुँ
साथ चलेगा ‘गर जो
बस न आई अगर
कैसे जाउंगी मैं घर को।
यह अनजान आदमी
अगर बोल ले बोल दो।
तो कुछ साहस होगा जो
सांझ ढल रही,
लाॅक डाउन का समय हो गया
अंधेरा घिर रहा
न जाने अब क्या हो।
कामयाबी और भटकाव’
ओलम्पिक पदक विजेता सुशील कुमार पर गम्भीर आपराधिक मामले हैं। प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद नामी खिलाड़ी नकारात्मक दुनिया में कदम रखने लगे हैं। यह उनकी आकांक्षाओं का विस्तार और भटकाव तो है ही, किन्तु विचारणीय यह कि कारण क्या है? निःसंदेह ओलम्पिक में पदक प्राप्त करना बहुत बड़ी उपलब्धि है, और वे सम्मान के पात्र भी हैं। किन्तु इन विजेताओं को इतना महिमा-मण्डित किया जाता है कि वे अपने-आपको अति श्रेष्ठ समझने लग जाते हैं। कामयाबी और अहंकार उनके सर चढ़कर बोलने लगता है। पुरस्कारों, पदकों, नकद राशि, ज़मीन, फ़्री की उंची नौकरी, उपहारों की झड़ी लग जाती है और यहां तक राजनीति में भी इनकी पूछ होने लगती है। राजीव गांधी खेल-रत्न, अर्जुन पुरस्कार, पद्म श्री, आदि न जाने कितने पुरस्कार मिले। कितने ही खिलाड़ियों को खेल एकेडमी खोलने के लिए ज़मीन दी जाती है। किन्तु जिस ओलम्पिक तक वे पहुंचते हैं, परिश्रम उनका होता है किन्तु उन पर किया जाने वाला व्यय, अभ्यास, प्रयास सब देश करता है और आम नागरिक के धन से होता है। इसका एहसास उन्हें कभी भी नहीं कराया जाता। उन पर कोई दायित्व नहीं होते । इतना सब मिल जाने के बाद वे प्राप्त धनराशि, पद, ज़मीन का क्या कर रहे हैं कोई नहीं पूछता। उपलब्धियों के बाद वे अपने खेल के प्रति अथवा देश के प्रति क्या उत्तरदायित्व निभा रहे हैं कोई जांच नहीं होती। सात पीढ़ियों की सुविधाएं उनके पास आ जाती हैं और उन्हें कोई कर्तव्य बोध नहीं कराया जाता। हमारी यही नीतियां उन्हें नाकारा, उच्छृंखल और अपराधी बना देती हैं।
तूफान (मन के अंदर और बाहर) एक बोध कथा
तूफ़ान कभी अकेले नहीं आते। आंधी-तूफ़ान संयुक्त शब्द ही अपने-आप में पूर्ण अभिव्यक्ति माना जाता है। वैसे बात तो एक ही है। आंधी हो या तूफ़ान, बाहर हो अथवा अन्तर्मन में, बहुत कुछ उजाड़ जाता है, जो कभी दिखता है कभी नहीं। अभी कुछ दिन पूर्व ताउते एवं यास तूफ़ान ने लाखों लोगों को बेघर कर दिया। हम दूर बैठे केवल बात ही कर सकते हैं। जिनके घर उजड़ गये, व्यवसाय डूब गये, उन पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन तूफ़ानों का प्रभाव रह जाता है। ये बाहरी तूफ़ान कितने गहरे तक प्रभावित करते हैं मन को, जीवन-शैली को, सामाजिक-पारिवारिक रहन-सहन को, शब्दों में समझाया नहीं जा सकता।
कोरोना भी तो किसी तूफ़ान से कम नहीं। हां, इसकी गति मन और प्रकृति के तूफ़ान से अलग है। दिखता नहीं किन्तु उजाड़ रहा है। एक के बाद एक लहर, सम्हलने का समय ही नहीं मिल रहा। पूरे-पूरे परिवार, नौकरियां, व्यवसाय इस तूफ़ान ने लील लिए, और कोई आवाज़ तक नहीं हुई। किस राह से किस घर में और किस देह में प्रवेश कर जायेगा, कोई नहीं जानता। किस दरार से, किस द्वार से हमारे घर के भीतर प्रवेश कर गई पता ही नहीं लगा। पांचों सदस्य एक साथ प्रभावित हुए। एक माह बाद भी अभी सम्हल नहीं पाये। कोविड उपरान्त अनेक समस्याएं हो रही हैं और हो सकती हैं। यह और भी भयंकर इसलिए कि अपनों की अपनों से पहचान ही मिटा रहा है। पड़ोसियों ने हमारे घर की ओर देखना बन्द कर दिया, मानों कहीं हवा से उनके घर में प्रवेश न कर जाये। हम बीस दिन घर में पूरी तरह बन्द रहे। कोई किसी की सहायता नहीं कर सकता अथवा करता, एक अव्यक्त भय ने घेर लिया है।
पिछले लगभग एक महीने में यहां पंचकूला में तीन-चार बार भयंकर तूफ़ान आया। हमारे दो सुन्दर फूलों के गमले गिर कर टूट गये। कोई दिन नहीं जाता जब मैं उन गमलों और फूलों को याद नहीं करती। फिर सोचती हूं, मैं दो गमलों के लिए इतनी परेशान हूं, जिनका पूरा जीवन ही उजड़ गया इन तूफ़ानों में, उनका क्या हाल हुआ होगा।
शायद मैं अपनी अभिव्यक्ति में उलझ रही हूं। एक ओर प्राकृतिक तूफ़ान की बात है और दूसरी ओर मन के अथवा आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक स्तर पर आने वाले तूफ़ानों की।
एक विचारों का, चिन्तन का झंझावात ऐसा भी होता है जो शब्दरहित होता है, न उसकी अभिव्यक्ति होती है, न अभिप्राय, न अर्थ। जिसके भीतर उमड़ता है बस वही जानता है।
एक बोध कथा है कि तूफ़ान आने पर घास ने विशाल वृक्षों से कहा कि झुक जाओ, नहीं तो नष्ट हो जाओगे। वृक्ष नहीं मानें और आकाश की ओर सिर उठाये खड़़े रहे। तूफ़ान बीत जाने के बाद वृक्ष धराशायी थे किन्तु झुकी हुई घास मुस्कुरा रही थी। किन्तु कथा का दूसरा पक्ष जो बोध कथा में कभी पढ़ाया ही नहीं गया, वह यह कि झुकी हुई घास सदैव पैरों तले रौंदी जाती रही और वृ़क्ष अपनी जड़ों से फिर उठ खड़े हुए आकाश की ओर।
किन्तु यह तो बोध कथाएं हैं। वास्तविक जीवन में ऐसा कहां होता है। जब तूफ़ान आते हैं तो निर्बल को पहले दबोचते हैं। किन्तु उसकी चर्चा नहीं होती। चर्चा होती है शेयर बाज़ार में तूफ़ान। राजनीति में तूफ़ान। जब हम समाचार सुनना चाहते हैं और तरह-तरह के तूफ़ानो से चिन्तित वास्तविकता जानना चाहते हैं तब वहां उन तूफ़ानों पर चर्चा चल रही होती है जो आये ही नहीं। और हम घंटों मूर्ख बने उसे ही सुनने लग जाते हैं, वास्तविकता से बहुत दूर उन्हें ही सत्य मान बैठते हैं।