एक किस्सागोई

कुछ बातें बेवजह याद आती हैं लेकिन निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पातीं।

वैसे तो 22 मार्च 2020 से ही घर पर हूं, जब पहला लॉक डाउन हुआ था किन्तु आधिकारिक तौर पर 20 जुलाई 2020 को त्यागपत्र देकर घर ही हूं।

       तो कल तक जब यानी 20 जुलाई 2020 से पूर्व कोई मुझे पूछता था कि आप क्या करती हैं तो मैं पहले कहा करती थी, बैंक में कार्यरत हूं, उपरान्त मैं इस विद्यालय में वरिष्ठ लेखाकार हूं।

21 जुलाई 2020 से मेरी पोस्ट बदल गई। अब मेरी पोस्ट क्या है, यही विचार करने के लिए यह आलेख लिख रही हूं।

       बात यह कि कुछ वर्ष पहले तक जो महिला नौकरी नहीं करती थी, उसे घरेलू महिला हाउस वाईफ़ कहा जाता था, और इसे बड़े सामान्य तौर पर लिया जाता था, चाहे वह महिला कितनी ही उच्च शिक्षा प्राप्त क्यों न हो। और नौकरी न करना कोई अपराध अथवा हीन भावना भी नहीं होती थी।

वर्तमान में स्थिति बदल चुकी है।

विद्यालय में बच्चों के प्रवेश फ़ार्म में माता-पिता के विवरण के विस्तृत काॅलम होते हैं, जिनमें उनकी शिक्षा, नौकरी, कार्यक्षेत्र, कार्यस्थल, वेतन, अन्य अनुभवों आदि की जानकारी मांगी जाती है।

इसी काॅलम से मेरा यह आलेख निकला। मैंने देखा कि कुछ फ़ार्मों में माता के विवरण में जाॅब/बिजनैस के आगे लिखा मिलने लगा: हाउस मेकर, हाउस मैनेजर, हाउस इंचार्ज। किन्तु विभाग के आगे कोई सूचना नहीं लिखी गई थी।  मैं महामूर्ख। मुझे लगा सम्भवतः किसी हास्पिटैलिटीए होटल आदि में कोई पोस्ट होगी।

मैं एक महिला से पूछ बैठी मैम आपने  डिपार्टमैंट नहीं लिखा। डिपार्टमैंट मतलब? मैंने लिखा तो है हाउस मैनेजर। जी हां, पोस्ट तो लिखी है, डिपार्टमैंट, आफिॅस का पता भी तो लिखिए।

उसे बड़ा अपमानजनक लगा मेरा प्रश्न। क्रोध से बोली, आप कहना क्या चाहती हैं कि जो लेडीज जाॅब नहीं करतीं, वो केवल घरेलू, अनपढ़, गंवार, निकम्मी होती हैं क्या? मैं हाउस मेकर, हाउस मैनेजर हूं, घर हम औरतें ही बनाती हैं।

मैं एकदम हकबका-सी गई, तो क्या ये पोस्ट हो गई। तो फिरघर में पति की क्या पोस्ट है, पूछ नहीं पाई।

मैं अचानक ही बोल बैठी, तो आप हाउस-वाईफ़ हैं। आपने पोस्ट के सामने हाउस मैनेजर लिखा है न, मुझे लगा किसी विभाग में पोस्ट का नाम होगा। साॅरी अगर आपको बुरा लगा।

अब नाराज़गी चरम पर थी। बोली, हाउस वाईफ़ का क्या मतलब होता है? मैं कोई अनपढ़, गंवार औरत हूं कि बस एक घरेलू औरत हूं। घर हम औरतें ही चलाती हैं। क्या वह काम नहीं है?  क्या आपकी तरह बाहर नौकरी न करने वाली औरतें क्या बस घरेलू ही हैं।  क्या आप ही काम करती हैं जो घर से बाहर नौकरी करती हैं। हम घर चलाती हैं, घर सम्हालती हैं तो हाउस मैनेजर, हाउस मेकर हुई या नहीं। हमारे बिना घर चल सकता है क्या? हमारे काम की कोई वैल्यू नहीं है क्या? घर तो हम औरतें ही बनाती हैं न।

मैं भी सिरे की ढीठ। उल्टी खोपड़ी। पीछे हटने वाली कहां। मैंने आगे से कहा, मैम वो तो सारी ही महिलाएं करती हैं, हम नौकरी वाली भी करती हैं तो क्या मुझे अपनी पोस्ट के साथ ओब्लीग करके हाउस मेकर भी लिखना चाहिए। और घर सम्हालना कोई नौकरी तो नहीं हुई न। यहां काॅलम जाॅब/बिज़नेस है।

वह महिला देर तक बड़बड़ाती रही। और उसने वर्तमान में महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय, विरोध, शोषण, उनके अधिकारों के हनन, सम्मान की कमी, पारिवारिक समस्याओं और न जाने कितने विषयों पर भाषण दे डाला।

मैं समझ नहीं पाई कि घर से बाहर नौकरी न करना हीन भावना क्यों बनने लगा है और घर में रहना एक जाॅब या नौकरी कैसे बना। निःसदेह महिलाओं के साथ अनेक क्षेत्रों में अन्याय, विरोधाभास है किन्तु इन बातों के अत्यधिक प्रचार-प्रसार ने  महिलाओं की सोच को भी प्रभावित कर दिया है। इसका दुष्परिणाम यह कि महिलाओं की परिवार के प्रति सोच संकुचित होने लगी है और वे उन क्षेत्रों में भी अधिकारों की बातें करने लगी हैं जो उनके अधिकार क्षेत्र की नहीं हैं। मुझे लगता है महिलाओं में इस तरह की सोच, प्रवृत्ति, उन्हें आत्मनिर्भर, स्वाबलम्बी, स्वतन्त्र नहीं बना रही, पुरुष समाज के विरुद्ध अकारण खड़ा कर रही है। उनमें पारिवारिक दायित्वों के प्रति एक विमुखता ला रही है। अपने पारिवारिक दायित्वों को एक जाॅब या नौकरी समझने से सोच बहुत बदली है और महिलाओं की मानसिकता में गहरी नकारात्मकता आने लगी है।

  

कर्तव्य श्री

                                        दृश्य एकः

श्री जी की पत्नी का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गई। माता-पिता बूढ़े थे, बच्चे छोटे-छोटे। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था बच्चे और घर कहां संभाल पाते। और श्री जी अपनी नौकरी देखें, बच्चे संभाले या बूढे़-बुढ़िया की सेवा करें। 

बड़ी समस्या हुई। कभी भूखे पेट सोते, कभी बाहर से गुज़ारा करते। श्री जी से सबकी सहानुभूति थी। कभी सासजी आकर घर संभालती, कभी सालियांजी, कभी भाभियांजी और कभी बहनेंजी। पर आखिर ऐसे कितने दिन चलता। आदमी आप तो कहीं भी मुंह मार ले पर ये बूढ़े-बुढ़िया और बच्चे।

अन्ततः सबने समझाया और श्री जी की भी समझ में आया। रोटी बनाने वाली, बच्चों कोे सम्हालने  वाली, घर की देखभाल करने वाली और बूढ़े-बुढ़िया की देखभाल करने वाली कोई तो होनी ही चाहिए। भला, आदमी के वश का कहां है ये सब। वह नौकरी करे या ये सब देखे। सो मज़बूर होकर महीने भर में ही लानी पड़ी।

                और इस तरह श्री जी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।

                                ‘अथ सर्वशक्तिमान पुरुष’

                                        दृश्य दोः

श्रीमती जी के पति का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गये। सास-ससुर बूढ़े थे। बच्चे छोटे-छोटे। श्रीमती जी स्वयं अभी बच्चा-सी दिखतीं। दसवीं की नहीं कि माता-पिता पर भारी हो गई। शहर में लड़का मिल गया सरकारी नौकर, घर ठीक-ठाक-सा। बस झटपट शादी कर दी। अब यह पहाड़ टूट पड़ा। कभी दहलीज न लांघी थी, सिर से पल्लू न हटा था। पर अब कमाकर खिलाने वाला कोई न रहा। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था, करते-कमाते क्या ? भूखांे मरने की नौबत दिखने लगी।

अब नाते-रिश्तेदार भी क्या करें ? सबका अपना-अपना घर, बाल-बच्चे, काम और नौकरियां, आखिर कौन कितने दिन तक साथ देता। सब एक-दूसरे से पहले खिसक जाना चाहते थे। कहीं ये बूढ़े-बुढ़िया, श्रीमतीजी या बच्चे किसी का पल्लू न पकड़ लें।

अन्ततः श्रीमती जी स्वयं उठीं। पल्लू सिर से उतारकर कमर में कसा। पति के कार्यालय जाकर खड़ी हो गईं नौकरी पाने के लिए।

अभी महीना भी न बीता था कि श्रीमतीजी लगी दफ्तर में कलम चलाने। प्रातः पांच बजे उठकर घर संवारतीं, बूढ़े-बुढ़िया की आवश्यकताएं पूरी करती। बच्चों को स्कूल भेजतीं। खाना-वाना बनाकर दस बजे दफ््तर पहुंच जाती, दिन-भर वहां कलम घिसतीं। शाम को बच्चों का पढ़ातीं। घर-बाहर देखतीं, राशन-पानी जुटाती, दुनियादारी निभातीं। खाती-खिलाती औेर सो जातीं।

और इस तरह श्रीमतीजी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।

                 ‘बेचारी कमज़ोर  औरत’

   

हास्य बाल कथा गीदड़ और ऊंट की कहानी
अध्यापक ने तीसरी कक्षा के बच्चों को यह बोध कथा सुनाई।

 एक जंगल में गीदड़ और ऊंट रहते थे। एक दिन गीदड़ ने ऊंट  से कहा, नदी पार गन्नों का खेत है, चलो आज रात  वहां गन्ने खाने चलते हैं। ऊंट ने पूछा कि तुम कैसे नदी पार करोगे, तुम्हें तो तैरना नहीं आता। गीदड़ ने कहा कि देखो मैंने तुम्हें गन्ने के खेत के बारे में बताया, तुम मुझे अपनी पीठ पर बैठाकर नदी पार करवा देना। हम अंधेरे में ही चुपचाप गन्ने खाकर आ जायेंगे, खेत का मालिक नहीं जागेगा।

दोनों नदी पारकर खेत में गये और पेटभर कर गन्ने खाये। ऊंट ने कहा चलो वापिस चलते हैं। लेकिन गीदड़ अचानक गर्दन ऊपर उठाकर ‘‘हुआं-हुआं’’ करने लगा। ऊंट ने उसे रोका, कि ऐसा मत करो, खेत का मालिक जाग जायेगा और हमें मारेगा। गीदड़ ने कहा कि खाना खाने के बाद अगर वह ‘‘हुआं-हुआ’’ न करे तो खाना नहीं पचता। और वह और ज़ोर से ‘‘हुंआ-हुंआ’’ करने लगा। खेत का मालिक जाग गया और डंडा लेकर दौड़ा। गीदड़ तो गन्नों में छुप गया और ऊंट को खूब मार पड़ी।

तब वे फिर नदी पार कर लौटने लगे और गीदड़ ऊंट की पीठ पर बैठ गया। गहरी नदी के बीच में पहुंचकर ऊंट डुबकियां लेने लगा। गीदड़ चिल्लाया अरे ऊंट भाई, यह क्या कर रहे हो, मैं डूब जाउंगा। ऊंट ने कहा कि खाना खाने के बाद जब तक मैं पानी में डुबकी नहीं लगा लेता मेरा भोजन नहीं पचता। ऊंट ने एक गहरी डुबकी लगाई और गीदड़ डूब गया।

अब अध्यापक ने बच्चों से पूछा ‘‘ बच्चो, इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है?’’

एक बच्चे ने उठकर कहा ‘‘ इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि खाना खाने के बाद ‘‘हुंआ-हुंआ नहीं करना चाहिए।’’

  

 

आत्म संतोष क्या जीवन की उपलब्धि है 2

पिछले कुछ समय से मैं एक गम्भीर प्रश्न का उत्तर ढूंढ रही हूं। प्रश्न आर्थिक/वित्तीय है। अपने इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए मैं शहर के विभिन्न बैंकों में गई, वित्तीय संस्थानों में पूछताछ की। स्टॉक एक्सचेंज की खाक छानी, विदेशी मुद्रा विनिमय केन्द्रों में गई, बड़े-बड़े वित्तीय अधिकारियों से मिली, किन्तु मेेरी समस्या का समाधान नहीं हुआ।

अब मैं अपना प्रश्न लेकर आपके सामने उपस्थित हूँ। जब बड़ी-बड़ी संस्थाएँ और बड़े-बडे़ लोग मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाये तो मैं अपने वयोवृद्ध दादाजी के पास जा बैठी। मुझे रुंआसी देखकर दादाजी ने कारण पूछा। डूबते को क्या चाहिए एक तिनके का सहारा। मैंने अपना प्रश्न दादाजी के मामन रख दिया। दादाजी, लोग रुपये की बात करते हैं डॅालर, पौंड, यूरो और न जाने कितना विदेशी मुद्राओं की बात करते हैं किन्तु मैंने एक नये धन का नाम सुना है जिसे सन्तोष धन कहा जाता है। यह धन तो मैंने किसी के पास नहीं देख।

जिससे पूछती हूं वही मेरा उपहास करता हे कि अरे इस पगली लड़की को देखो, भला आज के ज़माने में भी कहीं संतोष धन पाया जाता है। दादाजी कोई नहीं मानता कि संतोष भी कोई धन होता है। अब आप ही बताईये दादाजी , यह संतोष धन कौन-सा धन है कहां मिलता है, कहां पाया जाता है , कौन प्रयोग करता है । किस काम आता है। यह कैसा गुप्त धन है जिसके बारे में बड़े-बड़े लोग नहीं जानते।

दादाजी मेरी बात सुनकर ठठाकर हंस दिये। बोले बेटी, संतोष धन तो मनुष्य ने सदियों पहले ही खो दिया। और तुम पुरातात्विक विभाग की वस्तु को आधुनिक विज्ञान की मशीनों में खोजोगी तो भला बताओ कैसे मिलेगी? अब आधुनिकता की दौेड़ में जुटे लोगों की रुचि भला पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी की वस्तुओं में कैसे हो सकती है।

लेकिन वे चकित भी थे कि मुझे इस संतोष धन का पता कैसे लगा। क्या मैंने इस धन को पा लिया है। मैं हंस दी नहीं दादाजी मुझे यह धन नहीं मिला। मैंने उन्हें बताया कि कोई कबीरदास हुआ करते थे वे लिख गये हैं जब आवे संतोष धन सब धन धूरी समान। अब दादाजी से तो बहुत बातें हूईं किन्तु उनसे वार्तालाप में मेरे सामने अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए। उन्हीं पर चिन्तन करते हुए मैं आपके समक्ष हूं।

क्या सत्य में ही आधुनिकता के पीछे भाग रहे मनुष्य ने संतोष धन खो दिया है। कबीरदास ने कहा कि जिस मनुष्य के पास संतोष धन है उसके सामने सब धन धूल के समान हैं अर्थात उनका कोई महत्व नहीं।

 किन्तु वर्तमान में इस दोहे के अर्थ बदल गये हैं। वर्तमान में इस दोहे का अर्थ है कि जिस व्यक्ति के पास संतोष धन है उसके लिए सब धन धूल के समान हो जातेे हैं अर्थात उसे जीवन में कोई उपलब्धि प्राप्त नहीं हो पाती।

तो क्या जीवन में सचमुच संतोष ही सबसे बड़ी उपलब्धि है? मेरी दृष्टि में नहीं। मेरी दृष्टि में संतोष का अभिप्राय है एक ठहराव, निप्क्रियता, इच्छाओं का दमन। यदि मानव ने अपनी स्थितियों पर संतोेष कर लिया होता तो वह आज भी वन में पत्थर रगड़ कर आग जला रहा होता, पत्तों के वस्त्र धारण कर वृक्षों पर सो रहा होता। मेरी दृप्टि में संतोष न करने का अभिप्राय है, आगे बढ़ने की इच्छा, प्रगति की कामना, प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता, नव-नवोन्मेष प्रतिभा एवं विचारो का स्तवन, अनुसंधान, स्वाबलम्बन, अच्छे से अच्छा करने की कामना।

संतोष न करने का ही परिणाम हे कि आज हम चांद पर पहुंच गये हैं, समुद्र की अतल गहराईयों को नाप रहे हैं। लाखों मीलों की दूरी कुछ ही घंटों में तय कर लेते हैं।

विश्व के एक कोने में बैठकर सम्पूर्ण विश्व के लोगों से वार्तालाप कर सकते हैं, उन्हें देख सकते हैं।

यदि मैं संतोष धन अपना लूं तो कभी भी अच्छे अंक प्राप्त करने का प्रयास ही न करुं। उत्तीर्ण होकर भी क्या करता है, संतोष धन तो पा ही लिया है। माता-पिता से कहूँगी मैंने संतोष धन प्राप्त कर लिया है मुझे आगे मत पढ़ाईये।

मेरे कुछ साथी संतोष-असंतोष की तुलता कर सकते हैं कि संतोष न होने का अर्थ है असंतोष। किन्तु मेरी दृष्टि में असंतोष एक मानसिक वेदना है जो ईर्ष्या-द्वेष-भाव से उपजती है जबकि संतोष न करने की भावना प्रगति के पथ पर अग्रसर करती है।

  

खामोशियां भी बोलती है

नई बात। अब कहते हैं मौन रहकर अपनी बात कहना सीखिए, खामोशियाँ भी बोलती हैं। यह भी भला कोई बात हुई। ईश्वर ने गज़ भर की जिह्वा दी किसलिए है, बोलने के लिए ही न, शब्दाभिव्यक्ति के लिए ही तो। आपने तो कह दिया कि खामोशियाँ बोलती हैं, मैंने तो सदैव धोखा ही खाया यह सोचकर कि मेरी खामोशियाँ समझी जायेगी। न जी न, सरासर झूठ, धोखा, छल, फ़रेब और सारे पर्यायवाची शब्द आप अपने आप देख लीजिएगा व्याकरण में।

मैंने तो खामोशियों को कभी बोलते नहीं सुना। हाँ, हम संकेत का प्रयास करते हैं अपनी खामोशी से। चेहरे के हाव-भाव से स्वीकृति-अस्वीकृति, मुस्कान से सहमति-असहमति, सिर से सहमति-असहमति। लेकिन बहुत बार सामने वाला जानबूझकर उपेक्षा कर जाता है क्योंकि उसे हमें महत्व देना ही नहीं है। वह तो कह जाता है तुम बोली नहीं तो मैंने समझा तुम्हारी मना है।

कहते हैं प्यार-व्यार में बड़ी खामोशियाँ होती हैं। यह भी सरासर झूठ है। इतने प्यार-भरे गाने हैं तो क्या वे सब झूठे हैं? जो आनन्द अच्छे, सुन्दर, मन से जुड़े शब्दों से बात करने में आता है वह चुप्पी में कहाँ, और यदि किसी ने आपकी चुप्पी न समझी तो गये काम से। अपना ऐसा कोई इरादा नहीं है।

मेरी बात बड़े ध्यान से सुनिए और समझिए। खामोशी की भाषा अभिव्यक्ति करने वाले से अधिक समझने वाले पर निर्भर करती है। शायद स्पष्ट ही कहना पड़ेगा, गोलमाल अथवा शब्दों की खामोशी से काम नहीं चलने वाला।

मेरा अभिप्राय यह कि जिस व्यक्ति के साथ हम खामोशी की भाषा में अथवा खामोश अभिव्यक्ति में अपनी बात कहना चाह रहे हैं, वह कितना समझदार है, वह खामोशी की कितनी भाषा जानता है, उसकी कौन-सी डिग्री ली है इस खामोशी की भाषा समझने में। बस यहीं हम लोग मात खा जाते हैं।

इस भीड़ में, इस शोर में, जो जितना ऊँचा बोलता है, जितना चिल्लाता है उसकी आवाज़ उतनी ही सुनी जाती है, वही सफ़ल होता है। चुप रहने वाले को गूँगा, अज्ञानी, मूर्ख समझा जाता है।

ध्यान रहे, मैं खामोशी की भाषा न बोलना जानती हूँ और न समझती हूँ, मुझे अपने शब्दों पर, अपनी अभिव्यक्ति पर, अपने भावों पर पूरा विश्वास है और ईश प्रदत्त गज़-भर की जिह्वा पर भी।

  

मोबाईल: आवश्यकता अथवा व्यसन

हमारी एक प्रवृत्ति हो गई है कि हम बहुत जल्दी किसी भी बात की आलोचना अथवा सराहना करने लगते हैं। कोई एक करता है और फिर सब करने लगते हैं जैसे मानों नम्बर बनाने हों कि किसने कितनी आलोचना कर ली अथवा सराहना कर ली। जैसे हमारी विचार-शक्ति समाप्त हो जाती है और हम निर्भाव बहती धारा के साथ बहने लगते हैं।

मोबाईल!!!

आधुनिकता के इस युग में मोबाईल जीवन की आवश्यकता बन चुका है। चाहे कितनी भी आलोचना कर लें किन्तु वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में इसके महत्व और आवश्यकता को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि आपको मोबाईल किस स्तर का चाहिए और किस कार्य के लिए।

एक समय था जब विद्यालयों में मोबाईल ले जाना प्रतिबन्धित था। फिर समय ऐसा आया कि यही मोबाईल शिक्षा का केन्द्र बन गया। कोराना काल ने आम आदमी के जीवन में इतने परिवर्तन कर दिये कि एक बार तो वह स्वयं ही समझ नहीं पाया कि यह सब क्या हो रहा है। जब तक समझ आती, जीवन की धाराएँ ही बदल चुकीं थीं।

शिक्षा का यह ऐसा काल था, लगभग दो वर्ष का, जिसने शिक्षा, ज्ञान और परीक्षाओं के सारे प्रतिमान ही बदल कर रख दिये। शिक्षा की इस नवीन प्रणाली ने पारिवारिक व्यवस्थाएँ, आवश्यकताएँ, जीवन का ढाँचा ही बदल कर रख दिया। देश के मध्यमवर्गीय परिवारों में रोटी से अधिक महत्वपूर्ण मोबाईल हो उठे। फिर वह पहली कक्षा का विद्यार्थी हो अथवा किसी बड़ी कक्षा का। किसी-किसी परिवार में एक साथ दो-दो लैपटॉप और तीन-चार मोबाईल की आवश्यकता उठ खड़ी हुई अर्थात लाखों का व्यय। आय बन्द, व्यवसाय बन्द, वेतन आधा और मोबाईल ज़रूरी। ऐसे कितने ही परिवार मैंने इस समय में देखे जहाँ माता-पिता के पास एक-एक मोबाईल था और पिता के पास लैपटॉप। अब तीन बच्चे। तीनों की एक समय ऑनलाईन क्लास। माता अध्यापिका। अब एक लैपटॉप और तीन मोबाईल की अनिवार्यता उठ खड़ी हुई। चाहिए भी एंड्राएड अर्थात कम से कम 15-20 हज़ार प्रति।  जहाँ मोबाईल पढ़ाई की आवश्यकता बने वहाँ आदत का हिस्सा भी। असीमित ज्ञान का भण्डार। आय-व्यय, बैंकिंग, भुगतान-प्राप्ति का सरल साधन, डिजिटल पेमंट, खेल का माध्यम। बच्चे घर में बैठकर पूरी दुनिया से जुड़ रहे थे, ज्ञान का असीमित भण्डार का पिटारा मानों उनके सामने खुल गया था और वे अचम्भित थे। माता-पिता से जल्दी बच्चे यह सब सीखने लगे। इसमें कहीं भी कुछ भी ग़लत अथवा ठीक नहीं कहा जा सकता था, यह सब समय की आवश्यकता के कारण विकसित हो रहा था, जो धीरे-धीरे हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता गया। यदि शिक्षा के क्षेत्र में यह मोबाईल न होता तो बच्चे दो वर्ष पीछे चले जाते और उन्होंने ऑन लाईन जो ज्ञान प्राप्त किया, आधुनिकता से जुड़े, वह एक बहुत बड़ा अभाव रह जाता।

आज का समय ऐसा नहीं है कि बच्चे विद्यालय से निकले और घर। नहीं जी, ट्यूशन, डांस क्लास, स्विमिंग, क्रिकेट और न जाने क्या-क्या। तब माता-पिता और बच्चों के बीच यही एक वार्तालाप का सहारा बनता है

ऐसा नहीं कि कोरोना काल में ही मोबाईल ने हमारे जीवन को प्रभावित किया। इससे पूर्व भी विद्यालयों में सीनियर कक्षाओं में  प्रोजेक्ट वर्क, आर्ट वर्क और अनेक गृह कार्य ऐसे दिये जाते थे जो गूगल देवता की सहायता से ही किये जाते थे। कक्षाओं में स्मार्ट बोर्ड और अनेक तकनीक प्रयोग में पहले से ही चल रहे थे, बस मोबाईल की इसमें वृद्धि हुई।

किसी सीमा तक यह बात ठीक है कि जब किसी वस्तु का हम अत्याधिक प्रयोग करने लगत हैं तब आवश्यकता से बढ़कर वह हमारी आदत बन जाती है, हमें उसकी लत लग जाती है और जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ने लगता है।

निश्चित रूप से बच्चे आज पक्षियों की भांति स्वतन्त्र पंछी नहीं रह गये हैं। इसका एक कारण मोबाईल हो सकता है किन्तु सारा दोष केवल मोबाईल को नहीं दिया जा सकता। आधुनिकतम जीवन शैली, शिक्षा एवं ज्ञान का माध्यम, बच्चे तो क्या हमारी पीढ़ी भी इसमें उलझी बैठी है। अब यह माता-पिता का कर्तव्य है और शिक्षा-संस्थानों का भी कि बच्चों को मोबाईल के उचित प्रयोग एवं सीमित प्रयोग के लिए प्रेरित करें न कि उन्हें आरोपित।

  

विश्व चाय दिवस

सुबह से भूली-भटकी अभी मंच पर आगमन हुआ तो ज्ञात हुआ कि आज तो अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस अथवा विश्व चाय दिवस है।

ऐसा कैसे सम्भव है। चाय का और केवल एक दिवस! नहीं, नहीं, यह तो चाय का और चाय के नशेड़ियों का घोर अपमान है।

शिमला में हम परिवार में आठ सदस्य थे, दिन-भर में 80-90 चाय तो बनती ही होगी और वह भी लार्ज पटियाला साईज़, पीतल के बड़े गिलास। मेरी दादी मेरी माँ से कहती थी पानी की टंकी में ही चीनी-पत्ती डाल दे, अपने-आप सब दिन-भर पीते रहेंगे।

दिन भर में पाँच-छः चाय तो अब भी पी ही लेती हूँ। कुछ वर्ष पहले तक दस-बारह हो ही जाती थी। उससे पहले 12-15। गज़ब की पाचन-क्षमता  रही है मेरी। प्रातः घर से 7.30 निकल जाती थी किन्तु आम बात थी कि चार से पांच चाय पी लेती थी। काम करते-करते एक कप खाली हुआ, दूसरा तैयार। एक नाश्ते के साथ और दूसरा नाश्ते के बाद। फिर कार्यालय पहुँचकर टेबल पर सबसे पहले चाय। चाय देने वाले को भी पता था कि मैडम को कितनी चाय चाहिए होती है। वैसे भी छोटे-छोटे गिलास में आती चाय वैसे ही मूड खराब कर देती है इस कारण मुझे हर जगह अपना ही कप या गिलास रखना पड़ता था। जब मेरा स्थानान्तरण हुआ तो मज़ाक किया जाता था कि कंटीन तो अब बन्द हो जायेगी, कविता तो जा रही है।

मेरे लिए चाय का अर्थ है शुद्ध चाय। अर्थात पानी, ठीक-सा दूध, चीनी और पत्ती। कुछ लोग चाय के नाम पर काढ़ा पीना पसन्द करते हैं। हाय! अदरक नहीं डाला, छोटी इलायची के बिना तो स्वाद ही नहीं आता, दालचीनी वाली चाय बड़ी स्वाद होती है। दूध वाली गाढ़ी चाय होनी चाहिए। अरे तो दूध ही पी लीजिए, चाय के बहाने दूध क्यों पी रहे हैं, सीधे-सीधे कहिए कि दूध पीना है। कुछ लोग चाय का मसाला बनाकर रखते हैं। अरे ! ऐसी ही चाय पीनी है तो गर्म मसाला ही पी लीजिए, चाय को क्यों बदनाम कर रहे हैं।

लोग कहते हैं चाय से गैस हो जाती है, नींद नहीं आती है अथवा नींद आ जाती है। पता नहीं कैसे हैं यह लोग।

आह! किसी समय, कितनी बार, कहीं भी, बस चाय, चाय और चाय।

  

जीवन और परिवर्तन

परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, जिस पर मनुष्य का नियन्त्रण नहीं।  मानव कितना ही शक्तिशाली हो जाये, प्रकृति में नित्य प्रति आने वाले परिवर्तन पर नियन्त्रण नहीं कर सकता। शीत को ग्रीष्म में और ग्रीष्म को शिशिर में नहीं बदल सकता।

वास्तव में परिवर्तन विकास, चेतना, चिन्तन का प्रतीक है। परिवर्तन हमारी इच्छाओं, कामनाओं, लालसाओं का दूसरा नाम है।  जिस दिन परिवर्तन रुक जायेगा, उस दिन मानवता भी ठहर जायेगी। हम कह सकते हैं कि परिवर्तन विकास का ही दूसरा नाम है।

एक परिवर्तन सहज-स्वाभाविक है और दूसरा परिवर्तन सप्रयास। परिवर्तन प्रायः आवश्यकता आधारित होता है और अब आवश्यकताएँ लगभग पूर्ण होने लगती हैं तब लालसा एवं प्रदर्शन के कारण भी हम जीवन में परिवर्तन करने लगते हैं।

मनुष्य की चेतना उसकी सर्वोत्तम उपलब्धि तथा अन्य सभी गुणों का आधार है। यह व्यक्ति मानस की प्रमुख विषेशता होने के साथ.साथ निरन्तर परिवर्तनशील हैए अतः विकासोन्मुख हैए स्थिर या जड़ नहीं। यही उसे पाशव स्तर से उठाकर मानव स्तर तक ले आती है।

इसी कारण सृष्टि के आरम्भ होते ही परिवर्तन, विकास और चिन्तन की प्रक्रिया आरम्भ हुई, इसी कारण आज मानव आधुनिकता के इस द्वार पर खड़ा है। जंगल में रहते हुए मानव ने अपने हित में, अपनी सुरक्षा और जीवन-यापन के लिए प्रकृति के साथ मिलकर परिवर्तन की प्रक्रिया आरम्भ की होगी। गुफ़ाओं को घर बनाया होगा, उन्हें सुरक्षित किया होगा, जीवन-यापन के लिए, भोज्य सामग्री की तलाश की होगी। प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए सुरक्षा साधनों का विकास किया होगा। परिवर्तन और विकास की यह प्रक्रिया इतनी लम्बी रही होगी कि हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। एकल मानव संगठित हुआ, समूह बने होंगें, और अन्ततः परिवर्तन और विकास की आँधी ने उसे आज आधुनिकता के चरम तक पहुँचा दिया है।

जीवन के इस परिवर्तन को यदि हम सहज-स्वाभाविक रूप में स्वीकार कर लेते हैं तो जीवन सहज हो जाता है। क्योंकि जब भौतिक परिवर्तन होता है तब विचारों, भावों, रीति-परम्पराओं, रहन-सहन, शिक्षा, संस्कारों, व्यवहार, सामाजिकता, पारिवारिक संगठन, परिवेश, वेश-भूषा सबमें परिवर्तन अवश्यम् भावी है। भौतिक परिवर्तन एवं विकास के साथ बहुत कुछ पुराना छूटना स्वाभाविक है और नये को स्वीकार करना जीवनगत आवश्यकता।

इस वास्तविकता को, इस परिवर्तन को, हम जितनी सहजता से स्वीकार कर लें, जीवन की प्रक्रिया भी उतनी ही सरल-सहज होने लगती है।

किन्तु समस्या यह कि हम भौतिक परिवर्तन को तो स्वीकार कर रहे हैं किन्तु कहीं-कहीं पुरातनता का लबादा ओढ़ने में, प्रदर्शन करने में हमें आनन्द मिलता है। हम भौतिक परिवर्तन एवं वैचारिक परिवर्तन में तालमेल नहीं बिठाना चाहते।

हमारे आधुनिक समाज की यही समस्या है कि हम आधुनिक तो होना चाहते हैं, सब सुविधाएँ भी चाहिए किन्तु न जाने कहाँ-कहाँ पुरातनता ढूँढते हैं और अपने सुखमय वर्तमान को कोसते रहते हैं। आवश्यकता है, भौतिक परिर्वतन अर्थात भौतिक विकास एवं वैचारिक परिवर्तन अर्थात विचारधारा में एक परिपक्व समझ की। 

परिवर्तन सकारात्मक भी होते हैं और विरोधाभासी भी। नकारात्मक परिवर्तन हमारे विचारों में होते हैं जिस कारण अनेक बार विकासात्मक परिवर्तन बाधित होता है।

 ​​​​​​​वर्तमान में परिवर्तन में जिस विषय पर सर्वाधिक चर्चा की जाती है वह है हमारे विचारों, भावों, संस्कारों, रीति-रिवाज़ों, व्यवहार आदि में परिवर्तन की। निःसंदेह हमारी प्राचीन संस्कृति, रीति, परम्पराएँ, व्रतोपवास, पूजा-विधि, उपचार-पद्धति आदि उत्कृष्ट रहे हैं किन्तु वर्तमान जीवन पद्धति में प्राचीन काल की भाँति इनका अनुपालन सम्भव ही नहीं है। विशेषकर नई पीढ़ी आधुनिकता की सीढ़ियाँ चढ़ती प्राचीनता के प्रति आग्रही नहीं हो पा रही है। हम बच्चों को प्रत्येक क्षेत्र में आधुनिकतम् सुविधाएँ प्रदान करना चाहते हैं, विलासितापूर्ण जीवन देना चाहते हैं, जीवन की प्रत्येक सुख-सुविधा प्रदान करना चाहते हैं फिर वह शिक्षा हो, रहन-सहन हो, पहनावा हो अथवा अन्य कोई भी सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक अथवा भौतिक आवश्यकता। किन्तु हम इस बात पर कदापि विचार नहीं करते कि जब भौतिक सुख-साधन बदलते हैं तब मानसिक विचारधाराएँ स्वयंमेव ही बदल जाती हैं। इस परिवर्तन में कुछ भी ठीक अथवा गलत नहीं होता, यह स्वाभाविक होता है। परिवर्तन के इस दोहरे रूप को समझना और स्वीकार करना ही जीवन की सफ़लता है।

  

 

आत्म संतोष क्या जीवन की उपलब्धि है

प्रायः कहा जाता है कि जीवन में आत्म-संतोष ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, यही परम संतोष है।

किन्तु आत्म संतोष क्या है?

क्या अपनी इच्छाओं, अभिलाषाओं का दमन आत्म-संतोष का मार्ग है?

वास्तविक धरातल पर जीवन जीना जितना कठिन और कटु है  उपदेश देना और सुनाना उतना ही सरल।

पर उपदेश कुशल बहुतेरे।

वर्तमान उलझनों भरे जीवन, भागम-भाग की जीवन शैली, प्रतियोगिताओं, एक-दूसरे से आगे निकल जाने की दौड़, प्रतिदिन कुछ नया पाने की चाहत, पुरातनता और  नवीनता के बीच उलझते, परम्पराओं, संस्कृति और आधुनिकतम जीवन शैली; तब आत्म संतोष कहाँ और परम संतोष कहाँ! हम अपनी इच्छाओं, आवश्यकताओं को किसी सीमा में नहीं बांध सकते, क्योंकि हमारी इच्छाएँ और सीमाएँ केवल हमारी नहीं होती, हमारे परिवेश से जुड़ी होती हैं।

आत्म संतोष की सीमा क्या है, कौन सा द्वार है जहाँ पहुँच कर हम यह समझ लें कि अब बस। जीवन की समस्त उपलब्धियाँ प्राप्त कर ली हमने। अब परम धाम चलते हैं। क्या ऐसा सम्भव है?

जी नहीं, बनी-बनाई उपदेशात्मक सूक्तियाँ सुना देना, कुछ आप्त वाक्य बोल देना, ग्रंथों से सूक्तियाँ उद्धृत करना और यह कहना कि हममें आत्म संतोष होना चाहिए और वह ही परम संतोष है, किसी के भी जीवन का सबसे बड़ा झूठ और छल है।

हम यह नहीं कह सकते कि आत्म-संतोष मिल गया और हम परम संतोष की अवस्था में पहुँच गये।

मेरे विचार में आत्म संतोष क्षणिक है, सीमित है, इसका विस्तार जीवनगत नहीं है। जैसे हम कहते हैं आज मेरे बच्चे को मेरा बनाया भोजन बहुत पसन्द आया, मुझे आत्म संतोष मिला। अथवा आज मैंने किसी की सहायता की, मन आत्म-संतोष से भर गया, और मैं परम संतोष की अवस्था में पहुँच गई। अथवा मेरे व्यवहार से वे प्रसन्न हुए, मुझे आत्म-संतोष मिला अथवा परम संतोष मिला।

संतोष की अन्तिम स्थिति हमारे जीवन में सम्भव ही नहीं क्योंकि हम सामाजिक, पारिवारिक प्राणी हैं और आत्म संतोष एवं परम संतोष के लिए प्रतिदिन हम प्रयासरत रहते हैं।

सामाजिक जीवन में, समाज में रहते हुए, अपनी इच्छाओं का दमन करना आत्म संतोष नहीं है, आत्म-संतोष है जीवन में उपलब्धि, लक्ष्य की प्राप्ति, सफ़लता। जीवन में आत्म संतोष किसी एक कार्य से नहीं मिलता, प्रति दिन और बार-बार किये जाने वाले कार्यों से मिलता रहता है, यह एक आजीवन प्रक्रिया है।

अतः आत्म संतोष अथवा परम संतोष जीवन की चरम प्राप्ति अथवा उपलब्धि नहीं है, हमारे कार्यों, व्यवहार से उपजा भाव है जिसकी प्राप्ति के लिए हम हर समय प्रयासरत रहते हैं।

  

बुद्धम् शरणम गच्छामि

 

कथाओं के अनुसार आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व की कथा है। 563 ईसा पूर्व। एक राजकुमार अपनी सोती हुई पत्नी एवं नवजाव शिशु को आधी रात में त्याग कर ज्ञान प्राप्ति के लिए चला गया। उस युवक ने घोर तपस्या की, साधना की और दिव्य ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने सम्पूर्ण जगत को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए, सत्य एवं दिव्य ज्ञान की खोज के लिए जगत के हित के लिए वर्षों कठोर साधना की और अन्त में बिहार बोध गया में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई ओर वे सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध बन गये।

जिस ज्ञान की प्राप्ति के लिए बुद्ध ने अपने परिवार का परित्याग किया, जो कि उनका दायित्व था क्या उस ज्ञान का उपयोग आज यह संसार कर रहा है? क्या जगत के लिए उनका ज्ञान और उपदेश चरम उपलब्धि था?

यदि था तो उनके उपरान्त क्यों आवश्यकता पड़ी कि एक-अनेक युग-पुरुष आये जिन्होंने संसार को पुनः उपदेश दिये, अपने ज्ञान की धारा बहाई, ग्रंथ लिखे गये, आप्त वाक्य बने और यह क्रम आज भी चल रहा है। एक समय बाद ज्ञान की धारा धर्म का रूप ले लेती है। उपदेश की पुनरावृत्ति होती है हर युग में, केवल नाम बदलते हैं, स्थापनाएँ नहीं बदलतीं।

जब भी गौतम बुद्ध के त्याग, ज्ञान, बौद्धित्व, साधना की बात की जाती है मुझे केवल नवजात शिशु और यशोधरा की याद आती है, उनके प्रति कर्तव्य, विश्वास की डोर  टूटी तो सम्पूर्ण जगत के साथ कैसे जोड़ी?

  

निडर भाव रख

राही अपनी राहों पर चलते जाते

मंज़िल की आस लिए बढ़ते जाते

बाधाएँ तो आती हैं, आनी ही हैं

निडर भाव रख मन की करते जाते।

 

स्त्री की बात

जब कोई यूं ही

स्त्री की बात करता है

मैं समझ नहीं पाती

कि यह राहत की बात है

अथवा चिन्ता की

 

बहुत आनन्द आता है मुझे

बहुत आनन्द आता है मुझे

जब लोग कहते हैं

सब ऊपर वाले की मर्ज़ी।

बहुत आनन्द आता है मुझे

जब लोग कहते हैं

कर्म कर, फल की चिन्ता मत कर।

बहुत आनन्द आता है मुझे

जब लोग कहते हैं

यह तो मेरे परिश्रम का फल है।

बहुत आनन्द आता है मुझे

जब लोग कर्मों का हिसाब करते हैं

और कहते हैं कि मुझे

कर्मानुसार मान नहीं मिला।

कहते हैं यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई।

कर्मों का लेखा-जोखा

अच्छा-बुरा सब लिखकर भेजा है।

.

आपको नहीं लगता

हम अपनी ही बात में बात

बात में बात कर-करके

और अपनी ही बात

काट-काटकर

अकारण ही

परेशान होते रहते हैं।

-

लेकिन मुझे

बहुत आनन्द आता है।

 

 

चतुर सुजान

चतुर सुजान पिछले युग के

सुजान

कहीं पीछे छूटे

चतुर-चतुर यहां बचे

 

मेरी वीणा के तारों में ऐसी झंकार

काल की रेखाओं में

सुप्त होकर रह गये थे

मेरे मन के भाव।

दूरियों ने

मन रिक्त कर दिया था

सिक्त कर दिया था

आहत भावनाओं ने।

बसन्त की गुलाबी हवाएँ

उन्मादित नहीं करतीं थीं

न सावन की घटाएँ

पुकारती थीं

न सुनाती थीं प्रेम कथाएँ।

कोई भाव

नहीं आता था मन में

मधुर-मधुर रिमझिम से।

अपने एकान्त में

नहीं सुनना चाहती थी मैं

कोई भी पुकार।

.

किन्तु अनायास

मन में कुछ राग बजे

आँखों में झिलमिल भाव खिले

हुई अंगुलियों में सरसराहट

हृदय प्रकम्पित हुआ,

सुर-साज सजे।

तो क्या

वह लौट आया मेरे जीवन में

जिसे भूल चुकी थी मैं

और कौन देता

मेरी वीणा के तारों में

ऐसी झंकार।

 

 

जरा सी रोशनी के लिए

जरा सी रोशनी के लिए

सूरज धरा पर उतारने में लगे हैं

जरा सी रोशनी के लिए

दीप से घर जलाने में लगे हैं

ज़रा-सी रोशनी के लिए

हाथ पर लौ रखकर घुमाने में लगे हैं

ज़रा-सी रोशनी के लिए

चांद-तारों को बहकाने में लगे हैं

ज़रा-सी रोशनी के लिए

आज की नहीं

कल की बात करने में लगे हैं

ज़रा -सी रोशनी के लिए

यूं ही शोर मचाने में लगे हैं।

.

यार ! छोड़ न !!

ट्यूब लाईट जला ले,

या फिर

सी एफ़ एल लगवा ले।।।

 

पावस की पहली बूंद

पावस की पहली बूंद

धरा तक पहुंचते-पहुंचते ही

सूख जाती है।

तपती धरा

और तपती हवाएं

नमी सोख ले जाती हैं।

अब पावस की पहली बूंद

कहां नम करती है मन।

कहां उमड़ती हैं

मन में प्रेम-प्यार,

मनुहार की बातें।

समाचार डराते हैं,

पावस की पहली बूंद

आने से पहले ही

चेतावनियां जारी करते हैं।

सम्हल कर रहना,

सामान बांधकर रख लो,

राशन समेट लो।

कभी भी उड़ा ले जायेंगी हवाएँ।

अब पावस की बूंद,

बूंद नहीं आती,

महावृष्टि बनकर आती है।

कहीं बिजली गिरी

कहीं जल-प्लावन।

क्या जायेगा

क्या रह जायेगा

बस इसी सोच में

रह जाते हैं हम।

क्या उजड़ा, क्या बह गया

क्या बचा

बस यही देखते रह जाते हैं हम

और अगली पावस की प्रतीक्षा

करते हैं हम

इस बार देखें क्या होगा!!!

 

 

मुस्कान सरस सी

हाईकू

देखा तुमने

मुस्कान सरस सी

जीवन रेखा

 

हे विधाता ! किस नाम से पुकारूं तुम्हें

शायद तुम्हें अच्छा न लगे सुनकर,

किन्तु, आज

तुम्हारे नामों से डरने लगी हूं।

हे विधाता !

कहते हैं, यथानाम तथा गुण।

कितनी देर से

निर्णय  नहीं कर पा रही हूं

किस नाम से पुकारूं तुम्हें।

जितने नाम, उतने ही काम।

और मेरे काम के लिए

तुम्हारा कौन-सा नाम

मेरे काम आयेगा,

समझ नहीं पा रही हूं।

तुम सृष्टि के रचयिता,

स्वयंभू,

प्रकृति के नियामक

चतुरानन, पितामह, विधाता,

और न जाने कितने नाम।

और सुना है

तुम्हारे संगी-साथी भी बहुत हैं,

जो तुम्हारे साथ चलाते हैं,

अनगिनत शस्त्र-अस्त्रों से सुसज्जित।

हे विश्व-रचयिता !

क्या भूल गये

जब युग बदलते हैं,

तब विचार भी बदलते हैं,

सत्ता बदलती है,

संरचनाएं बदलती हैं।

तो

हे विश्व रचयिता!

सामयिक परिस्थितियों में

गुण कितने भी धारण कर लो

बस नाम एक कर लो।

 

 

अब तो कुछ बोलना सीख

आग दिल में जलाकर रख

अच्छे बुरे का भाव परख कर रख।

न सुन किसी की बात को

अपने मन से जाँच-परख कर रख।

कब समझ पायेंगें हम!!

किसी और के घर में लगी

आग की चिंगारी

जब हवा लेती है

तो हमारे घर भी जलाकर जाती है।

तब

दिलों के भाव जलते हैं

अपनों के अरमान झुलसते हैं

पहचान मिटती है,

जिन्दगियां बिखरती हैं

धरा बिलखती है।

गगन सवाल पूछता है।

इसीलिए कहती हूँ

न मौन रह

अब तो कुछ बोलना सीख।

अपने हाथ आग में डालना सीख

आग परख। हाथ जला।

कुछ साहस कर, अपने मन से चल।

 

 

आप चलेंगे साथ मेरे

हम जानते हैं न

कि रक्त लाल होता है

गाढ़ा लाल।

पर पता नहीं क्यों

इधर लोग

बहुत बात करने लगे हैं

कि फ़लां का खून तो

सफ़ेद हो गया।

और यह भी कि

किसी का खून तो

अब बस ठण्डा ही हो गया है

कुछ भी हो जाये

उबाल ही नहीं आता।

 

मुझे और किसी के

खून से क्या लेना-देना

अपने ही खून की

जाँच करवाने जा रही हूँ

अभी लाल ही है

या सफ़ेद हो गया

ठण्डा है

या आता है

इसमें भी कभी उबाल।

आप चलेंगे साथ मेरे

जाँच के लिए ?

 

माँ का प्यार

माँ का अँक

एक सुरक्षा-कवच

कभी न छूटे

कभी न टूटे

न हो विलग।

 

माँ के प्राण

किसी तोते समान

बसते हैं

अपने शिशु में

कभी न हों  विलग।

जीवन की आस

बस तेरे साथ

जीवन यूँ ही बीते

तेरी साँस मेरी आस।

 

मेरा क्रोध

मेरा क्रोध

एक सरल सहज अनुभूति है

मान क्‍यों नहीं लेते तुम

 

मेरी पुस्तकों की कीमत

दीपावली, होली पर

खुलती है अब

पुस्तकों की आलमारी।

झाड़-पोंछ,

उलट-पलटकर

फिर सजा देती हूँ

पुस्तकों को

डैकोरेशन पीस की तरह ।

बस, इतने से ही

बहुत प्रसन्न हो लेती हूँ

कि मेरी

पुस्तकों की कीमत

कई सौ गुणा बढ़ गई है

दस की सौ हो गई है।

सोचती हूँ

ऐमाज़ान पर डाल दूँ।

 

मज़दूर दिवस मनाओ

तुम मेरे लिए

मज़दूर दिवस मनाओ

कुछ पन्ने छपवाओ

दीवारों पर लगवाओ

सभाओं का आयोजन करवाओ

मेरी निर्धनता, कर्मठता

पर बातें बनाओ।

मेरे बच्चों की

बाल-मज़दूरी के विरुद्ध

आवाज़ उठाओ।

उनकी शिक्षा पर चर्चा करवाओ।

अपराधियों की भांति

एक पंक्ति में खड़ाकर

कपड़े, रोटी और ढेर सारे

अपराध-बोध बंटवाओ।

एक दिन

बस एक दिन बच्चों को

केक, टाफ़ी, बिस्कुट खिलाओ।

.

कभी समय मिले

तो मेरी मेहनत की कीमत लगाओ

मेरे बनाये महलों के नीचे

दबी मेरी झोंपड़ी

की पन्नी हटवाओ।

मेरी हँसी और खुशी

की कीमत में कभी

अपने महलों की खुशी तुलवाओ।

अतिक्रमण के नाम पर

मेरी उजड़ी झोंपड़ी से

कभी अपने महल की सीमाएँ नपवाओ।

 

जल लेने जाते कुएँ-ताल

बाईसवीं सदी के

मुहाने पर खड़े हम,

चाँद पर जल ढूँढ लाये

पर इस धरा पर

अभी भी

कुएँ, बावड़ियों की बात

बड़े गुरूर से करते हैं

कितना सरल लगता है

कह देना

चली गोरी

ले गागर नीर भरन को।

रसपान करते हैं

महिलाओं के सौन्दर्य का

उनकी कमनीय चाल का

घट भरकर लातीं

प्रेमरस में भिगोती

सखियों संग मदमाती

कहीं पिया की आस

कहीं राधा की प्यास।

नहीं दिखती हमें

आकाश से बरसती आग

बीहड़ वन-कानन

समस्याओं का जंजाल

कभी पुरुषों को नहीं देखा

सुबह-दोपहर-शाम

जल लेने जाते कुएँ-ताल।

 

कोई तो आयेगा

भावनाओं का वेग

किसी त्वरित नदी की तरह

अविरल गति से

सीमाओं को तोड़ता

तीर से टकराता

कंकड़-पत्थर से जूझता

इक आस में

कोई तो आयेगा

थाम लेगा गति

सहज-सहज।

.

जीवन बीता जाता है

इसी प्रतीक्षा में

और कितनी प्रतीक्षा

और कितना धैर्य !!!!

 

आवाज़ ऊँची कर

आवाज़ ऊँची कर

चिल्ला मत।

बात साफ़ कर

शोर मचा मत।

अपनी बात कह

दूसरे की दबा मत।

कौन है गूँगा

कौन है बहरा

मुझे सुना मत।

सबकी आवाज़ें

जब साथ बोलेंगीं

तब कान फ़टेंगें

मुझे बता मत।

धरा की बातें

अकारण

आकाश पर उड़ा मत।

जीने का अंदाज़ बदल

बेवजह अकड़

दिखा मत।

मिलजुलकर बात करें

तू बीच में

अपनी टाँग अड़ा मत।

मिल-बैठकर खाते हैं

गाते हैं

ढोल बजाते हैं

तू अब नखरे दिखा मत।

 

 

तिरंगे का  एहसास

जब हम दोनों

साथ खड़े होते हैं

तब

तिरंगे का

एहसास होता है।

केसरिया

सफ़ेद और हरा

मानों

साथ-साथ चलते हैं

बाहों में बाहें डाले।

चलो, यूँ ही

आगे बढ़ते हैं

अपने इस मैत्री-भाव को

अमर करते हैं।

 

शब्दों के घाव

दिल के

कुछ ज़ख्मों का दर्द

मानों दर्द नहीं होता,

स्मृतियों का

खजाना होता है,

उनकी टीस

आनन्द देती है

कुछ यादें

कुछ वफ़ाएँ

कुछ बेवफ़ाएँ

शब्दों के घाव

रिसते रहते हैं

चुभते हैं

पर भरने का

मन नहीं करता

आँखें बन्द कर

कुरेदने में मज़ा आता है

और जब आँख का पानी

रिसता है

उन जख़्मों पर,

तब टीस

और गहरी होती है

और आनन्द और ज़्यादा।