कोरोना का अनुभव

कोरोना का अनुभव अद्भुत, अकल्पनीय था। पति पहले ही स्वस्थ नहीं थे, मार्च में हुए हृदयाघात के कारण। 28 मई रात्रि पति को ज्वर हुआ। बदलते मौसम में उन्हें अक्सर ज्वर होता है, अपने  डाक्टर को फ़ोन किया तो उन्होंने दवाई दे दी। तीन दिन में बुखार उतर गया। किन्तु कमज़ोरी इतनी बढ़ गई कि अस्पताल हार्ट स्पैश्लिस्ट के पास चैकअप ज़रूरी दिख रहा था। जानते थे कि अस्पताल पहले नैगेटिव रिपोर्ट मांगेगे। इसलिए 2 जून को कोरोना टैस्ट करवाया। दुर्भाग्यवश पाज़िटिव रिपोर्ट आ गई। साथ ही मुझे और मेरे बेटे को भी ज्वर हुआ। उसी दिन हमने टैस्ट करवाया। पति की हालत उसी रात गम्भीर हुई, सुबह पांच बजे एमरजैंसी में एडमिट हुए। मैं, बेटा बाहर खड़े उनकी रिपोर्ट की प्रतीक्षा कर रहे थे। शुरु की सारी रिपोर्टस ठीक रहीं। नौ बज रहे थे। शेष रिपोर्ट्स समय लेकर मिलनी थीं। बेटे के मोबाईल पर आवाज़ आई और पाया कि हम दोनों की रिपोर्ट पाज़िटिव है। हमने मुड़कर नहीं देखा, और अस्पताल से निकल गये। डाक्टर से फोन पर बात की, मिलना तो था ही नहीं, क्योंकि कोविड वार्ड में थे। उनका सोडियम बहुत गिर गया था। बहू की रिपोर्ट नैगेटिव थी, अतः उसे पहले ही मायके भेज दिया जहां वह एकान्तवास हुई। उसका परिवार पिछले माह ही कोविड भुगत चुका था। एक ही दिन में हम हिस्सों में बंट गये।

तीसरे दिन आंचल को भी बुखार हुआ और पोती धारा को भी। बिना टैस्ट ही जान गये कि उन्हें भी कोविड हो गया है। अब सवाल था वापिस कैसे लाया जाये। बेटे का एक मित्र, जिसे कोविड हो चुका था, उन दोनों को घर छोड़कर गया। बस इतना रहा कि मुझे एक ही दिन बुखार रहा। बेटे को दस दिन और धारा और आंचल को चार दिन। बुखार बढ़ता तो कभी तीनों मिलकर धारा की पट्टियां करते तो कभी मैं और आंचल मिलकर बेटे की। खाना बाहर से आने लगा। फल, जूस आदि आंचल के घर से देकर जाते। तीन रात लगातार बिजली जाती रही। नया इन्वर्टर धोखा दे गया। एक फे़स से एक ए. सी. चल रहा था। और हम चारों, मैं, बेटा, बहू और पोती एक ही डबल बैड पर रात काटते। इतनी हिम्मत नहीं कि एक फ़ोल्डिंग बैड लगा लें या नीचे ही बिस्तर बिछा लें।

पांचवे दिन पति का अस्पताल से डिस्चार्ज था। समस्या वही, हम जा नहीं सकते, और और कोविड रोगी को  डिस्चार्ज करवाने और उन्हें लेकर कौन आये। फिर बेटे के मित्र और बहू के पिता ने सब किया। लेकिन चार दिन बाद फिर अस्पताल एडमिट हुए, इस बार हमारे दस दिन बीत चुके थे, और डाक्टर ने कहा कोई बात नहीं, आप लोग आ जाईये। साथ ही बेटे का माइग्रेन शुरु हो गया। बच्चे कब तक छुट्टी लेते। वर्क फ्राम होम ही है किन्तु 8-10 घंटे पी. सी. पर।

अपने मकान मालिक को हमने पहले ही दिन बता दिया था। वे बोल बोले बैस्ट आॅफ़ लक्क। नियमित दूध लेने वाले हम लोग पांच दिन तक दूध लेने नहीं गये। प्रातः लगभग 7 बजे हम 6 परिवार एक साथ दूध लेते हैं। किसी ने नहीं पूछा। दूध वाले ने उनसे पूछा कि उपर की आंटी जी चार-पांच दिन से दूध लेने नहीं आईं, उनके घर में सब ठीक तो है न। फिर दूधवाला अपने-आप ही हमारा दूध, ब्रैड, पनीर रखने लगा।

महीना बीत गया। रिकवरी मोड में तो हैं किन्तु पोस्ट कोविड समस्याएं भी हैं। देखते हैं कब तक जीवन पटरी पर उतरता है।

  

‘‘लकीर का फ़कीर ’’ मुहावरे की चीर –फ़ाड़

लकीर का फ़कीर! कौन होता है लकीर का फ़कीर? किसने बनाया यह मुहावरा। मुझे तो दोनों शब्दों में कोई सामंजस्य अर्थात ताल-मेल ही समझ नहीं आ रहा। इस कारण मैं स्वयं ही असमंजस में हूं। अब आप सब मेरे मित्र हैं, आप सबसे अपने मन की बात नहीं बांटूंगी तो कहां जाउंगी भला!

चलिए पहले फ़कीर की बात करती हूं। फ़कीर वही होते हैं न लम्बे चोगे वाले, पठानी से, बड़े-उंचे कद वाले।

आजकल हमें गूगल देवता की बहुत आदत हो गई है। मैंने सोचा, देखूं गूगल देवता फ़कीर को जानते भी हैं या नहीं। लीजिए, उन्होंने तो चित्रों की झड़ी लगा दी। एक से बढ़कर एक फ़कीर। कोई बड़ी-सी पगड़ी वाले, लम्बी सफ़ेद दाढ़ी, हार-मालाएं पहने, हाथ में फ़कीरी का कटोरा। कोई इकतारा बजाते हुए, कोई सुट्टा लगाते हुए। लाठी, मालाएं और सफ़ेद लम्बी दाढ़ी सबके पास।

हमारे ज़माने में स्तरीय भिक्षुकों को फ़कीर ही कहा जाता था। हम बच्चे साधारणतः इनके लिए ‘‘मांगने वाले’’ शब्द का प्रयोग करते थे, जिसके लिए बहुत डांट पड़ती थी। मां कहती थी, ‘जा, फ़कीर को रोटी दे आ’।

फ़कीरी शब्द लापरवाही से जीवन-यापन करने वालों के लिए भी प्रयोग किया जाता है।  जीवन में दुख-सुख से ऊपर, धन-दौलत को मिट्टी समझने वाले। ईष्र्या, द्वेष, प्रेम-नेह सबसे दूर। किन्तु इनके साथ लकीर कहां से आ गई? ऐसे लोगों के जीवन में तो लकीरें होती ही नहीं।  यदि कोई, किसी भी तरह की लकीर है तो फिर फ़कीरी कैसी! मैं अपनी क्षुद्र बुद्धि से इतनी बड़ी समस्या का समाधान करने निकली हूं, साहस है मेरा।

चलिए, अब लकीर की बात करते हैं। फिर दोनों में तालमेल, सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करेंगे।

लकीर वही न जिसे हिन्दी में ‘रेखा’ कहते हैं। किन्तु जिस गहन भाव का अनुभव ‘लकीर’ शब्द प्रयोग से होता है वह ‘रेखा ’में कहां। और यही बात लकीर पर भी लागू होती है कि जो उत्तम भाव रेखा शब्द प्रयोग से मिलता है वह ‘लकीर’ से कहां! अब आप ही बताईये मैं लकीर से बात करुं या रेखा से?

पर्यायवाची शब्द के रूप में तो रेखा शब्द का प्रयोग किया जा सकता है किन्तु क्योंकि हम एक मुहावरे के पीछे पड़े हैं और वहां ‘लकीर’ है तो लकीर पर ही बात करना उचित होगा।

लकीर का अभिप्राय बाधा भी होता है। जैसे ‘मैं तो यह कार्य करना चाहती थी किन्तु ऐसी लकीर खिंची कि क्या बताउं’। ‘किस्मत ने ऐसी लकीर खींची कि सब उजड़ गया’। आदि-आदि

चलिए, दोनों का घालमेल करते हुए बात करते हैं कुछ तो निष्कर्ष निकलेगा और नहीं भी निकला तो मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा।

 ‘रेखा’ ने तो ‘लक्ष्मण रेखा’ से असीम प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी। ‘रेखा’ का महत्व गणित में बहुत है। किन्तु मैं अब यहां शिक्षा के क्षेत्र में पदार्पण नहीं करने वाली कि आपकी मेरा आलेख पढ़ने में रुचि ही न रहे।

 किन्तु लकीर तो एक समय बाद फ़कीरों के हाथ से निकलकर समाज में आ पसरी। घरों के भीतर, घरों के बाहर, हमारे मन में, सम्बन्धों में, सहारों में, जहां-तहां लकीरें खिंची देखी जा सकती हैं। और दुख की बात यह कि ये लकीरें फ़कीरी की नहीं होतीं। मन-मुटाव की, धन-दौलत की, ज़मीन-जायदाद की, अपने-अपने अधिकारों की या अधिकारों के हनन की, उंची-उंची दीवारों की, न जाने कितनी तरह की लकीरें खिंचने लगी हैं। ये लकीरें दिखती नहीं हैं, बस चुभती हैं, तोड़ती हैं, काटती हैं और विभाजित करती हैं। इसे कहते हैं लकीर की फ़कीरी!

 

अब वास्तविकता के धरातल को छोड़कर इतिहास में चलते हैं।

‘लकीर का फ़कीर’ मुहावरा का उद्गम कब, कैसे हुआ?

कहा जाता है कि एक महाज्ञानी गुरु थे। वे अपने शिष्यों से  आग्रह करते थे कि वे जो भी पढ़ाते हैं उसे लिपिबद्ध अवश्य करें और अपनी इस पुस्तिका को सदैव अपने साथ रखें व अपने जीवन में प्रत्येक कार्य पुस्तिका में लिखे अनुसार ही करें और यदि पुस्तिका में कोई कार्य नहीं लिखा तो उसे न करें क्योंकि गुरुजी की दृष्टि में पुस्तिका में आवश्यकता से अधिक ज्ञान था और, और ज्ञान की आवश्यकता नहीं थी। गुरुजी के अनुसार वे अपने शिष्यों को पूर्ण ज्ञान प्रदान कर चुके थे। उन्होंने अपने शिष्यों से पुस्तिका में कुछ भी नया लिखने से मना कर दिया, चाहे वे ही आदेश क्यों न दें एवं यह भी कहा कि वे अपनी बुद्धि का प्रयोग न करें। इस प्रकार शिष्यों के जीवन में कोई समस्या न रही, हर समस्या का समाधान पुस्तिका में उपलब्ध था।

एक बार गुरुजी शिष्यों के साथ नदी पार कर रहे थे कि उनका पैर फ़िसल गया और वे नदी में जा गिरे और डूबने लगे। उन्होंने अपने शिष्यों को बचाने के लिए पुकारा। शिष्यों ने तत्काल पुस्तिका खोली और पाया कि पुस्तिका में किसी डूबते को बचाने के बारे में कुछ नहीं लिखा गया। शिष्य चुपचाप खड़े रहे। तब गुरुजी ने फिर पुकारा कि मुझे क्यों नहीं बचा रहे हो? तब शिष्यों ने कहा कि इस पुस्तिका में ऐसी परिस्थिति के बारे में कुछ नहीं लिखा। और वे उनके ही आदेशानुसार पुस्तक से इतर कोई कार्य नहीं कर सकते। तब गुरुजी चिल्लाकर बोले कि अब लिख लो कि डूबते व्यक्ति को बचाना चाहिए। किन्तु शिष्यों ने कहा कि ऐसा करने के लिए आपने ही मना किया है, हम नहीं लिख सकते।

अन्ततः वहां से जा रहे कुछ नाविकों ने गुरुजी को डूबते देखा और उन्हें बचाया। और साथ ही आश्चर्य व्यक्त किया कि गुरुजी आपने अपने शिष्यों को न तैरना सिखाया और न ही किसी की सहायता करना अथवा शोर मचाकर सहायता मांगना।

तब गुरुजी की समझ में आया कि उन्होंने अपने शिष्यों को जीवन का व्यावहारिक ज्ञान न देकर, पुस्तिका का अनुसरण करने को कहकर उन्हें लकीर का फ़कीर बना दिया था। अपनी गलती समझकर उन्होंने सभी शिष्यों से उनकी पुस्तिका लेकर फ़ाड़ दी और उन्हें व्यवहारिक जीवन जीने का निर्देश दिया

लीजिए, खोदा पहाड़ और निकली चुहिया, किन्तु ज़िन्दा है। हमारे भीतर ही यह गुरु भी है और सारे के सारे शिष्य भी। इसे कहते हैं लकीर की फ़कीरी!

  

यात्रा संस्‍मरण शिमला

हमें स्‍वयं ही पता नहीं होता, हमारे भीतर कितने शहर कुलबुलाते हैं। बस हम यूं ही कुछ यादों में सिमटे सालों-साल बिता देते हैं तब जाकर पता लगता है कि हम तो खंडहर ढो रहे थे।

एक अलग-सी बात कहती हूं। हमारे आस-पास लाखों-करोड़ों पशु-पक्षी रहते हैं। किन्‍तु क्‍या आपने किसी का मृत शरीर देखा है कभी। शायद नहीं। हां , अनहोनी मौत होने पर, अर्थात किसी घटना-दुर्घटना में मौत होने पर अवश्‍य मृत शरीर दिखाई दे जाते हैं, वैसे नहीं।

 

जब किसी बन्‍दर के बच्‍चे की ऐसी ही असामयिक मौत हो जाती है, तब बन्‍दरिया अपने उस मृत बच्‍चे को अपनी छाती से लगाये रहती है जब तक उसक मांस सूख कर और हड्डियां गल कर गिर नहीं जातीं। यह सत्‍य है।

कभी कभी हम अपनी स्‍मृतियों, भावनाओं के साथ भी ऐसा ही करते हैं  बरसों-बरस छूटे रिश्‍ते, सम्‍बन्‍ध, शहर, स्‍मृतियां हम यूं ही ढोते रहते हैं, कलपते हैं, सिसकते हैं, अन्‍दर ही अन्‍दर घाव बनाते हैं। कुछ रिश्‍ते आवाज़ देकर टूटते हैं और कुछ बेआवाज़। बेआवाज़ टूटे रिश्‍ते अर्न्‍तात्‍मा को तोड़ते हैं किन्‍तु  बहुत बाद में पता लगता है हम तो खण्‍डहर ढो रहे थे।

शिमला

पिछले तीस वर्ष से मेरे भीतर कुलबुलाता था। स्‍कूल, कालेज, विश्‍वविद्यालय, बैंक, आकाशवाणी, विधान-सभा, माल रोड, लोअर बाजार, लक्‍क्‍ड़ बाज़ार, रिज, गुफा, आशियाना, चुडै़ल बौड़ी, जाखू, तारादेवी, अनाडेल में उतरते हैलिकाप्‍टर, वहां का दशहरे का मेलाछोले-टिक्‍की की दुकानें, बालजीस का डोसा, हिमानी के छोले-भटूरेदस पैसे के बीस गोलगप्‍पे, पांच पैसे का चूरण और फ्री की रेती सब जगह घूमता था। पांच-पांच फुट बर्फ में भी टिप-टाप होकर घूमते, न बरसात की चिन्‍ता, न सर्दी की, रोज़ दो-तीन घंटे पैदल चलना।  और लोअर कैथू, गार्डन व्‍यू जहां मैंने अपनी जीवन के 34 वर्ष बिताए। माता-पिता, भाई-‍बहन, भरा-पूरा आठ लोगों का परिवार। लड़ते-झगड़ते, हंसते-बोलते, जीवन की समस्‍याओं को झेलते,  जैसे भी थे,  सब साथ थे। हर शाम बरामदे में पेटी पर बैठने के लिए झगड़ा होता। वहां से डूबते सूरज को हर रोज नये रंगों में देखते, और देखते सैंकड़ों के समूह में विविध पक्षियों को रेखाओं में अपने घर की ओर उड़ान भरते हुए। कभी न भूलने वाले पल।   

जब से शिमला जाने की बात हुई मेरे लिए मेरे परिवार के सदस्‍य तनाव में थे। वे जानते थे कि शिमला में मेरे कुछ उजड़े-बिखरे सम्‍बन्‍ध हैं, जो  पिछले बीस-तीस वर्षों से मेरे भीतर नासूर बनकर बह रहे हैं। कहीं कोई गहरा घाव न लगा बैठूं, वे सब डरे हुए थे।

होटल कहां लिया, अप्‍पर कैथू, घर से बस 15-20 मिनट के रास्‍ते पर। किन्‍तु मन तो लोअर कैथू घूम रहा था, पीली कोठी, बिट्टू हलवाई की दुकान, जोंजी की दुकान, स्‍कूल, चिटकारा निवास, वो डिस्‍पैंसरी की खड़ी उतराई और न जाने क्‍या-क्‍या ।

कहानी तो लम्‍बी है किन्‍तु संक्षेप में, दो दिन जगह-जगह घूमे, पर्यटकों की भांति, किन्‍तु मन न जाने किसे किसे खोज रहा था।

प्रात: सात बजे निकलकर लगभग 11 बजे हम होटल पहुंच गये। यह मेरे जीवन की पहली यात्रा थी कि मैं सारे रास्‍ते सोई नहीं। खोये हुए हर पल को पकड़ लेना चाहती थी।  मेरा पहला लक्ष्‍य था मेरा पोर्टमार स्‍कूल छोटा शिमला, जहां मैं केजी से 11वीं तक पढ़ी थी, वर्ष 1959 से 1971 तक। अब मैं यह सोचकर जाउंगी कि आज भी वही भवन, प्रांगण, कक्षाएं मिलेंगी तो भूल तो मेरी ही थी। किन्‍तु वही सादगी, शान्‍त वातावरण, सहजता अवश्‍य मिली। और एक बात जो सबसे बड़ी कि आज भी उस विद्यालय की वही यूनीफार्म : मैरून चैक कमीज़ और सफेद सलवार ।  वहां से पैदल मालरोड।

घर से स्कूल लगभग पांच किलोमीटर था, सीधी चढ़ाई और उतराई। और पांच-दस किलो के बैग। किन्तु कभी न तो दूरी का अनुभव होता था और न ही भार का।खेलते-कूदते, छलांगें लगाते, पहाड़ियों पर चढ़ते पूरे एक घंटे में घर पहुंचते थे। लिफ्ट के सामने चुड़ैल बौड़ी हुआ करती थी जहां पानी की एक बावड़ी थी और स्कूल से लौटते समय हम ज़रूर पानी पिया करते थे। पांच पैसे की खरी हुई रेती और चूरण पानी में मिलाकर पीते थे किन्तु कभी हमारे गले खराब नहीं होते थे। और साथ ही तीखी-उंची चट्टानों की खड़ी पहाड़ी थी जहां हम प्रतिदिन चुड़ैल ढूंढते थे किन्तु अब वहां अब वहां बहुमंजिला इमारत खड़ी थी राजीव गांधी सपोर्ट्स काम्‍पलैक्‍स । कम्‍बरमीयर पोस्‍ट आफिस भी नहीं मिला। लिफ्ट के पास पहुंचते- पहुंचते अपना पी एन बी का क्षेत्रीय कार्यालय ढूंढने लगी, अरे कहां गया मेरा आर एम आफिस कहां गया, और दोनों मुझ पर चिल्‍ला पड़े, पागल हुई है, धीरे बोल, आस-पास लोग देख रहे हैं । आंखों में आंसू आ गये जो फोटोक्रोम चश्‍मे में छुप जाते हैं, अब इन्‍हें क्‍या पता क्‍या ढूंढ रही थी मैं। चलो छोड़ो, आगे बढ़ गई मैं माल रोड की ओर।

 काली बाड़ी का रास्ता, 129 सीढ़ियां, और रास्ते में जहां भी नल लगा हो वहां बस्ते रखकर शेर के मुंह वाले नल से पानी पीना। रास्ते से फूल तोड़ना, कैंथ खाना, नाख और खट्टे सेब। और दस पैसे के बीस गोलगप्पे। इतना सब और पता नहीं क्या-क्या करके पहुंचते थे घर।

मन में एक भटकाव था, कैसा कह नहीं सकती।

जहां दिन में 15-20 किलोमीटर चलना आम बात थी , जाखू मन्दिर जाने के लिए टैक्‍सी की ।

वाह ! माल रोड पर लोकल गाड़ी जहां कभी एंबुलैंस और फायर ब्रिगेड के अतिरिक्‍त कोई गाड़ी नहीं चल सकती थी वहां हाथ देकर लोकल छोटी बस रूकवाई जा सकती थी।

दो दिन पोर्टमोर स्‍कूल, मालरोड, लक्‍कड़ बाज़ार, रिज, जाखू, अनाडेल, एडवांस स्‍टडीज़ घूमते रहे किन्‍तु मेरे भीतर तो कुछ और ही घुमड़ रहा था। मन ही मन क्‍या खोज रही थी शायद अपने से ही छुपा रह थी।
अचानक कोई सामने से या पीछे से आकर मुझे रोक लेगा, और कहेगा ‘नीतू’। और देर तक एक चुप्‍पी होगी हमारे बीच, मेरी बांह पकड़ेगा और मैं उसके गले लगकर फफककर रो दूंगी। क्‍यों, क‍ब, कैसे, सब छूट जायेगा। ‘’चल, घर चलो, उठाओ होटल से सामान,’’ और सब एकाएक बदल जायेगा। अथवा कोई पीछे से आकर पीठ पर हाथ मारकर कहेगा अरे तू इतने सालों बाद। कहां थी आज तक और हम घंटों सालों की बातें करेंगे। हा-हा, ही-ही, इसकी-उसकी। कोई सामने से आयेगा और मैं उसे रोककर कहूंगी ‘पछाण्‍या नीं, मैं नीतू”  या ‘‘मैं कविता’’। या कोई मिलेगा ‘ओ सरिता बड़े दिनां दुस्‍सी‘’ मैं फिक् से हंस दूंगी ‘सरिता नीं कविता मैं’, अज्‍जे ताईं नीं पछाणया सई, तू बी अडि़ए।‘ या फिर शायद सरिता ही कहीं दूर से पुकार ले।  

भीड़ में आंखे गडाये घूम रही थी, शायद कोई, शायद कोई ।

किन्‍तु ऐसा कुछ नहीं हुआ, कुछ भी नहीं हुआ ऐसा। तो क्‍या यही उपलब्धि थी मेरे उस जीवन की जिसकी यादों को मैं वर्षों से अपने भीतर संजोये थी, कभी लौटूंगी तेरे पास, अपनी यादों के साथ, कुछ पुनर्जीवित करने के लिए, कौन, कोई, क्‍या मिलेगा, कभी समझा ही नहीं, जाना ही नहीं।

इतने दिन बीत गये किन्‍तु समझ नहीं पाई कि खण्‍डहर अभी जीवन्‍त हैं अथवा मैंने उन्‍हें तिलांजलि दे दी।   

  

दिल तो परेशान था

28 अगस्त से शुरु हुई भागदौड़ अभी चल ही रही है। समय अनेक अनुभव देता है। इस बार भी मिला। एक अनुभव कोरोना के समय हुआ था, एक अब हुआ, शायद उतना ही हिलाकर रख देने वाला।

मार्च में पति हेमन्त को हृदयाघात हुआ था जिससे सम्हलना शुरु हो चुका था। एक arterie में दो स्टंट डाले गये थे और डाक्टर्स का कहना था कि बाकी दो में लगभग तीन महीने बाद स्टंट डलेंगे। उसके बाद कोरोना फैला, हमें भी हुआ। परेशानियां आईं, पति दो बार अस्पताल पहुंचे, फिर हम सब ठीक होने लगे।

किन्तु दिल तो परेशान था ही। अस्पताल पहुंचे, हेमन्त के दिल का हाल जानने के लिए। 28 अगस्त को स्टटिंग के लिए डाक्टर ने एंजियोग्राफ़ी की, आपरेशन थियेटर में हेमन्त थे, किन्तु चिकित्सक बिना स्टंट डाले बाहर आये और हमें बताया कि पहले से डाले गये स्टंट में भी ब्लाॅकेज आ गई है और बाकी दो में 80 व 90 प्रतिशत ब्लाॅकेज है जिसका निदान केवल बाय-पास सर्जरी है। हम हक्के-बक्के। हेमन्त ओटी में, एंजियोग्राफ़ी हो रही है और डाक्टर हमसे पूछ रहे हैं कि स्टंट डलवाने हैं या बायपास करवाना है? अब क्या करें। डाक्टर ने निर्णय हम पर छोड़ दिया कि यदि हम बाय पास नहीं करवाना चाहते तो वे तो स्टंट डाल देंगे किन्तु कोई गारंटी नहीं।

अब प्रश्न कि पहले स्टंट क्यों खराब हुए? उनका कहना था कि कोई कोई बाडी रिएक्ट कर जाती है और स्टंट एक्सेप्ट नहीं करती।

बिना स्टंट डलवाये ओटी से घर!!!

अब क्या ??????

डाक्टर्स ने हमें अगले दिन सारी रिपोर्ट्स दे दीं कि हम चाहें तो कहीं और जांच करवा सकते हैं। 15-20 दिन का समय हम लें लें।

घर में हर समय तनाव रहता कि स्टंट या बाय पास?????

किन्तु हमें कहीं और जाने का समय ही नहीं मिला, 1 सितम्बर को प्रातः दिल में दबाव शुरु हुआ और हम अस्पताल। अब तो बायपास के अतिरिक्त विकल्प ही नहीं था। एमरजैंसी में एडमिट। फिर सोडियम कम था 118, जब तक सोडियम 135 नहीं पहुंचता, आपरेशन नहीं हो सकता।

3 सितम्बर को अनायास आवाज़ लगती है कि हेमन्त केattendant ब्लड बैंक पहुंचे। हम फिर हक्के-बक्के कि क्या आपरेशन शेड्यूल हो गया। वहां बताया गया कि तीन या चार दिन बाद आपरेशन होगा जब तक सोडियम ठीक नहीं हो जाता। इस बीच हमें रक्त एवं प्लेटलैट्स का प्रबन्ध करना होगा। चार यूनिट ब्लड और एक प्लेटलैट्स।

आपके पास नहीं है क्या? नहीं । और किसी भी सरकारी एवं गैर सरकारी संस्था से खरीदा हुआ रक्त भी नहीं चाहिए, सीधे रक्तदाता से ही रक्त लेंगे। यह बाद की बात है कि फिर ब्लड बैंक, रैडक्रास, अन्य अस्पतालों से मिलने/उपलब्ध रक्त का क्या महत्व? और यह भी जानकारी मिली कि, whole blood, PRBC, FFP रक्त के प्रकार होते हैं और हमें PRBC चाहिए।

अब ब्लड ग्रुप रेयर।AB-Negetive !!!!!

पति ICU में अपना सोडियम बढ़ा रहे थे और हम रक्त की तलाश में लग गये। मोबाईल बजने लगे। सबसे पहले अपने सभी सम्बंधियों को पूछा, किसी का है ब्लड ग्रुप AB-Negetive। किसी का नहीं। दूसरी ओर मित्र, परिचित आदि। एक मित्र राकेश मौर्य ने अन्य मित्र निर्मल का नम्बर दिया कि वे एक रक्तदान समूह से जुड़े हैं। वहां से चक्र घूमना शुरु हुआ। किन्तु समस्या यह कि डाक्टर्स ने आपरेशन की तारीख और समय नहीं दिया था क्योंकि सोडियम जब तक बिल्कुल ठीक नहीं हो जाता, आपरेशन शैड्यूल नहीं हो सकता था। सामने से सभी पूछते आपरेशन कब है, शायद सोम या मंगल को। हमारे पास न तारीख न समय। चंडीगढ़, पंचकूला, मोहाली तो कुछ भी नहीं, दिल्ली, यमुनानगर, भटिंडा, यहां तक कि वाराणसी और न जाने कहां-कहां तीन दिन तक 10-10 घंटे हम केवल फोन ही करते रहे रक्त की तलाश में। कितने ही फ़ोन सामने से आये जहां तक किसी ने हमारी ज़रूरत पहुंचा दी थी। बिल्कुल अपरिचित, दूर शहर और मदद का प्रयास। दिल हिलकर रह गये हमारे। आगे से आगे सम्पर्क सूत्र मिलते रहे और अन्त में इतनी मेहनत काम आई। एक रक्तदाता दिल्ली से आकर रक्त देकर गये। ज़ीरकपुर से एक रक्तदाता प्लेटलेट्स देकर गये जिन्हें हमने प्रिजर्व करवाया। जब कोई रक्तदाता AB-Negetive मिलता और आने का वादा करता तो जब तक अगले दिन तक वह आ नहीं जाता, हमारी जान अटकी रहती कि नहीं आया तो क्या? और फोन करें कि नहीं, करें तो कैसे और क्या कहेंगे। अगर दो आ गये तो मना कैसे करेंगे? 3 सितम्बर से 6 सितम्बर तक रक्त की खोज में हम जिस तनाव में रहे, शब्दातीत है और नितान्त अपरिचित लोगों ने जितना सहयोग दिया वह भी शब्दातीत एवं अकल्पनीय अनुभव रहा। धन्यवाद, आभार, थैंक यू जैसे शब्द बहुत छोटे हैं इन सब संस्थाओं और व्यक्तियों के लिए। इस बीच प्रतीक्षा कक्ष में बैठे लोगों के दुख-तकलीफ़ भी देखे। आमने-सामने बैठे सब मिलकर अपने-अपने मन का बोझ हल्का कर रहे थे।

अन्ततः 7 सितम्बर को सोडियम भी ठीक और बायपास सर्जरी भी ठीक। सबकी शुभकामनाएं काम आईं।बायपास सर्जरी एमरजैंसी में ही हुई पर अभी भी मन कहता है कि शायद स्टंट से भी दिल ठीक हो जाता, किन्तु मैं यह नहीं कहती कि भगवान जाने। मैं कहती हूं डाक्टर्स जानें, उन पर हमने पूरा भरोसा किया और हेमन्त अच्छी रिकवरी कर रहे हैं।

  

मानों या न मानों :  आत्माएं ही यमराज होती हैं क्या?

यह मेरे जीवन की एक सत्य घटना है जिसे स्मरण करके आज भी शरीर में सिहरन पैदा हो जाती है।

वर्ष 1990 जनवरी। शिमला। मेरी एक बहन नर्वदा कैंसर की अंतिम स्टेज से जूझ रही थी और चिकित्सकों ने जवाब दे दिया था। बहन लगभग अचेतावस्था में रहती थी, और न के बराबर बोल पाती थी। उस समय उनके पास परिवार में मैं, एक और बहन जिसका नाम सरिता है, एक बहन-जीजा और भाई-भाभी एवं मां थीं। मां और बहन साथ-साथ सोते थे। एक दिन बहन अचानक उठ बैठी और एकदम स्पष्ट जैसे डरकर बोलीं कि मां, देखो-देखो, दादी आई है मुझे लेने, मुझे नहीं जाना। सब हतप्रभ। और इतना बोलकर वह लेट गई। मां ने कहा कि नर्वदा कोई नहीं है यहां, तुझे कोई नहीं ले जायेगा, नहीं है दादी। तब उसने मां की ओर करवट ली कि देखो हमारे बीच सो रही है और मुझे लेने आई है। सब सकते में। मां ने फिर बिस्तर के बीच में हाथ फिराते हुए कहा कि नर्वदा देख यहां कोई नहीं है। तू आराम कर।

फिर ऐसा कई बार होने लगा। कभी उन्हें सामने खड़ी दिखाई देतीं, कभी बिस्तर के पास और अक्सर बीच में लेटी हुई। और हर बार वे साफ़ शब्दों में बताती कि मां देखो दादी आई है मुझे लेने , बीच में आकर लेट गई है, मुझे नहीं जाना, और बोलकर वे अचेत-सी हो जातीं।

शिमला में उस समय केवल प्रातःकाल पानी आता था वह भी लगभग चार बजे, जब घुप्प अंधेरा रहता था। हमारा स्नानघर कमरों से अलग बाहर बरामदे के साथ था। अर्थात स्नानघर जाने के लिए एक तरह से घर से बाहर ही आना पड़ता था ।

नर्वदा लगभग मरणासन्न अवस्था में थीं।

उनकी मृत्यु से कुछ दिन पहले प्रातः चार बजे पानी आया और दूसरी बहन सरिता उठी कि पानी भर ले कि अचानक नर्वदा उठकर बैठ गई और चिल्लाई ‘‘ओ सरिता, ओ सरिता बाहर मत जाना, मुझे लेने दादी आई है, मैं तो मिली नहीं, तुझे ले जायेगी, ओ सरिता बाहर मत जाना।’’ इतना कहकर वह फिर लेट गई। पूरा घर सुन्न पड़ गया। सब मानों एक-दूसरे का हाथ पकडे,़ डरे हुए, एक खौफ़ में बैठे रहे। और नर्वदा पहले की तरह अचेत। किसी का साहस नहीं था कि दरवाज़ा खोले। नौ बजे दूधवाले ने दरवाज़ा खड़काया तब जाकर किसी तरह साहस करके दरवाज़ा खोला।

यह माना जाता है कि यदि कोई आत्मा किसी को लेने आती है तो यदि वह व्यक्ति न मिले तो जो सबसे पहले सामने मिले, उसे ले जाती है।

इसके बाद वह कुछ होश में आने लगीं। तो बोलीं कि मेरे नाम से कुछ फल ही दान कर दो मन्दिर में, एक महीना और जी लूंगी। और ऐसा ही हुआ। उस दान के लगभग एक महीने बाद उनकी मौत हुई।

  

दोहरी मानसिकता

अपने पाँव पर आप हथौड़ी मारना मुहावरा तो सुना ही होगा आपने। महिलाओं के जीवन पर पूरा फ़िट होता है। इसी अर्थ को ध्वनित करते और भी बहुत से मुहावरे हैं, अभी याद नहीं आ रहे। जैसे अपने लिए कुँआ खोदना अथवा अपने लिए गढ्ढा खोदना आदि-आदि। जो कुठाराघात, हथौड़ा अपने विरुद्ध उठे कदमों पर उठाना चाहिए, अपने साथ हो रहे अन्याय पर उठाना चाहिए, मृत परम्पराओं, शोषण प्रधान रीति-रिवाज़ों पर उठाना चाहिए, वे अपने पर ही चलाती रहती हैं और फिर अपने लिए कहती हैं: वाह-वाह, वाह-वाह-वाह!!

महिलाएँ सारा जीवन यही करती हैं। वे तय ही नहीं कर पातीं कि उन्हें जीवन में क्या चाहिए और कितना और किसके लिए चाहिए।

संस्कार, रीति-रिवाज़, परम्पराएँ, व्रतोपवास, पूजा-अर्चना, अर्थात भारतीयता, भारतीय संस्कृति उनके भीतर बोलती है। किन्तु पढ़ना भी है, नौकरी भी करनी है, स्वभाव में व रहन-सहन में पुरातनता नहीं दिखनी चाहिए। किन्तु इतनी आधुनिकता भी न दिखे कि लोग अंगुलियां उठाने लगें। अन्यान्य गतिविधियों में भी आजकल पांरगत होना आवश्यक है। घर-गृहस्थी, परिवार तो उनका दायित्व रहता ही है। आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। किन्तु इतना आत्मनिर्भर भी न हो जायें कि पुरुष, पति अथवा परिवार पर हावी होने लगें। गाड़ी चलाना भी सीखना चाहिए। उनके जीवन की सार्थकता सभी रिश्तों को ओढ़कर चलने और उनकी सफ़लता में है, वही उनका व्यक्तित्व है और इससे ही समाज उनके व्यक्तित्व को पारिभाषित करता है। 

उनमें संस्कारों के प्रति गहरी आस्था रहती है। वे रीति-रिवाज़ों का पालन भी करना चाहती हैं और उन्हें बदलना भी चाहती हैं।

बहुत पहले की बात है जब समाचार पत्रों में वैवाहिक विज्ञापनों का बहुत महत्व हुआ करता था। उस समय लड़कों की ओर से लड़कियों के लिए प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों की भाषा कुछ इस तरह की हुआ करती थी, ‘‘आवश्यकता है एक  संस्कारी, पारिवारिक, घरेलू लड़की की , जो घर का काम-काज जानती हो। अनुपम सुन्दरी,गोरा रंग, आकर्षक, पतली, कान्वैंट से पढ़ी, लड़का विदेश में सैटलड्। देश-विदेश में फैला व्यवसाय, लड़की माहौल के अनुसार एडजैस्ट हो सके।’’

 

 मुझे यह विज्ञापन अधूरा लगता था। तब मैंने पहले दिये गये विवरण के अतिरिक्त  लिखा था, ‘‘ आवश्यकता है एक लड़की की, ..................... जो किटी, क्लब के योग्य हो, करवाचैथ का व्रत रखना जानती हो, मेंहदी लगाना, लाल साड़ी पहनना, मांग में सिंदूर और और इस तरह के सभी कार्यक्रम जानती हो। आवश्यकता पड़ने पर साड़ी को सूट, मिनी स्कर्ट बनाना जानती हो, और मिनी स्कर्ट को स्विमिंग सूट बनाना जानती हो। साग-मक्की की रोटी बनाना और चिकन खाना जानती हो, भरतनाट्यम में पाॅप और कथक में बैले करना जानती हो।’’ क्योंकि विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रदर्शन महिलाओं के ही माध्यम से उनके पति करते हैं।

यद्यपि इस तरह के विज्ञापन बहुत ही पुरानी बात है किन्तु इस तरह के भाव आज भी हमारे समाज में जीवन्त हैं।

मैं जानती हो आप कहेंगे कि यह तो अतिशयोक्ति है अथवा अपमानजनक है। किन्तु इन शब्दों का प्रयोग चाहे न हो किन्तु चाहतें तो ऐसी ही होती हैं और जीवन के इस दोहरेपन को स्वीकार करते हुए हम अपने ही हाथ में हथौड़ा लिए रहते हैं।

किन्तु इस दोहरेपन के लिए न समाज दोषी है और न पुरुष-समाज। महिलाएं स्वयं ही अपनी जीवन-शैली निश्चित-निर्धारित नहीं कर पातीं। वे यही देखती रह जाती हैं कि सामने वाले क्या चाहते हैं। फिर वे माता-पिता, भाई, पति, समाज, कार्य-स्थल कुछ भी हो सकता है। उनके निर्णय दूसरों की अपेक्षाओं से अत्याधिक प्रभावित होते हैं।

  

खुशियां भरोसे की

‘‘बधाई आपको अनमोल जी। बहुत सुन्दर घर बना लिया आपने’’। बधाईयों का तांता लगा था अनमोल जी के घर में। किन्तु घर के बाहर नेमप्लेट पर बेटे-बहू का नाम था, सो सभी अन्दर-ही-अन्दर फुसफुसा रहे थे।

गृह-प्रवेश की पूजा सम्पन्न हुई और सभी मेहमान भोजनोपरान्त जाने लगे थे। अनमोल जी के घनिष्ठ मित्र रमाकान्त वहीं थे और अवसर ढूंढ रहे थे बात करने का।

एकान्त पाकर तत्काल अनमोल जी को घेर लिया और पूछने लगे, ‘एक बात बताओ अनमोल, ये घर से बाहर बेटे का नाम क्यों? जबकि तुमने अपना और भाभीजी का पीएफ, ग्रेच्युटी का सारा पैसा इस घर पर लगा दिया।’

‘हां, तो ?’

‘लेकिन तुमने अपने बुढ़ापे के बारे में नहीं सोचा।’

‘सोचा, तभी तो लगा दिया। देखो, रमाकान्त, आजकल हम अपनों पर ही ज़रूरत से ज़्यादा शक करके चलने लगे हैं, यही कारण है कि आजकल रिश्तों में बहुत जल्दी दरार आने लगी है। हमने सारी उमर अपनी मर्ज़ी का जिया और किया। मकान मेरे नाम होता और हमारे बीच कभी अनबन हो जाती, तो क्या हम उन्हें घर से निकाल देते। नहीं न। तब भी शायद हम ही घर छोड़कर जाना पसन्द करते क्योंकि अब जीवन उनका है। तो मकान उनके नाम होने से कुछ नहीं बदलेगा रमाकान्त, बस हमारी सोच ही बहुत बदल गई है बच्चों के प्रति।

 अब बेटे-बहू की बारी है। पोते-पोतियां हैं। आज तक वे हमारी मर्ज़ी से रहे, अब हम उनके हिसाब से जीने की कोशिश करेंगे।’

‘लेकिन तुम्हारे बाद भी तो उसी का होता, वसीयत न भी करते तो भी, और करते तो भी।’

‘लेकिन हमने बेटे-बहू पर भरोसा करके जो खुशी उन्हें दी है, वह तुम नहीं समझ पाओगे।’

  

किसका दोष

 ‘‘पता लगा आपको, बेचारे शर्मा जी के साथ तो बहुत बुरा हुआ। मिजेस शर्मा जी का तो रो-रोकर बुरा हाल है।’’

‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया उनके साथ’’ मैंने चौंककर पूछा।

‘‘एक ही तो बेटा था उनका, हाथ से निकल गया’’।

‘‘उनका बेटा तो आस्ट्रेलिया में पढ़ रहा था और सुना है वहीं उसे बहुत अच्छी नौकरी भी मिल गई है। आजकल आया हुआ है।’’

‘‘हां, यही तो। माता-पिता अपनी सारी पूंजी लगाकर बच्चों को दूर देश भेजते हैं कि अच्छे पढ़-लिख जायें और कुछ बनें। किन्तु आजकल के बच्चे, एक बार घर से निकलते हैं तो बस मां-बाप को तो भूल ही जाते हैं । शर्मा जी ने सोचा था कि अपनी पढ़ाई पूरी करके लौटकर अपना पैतृक व्यवसाय सम्हालेगा। उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा।  लेकिन उसने साफ़ कह दिया कि वह तो अब आस्ट्रेलिया में ही सैटल होना चाहता है। उसे वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल गई है। और वहीं शादी करेगा। और आप भी मेरे साथ चलिए। लेकिन यह सब कहां मुमकिन है। इतना बड़ा पैतृक घर है, पीढ़ियों से चला आ रहा व्यवसाय है। कैसे जा सकते हैं छोड़कर।’’

‘‘पता नहीं आजकल के बच्चों को क्या होता जा रहा है, मां-बाप की तो ज़रा नहीं सोचते जिन्होंने पाल-पोसकर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया।’’

मैं असमंसज में थी कि क्या कहूँ।

“लेकिन शर्मा जी की तो हार्डवेयर की दुकान है न। और बेटा तो बहुत सालों से बाहर ही पढ़ रहा था।“

‘‘जी हां, पहले तो उसे दिल्ली पढ़ाया। फिर आगे की पढ़ाई के लिए उसे इतना पैसा खर्च करके आस्ट्रेलिया भेजा। पांच-छः साल हो गये उसे वहां। कम्प्यूटर इंजीनियर है शायद। अब कहता है वहीं रहेगा। आप ही बताईये आजकल के बच्चे मां-बाप के बारे में ज़रा भी नहीं सोचते।‘‘

अब मुझे बोलना ही पड़ा ‘‘हमारी पीढ़ी की आदत ही हो गई है बच्चों को बुरा समझने की। सदैव बच्चे ही गलत नहीं होते। इसमें बेटे की गलती कहां है? गलती तो मां-बाप की है। शुरु से घर से बाहर पढ़ाते रहे। इतने सालों से मेहतन करके वो इंजीनियर बना, अब क्या वो हार्डवेयर का काम कर सकेगा? वो जब भी छुट्टी आता था उसे कभी दुकान पर साथ नहीं बैठाया। अब अचानक वह कैसे बदल जायेगा? जिस राह हम स्वयं ही बच्चों को भेज देते हैं, फिर अचानक लौटने के लिए कहने लगते हैं, कहां मुमकिन होता है उनके लिए। अपनी इतनी पढ़ाई को वो कैसे छोड़कर लौट सकता है? फिर भी हर साल मिलने आता है और माता-पिता से दूर नहीं जा रहा है, उन्हें साथ चलने के लिए कह रहा है। क्यों और कैसे गलत है वो?’’

^^आखिर क्यों हम हर बार बच्चों को ही दोषी मान लेते हैं, क्यों अपने ही दिये गये मार्गदर्शन के बारे में खुलकर विचार नहीं करते?**

हरिराम जी अचानक ही चुप हो गये, कि बात तो किसी हद तक ठीक है। उनके पास मेरी बात का कोई उत्तर नहीं था।

  

बेटी-बेटी अभियान

असमंसज में हूँ। कहानी लिखने लगी हूँ, मन की बात, संस्मरण, मन की भड़ास अथवा आलेख। पता नहीं। आपको जो लगे उस विधा या कैटैगरी में ले लीजिएगा।

कुछ बातें बहुत पुरानी हैं, शायद आठ-दस वर्ष, जब बेटा काॅलेज में पढ़ता था और कुछ नई।

मेरा बेटा ‘‘बेटी-बेटी’’ अभियान के बहुत विरुद्ध है। उसका कहना है कि आप लोग या मीडिया अथवा प्रचार लड़कियों को बहुत सिर चढ़ा रहा है। हम लड़कों ने कोई पाप किया है क्या? वह कहता है कि इसी कारण आजकल की लड़कियों का दिमाग बहुत चढ़ गया है और वे इसका बहुत फ़ायदा उठाती हैं।

मैंने कहा, उनके साथ अन्याय भी तो बहुत होता है।

क्या अन्याय होता है? वह फिर भड़का। वैसे तो हर जगह लड़की कहकर फ़ायदे उठाएंगी, अधिकार मांगेंगी और जब काम की बारी आयेगी तो हम तो लड़कियां हैं। वेतन बराबर चाहिए किन्तु काम हल्का। 

बहुत पुरानी बात है। एक दिन काॅलेज से लौटा और बहुत मज़े लेकर बताने लगा कि आज एक लड़की का स्कूटी का एक्सीडैंट हो गया। उसकी स्कूटी स्किड कर गई। और वो स्कूटी के साथ ही गिरी।

मैंने एकदम गुस्सा किया कि ऐसे कैसे बात कर रहे हो, उसकी तुम लोगों ने मदद नहीं की क्या?

उसका बड़ा स्पष्ट उत्तर था, नहीं की।

क्यों? मेरा पारा और चढ़ा।

हम लड़कियों की मदद नहीं करते।

मेरा पारा और ऊपर, ये क्या बात हुई? लड़कियों की तो ज़्यादा मदद करनी चाहिए।

वाह ! मां, क्यों लड़कियों की ज़्यादा मदद करनी चाहिए। वो तो आज किसी से कमज़ोर नहीं हैं। बराबरी की बात करती हैं, लेकिन बस में लड़कियों के लिए सीट रिज़र्व रहती है।

वो तो बेटा इसलिए कि लड़कियों को कोई परेशान न करे।

हांाााााााााााा, यही तो, इसीलिए तो हम लड़कियों की मदद नहीं करते, हम मदद करने के लिए बढ़ें और वो सोचे या लोग सोचें कि परेशान करने आये हैं।

मां, हम लड़कों को आज की दुनिया में बहुत सम्हलकर रहना पड़ता है। आप क्या जानो।

फिर कहने लगा, पता है आपको मां, पिछले दिनों आंकड़े जारी हुए थे। दहेज और रेप के 70 प्रतिशत मामले झूठे निकले थे।

मैंने कहा किन्तु 30 प्रतिशत तो सही थे, उनका क्या?

उसका सरल-सा उत्तर था, तीस प्रतिशत इसीलिए पिछड़ जाते हैं क्योंकि पुलिस, प्रशासन और न्याय व्यवस्था पर 70 प्रतिशत का दबाव तो रहता ही है न।

फिर वह अपनी बात पर पुनः लौट आया। कहने लगा, हम लड़के लड़कियों से 10 फ़ीट की दूरी बनाकर चलते हैं। आजकल एक फ़ैशन ही हो गया है लड़कों को बुरा बोलने का, केवल बुरा नहीं चरित्रहीन, संस्कारहीन और आपकी हिन्दी में पता नहीं क्या-क्या कहते हैं, वो सब। उसे स्कूटर से उठाते समय गलती से भी हाथ लग जाता तो पता नहीं क्या आरोप लग जाते और आप मुझसे मिलने हवालात में आते।

मैंने समझाने का प्रयास किया कि बेटा ऐसा नहीं होता, तुम्हारी नीयत ठीक होगी तो कोई क्यों तुम पर यूं ही शक करेगा?

लेकिन वो मानने के लिए तैयार नहीं था। उसका कहना था कि आप आजकल का माहौल जानते ही नहीं हो। हम चार लड़के कहीं खड़े हों, यूं ही गप्पबाजी कर रहे हों, बस की प्रतीक्षा कर रहे हों, थोड़ा ऊँचा बोल जायें या हँस रहे हों, तो आस-पास के लोगों के चेहरे देखने वाले होते हैं। विशेषकर आपकी आयु के लोगों के। और कहीं लड़कियाँ हो आस-पास, तब तो मुँह पर अँगुली रखकर खड़े होना पड़ता है। हम लोगों की बातचीत या ऊँचा-ऊँचा हँसने का आजकल एक ही मतलब होता है कि हम लड़कियों को छेड़ रहे हैं। और लोग पीठ पीछे बोल भी देते हैं जो हमें सुनाई देता है कि आजकल तो इन लड़कों की आवारगी बहुत ही बढ़ गई है। पढ़ते-लिखते नहीं हैं, माहौल बिगाड़कर रखा है और न जाने क्या-क्या। और अन्त में मां-बाप और संस्कारों  पर आ जायेंगे।

अब तो वह अपने मन की पूरी भड़ास निकालने पर उतर आया।

स्कूटी तो चलाती हैं पर चलानी आती नहीं।

मैंने पूछा अगर उन्हें चलानी नहीं आती तो चलाती कैसे हैं?

अब मां देखो, गाड़ी चलाना अलग बात है और गाड़ी की जानकारी रखना अलग बात। अब चाबी घुमाकर चला तो लेती हैं लेकिन ज़रा सा रुक जाये तो इधर-उधर देखने लगती हैं मदद के लिए। सड़क के बीच में स्कूटी रुक जाये तो किनारे तो की नहीं जाती उनसे। फिर जितना रांग साईड, गलत कट ये लेती हैं, बस पूछो मत।

परसों की बात तो मैंने आपको बताई ही नहीं।

कोई पंगा तो नहीं कर आया, मैंने एकदम पूछ लिया।

लो बस, लग गया न आरोप मुझ पर बिना सुने ही।

परसों तेरा पेपर था न, छोड़कर तो नहीं आ गया था।

लो फिर आरोप, बात नहीं सुननी पूरी मेरी।

अच्छा-अच्छा अब नहीं बोलूंगी, बता क्या हुआ।

सुबह ट्रैफिक तो होता ही है, आपको पता ही है। मैं मध्य मार्ग पर बिल्कुल अपनी लेन में चल रहा था। पीछे से एक लड़की स्कूटी पर हार्न पर हार्न दिये जा रही थी। कभी बायें आती तो कभी दायें। दो-तीन कार वाले भी बहुत परेशान हो रहे थे। पता नहीं उससे स्कूटी सम्हल नहीं रही थी या वो पास लेना चाह रही थी। उसे मैंने और कार वाले ने रास्ता भी दिया पर आगे भी न निकले। हर बार लगे अब टकराई, अब टकराई। मैंने अपना स्कूटर साईड में लगाकर हाथ जोड़े, माता, तू जा। मेरा पेपर जाता है तो जाये, अगले साल दे लूंगा। तू निकल, पूरा मध्यमार्ग ले ले। पर मुझे परेशान न कर। और मां, जब तक वह  अगली लाईट्स क्रास नहीं कर गई मैं भी खड़ा रहा। माता तू जा, बार-बार मैंने हर स्कूटी वाली लड़की को यही कहा। मेरे पेपर की चिन्ता नहीं, अगले साल फिर आ जायेगा, बस जान नहीं देनी मुझे, हवालात नहीं जाना मुझे।

   

कोरोना मरीज की डायरी

अब जब अपने ही घर में कैदी बन गई हूं तो क्या करें।

भला खांसी, जुकाम, हरारत, हल्का बुखार और शरीर का दुखना भी कोई बीमारी होती है क्या। हम महिलाओं के साथ तो यह रोज़ का ही किस्सा है। कौन लेना है इसे गम्भीरता से। घर में पांच-सात दवाईयां तो इन समस्याओं के लिए रखी ही रहती हैं। जब चाहा मिठाई की गोली की तरह खा ली। गरम पानी पी लो, गरारे कर लो, अदरक-तुलसी का काढ़ा पी लिया, बस हो गये ठीक।

   लेकिन कोरोना ने हमारे दिल-दिमाग पर ऐसी दस्तक दी कि एक खौफ़ पसर गया। ज्ञात हुआ कि हमारे सैक्टर के एक परिवार के चार लोग कोरोना पोज़ोटिव पाये गये।

लाॅक डाउन तो पहले से ही था, अब एरिया सील हो गया। सब बन्द।

   हम डरे हुए थे, मेरी खांसी ठीक नहीं हो रही थी और बुखार भी था। हमारे कारण कोई और परेशान हो , हम स्वयं ही अस्पताल पहुंच गये कोरोना टैस्ट के लिए। रिपोर्ट 15 दिन में आनी थी किन्तु हमारी समस्या को देखते हुए हमें 14 दिन  एकान्तवास के आदेश मिले। घर के बाहर एक पोस्टर लग गया।

2.6.2020

 कैसी डरी हुई सी ज़िन्दगी है। अकेले सारा दिन टी वी देखते और सोते बीतता है। दरवाज़े से खाना पकड़ा देते हैं, अपनों से ही डरने लगे हैं हम। सारी दुनिया में कहर मचा है। लोग मर रहे हैं, क्यों कैसे , कोई नहीं जानता। न रोग का पता, न दवाई का। कोई किसी को छूता नहीं, रोगी के निकट कोई नहीं जाता। और मरने पर कोई देह भी लेगा या नहीं, पता नहीं। दिल-दिमाग हिल गये थे। खाना न खाया जा रहा था।

   आज से मैंने तारीख लिखनी छोड़ दी। परिवार भी सहमा हुआ था। अभी तो तीन ही दिन हुए हैं, अगले बारह दिन कैसे बीतेंगे, कोई न हीं जानता। अवसाद में घिरने लगे थे हम।

   नहीं, मन से डर को निकालना होगा। डर कर तो ऐसे ही मर जायेंगे। मैंने परिवार के सभी सदस्यों को मोबाईल पर कांफ्रैंस पर बात करने के लिए कहा। हम बहुत देर तक बातें करते रहे, निडर भाव से। बातें करने से तो कोरोना नहीं होगा। 6 फ़ीट की दूरी और स्वच्छता रखनी है। बस। फिर डर क्या। देखा जायेगा जो होगा।

मेरे कमरे का दरवाज़ा खोल दिया गया । अब मुझे पूरा परिवार दिखाई दे रहा था। एक दूरी थी किन्तु खौफ़ कम होने लगा था। समाचार पत्र तो आ ही नहीं रहे थे, हम लोगों ने निश्चय किया कि नकारात्मक समाचार न देखेंगे न बात करेंगे।

दिन भर गाने, फ़िल्में अन्त्याक्षरी चलती रहती। खाने-पीने की शर्तें लगती। आॅन लाईन देख-देखकर नये-नये पकवान बनने लगे। बस 6 फ़ीट को कभी नहीं भूले।

फिर तो पता ही नहीं लगा कि 14 दिन कब बीत गये।

और अब अस्पताल रिपोर्ट लेने जाना था। अनायास ही पहले दिन वाली स्थिति में आ गये हम सब।

ओह ! रिपोर्ट नैगेटिव थी। एक बार तो सब जैसे रो दिये। गले रूंध गये सबके। हम सब ऐसे गले मिल रहे थे जैसे सालों बिछड़े मिले हों। हे ईश्वर! ये कैसा रोग है। सबकी रक्षा कर।

  

बेबात की बात

हुआ कुछ यूं कि हमारे घर का नल बिगड़ गया।

आप पूछ सकते हैं कि क्यों बिगड़ गया, कैसे बिगड़ गया, किसकी गलत संगति में पड़ गया जो बिगड़ गया। नैट पर क्या कोई ऐसी-वैसी साईट देख रहा था अथवा प्रतिबन्धित एप से जुड़ा था। आजकल नैट पर जुआ भी खूब खेला जा रहा है, क्या वहां कुछ ऐसा-वैसा कर बैठा।

पता नहीं आपका दिमाग कहां चलता है, भाई मेरे। मैं नल की बात कर रही हूं, उस नल की जिसे  नलका भी कहते हैं और सुना है अंग्रेज़ी में TAP कहते हैं। जिससे कभी-कभी सरकारी पानी आता है, मनमर्ज़ी से आता है, जब-तब आता है, जब मन हो तब आता है। उसका एक मीटर भी लगा होता है, जिसका बिल भी आता है। पानी कैसा आता है, क्यों आता है, कब आता है, बिल का उससे कोई लेना-देना नहीं। उसका नल बिगड़ गया।

आया अब समझ में, मैंने क्या कहा।

नल बिगड़ गया।

हमारा ज़माना था, पीतल के नल हुआ करते थे। बिगड़ते नहीं थे खराब हो जाते थे। बाज़ार से दस-बीस पैसे  का एक वाॅशर यानी रबड़ का काला छल्ला लाते थे। प्लास से नल खोलकर इस छल्ले को बदल लेते थे और नल ठीक।

अब इस नये ज़माने में नये, आधुनिक नल हैं। पीतल के नहीं, सीधे स्टील के। बड़े-बड़े, मोटे-मोटे। ऐसे ही प्लास जैसों  के हत्थे नहीं चढ़ने वाले, सीधे-सादे। जानकारों ने बताया कि नल ही बदला जायेगा, कोई छल्ला, रबड़ नहीं, बस नल। बाज़ार गये नल की दुकान पर और नल मांगा। दुकानदान ने कहा पुराना लाकर दिखाईये, साईज़ होता है। हो सकता है पूरा नल न बदलना पड़े, उसके अन्दर एक Spindle होता है शायद उसे ही बदलने से काम चल जाये। हमने सोचा, चलो बचे, दस-बीस पैसे तो नहीं, शायद दस-बीस रूपये में काम हो जायेगा। लेकिन हमारा नल तो प्लास के हत्थे चढ़ा ही नहीं था, खोलेगा कौन?

हमने दुकानदार से पूछा किन्तु नल खुलता कैसे है?

दुकानदार ने हमारे चेहरे की मासूमियत को परखा, बोला, प्लम्बर बुलाना पड़ेगा।

जी, वह कहां मिलेगा।

दुकानदार ने आवाज़ दी, लालचन्द, बाबूजी के साथ इनके घर जा और देख कौन-सा नल लगा है, नल बदलना पड़ेगा या Spindle बदलने से काम बन जायेगा।

प्लम्बर आया, नल खोला, बोला, यह तो पुराना है अब इसके Spindle नहीं आते, नल ही बदलना पड़ेगा।

ठीक है फिर नल ही बदल दीजिए, पानी बह रहा है कब से।

प्लम्बर ने पैसे मांगे।

कितने ?

हज़ार रूपये तो दे ही दीजिए, जितने का भी आयेगा। और पांच सौ मेरे होंगे।

मैं अचेत। अब पता नहीं कि यह मेरी गलती है कि मैं अभी भी 100 वर्ष पीछे जी रही हूं या ज़माना ही कुछ ज़्यादा आगे निकल गया है।

मैंने सचेत होकर ज़माने से जुड़ने का प्रयास किया, और पुराना नल?

कबाड़ी को दे दीजिएगा, पांच-सात रूपये मिल जायेंगे।

मैं कोमा में।

  

नई-नई हसरतों की लपटें

वे बिन बुलाये हमारे घर आये। जब भी आते थे पुलिस की तरह बिन बुलाये ही दनदनाते ही आते थे। तरह-तरह की जांच-पड़ताल करते, हमें हमारे ही घर में कटघरे में खड़ा करते और भविष्य में सुधर जाने की चेतावनी देकर चले जाते। उनके पिछले पद-चिन्हों की छाप अभी मिटती भी न थी कि फिर चले आते।

इस बार भी आये। दल-बल सहित। हमने मुस्कुराकर, हाथ जोड़कर स्वागत किया वैसे ही जैसे करना चाहिए। वे जल्दी से भीतर आये और बैठने के लिए जगह ढूंढने लगे। हमने अपने दीवान और कुर्सियों की ओर संकेत किया - बैठिए। उन्होंने पूरे कमरे का निरीक्षण करते हुए हमारे दीवान और कुर्सियों की शोभा बढ़ाई।

‘‘क्यों भाभीजी, अभी वही पुराने ज़माने के दीवान, कुर्सियां चल रही हैं। कुछ नया क्यों नहीं लेते ?’’

‘‘ नया क्यों लें अभी, इतना पुराना भी नहीं है, और देखिए तो, ज़रा भी खराब भी नहीं हुआ है।’’

‘‘आप भी भाभीजी, कौन रखता है आजकल दीवान और कुर्सियां। इन्हें हटाकर बढ़िया सोफ़े-वोफ़े लीजिए न। एक-से-एक हैं मार्किट में। और वैसे भी आपको किस बात की कमी है।’’

‘‘लेकिन इनका क्या करेंगे ?’’

‘‘अरे ! बिक जायेंगे, नहीं तो कबाड़ में डालिए।’’

मैंने अपने पांच हज़ार के दीवान और दो-दो हज़ार की कुर्सियों को कबाड़ की दृष्टि से देखने का प्रयास किया।

‘‘अरे हां, आप अभी भी किराये के मकान में बैठे हैं। अपना नहीं बनाया अभी तक। आपको किस बात की कमी है, आप तो बैंक में हैं। पंद्रह-बीस हज़ार तो वेतन मिलता ही होगा। उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना उनका प्रवचन जारी था ‘‘भाई साहिब का तो बिजनेस है। बिजनेस वालों को किस बात की कमी है। सब दो नंबर का काम है। क्यों भाई साहिब।’’

भाई साहब ‘‘हें हें’’ करके चुप हो गये।

अब बच्चों की बारी। कौन से स्कूल में पढ़ते हो?

‘‘हां भाई , मंहगे से मंहगे स्कूल में पढ़ा सकते हैं आप तो, आपको किस बात की कमी है।

‘‘अच्छा स्कूल अपन गाड़ी से जाते हो ?’’

‘‘नहीं आंटी साईकिल से।’’

उन्होंने बच्चों को बड़ी दयनीय दृष्टि से देखा। ‘‘क्या भाभी जी, आपके इतने बड़े-बड़े बच्चे साईकिल घसीट रहे हैं। क्या करेंगे इतना जोड़कर। बच्चों को स्कूटर वगैरह लेकर दीजिए तो।’’

‘‘अभी 18 वर्ष के भी नहीं, गाड़ी कैसे लें दें।’’

‘‘क्या भाभजी आप भी। कौन परवाह करता है आजकल, ये तो पैसे न खर्चने के बहाने हैं। कहां ले जायेंगे इतना जोड़कर,किसके लिए जमा कर रहे हैं, आपको किस बात की कमी है,जो बच्चों के लिए इतना कंजूसी।’’

‘‘आपको किस बात की कमी है’’

 

विषय बदलने का प्रयास करते हुए मैंने पूछा ‘‘अच्छा बताईये, चाय लेंगे या ठंडा?’’

‘‘भई हम तो ठंडा ही लेंगे। जबसे ये ड्रंक मेकर चले हैं, हमें तो पानी की जगह भी कोल्ड ही पीने की आदत हो गई है। किस कंपनी का है आपके पास?’’

‘‘जी ड्रंक मेकर नहीं है, कोल्ड ड्रंक है, कौन-सी लेंगे?’’

‘‘ क्या ????? इतनी छोटी-सस्ती-सी चीज़ भी नहीं रखी आपने। क्या करेंगी इतने पैसे जोड़कर।’’

इतनी देर में उनके बच्चे हमारे घर का निरीक्षण करके रिपोर्ट कार्ड अपने माता-पिता को सौंप रहे थे।

‘‘आंटी आपका टी.वी. ब्लैक एंड वाईट है क्या ?’’

वे कुछ और पूछते मैंने पहले ही कह दिया ‘‘ हां, बेटा , हमारा टी. वी. ब्लैक एंड वाईट है, बिना रिमोट का । वी.सी.आर. , सी.डी. प्लेयर भी नहीं है।’’

 उन सबने हमारे परिवार की ओर अत्यन्त दयनीय दृष्टि से देखा । फिर तरस खाते हुए बोलीं, ‘‘ आप तो बैंक में हैं। ऐसा सामान खरीदने के लिए तो बैंक वालों को खूब लोन-वोन मिलते हैं। नहीं तो बाज़ार मे ही आजकल सब कुछ किश्तों में मिलता है। इतनी एक्सचेंज आफ़र हैं बाज़ार में। । आपकी तो 18-20 वर्ष की नौकरी हो गई। मकान के लिए, टी.वी., फ्रिज, स्कूटर, कार, फ़र्नीचर, कम्प्यूटर, सबके लिए आप लोगों को तो बैंक मज़े से घर बैठे पैसा देता है। और आजकल तो बैंक वाले भी लोनों-वोनों में खूब कमाने लगे हैं। फिर आपको किस बात की कमी है जो ऐसे रह रहे हैं।’’

इसके बाद वे दो घंटे और बैठे। इस बीच उन्होंने ‘‘आपको किस बात की कमी है’’, ‘‘क्या करेंगे इतना जोड़कर’’, ‘‘बच्चों के लिए ही तो कमाते हैं हम’’, ‘‘किसके लिए जोड़ रहे हैं इतना’’, और ‘‘बेचारे बच्चे’’ कितनी बार कहा, मैं गिन न सकी।

फिर वे चले गये।

उनके पास न माचिस थी न लाईटर। न पैट््रोल न डीज़ल।

पर वे मेरे घर में आग लगा गये।

यह आग न पानी से बुझ सकती थी न किसी अन्य पदार्थ से।

हमने जल्दी ही बैंक से ढेर सारे ऋण ले लिए। कुछ वस्तुए बाज़ार से किश्तों पर ले लीं। अपना आधा वेतन और पूरा सेवाकाल बैंक के पास बंधक रख दिया। हमारा आधा घर आधुनिक हो गया और आधा घर कबाड़।

लेकिन आग अभी भी नहीं बुझी।

नई-नई हसरतों की लपटें रोज़ उठती हैं।

  

अंगदान के लिए आमजन कैसे हो जागरूक

अभी तक लोग रक्तदान के लिए तो जागरूक नहीं हैं तो अंगदान के लिए कहाँ हो सकते हैं।

अँगदान के लिए आमजन को जागरूक करने के दो ही तरीके हैं। पहला अंधाधंुध प्रचार, जैसे कभी परिवार-नियोजन, पोलियो, बै्रस्ट कैंसर, एच. आई. वी. एड्स, काॅपर टी का किया जाता था। देश में हर जगह, हर कोने पर। किन्तु सकारात्मक, मनोवैज्ञानिक, सार्थक, बृहद् जानकारी युक्त एवं भावपूर्ण। केवल प्रेरणा  से यह काम नहीं हो सकता। सोच में परिवर्तन लाना होगा।

दूसरा प्रयास जो इससे पहले आवश्यक है वह है क्या हमारा चिकित्सा-तंत्र इतना व्यवस्थित, जागरूक एवं आमजन के लिए उपलब्ध है कि यदि मैं अंगदान अथवा देहदान करना चाहूँ तो वह मेरी सहायता करेगा? क्या देश के किसी भी अस्पताल में किसी भी चिकित्सक से इससे सम्बन्धित जानकारी मिल जायेगी? जी नहीं।

यदि मुझे अंगदान अथवा देहदान करना है तो कहाँ जाना होगा, कौन-सा अस्पताल, कौन-सी संस्था? क्या संस्थाएं पंजीकृत हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं जनहित में दान करुं और उसका व्यापार हो। देश के कितने चिकित्सालयों में यह सुविधा उपलब्ध है? हम किसी एन. जी. ओ. पर कैसे भरोसा करें। कौन-सा फ़ार्म भरा जायेगा? यदि किसी अनजान स्थान पर मेरी मृत्यु हो जाती है तो कौन उत्तरदायित्व लेगा कि मेरे अंग ले लिए जायें। गूगल पर मुझे केवल 228 अस्पतालों की सूची मिली जो देहदान लेते हैं, 137 करोड़ जनसंख्या के लिए। यह हास्यास्पद है। छोटी-से-छोटी चिकित्सा के हम निजी अस्पतालों के पीछे भाग रहे हैं। सरकारी तंत्र पर हमें विश्वास नहीं है। निजी अस्पताल हमें लूटते दिखते हैं।

अतः पहले संसाधन विकसित कीजिए, चिकित्सा-तंत्र का विकास कीजिए, सुविधाएं उपलब्ध करवाईये, विश्वास बनाईये, उपरान्त जागरूकता अभियान चलाईये, फिर आशा कीजिए।

  

महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा का प्रश्न

यदि राष्ट्र की सुरक्षा के लिए नियुक्त उच्च अधिकारी ही किसी संदेहास्पद स्थितियों में मारे जायें तो इससे बढ़कर किसी देश का दुर्भाग्य क्या हो सकता है? यह सम्पूर्ण देश के लिए चिन्ता का विषय है।

आज हमारे देश में सुरक्षा लेना एवं सुरक्षाकर्मी लेकर चलना एक स्टेटस सिम्बल बन गया है। छोटे-से-छोटे पदाधिकारी के साथ भी आप बन्दूकधारी देख सकते हैं। इस दृष्टि से सुरक्षा व्यवस्था एक उपहास बनकर रह गई है। एक हीरोईन को 21 कमांडोज़ की सुरक्षा दे दी जाती है और उसका मीडिया धारावाहिक प्रसारण करता है। कितना हास्यास्पद प्रतीत होता है यह सब।

इस रूप में सुरक्षा किसे दी जाये, किस स्तर की दी जाये और कब तक दी जाये, इस पर पुनर्विचार होना चाहिए।

 

फुलप्रूफ़ सुरक्षा व्यव्स्था के मेरी दृष्टि में  तीन ही उपाय हैं: पहला गुप्तचर संस्थाओं को अत्याधिक आधुनिक, मज़बूत एवं व्यवस्थित करना। देश में अनेक सुरक्षा ऐजंसियाँ हैं, सबके बीच तालमेल की आवश्यकता एवं निजी सुरक्षा ऐजंसियों को भी खड़ा करना।   दूसरा किसी भी अपराधी को तत्काल दण्डित करना, जो कि  हमारे देश में अत्यन्त धीमी गति से चलता है।

और अन्तिम व सबसे महत्वपूर्ण है सुरक्षा किसे प्रदान की जाये, किस स्तर की और कब तक।

  

लड़कियों के विवाह की आयु सम्बन्धी कानून

 

अभी-अभी लड़कियों के विवाह की आयु बढ़ाने का कानून पारित हुआ। क्या इससे लड़कियों के जीवन पर कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा? क्या हर परिवार सरकार की बात मानकर 21 वर्ष से पूर्व अपनी बेटी का विवाह नहीं करेंगा?

भारत में बाल विवाह अधिनियम 1929 में बना था, जो 1947 में संशोधित हुआ। 1949 में लड़कियों की विवाह की आयु 15 वर्ष और पुनः 1978 में 18 वर्ष नियत की गई। इस तरह के कानून केवल पुस्तकों में रह जाते हैं, पढ़ाए जाते हैं किन्तु गहराई से लागू नहीं होते। तो इस अधिनियम को लागू कैसे करवाया जाये, इस पर भी क्या विचार हो रहा है, शायद नहीं।

 देश में क्या कोई ऐसी संस्थाएँ हैं जो 137 करोड़ जनसंख्या वाले देश में होने वाले प्रत्येक विवाह की जांच कर सके? नहीं।  मात्र विवाह की आयु बढ़ाने से महिलाओं के जीवन में कोई अन्तर नहीं आने वाला,

क्या हम जानते हैं कि किसी भी विद्यालय में लड़के-लड़कियों का औसत प्रायः 55-45 होता है जो महाविद्यालय में आकर 40-60 अथवा 30-70 हो जाता है और उच्च शिक्षा में शायद 10-90। यह विकसित शहरों की स्थिति है जहाँ विवाह देर से ही होते हैं।

 इतने वर्ष बीत जाने पर अभी तक बाल-विवाह पर रोक नहीं लगाई जा सकी है तो मात्र कानूनन आयु बढ़ाने से कोई लाभ नहीं हो सकता। देश में आज भी कितने विवाह पंजीकृत होते हैं?

विवाह पंजीकरण अनिवार्य होने पर भी आज भी केवल शहरों में ही किसी सीमा तक विवाह पंजीकृत करवाये जाते हैं जहाँ आयु सीमा की जांच हो सकती है किन्तु विवाहोपरान्त ही पंजीकरण करवाया जाता है, पहले नहीं। अर्थात् यदि कहीं किसी ने कम आयु में विवाह किया तो वे पंजीकरण करवायेंगे ही नहीं। तो यह अधिनियम इतने बड़े देश में कार्यान्वित कैसे होगा? हमारे पास कोई उत्तर नहीं है। आंकड़ों के अनुसार देश में प्रतिदिन औसतन 30,000 विवाह होते हैं। बेघरबार, बंजारों आदि की गणना इनमें नहीं है। मात्र विवाह की आयु बढ़ाने से महिलाओं के जीवन में कोई अन्तर नहीं आ सकता। हाँ, शहरों में जहाँ शिक्षा के अवसर हैं, वहाँ लड़कियाँ पढ़ भी रही हैं, आत्मनिर्भर भी हो रही हैं और उनके विवाह की आयु भी अधिक है। कानून क्या कहता है, इस पर कोई विचार नहीं करता। किन्तु यह बात पूरे देश पर लागू नहीं होती।

और यदि लड़कियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त भी कर लेती हैं तो वे उसका कितना लाभ उठाती हैं यह भी हम जानते हैं।

इतने वर्ष बीत जाने पर अभी तक बाल.विवाह पर रोक नहीं लग पाई है तो मात्र कानूनन आयु बढ़ाने से कोई लाभ नहीं हो सकता। देश में आज भी कितने विवाह पंजीकृत होते हैं?

लड़कियों को कुपोषण से बचाने, पढ़ाई व स्वाबलम्बन के उचित अवसर देने हेतु मात्र विवाह कानून में संशोधन से कोई लाभ नहीं होने वालाए जब तक कि हमारी सोच नहीं बदलती, शिक्षा, स्वाबलम्बन के प्रति दिशाएं सकारात्मक नहीं होतीं। इस परिवर्तन के लिए आवश्यक हैं हम स्वयं आगे बढ़ें, अपने आस-पास के लोगों को जाग्रत करें और इन कानूनों के प्रचार-प्रसार में सहयोग दें।

यह हास्यास्पद है कि बाल विवाह निषेध संशोधन विधेयक संसदीय समिति के 31 सदस्यों में केवल एक महिला है।

 

इंसान के भीतर वृक्ष भाव

एक वृक्ष को बनने में कुछ वर्ष नहीं, दशाब्दियाँ लग जाती हैं। प्रत्येक मौसम झेलता है वह।

प्रकृति स्वयं ही उसे उसकी आवश्यकताएँ पूरी करने देती है यदि मानव उसमें व्यवधान न डाले। अपने मूल रूप में वृक्ष की कोमल-कांत छवि आकर्षित करती है। हरी-भरी लहलहाती डालियाँ मन आकर्षित करती है। रंग-बिरंगे फूल मन मोहते हैं। धरा से उपज कर धीरे-धीरे कोमल से कठोर होने लगता है। जैसे-जैसे उसकी कठोरता बढ़ती है उसकी उपयोगिता भी बढ़ने लगती है। छाया, आक्सीजन, फल-फूल, लकड़ी, पर्यावरण की रक्षा, सब प्राप्त होता है एक वृक्ष से। किन्तु वृक्ष जितना ही उपयोगी होता जाता है बाहर से उतना ही कठोर भी।

किन्तु क्या वह सच में ही कठोर होता है ? नहीं ! उसके भीतर एक तरलता रहती है जिसे वह अपनी कठोरता के माध्यम से हमें देता है। वही तरलता हमें उपयोगी वस्तुएँ प्रदान करती है। और ठोस पदार्थों के अतिरिक्त बहुत कुछ ऐसा देते हैं यह कठोर वृक्ष जो हमें न तो दिखाई देता है और न ही समझ है बस हमें वरदान मिलता है। यदि इस बात को हम भली-भांति समझ लें तो वृक्ष की भांति हमारा जीवन भी हो सकता है।

और  यही मानव जीवन  कहानी है।

हर मनुष्य के भीतर कटुता और कठोरता भी है और तरलता एवं कोमलता अर्थात भाव भी। यह हमारी समझ है कि हम किसे कितना समझ पाते हैं और कितनी प्राप्तियाँ हो पाती हैं।

मानव अपने जीवन में विविध मधुर-कटु अनुभवों से गुज़रता है। सामाजिक जीवन में उलझा कभी विनम्र तो कभी कटु हो जाता है उसका स्वभाव। जीवन के कटु-मधुर अनुभव मानव को बाहर से कठोर बना देते है। किन्तु उसके मन की तरलता कभी भी समाप्त नहीं होती, चाहे हम अनुभव कर पायें अथवा नहीं। जिस प्रकार वृक्ष की छाल उतारे बिना उसके भीतर की तरलता का अनुभव नहीं होता वैसे ही मानव के भीतर भी सभी भाव हैं, कोई भी केवल अच्छा या बुरा, कटु अथवा मधुर नहीं होता। बस परख की बात है।

 

गलती से मिस्टेक हो गई

जब फ़ेसबुक पर नया-नया खाता खोला तब बड़ा शौक था तरह तरह की फ़ोटो पोस्ट करने का। गूगल से उठाये गये सूक्ति वाक्य, कोई चित्र आदि। बड़ा आनन्द आता था। जब भी कोई मैत्री संदेश मिलता, मन यूं खिल उठता जैसे पता नहीं कौन-सी निधि मिल गई। निधि की वास्तविकता का तो तब पता लगता जब महोदय अथवा महोदया संदेश बाक्स में आकर अपने मन की बातें कहने लगते और हम ब्लाॅक की ओर भागते। किन्तु एक बार की लत कहां छूटती है। लग गई तो लग गई।

फिर मिले कुछ साहित्यिक मंच। और हम लगे कविताएं लिखने। यहां तक तो ठीक था किन्तु जब कविताएं लिख रहे हैं तो सराहनात्मक प्रतिक्रियाएं भी आने लगीं और हम भी औरों की रचनाओं पर प्रतिक्रियाएं लिखने लगे।

आप कहेंगे इसमें नया क्या, सबके साथ ही ऐसा ही तो हुआ होगा।

किन्तु हमारे साथ कुछ अलग और नया हुआ।

हमें अपने हिन्दी टंकण बड़ा गुरूर था। 1970 से रैमिंगटन टाईपराईटर पर सीखी हिन्दी टाईपिंग अब तक जीवन्त थी अंगुलियों में, और कम्प्यूटर के अंग्रेज़ी के की बोर्ड पर आराम से हिन्दी टाईपिंग कर लेते थे।

 किन्तु हुआ यूं कि हमारे हिन्दी फॅ़ांट ने हमें दे दिया धोखा। सीधे टंकण हो नहीं पा रहा था, इसलिए हम आ गये काॅपी-पेस्ट पर। अब काॅपी-पेस्ट तो आप सब जानते ही हैं। इधर से उठाया, उधर लगा दिया, उधर से उठाया इधर लगा दिया। वल्र्ड की फ़ाईल में लिखा, कन्वर्टर में पेस्ट किया, और फिर उठा कर फ़ेसबुक पर पेस्ट। किन्तु पेस्ट करते समय बहुत बार धोखा भी होता है और देखिए ऐसे ही धोखे जो मेरे साथ हुए।

बस, यहीं हम उलझे।

मैंने लिखा ‘‘मेरी रचना की आत्मीय सराहना के लिए आपका आभार। ’’

किन्तु काॅपी-पेस्ट में रह गया ‘‘मरी रचना के लिए’’

एक बार लिखा ‘‘रचना पर आपकी प्रतिक्रिया’’

बाद में देखा तो पेस्ट था ‘‘ चना पर आपकी प्रतिक्रिया’’

एक बार प्रतिक्रिया की ‘‘ आपकी रचना से मन आनन्दित हुआ’’

और काॅपी -पेस्ट हो गया ‘‘ पकी रचना से मन आनन्दित हुआ ’’

लिखा मैंने ‘‘ आभार , नमन’’, पेस्ट हुआ: ‘‘ भार, नमन’’

मैंने लिखा ‘‘ आपका हार्दिक आभार’’  पेस्ट हुआ ‘‘ पका हार्दिक आभार’’

स्‍वभाव  में तो  हडबडी है एक बार  लिखना था Hello Sir लिख  दिया  Hell Sir

यदि कभी आप सभी मित्रों को मेरी ऐसी प्रतिक्रियाएं मिलें तो कृपया पहला अक्षर जोड़ लीजिएगा।

 

 

अंगूठा-छाप

एक समय की बात है जब हम छोटे हुआ करते थे। उस समय अशिक्षित का यह कह कर उपहास किया जाता था कि रहा तू अंगूठा-छाप का अंगूठा-छाप ही। जो बच्चे अच्छे-से पढ़ते नहीं थे उन्हें भी यह कर डराया जाता था कि पढ़-लिख ले, नहीं तो फ़लां की तरह अंगूठा-छाप ही रह जायेगा, फिर ढोना खेतों में मिट्टी और करना खेतों में मज़दूरी। इन अंगूठा-छापों के लिए एक नीले रंग की रंगीन टीन की छोटी-सी डिब्बी-सी रखी रहती थी जिस पर अंगूठा लगवाने वाला अंगूठा ठोक कर उठवाता था और किसी भी कागज़ पर लगवा लेता था। अंगूठा-छाप होना बड़ा अपमानजनक माना जाता था।

 किन्तु यह उस समय की बात है जब लोग अंगूठे का महत्व नहीं समझते थे। जब से आधार कार्ड आया, हमें भी अंगूठे का महत्व समझ आया। आज आधार-कार्ड का अंगूठा ही आपकी पहचान है। अब याद कीजिए आपने आधार कार्ड बनाने वाले को कौन-सा अंगूठा दिखाया था।

आप जानना चाहेंगे मुझे आज अंगूठे की याद क्यों आई और कहां से चलकर आई। यह तो आप जानते ही हैं कि एक विद्यालय में कार्यरत हूं। विद्यालयों में विभिन्न परीक्षाओं के केन्द्र संचालित होते हैं। यहां पिछले सप्ताह हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग के अन्तर्गत ग्रुप डी के कर्मचारियों के चयन हेतु परीक्षा केन्द्र स्थापित था। अब आप सोच रहे होंगे यह ग्रुप डी क्या है, अंग्रेज़ी में एक महत्वपूर्ण पोस्ट लगती है किन्तु हिन्दी में इसे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी कहते हैं।

अन्य विवरणों के अतिरिक्त इस पद हेतु भरे जाने वाले फ़ार्म में आवेदक का अंगूठा चाहिए] यहां भी भेद-भाव की नीति रही। लड़कियों का दायां और लड़कों का बायां। किन्तु चाहिए वही जो आधार कार्ड पर है नहीं तो दो सौ रूपये गये पानी में । हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग बहुत खुले दिल का है। आयु सीमा कर दी 25&42 और $ 5 वर्ष। इससे भी अधिक कि इस बहाने आप हरियाणा घूम सकें अधिकांश आवेदकों का परीक्षा केन्द्र उनके अपने शहर का नहीं बनाया गया, इस प्रकार उन्होंने पर्यटन को भी बढ़ावा दिया।

अब आईये परीक्षा केन्द्र के द्वार पर चलते हैं। बड़े-बड़े बैग उठाये अम्यर्थी पंक्तियों में लगे हैं। किन्तु परीक्षा केन्द्र के भीतर घड़ी, मोबाईल तो क्या गले, कान, नाक में भी कुछ नहीं ले जा सकते। पैन भी हम ही देंगे, बस आप परीक्षा दीजिए। साढ़े दस बजे परीक्षा के लिए साढ़े आठ बजे आपको अपने सम्पूर्ण चैकअप के लिए उपस्थित होना होगा। सबसे पहले आपके अंगूठे-छाप वाले प्रवेश-पत्र का निरीक्षण और उसके बाद निकालिए अपना अंगूठा। भौंचक से हरियाणे के छोरे-छोरे छोरियां देख रहे उस रंगीन-सी रोशन हरी डब्बी को, जिसमें बाउ ने कहा अंगूठा दिखा। अब छोरे-छोरियां तो उस डब्बी को देखें जायें। छोरे ने दायां हाथ आगे बढ़ाया, बाउ बोलया, अरे दायां नहीं उल्टा अंगूठा जो आधार कार्ड पर लगाया था, छोरे ने बाउ की शकल देखी और अंगूठा उल्टा कर दिया, नाखून वाला हिस्सा नीचे और बाकी हाथ उपर। सिर पर हाथ मारयो, चलो जैसे तैसे वहां तीन-तीन बार अंगूठे लेकर पहुंच गये अपणी -अपणी सीटां ते। 

अब आगे की कहाणी सुनो।

पेपर ऐसे सील बन्द कि रिजर्व बैंक के नोट भी न रखे जाते होंगे। कई तहों के बीच से निकले परीक्षा पत्र अन्ततः अभ्यथिर्यों के सामने रख दिये गये। अब फिर निकालो अपना वही अंगूठा। एक-दो नहीं पांच बार और लगवाया अंगूठा, तब जाकर चैन पड़ा।

अब आई परीक्षा देने की बारी। किसी-किसी ने तो वो दानेदान पेपर देखया ही पहली बार। देखें जाये उसे उलट-पलट कर। कोई बात नहीं उनको भी रास्ता दिखा दियो।

आपको स्मरण होगा कि मैंने बताया था कि परीक्षा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के लिए है। चलिए आप सबके लिए प्रश्न-पत्र के कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों का  संक्षेप में अवलोकन करते हैं -

----बाईक पर थियेटर योजना किसने शुरू की।

-उच्च क्रियाशील धातु कौन-सी है- सीसा, लोहा, तांबा, जस्ता

-नाभिकीय खनिज और नाभिकीय उर्जा संयत्र

-लाला लाजपतराय, होम रूल आंदोलन हषवर्धन, दोड्डबेट्टा, बू अली शाह कलंदर आदि पर प्रश्न।

---चंडीगढ़ उच्च न्यायालय की इमारत का डिज़ाईन किसने बनाया।

---जूही चावला हरियाणा के किस ज़िले की है।

--इल्बर्ट बिल विवाद के साथ कौन- सा वायसराय जुड़ा था।

--बहू शब्‍द का बहुवचन रूप क्‍या है।

उच्च क्रियाशील धातु कौन-सी है- सीसा, लोहा, तांबा, जस्ता

-नाभिकीय खनिज और नाभिकीय उर्जा संयत्र

-लाला लाजपतराय, होम रूल आंदोलन, हषवर्धन, दोड्डबेट्टा, बू अली शाह कलंदर आदि पर प्रश्न।

-चंडीगढ़ उच्च न्यायालय की इमारत का डिज़ाईन किसने बनाया।

-जूही चावला हरियाणा के किस ज़िले की है।

इल्बर्ट बिल विवाद के साथ कौन- सा वायसराय जुड़ा था।

एक बहुत पुराना हास-परिहास है। एक डाकिये का साक्षात्कार चल रहा था। डाकिये से पूछा गया कि बताओ धरती से सूरज की दूरी कितनी है। प्रत्याशी बोला , महोदय यदि डाक इस रूट पर बांटनी है तो मुझे यह नौकरी नहीं चाहिए।

नौकरियों का झूठा झांसा देकर क्यों बरबाद किया जा रहा है इस पीढ़ी को।

 

न घटना न दुर्घटना

लगभग 15-16 वर्ष औटो में खूब धक्के खाये हैं। 1992 में किराया मात्र दो-तीन  रूपये होता था और आज इतने वर्षों बाद दस रूपये। मात्र तीन गुणा, ज‍बकि सरकारी बसों के किराया जो उस समय दस रूपये था आज एक सौ रूपये है फिर भी हम कहते हैं औटो वाले हमें लूटते हैं। आज  भी अधिकांश सवारियां मोल-भाव करती हैं। तरह-तरह के अनुभव रहे। सबसे सुविधाजनक यह रहता है कि औटो से कहीं भी उतर जाओ और कहीं भी हाथ हिलाकर रोक लो। कोई नियम नहीं, कोई रोक नहीं। अपनी सुविधानुसार हम औटो वाले से जहां-तहां रूकवा लेंगे, भरे औटो में भी जगह बनाकर सरक-सरक कर बैठ जायेंगे और फिर औटो वाले को भला-बुरा कहेंगे कि लालच करते हैं नियमों का पालन नहीं करते।

औटो वालों से अधिक मुझे औटो में यात्रा करने वाली सवारियों से शिकायत रहती थी। जहां उतरना है, वहां उतरकर पर्स निकालेंगे उसमें से दूसरा पर्स निकालेंगे, दो जेबों में हाथ डालकर पैसे ढूंढेगे और फिर पांच या दस रूपये देने के लिए सौ-पचास का नोट पकड़ा देंगे, फिर बहस करेंगे कि तुम पैसे खुले क्यों नहीं रखते, सवारियों को लूटना चाहते हो।

मुझे प्रतिदिन औटो लेना होता था, मैं घर से हाथ में खुले पैसे लेकर चलती थी और औटो के स्टाप पर रूकने से पहले ही पैसे दे देती थी। चाहे बस में यात्रा करूं या औटो में यह मेरा नियम था। इतने वर्षों तक औटो में एक ही राह पर जाने से कितने औटो वालों से तो मानों एक आत्मीय व्यवहार हो गया जोकि एक ही रूट पर चलते रहे मेरी तरह। हाल-चाल पूछना, परिवार की जानकारी, सुख-दुख की बातें, 15&20 मिनट की यात्रा में कई बातें हो जाती थीं।

बस एक ही बार कटु अनुभव हुआ। स्कूल में कोई कार्यक्रम होने के कारण अंधेरा घिरने के बाद मैंने चंडीगढ़ हाउसिंग बोर्ड से लगभग सात बजे एक औटो लिया जिसमें दो सवारियां पहले से बैठी थीं। मेरे हाथ में बड़ा-सा पर्स था। औटो वाला लड़का-सा था।  जैसे ही मैंने औटो के पायदान पर एक पैर रखा, औटो वाले ने औटो चला दिया और मुख्य सड़क से हटकर सुनसान अंधेरे रास्ते, जो श्मशान घाट से होकर जाता था वहां डाल दिया। मैं आधी लटकी रह गई। लगभग चिल्लाने लगी, भैया औटो रोको, औटो रोको, वह फिर भी भगाता रहा। पहले बैठी सवारियां भी कुछ नहीं बोल रही थीं, पल-भर में ही दिमाग घूम गया कि लूट का मामला तो नहीं। मैंने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरू किया और चालक की कालर खींचनी शुरू कर दी, कान-नाक जो हाथ आया, मारना शुरू कर दिया। और लगभग छलांग लगा दी। औटो रूका और मैंने लड़के को दो-चार थप्पड़ लगा दिये, रोने-सk लगा वह कि पीछे पुलिस वाले थे और उसने गलत जगह रोका था, उनके डर से भगा रहा था। मौका पाते ही औटो वाला भाग गया और मैं पीछे मुड़कर पुलिस वालों से बहस पड़ी कि वे गप्पें मार रहे थे और मेरी चीखें नहीं सुनीं। उन्होंने एक और औटो मेरे लिए कर दिया, मानों मुझसे पीछा छुड़ाया। 

घर आकर अपने पति को किस्सा सुनाया, आदतन चुपचाप सुना और बस। किन्तु अगले दिन भी स्कूल से निकलने का वही समय था।

स्कूल से बाहर निकली तो पतिदेव स्कूटर लेकर खड़े थे मुझे लेने के लिए। मैं चकित आज यह कैसी अनहोनी।
बोले,  मैंने सोचा कल की तरह किसी को मारपीट न आये, या थाने ही न चली जाये पुलिस वालों से लड़ने के लिए ,  मैं ही लेने आ जाता हूं। वाह ! आज तो अनहोनी हो गई। पहले  जब मैं कहती थी मुझे लेने आ जाना, तो कहते थे आ जाना औटो लेकर, पैट्रोल  भी तो उतने ही रूपये का लगेगा।

 

बालपन की स्मृतियाँ

५०-५५ वर्ष पुरानी स्‍म़ृतियां मानस-पटल पर उभर कर आ गईं।

उसे चोरी कहते ही नहीं जो पकड़ी जाये। हम तो इतने होशियार थे कि कभी चोरी पकड़ी ही नहीं गई।

सस्‍ते का युग था। बाज़ार से छोटा-मोटा सामान हम बहनें ही लाया करती थीं। एक से पांच रूपये तक में न जाने कितना सामान आ जाता था। दस-बीस पैसे तो अक्‍सर मैं छुपा ही लिया करती थी। अब छुपायें तो छुपायें कहां। प्रवेश द्वार के बाद बरामदा था और उसमें पुस्‍तकों की अलमारियां थीं, वहां मैंने एक पुस्‍तक उपर के खाने में निर्धारित कर ली थी जिसके उपर मैं वह पैसे रख देती थी, और स्‍कूल जाते समय चुपके निकाल लेती थी। आप सोचेंगे, उन पांच-दस पैसों का क्‍या करते होंगे, दस पैसे के बीस गोलगप्‍पे आते थे और पांच पैसे का चूरण, गोलियां, अथवा दो-तीन नाशपाती, खट्टा (गलगल) आदि।

स्‍कूल तो पैदल ही आते-जाते थे, एक घंटे का रास्‍ता था। अब घर से स्‍कूल तो कोई पहुंचने से रहा। वह युग पी.टी.एम. वाला युग भी नहीं था कि कोई सच-झूठ का पता लगा पाता।  स्‍कूल से फूलों के पौधे बहुत चुराया करती थी। घर के बाहर बड़ा सा मैदान था, उसमें क्‍यारियां बनाकर लगाते थे। मां पूछती थी कहां से लाये, कह देते थे स्‍कूल से माली  से ले लिए। और राह-भर में पेड़ों से तोड़-तोड़कर अलूचे, पलम, कैंथ खुरमानी तो बहुत खाये हैं, उस खट्टे-मीठे स्‍वाद का तो कहना ही क्‍या।

आज नहीं सोच पाते कि उस समय जो किया वह सही था अथवा गलत, किन्‍तु जो था यही सत्‍य था, आज प्रकट कर अच्‍छा लगा।

 

ग्रह तो ग्रह ही होते हैं

 

यह घटना वर्ष २००९ की है।

यह आलेख एक सत्‍य घटना पर आधारित है।  मेरे अतिरिक्‍त किसी भी व्‍यक्ति  से इसका कोई सम्‍बन्‍ध नहीं है।

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ठीक –ठाक थे मेरे पति। वायु सेना में। मंगल, शनि, संक्रांति, श्राद्ध, नवरात्रि सब एक समान। न मंदिर, न पूजा-पाठ, न कोई पंडित-पुजारियों के चक्‍कर,  मुझे और क्‍या चाहिए था। मैं तो वैसे ही जन्‍म से पूरी नास्तिक । मन निश्चिंत हुआ। 

किन्‍तु समय बदलते या कहूं ग्रहों के बिगड़ते देर नहीं लगती। मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ होने वाला था। पन्‍द्रह वर्ष के कार्यकाल के बाद वायुसेना से सेवानिवृत्‍त हुए और व्‍यवसाय में आ गये। अब जब वातावरण, पर्यावरण परिवर्तित हुआ तो कुछ और भी बदल जायेगा ऐसा तो मैंने सोचा ही नहीं था। किन्‍तु ऐसा ही हुआ।

हादसा

समय ठीक नहीं है, तब चलता है। किन्‍तु कोई कहे ग्रह ठीक नहीं हैं, तब डर लगता है। ग्रह कैसे भी हों मुझे पंडित-पुजारी, ज्‍योतिषियों, पूजा-पाठ, मन्दिर, दान वगैरह की याद नहीं सताती। एक तो वैसे ही समस्‍याएं होती हैं, दूसरी ओर पंडित-ज्‍योतिषियों का  परामर्श शुल्‍क, उनके अपने-अपने विभाग के भगवानों के लिए विशेष प्रावधान, उनके विभागीय उपायों की विशेष सामग्री, और न जाने क्‍या–क्‍या। इससे आगे इनकी सांठ-गांठ नग-मोती बेचने वालों के साथ भी रहती है। और जब इस तरह का सिलसिला एक बार चल निकलता है तो उसे रोकना बड़ा कठिन होता है। इसलिए जब कोई कहता है कि आपके ग्रह आजकल ठीक नहीं हैं, कुछ उपाय कीजिए, तो मैं मुंह ढककर सो जाती हूं। (इसे बस एक मुहावरा ही मानकर चलिए)

किन्‍तु तात्‍कालिक चिन्‍ता का विषय यह था कि मेरे पति अनायास ही धार्मिक प्रवृत्ति के होने लगे और मैं आतंकित। ग्रहों की चिन्‍ता में वे प्राय: पंडित-ज्‍योतिषियों के पास जाने लगे। अब जब घर में एक आतंकवादी हो तो प्रभावित और दण्डित तो सारा परिवार होगा ही। कुछ ऐसा ही हमारे परिवार में होने जा रहा था।

अब पति महोदय एक ज्‍योतिषि से ग्रहों की दुर्दशा के उपाय पूछकर आये। अधिकांश पूजा-पाठ, दान आदि तो उनके अपने कर्म-क्षेत्र में आये, कुछ पुत्र के हिस्‍से, किन्‍तु एक ऐसा कार्य था जिसके लिए पण्डि‍त महोदय का सख्‍त निर्देश था कि यह कार्य पत्‍नी द्वारा करने पर ही सुफल मिलेगा।

अ‍ब परिवार की भलाई के लिए कभी न कभी और कहीं न कहीं तो परिवार-पति के समक्ष आत्‍मसमर्पण करना ही पड़ता है, हमने भी कर दिया। उपाय था : कुल 108 दिन तक प्रतिदिन बिना नागा सुन्‍दर काण्‍ड का पाठ। पाठ में आदरणीय पण्डित जी ने यह सुविधा दी थी कि चाहे दोहे-चौपाईयां पढे़ं अथवा हिन्‍दी अनुवाद, फल समान मात्रा में मिलेगा । किन्‍तु व्‍यवधान नहीं आना चाहिए, अथवा पुन: एक से गिनती करनी होगी।

 अब मैं दुविधा-ग्रस्‍त थी। सुन्‍दरकाण्‍ड का ऐसा क्‍या प्रभाव है कि जो समस्‍याएं पिछले पच्‍चीस वर्षों में हमारे कठोर परिश्रम, कर्त्‍तव्‍य-निष्‍ठा, सत्‍य-कर्म और अपनी बुद्धि के अनुसार सब कुछ उचित करने पर भी दूर नहीं हुईं, इस सुन्‍दर-काण्‍ड का 108 बार जाप करने पर दूर हो जायेंगी। किन्‍तु मुझे तर्क का अधिकार नहीं था अब। बस करना था। इस काण्‍ड का अध्‍ययन एम. ए. में अंकों के लिए किया था अब ग्रहों को ठीक करने के लिए करना होगा। तब दोहे, चौपाईयां , भाषा-शैली, अलंकार, आदि की ओर ही ध्‍यान जाता था, इसका एक रूप यह भी है, ज्ञात ही नहीं था। कोई तर्क-बुद्धि नहीं थी कि कथानक में  क्‍यों, कैसे, किसलिए, इसके बारे में कभी सोचा ही नहीं।  बस अंक मिलें, इतनी-सी ही छोटी सोच थी। किन्‍तु अब जब बुद्धि आतंकवादी हो चुकी है तब कुछ भी पढ़ते समय साहित्यिक अथवा धार्मिक विचार उपजते ही नहीं, बम और बारूद ही दिखाई देने लगते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।

कोई बात नहीं, मैंने सोचा, 108 दिन तक सास-बहू के धारावाहिक नहीं देखेंगे, कर लेते हैं पाठ।

संक्षेप में मुझे जो कथा समझ आई वह इस प्रकार है:

 

जब पहली बार सुन्दरकांड का पाठ आरम्भ किया तो ज्ञात हुआ कि तुलसीदास  ने ‘काण्ड’ षब्द का प्रयोग बिल्कुल ठीक किया है। यह कांड हनुमान की लंका यात्रा की कथा पर आधारित है। हनुमान राम के दूत बनकर लंका की ओर सीता को ढूंढने के लिए निकले। मार्ग में अनेक बाधाएं आईं किन्तु क्योंकि वे राम के दूत थे इसलिए सब बाधाओं से पार पा लिया। कभी चार सौ योजन के बन गये तो कभी मच्छर  के समान। लंका में प्रवेष किया। विभीषण से मुलाकात हुई। सीता का एड्र्ेस लिया। सीता को राम के आई-डी प्रूफ़ के रूप में अंगूठी दी। बगीचा उजाड़ा। ब्रम्हास्त्र से बंधकर रावण के दरबार में पहुंचे। राम का गुणगान किया। रावण ने दंडस्वरूप उनकी पंूछ में घी, तेल और कपड़ा बंधवाकर आग लगवाई जिसमें लंका का संपूर्ण घी, तेल और कपड़ा समाप्त हो गया। ;पढ़ते-पढ़ते मेरा ध्यान भटक गया कि इसके बाद बेचारे लंकावासियों ने इन वस्तुओं को कैसे और कहां से प्राप्त किया होगा क्योंकि बीच में तो समुद्र था और आगे राम की सेना खड़ी थी, मैंने इस विषय को भविष्य में कभी षोध कार्य करने के लिए छोड़ दियाद्ध विभीषण का घर छोड़कर हनुमान ने सम्पूर्ण लंका जला डाली। फिर समुद्र में पूंछ बुझाई, सीता से उनके आई डी प्रूफ के रूप में उनकी चूड़ामणि ली और राम के पास लौट आये।

कथा के दूसरे हिस्से में लंका में प्रवेष की योजनाएं, राम की सेना के बल और संख्या का वर्णन आदि, रावण के छद्म दूतों को पकड़ना, उनके हाथ लक्ष्मण द्वारा पत्र भेजना, रावण का उसे पढ़ना, समुद्र पर बांध की तैयारी आदि कथाएं हैं।

इन दो कथाओं के बीच एक तीसरी व मेरी दृष्टि में मुख्य कथा है जिससे मेैं विचलित हूं और जिसका समाधान ढूंढ रही हूं ओैर वह हैै: लंका का राजा कौन? मेरे प्रष्न करते ही तीनों लोकों, चारों दिषाओं से एक ही उत्तर आया: ‘रावण’। मैंने पुनः पूछा: तो विभीषण कौन? तीनों लोकों और चारों दिषाओं से पुनः उत्तर आया: अरे, मूर्ख बालिके, इतना भी नहीं जानती ! विभीषण अर्थात ‘घर का भेदी लंका ढाए’। इतना सुनते ही मैं भगवान रामजी की आस्था के प्रति चिन्तित हो उठी।

विभीषण बड़े सदाचारी थे और सदैव राम का ही ध्यान करते थे। तुलसीदास ने लिखा है कि विभीषण ने रावण को समझाने का बड़ा प्रयास किया किन्तु उसके द्वारा अनादृत होने पर वे अपने साथियों के साथ लंका छोड़कर राम की षरण में आ गए। तुलसीदास ने लिखा है कि विभीषण हर्षित होकर मन में अनेक मनोरथ लेकर राम के पास चले। अब वे मनोरथ क्या थे तुलसी जानें या  विभीषण स्वयं।

तुलसी ने बार-बार यह भी लिखा है कि राम सब की दीनता से बहुत प्रसन्न होते थे। वैसे ही राम विभीषण के दीन वचनों और दण्डवत् से बहुत प्रसन्न हुए। सो राम ने विभीषण को लंकापति और लंकेष कहकर संबोधित किया। अब दोनों एक-दूसरे का स्तुति गान करके परस्पर न्योछावर होने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि राम ने समुद्र्र के जल द्वारा विभीषण का लंका के राजा के रूप में अभिषेक किया और उसे अखंड राज्य दिया। षिवजी ने जो सम्पत्ति रावण को दस सिरों की बलि देने पर दी थी, राम ने वह सब सम्पत्ति विभीषण को दी। मेरे मन में आषंका यह कि राम ने रावण के जीवित रहते हुए किस अधिकार से विभीषण को लंका का राजा घोषित किया और यह सम्पत्ति राम के पास कहां से और कैसे आई। क्योंकि राम तो अयोध्या से सर्वस्व त्याग कर आये थे, कंद-मूल खा रहे थे, कुषा पर सोते थे, वानरों के संग रहते थे, सीता को ढूंढने के लिए वन-वन की ठोकरें खा रहे थे, वानरों-भालुओं की सहायता ले रहे थे। फिर मान लीजिए उन्होंने दे भी दी तो विभीषण ने रखी कहां - इस बात की चर्चा इस ‘कांड’ में कहीं नहीं हैं। किन्तु मेरे मन में इससे भी बड़ी व्यथा उपजी है जो मुझे निरन्तर कचोट रही है, वह यह कि जिस विभीषण को भगवान श्रीरामजी ने लंका का राजा बनाया, उन्हें अखंड राज्य सौंपा, रामजी के इस प्रताप की चर्चा  कभी भी कहीं भी नहीं होती। उसके बाद लंका पर विजय प्राप्त करके राम ने पुनः विभीषण को लंका का राजा बनाया, उसके बाद विभीषण का क्या हुआ किसी को भी पता नहीं। जो भी कहता है वह यही कहता है कि लंका का राजा रावण। और विभीषण घर का भेदी लंका ढाए। इस कांड के अध्ययन के उपरान्त मैं सबसे कहती हूं कि लंका का राजा विभीषण तो सब मेरा उपहास करते हैं। कृपया मेरी सहायता कीजिए। किन्तु मुझे अपनी चिन्ता नहीं है। चिन्ता है तो रामजी की। उनकी ख्याति एवं प्रतिष्ठा की कि जिन्हें उन्होंने लंका का राजा बनाया उसका सब उपहास करते हैं और जिसका उन्होने वध किया उसे सब सोने की लंका का राजा कहते हैं । हे रामजी ! आपकी  प्रतिष्ठा प्रतिस्थापित करने के लिए मैं क्या करुं ? सोचती हूं एक सौ आठ बार सुन्दर कांड ही पढ़ डालूं। ष्षायद इससे ही आपका कुछ भला हो जाए !और इसी कांड में ‘ढोल, गंवार, षूद्र, पषु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ पंक्तियां भी हैं इन्हें भी मैं 108 बार पढ़ूंगी। अभी तो पाठ करते मात्र 13 ही दिन बीते हैं। श्रीरामजी ही जानें कि मेरा क्या होगा ?

 

हमारी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी

 

आज हम सब हिन्दी-हिन्दी की बात कर रहे हैं। किन्तु वास्तव में हिन्दी की स्थिति क्या है
आज हम कहने लगे हैं कि हिन्दी की स्थिति सुधरने लगी है। अधिकाधिक लोग आज हिन्दी में लिखने एवं बोलने लगे हैं। सोशल मीडिया पर हिन्दी छाई हुई है। संचार माध्यमों पर हिन्दी भाषा का साम्राज्य है। किन्तु क्या मात्र इतने से ही हिन्दी की स्थिति अच्छी मान लेनी चाहिए ?
मेरी दृष्टि में आज हिन्दी भाषा का स्तर दिन प्रति दिन गिरता जा रहा है। वास्तविकता यह कि हिन्दी की दुर्दशा के लिए हिन्दी भाषी ही उत्तरदायी हैं। हिन्दी भाषा और  हिन्दी साहित्य से सीधे जुड़े लोग ही हिन्दी की उपेक्षा कर रहे हैं। हम हर बात के लिए सरकार को दोष देते हैं। सरकारी स्तर पर हिन्दी विभाग, हिन्दी समितियां, संस्थान आदि बनाये गये हैं। यहां कार्यरत लोग हिन्दी के नाम से ही अपना जीवन यापन कर रहे हैं। किन्तु क्या कभी, हमने इन समितियों की कार्यविधि पर कोई आवाज उठाई है? ये समितियां हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए कोई कार्य नहीं करतीं। इनका हिन्दी के प्रति क्या दायित्व है? हिन्दी के विकास-प्रचार के नाम पर वर्ष भर में कुछ कवि सम्मेलन, एक लघु पत्रिका का प्रकाशन जिसमें अपनी अथवा अपनों की ही रचनाएं प्रकाशित होती हैं, ढेर सारा मानदेय, कुछ विमोचन समारोह, अनुदान, छात्रवृत्तियां, शोध वृत्तियां आदि। इस सब पर लाखों रूपये व्यय किये जाते हैं। इन संस्थानों में कार्यरत प्रत्येक कर्मचारी कुछ ही वर्षों में एक प्रतिष्ठित साहित्यकार बन जाता है और  यहां तक कि उनकी रचनाएं पाठ्य पुस्तकों में भी दिखाई देने लगती हैं।
हिन्दी भाषी एवं हिन्दी साहित्यकार हिन्दी प्रचार प्रसार से नहीं जुड़ते। हिन्दी के भ्रष्ट उच्चारण, प्रयोग का विरोध नहीं करते। शब्द, प्रयोग, व्याकरण की चिन्ता नहीं करते। 
किसी भी हिन्दी समाचार-पत्र को उठा लीजिए, पचास प्रतिशत से भी अधिक देवनागरी में अंग्रेज़ी शब्द लिखे मिलेंगे। ये समाचार पत्र वास्तव में हिन्दी के माध्यम से अंग्रेज़ी के ही प्रचार-प्रसार में लगे हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात:
शिक्षा से हिन्दी गायब हो रही है। हिन्दी का साहित्येतिहास कहीं खो रहा है। जो थोड़ी-बहुत हिन्दी पढ़ाई भी जा रही है वहां मानक हिन्दी का स्वरूप समाप्त होता जा रहा है। आज विद्यालयों में कौन सी हिन्दी पढ़ाई जा रही है इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। निजी प्रकाशक अपनी-अपनी हिन्दी परोस रहे हैं। भाषा, विषय-वस्तु , शब्द प्रयोग, व्याकरण की जांच करने वाला कोई नहीं है। आप प्राथमिक शिक्षा से लेकर दसवी शिक्षा तक की किसी भी पुस्तक का अध्ययन कर लें भाषिक, व्याकरणिक एवं शाब्दिक त्रुटियों की कोई सीमा नहीं। वर्णमाला का एक नया ही रूप यहां मिलता है। वर्णानुसार अनुस्वरों का प्रयोग अब कोई नहीं जानता। वर्णानुसार अनुस्वरों का प्रयोग नहीं किया जा रहा है और   ही उनके बारे में आज के विद्यार्थियों को कोई भी ज्ञान है। केवल बिन्दी का प्रयोग किया जाता है। लेखन और  उच्चारण का सम्बन्ध टूट गया है। संयुक्ताक्षर भी वर्णमाला में नहीं पढ़ाए जाते। इनके स्थान पर हलन्त का प्रयाेग ही किया जा रहा है, द्व, द्य, द्ध आदि संयुक्ताक्षर रूप अब गायब हो चुके हैं। द्ध के स्थान पर का ही प्रयोग होने लगा है। विद्यालयों में हिन्दी और  संस्कृत के शिक्षकों में अन्तर नहीं किया जाता। जो संस्कृत जानते हैं वे हिन्दी तो पढ़ा ही लेंगे। निजी विद्यालयों में हिन्दी बोलने पर दण्डित किया जाता है। दसवीं के बाद हिन्दी का विकल्प प्राय: समाप्त हो चुका है।
हिन्दी भाषा को ठेस पहुंचाने वाला एक अन्य महत्वपूर्ण कारण है हिन्दी के साथकठिनकी उपाधि। सरल, बोलचाल की हिन्दी के नाम पर हिन्दी के सार्थक शब्दों को हम भूलते जा रहे हैं। अर्थवान शाब्दिक सौन्दर्य, व्याकरणिक महत्व का ह्रास हो रहा है। प्रादेशिक भाषाओं को बढ़ावा देने के नाम पर भी हिन्दी का ह्रास हो रहा है। 
विश्व की किसी भी भाषा में सरलता के नाम पर अन्य भाषाओं की घुसपैठ नहीं होती। इसमें हमारे संचार माध्यमों का महत्वपूर्ण योगदान है। स्वाभाविक रूप से कोई भी भाषा स्वयंमेव ही नवीन शब्दों, प्रयोग को ग्रहण करती है। किन्तु आरोपण भाषा की शक्ति का ह्रास करता है। हम शुद्ध हिन्दी बोलते डरते हैं कि ये तो बहुत हिन्दी वाले हैं। एक पिछड़ेपन का एहसास कराता है  
आज तक कम्प्यूटर पर कार्य करने के लिए हिन्दी को एक मानक स्वरूप प्राप्त नहीं हुआ है। फेसबुक पर लिखने के लिए अलग तरह से टंकण करना पड़ता है और  जब हम सीधे कम्प्यूटर में वर्ड फाईल में फांट में लिखते हैं तो मात्राओं आदि को अलग प्रकार से लिखना पड़ता है।

 

शुभकामना संदेश

आज मन उदास है। उदास नहीं, कहते हैं न कि आज मन बहुत खराब है।

क्या किसी को शुभकामना संदेश भेजने से मन खराब हो सकता है ? हाँ , हो सकता है। मेरा हुआ। एक नहीं दो-दो बार।

और शुभकामना संदेश भी साधारण नहीं, जन्मदिन की शुभकामनाएँ। जन्मदिवस का एक सुन्दर-सा संदेश भेजने पर मेरा मन दो बार बहुत खराब हुआ और मुझे शर्मिन्दगी महसूस हुई। है न एक बहुत ही अजीब बात। किन्तु मेरे साथ ऐसा ही हुआ।

मेरे फ़ेसबुक की सूची के अनुसार मेरे 2600 से अधिक मित्र हैं और 644 विचाराधीन सूची में हैं। अब फ़ेसबुक कहती है कि मेरे इतने मित्र हैं तो अपना अहोभाग्य। किन्तु मेरे परिचय में और निकट कितने हैं यह तो मैं भी नहीं जानती। लगभग 100 तो मेरे पुराने सहकर्मी, कुछ कवि-लेखक और अन्य, जिन्होंने मुझे मित्र के रूप में चुना और कुछ को मैंने उन्हें मित्र के रूप में चुना।

किन्तु आज सोचने के लिए विवश हुई कि वास्वत में मित्र कितने हैं। व्यक्तिगत सम्पर्क किसी से नहीं, वार्तालाप, बातचीत शायद किसी से नहीं। लेखक-कवियों से केवल प्रतिक्रियाओं का आदान-प्रदान। वैसे भी मुझे मित्र बनाना और निभाना आता ही नहीं। जीवन में मित्रों का अभाव मैंने सदैव अनुभव किया है, एक टीस रही है मेरे भीतर।

विषयान्तर हो गया।

मैंने अपने इन परिचित-अपरिचित  फ़ेसबुक मित्रों के प्रति एक नियम बनाया है, वही नियम आज मेरा मन खराब कर गया। फ़ेसबुक प्रतिदिन एक सूची देता है मित्रों के शुभ जन्मदिन की। मैंने नियम बनाया है कि इन अपरिचित मित्रों को अवश्य ही जन्मदिवस की शुभकामना संदेश प्रेषित करूँ।पूरे वर्ष में एक बार ही सही, दो अच्छे वाक्यों का आदान-प्रदान। मैं यह मानकर चलती रही कि मेरा शुभकामना संदेश मेरे फ़ेसबुक मित्र को अच्छा ही लगेगा और उनकी ओर से मिलने वाले धन्यवाद से मेरा मन भी आह्लादित होता है।

किन्तु पिछले सप्ताह जब मैंने ऐसे ही एक मित्र को जन्मदिन की शुभकामना संदेश भेजा तब उनके पुत्र का उत्तर में विनम्र संदेश मिला कि इनका निधन हुए एक वर्ष बीत चुका है। मुझे बेहद बुरा लगा, न तो अफ़सोस करने लायक न उत्तर देने लायक रही मैं। फिर भी मैंने क्षमा माँगी और खेद जताया।

दो दिन पहले फिर ऐसा ही हुआ। किन्तु इस बार संदेश में थोड़ी-सी कटुता थी कि इनका तो निधन हो चुका है और आप जन्मदिन का संदेश भेज रही हैं। मैंने यहाँ भी क्षमा माँगी और खेद व्यक्त किया।

किन्तु मैंने पाया कि दोनों के ही फ़ेसबुक खाते चल रहे हैं।

अब जिनका निधन हो चुका है उनके खाते परिवार ने बन्द क्यों नहीं किये?

अब असमंजस में हूँ कि जन्मदिन के संदेश भेजना जारी रखूँ अथवा बन्द कर देने चाहिए, आप क्या परामर्श देते हैं,?

 

आज कुछ नया लिखा जाये

मन किया आज कुछ नया लिखा जाये। किन्तु रोज़-रोज़ नया कहाँ से लायें? तो क्या करें ? मंच-मंच घूमें, रचनाएँ पढ़ें और कुछ नया निकाल लायें और तब लिखें। और नया कैसे लिखें कि नकल का आरोप भी न लगे, ऐसा लिखें आगे बताते हैं आपको।

पहले कुछ और बात।

पता नहीं क्यों पिछले कुछ दिनों से फ़ेसबुकिया साहित्य के क्षेत्र में मुझे अपना-आप महत्वपूर्ण लगने लगा है। आप पूछेंगे क्यों? इधर कुछ दिनों से अत्याधिक निमन्त्रण मिलने लगे हैं समूहों से जुड़ने के लिए। जब समूह की जांच करती तो बड़े-बड़े कवि-साहित्यकार वहाँ दिखते, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर से नीचे की तो बात ही नहीं रही अब। ज़ूम पर कवि-सम्मेलन, विदेशी कवि-कवियत्रियाँ, मुँह में पानी आ जाता था लालच से। आह! इतने बड़े प्रतिष्ठित कवि अपने मंच से मुझे जोड़ रहे हैं, अवसर के नये द्वार खुल रहे हैं और  कुछ तो मेरे लेखन में भी बात होगी, तभी तो उन्होंने मुझे चुना।

हमने भी झट से ऐसे कितने ही मंचों को अपनी स्वीकृति दे दी। और उसके बाद? मैसेंजर में झड़ी लग गई संदेशों की। बड़े-बड़े पोस्टर, महान-महान कवि-कवियत्रियाँ, वीडियो, फ़ोटो और न जाने कितनी तरह के संदेश। यहाँ तक कि व्हाट्सएप में भी समूह बनाकर जोड़ लिया जाता है और दस-बीस नहीं सैंकड़ों संदेश यानी कविताएं, विचार पढ़ने के लिए परोस दिये जाते हैं कि मोबाईल टंगने लगता है। किन्तु अपनी इतनी पाचन-शक्ति कहाँ! और हम! मुँह बाये खड़े। कौन पूछता है हमें। मंच पर रचना पोस्ट करो तो महीना-महीना अप्रूव नहीं होती। हमारी वाॅल पर तो क्या आना, रचनाओं पर कभी एक लाईक तक के लिए तरसते हैं नैन। और दूसरी ओर दस-बीस टैगिंग की मार झेलती हमारी वाॅल।  मैं तो चकित हूँ कि लोग इतनी टैगिंग कर कैसे लेते हैं। मैंने एक बार अपनी वैबसाईट के लिए टैंगिंग का प्रयास किया था मात्र 49 की अनुमति दी फ़ेसबुक ने और मुझे तीन घंटे लग गये। किन्तु इन कवियों को तो महारत है दिन की दस-दस रचनाएँ और 99 टैगिंग और मैसेंजर, व्हाट्सएप में भी संदेश। सत्य में ही ये महानुभाव चरण-रज के योग्य हैं किन्तु अपनी तो वह भी औकात नहीं।

एक बार तो मन किया कि इस आलेख में उन सबको टैग करूं जिनके कारण मेरा मोबाईल टंगने लगता है, फिर सोचा छोड़ो रे, जी लें अपनी ज़िन्दगी।

अब आईये नयी रचनाओं के सृजन पर। रचनाओं की चोरी की बात तो बहुत पुरानी हो गई, आपको एक नया ढंग बताते हैं। इस हेतु एक नवीन अनुसंधान आपके समक्ष रखती हूँ, बस आपमें थोड़ी योग्यता होनी चाहिए।

किसी की रचना से विषय उठाईये, कविता को गज़ल बनाईये, गज़ल को गीत, गीत को मुक्तछन्द, मुक्तछन्द को छन्दबद्ध, आलेख को कथा, कथा को लघु कथा और सृजन के जितने प्रकार हैं, किसी में भी अपनी ‘‘नवीन’’ रचनाओं का सृजन कीजिए। मज़ाल है कि कोई आप पर चोरी का आरोप लगा सके। पात्रों के नाम, स्थान तो आप बदल ही लेंगे बस बन गई नई रचना। एक और तरीका है पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग का। जैसे आकाश को व्योम, धरा को भूमि, पवन को हवा, सूरज को रवि, आप समझ गये न मेरा मंतव्य।

क्यों कैसा लगा आपको मेरा परामर्श?

मुझे धन्यवाद अवश्य दें।

 

जैसे ऐसे और कैसे रिश्ते

हमारे पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों में एक शब्द बहुत महत्व रखता है –“जैसा”,जैसे”,“समान” क्या आपका किन्हीं सम्बन्धों के बीच इन शब्दों का सामना हुआ है।

सीधे-सीधे अपने मन की बात कहती हूं।

किसी ने मुझसे पूछा “क्या यह आपकी बेटी है?”

मैंने कहा “जी नहीं, मेरी बहू है।“

उन्होंने मुझे कुछ तिरस्कार, कुछ उपेक्षा भरी दृष्टि से देखा और बोले, बहू भी तो बेटी-समान ही होती है। क्या आप अपनी बहू को “बेटी-जैसी” नहीं मानते

मैंने कहा ,नहीं, मैं अपनी बहू को, बेटी “जैसी” नहीं मानती। बहू ही मानती हूं

उनके लिए एवं समाज के लिए मेरा यह उत्तर पर्याप्त नकारात्मक है।

मेरे इस कथन पर मुझे बहुत उपदेश मिले, तिरस्कार-पूर्ण भाव मिले, और मुझे समझाया गया कि सास-बहू में आज इसीलिए इतनी खटपट होती है क्योंकि सासें बहुंओं को अपनाती ही नहीं।

मैंने अपना स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया कि मैंने अपनाया है अपनी बहू को बहू के रूप में, बहू के अधिकार के रूप में , उसकी जो ‘‘पोस्ट’’ है उसी पर। इसी सम्बन्ध को बनाये रखने में हमारी गरिमा है, किन्तु प्रायः मेरा उत्तर किसी की समझ में नहीं आता। घर में कहते हैं तू क्यों सबसे पंगा लेती है, कहने दे जो कोई कहता है। मेरा प्रश्न है कि हर क्षेत्र के सम्बन्धों की अपनी गरिमा, रूप होता है, उस पर अन्य सम्बन्ध क्यों थोपे जाते हैं ? हम पारिवारिक–सामाजिक सम्बन्धों में यह “जैसा”, “समान” जैसे शब्दों का प्रयोग क्यों करने लगे हैं। जो सम्बन्ध हैं, उनको उसी रूप में सम्मान क्यों नहीं दे पाते।

मैं कार्यरत हूं। अनेक बार कोई सहकर्मी कह देता है “आप तो मेरी मां जैसी हैं।“ कोई कहता है आप तो हमारी बड़ी बहन जैसी हैं, किसी का वाक्य होता है : “मैं तो आपके बेटे जैसा हूं।“

मैं कहती हूं “नहीं, आप केवल मेरे सहकर्मी हैं।“

मेरा यह उत्तर नकारात्मक ही नहीं हास्यास्पद भी होता है।

हम अपने बच्चों को कहते हैं: भाभी को मां समान समझना, देवर को बेटे समान मानना। सास-ससुर की माता-पिता समान सेवा करना। एक महिला अपने ढाई वर्ष के बेटे को पड़ोस की दो वर्ष की बच्ची के लिए कह रही है, बेटा यह तेरी दीदी है। लेकिन साली को बहन समान समझना यह मैंने कभी नहीं सुना।

और सबसे बड़ी बात: बेटी को बेटा जैसा मानें। जहां तक मेरी समझ कहती है इसका अभिप्राय यह कि बेटे और बेटी के अधिकार समान रहें। तो मैंने कभी किसी को यह कहते नहीं सुना कि बेटे को बेटी जैसा मानें, जब समानता की बात करनी है तो दोनों ओर से की जा सकती है, अर्थात हम कहीं तो भेद-भाव लेकर चल ही रहे हैं।

हम वे ही रिश्ते क्यों न मानें, जो वास्तव में हैं, उन्हीं सम्बन्धों में पूर्ण सम्मान दें, अधिकार एवं अपनत्व दें, तो क्या सम्बन्धों में ज़्यादा गहराई, ज़्यादा अपनत्व, ज़्यादा विश्वास का भाव नहीं उपजेगा।

क्या सामाजिक –पारिवारिक सम्बन्धों को लेकर हमारे मन में कोई डर, कोई खौफ़ है जो हम हर सम्बन्ध पर एक लबादा ओढ़ाने में लगे हैं, अथवा परत-दर-परत चढ़ाने में लगे हैं।

लोग कहते हैं कि हम सम्बन्धों का नाम देकर सम्मान-भाव प्रदर्शित करते हैं। मेरा प्रश्र होता है कि जो सम्बन्ध वास्तव में है, उस पर कोई और सम्बन्ध लादकर क्या हम वास्तविक सम्बन्धों का अपमान नहीं कर रहे।

 

अपना तो वोट देना ही बेकार चला गया

अपना तो वोट देना ही बेकार चला गया।

हमारे साथ तो पता नहीं क्यों ऐसा अन्याय होता है अक्सर।

अब देखिए, मैं प्रातः काल सात बजे से टी.वी. देख रही थी। हर शहर में , हर मतदान केन्द्र पर टी. वी. के संवाददाता खड़े थे। वोट देने वालों का साक्षात्कार ले रहे थे।

 उनसे पूछ रहे थे

‘‘आपको कैसा लग रहा है वोट देकर’

‘‘आपने किस मुद्दे को लेकर वोट दिया है’’

एक बेचारे व्हील चेयर पर आये थे। उन्हें न तो सुनाई दे रहा था न ही दिखाई। किन्तु हमारी तो ड्यूटी है उनसे पूछना। सो उनके मुंह में माईक घुसा कर हम पूछ रहे थे

‘‘ आप देखिए व्हील चेयर पर वोट देने आये हैं कैसा लग रहा है आपको’’

वे हकबकाये से कभी माईक को देखें और कभी अपने आस-पास खड़े लोगों को।

एक ‘‘बड़ा व्यक्ति’’ अपने घर से पैदल ही वोट देने आ गया। जब तक हमें अच्छे से याद नहीं हो गया कि फलां व्यक्ति अपने घर से पैदल ही वोट देने आया है, संवाददाता हमें याद कराते रहे।

वे ढूंढ-ढूंढकर वृद्ध, बैसाखी वाले लोगों को, व्हील चेयर वाले मतदाताओं को ढूंढ रहे थे , सब कवर हो गये टी. वी. पर।

अन्त में वे कुछ आम लोगों के बीच भी अपना माईक लेकर आ गये।

‘‘आप सुबह-सुबह सात बजे ही यहां आ गये हैं? ’’

जी हां

तो वोट देने आये हैं

जी हां

अच्छा तो क्या सोचकर वोट देने आये हैं

जी, वोट देनी है यही सोच कर आये हैं

पर कुछ तो मुद्दे होंगे जिनको सोचकर आप वोट दे रहे हैं

जी हां, बेरोजगारी मंहगाई वगैरह , वे आखिर में हारकर बोल दिये।

बाद में ज्ञात हुआ कि वे एक बहुत बड़ी पोस्ट पर सरकारी नौकरी में हैं किन्तु उनके लिए बेरोज़गारी कैसे मुद्दा है समझ नहीं आया।

 

हमारा अन्तर्मन भी प्रसन्न हुआ। जल्दी-जल्दी तैयार हुई अच्छे से। मतदान केन्द्र जा रही हूं मत देने, वहां टी. वी. वाले खड़े होंगे, हमारा साक्षात्कार लेंगे। मुद्दे तैयार किये।

पैदल ही गये। पर वहां तो कोई न था।

मत तो देना ही था, यद्यपि मतदान में ही मत शब्द है फिर भी दे दिया। अपना तो आज वोट देना ही बेकार चला गया। हमारे साथ तो पता नहीं ऐसा अन्याय क्यों होता है अक्सर।

 

एक और कथा बताना और भी ज्यादा जरूरी है।

हम अपने परिचितों में प्रायः बात करते हैं इस बार वोट किसे। हमारे एक मित्र बोले मैं तो मोदी को ही अपना वोट दूंगा। क्यों आप राहुल को दे रही हैं क्या या फिर केजरीवाल को।

मैंने कहा , ये दोनों ही हमारे क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। किन्तु मोदी जी तो प्रधानमंत्री हैं वे विधान सभा के लिए आपके क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं क्या?

मेरी ऐसी बातों पर सब बहुत नाराज़ हो जाते हैं। मित्र बोले, फालतू में बात खींचती हो, मतलब भाजपा को वोट देगें।

मैं सिरे की ढीठ। फिर पूछ लिया चलिए अच्छी बात है भाजपा को देंगे, प्रत्याशी तो होगा कोई जिसे वोट देंगें।

अब वे उखड़ गये, इससे क्या ।

क्यों नहीं? काम तो प्रत्याशी ही करेगा, न तो भाजपा करेगी, न ही मोदी जी।

जब कुछ पता नहीं तो बोलती क्यों हो, कहकर वे चिढ़कर उठकर चले गये।

सरकार और मीडिया कहते हैं जनता जागृत हो रही है। जी हां, जनता जागृत हो रही है, जागरण करती है,  दस रूपये चढ़ाती है, प्रसाद लेती है, उन दस रूपयों में पूरा परिवार खाना खाता है और घर जाकर सो जाता है। फिर सुबह उठकर कहता है , मुझे नहीं पता क्या कहता है, और यदि कुछ कहता भी है तो मुझे क्या लेना, कहता रहे, जिसे जो कहना है।

जो मुद्दे कल थे , वे ही आज हैं और कल भी वे ही रहेंगे, कुछ हेर-फ़ेर के साथ क्योंकि हम जागरण करते हैं जागृत नहीं हो रहे।

 

 

 

कड़वा सच पिलवाऊँगा

न मैंने पी है प्यारी

न मैंने ली है।

नई यूनिफ़ार्म

बनवाई है

चुनाव सभा के लिए आई है।

जनसभा से आया हूँ,

कुछ नये नारे

लेकर आया हूँ।

चाय नहीं पीनी है मुझको

जाकर झाड़ू ला।

झाड़ू दूँगा,

हाथ भी दिखलाऊँगा,

फूलों-सा खिल जाऊँगा,

साईकिल भी चलाऊँगा,

हाथी पर तुझको

बिठलाऊँगा,

फिर ढोलक बजवाऊँगा।

वहाँ तीर-कमान भी चलते हैं

मंजी पर बिठलाऊँगा।

आरी भी देखी मैंने

हल-बैल भी घूम रहे,

तुझको

क्या-क्या बतलाउँ मैं।

सूरज-चंदा भी चमके हैं

लालटेन-बल्ब

सब वहाँ लटके हैं।

चल ज़रा मेरे साथ

वहाँ सोने-चाँदी भी चमके है,

टाट-पैबन्द भी लटके हैं,

चल तुझको

असली दुनियाँ दिखलाऊँगा,

चाय-पानी भूलकर

कड़वा सच पिलवाऊँगा।

 

कुछ और नाम न रख लें

समाचार पत्र

कभी मोहल्ले की

रौनक हुआ करते थे।

एक आप लेते थे

एक पड़ोसियों से

मांगकर पढ़ा करते थे।

पूरे घर की

माँग हुआ करते थे।

दिनों-दिन

बातचीत का

आधार हुआ करते थे,

चैपाल और काॅफ़ी हाउस में

काफ़ी से ज़्यादा गर्म

चर्चा का आधार हुआ करते थे।

विश्वास का

नाम हुआ करते थे।

ज्ञान-विज्ञान की

खान हुआ करते थे।

नित नये काॅलम

पूरे परिवार के

मनोरंजन का

आधार हुआ करते थे।

 -

मानों

युग बदल गया।

अब

समाचार पत्रों में

सब मिलता है

बस

समाचार नहीं मिलते।

कोई मुद्दे,

कोई भाव नहीं मिलते।

पृष्ठ घटते गये

विज्ञापन बढ़ते गये।

चार पन्नों को

उलट-पुलटकर

पलभर में रख देते हैं।

चित्र बड़े हो रहे हैं

पर कुछ बोलते नहीें।

बस

डराते हैं

धमकाते हैं

और चले जाते हैं।

कहानियाँ रह गईं

सत्य कहीं बिखर गया।

अन्त में लिखा रहता है

अनेक जगह

इन समाचारों/विचारों का

हमारा कोई दायित्व नहीं।

तो फिर

इनका

कुछ और नाम न रख लें।

 

ज़िन्दगी ज़िन्दगी हो उठी

प्रकृति में

बिखरे सौन्दर्य को

अपनी आँखों में

समेटकर

मैंने आँखें बन्द कर लीं।

हवाओं की

रमणीयता को

चेहरे से छूकर

बस गहरी साँस भर ली।

आकर्षक बसन्त के

सुहाने मौसम की

बासन्ती चादर

मन पर ओढ़ ली।

सुरम्य घाटियों सी गहराई

मन के भावों से जोड़ ली।

और यूँ ज़िन्दगी

सच में ज़िन्दगी हो उठी।

 

 

खून का असली रंग

हमारे यहाँ

रगों में बहते खून की

बहुत बात होती है।

किसी का खून खानदानी,

किसी का उजला,

किसी का काला

किसी का अपना

और किसी का पराया।

तब आसानी से

कह देते हैं

अपना तो खून ही

ख़राब निकला।

और

ऐसा नीच खून

तो हमारा खून

हो ही नहीं सकता।

-

लेकिन

काश! हम समझ पाते

कि रगों में बहते खून का

कोई रंग नहीं होता

खून का रंग तब होता है

जब वह किसी के काम आये।

फिर अपना हो या पराया,

खानदानी हो या काला,

खून का असली रंग

तभी पहचान में आता है।

लाल, नीला या काला

होने से कभी

कोई फ़र्क नहीं पड़ता।