इतिहास हमारा

इतिहास हमारा स्वर्णिम था, या था समस्याओं का काल

किसने देखा, किसने जाना, बस पढ़ा-सुना कुछ हाल

गल्प कथाओं से भरा, सत्य है या कल्पना कौन कहे

यूँ ही लड़ते-फिरते हैं, निकाल रहे बस बाल की खाल

झूठे रिश्तों की आड़ में
नदियाँ सूख जाती हैं सागर उफ़नते रहते हैं

मन कुंठित होता है, हम फिर भी हंसते रहते हैं

सूखे पत्ते उड़ते हैं, गिरते हैं, ठौर नहीं मिलता

झूठे रिश्तों की आड़ में हम मन बहलाये रहते हैं।

ठहरा-सा लगता है  जीवन

नदिया की धाराओं में टकराव नहीं है

हवाओं के रुख वह में झनकार नहीं है

ठहरा-ठहरा-सा लगता है अब जीवन

जब मन में ही अब कोई भाव नहीं हैं

आदान-प्रदान का युग है

जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक को

जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो

पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते

आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो

हंसते-हंसते जी लेना

हंसते-हंसते जी लेना

खुशियों के घूंट पी लेना

क्या होता है जग में

हमको क्या लेना-देना

 

 

 

 

जीवन संवर जायेगा

जब हृदय की वादियों में

ग्रीष्म ऋतु हो

या हो पतझड़,

या उलझे बैठे हों

सूखे, सूनेपन की झाड़ियों में,

तब

प्रकृति के

अपरिमित सौन्दर्य से

आंखें दो-चार करना,

फिर देखना

बसन्त की मादक हवाएँ

सावन की झड़ी

भावों की लड़ी

मन भीग-भीग जायेगा

अनायास

बेमौसम फूल खिलेंगे

बहारें छायेंगी

जीवन संवर जायेगा।

 

उल्लू बोला मिठू से

उल्लू बोला मिठू से

चल आज नाम बदल लें

तू उल्लू बन जा

और मैं बनता हूँ तोता,

फिर देखें जग में

क्या-क्या होता।

जो दिन में होता

गोरा-गोरा,

रात में होता काला।

मैं रातों में जागूँ

दिन में सोता

मैं निद्र्वंद्व जीव

न मुझको देखे कोई

न पकड़ सके कोई।

-

आजा नाम बदल लें।

-

फिर तुझको भी

न कोई पिंजरे में डालेगा,

और आप झूठ बोल-बोलकर

तुझको न बोलेगा कोई

हरि का नाम बोल।

-

चल आज नाम बदल लें

चल आज धाम बदल लें

कभी तू रातों को सोना

कभी मैं दिन में जागूँ

फिर छानेंगे दुनिया का

सच-झूठ का कोना-कोना।

 

पर उपदेश कुशल बहुतेरे
यह मुहावरा सुना तो बहुत बार था किन्तु कभी इसकी गुणवत्ता की ओर ध्यान ही नहीं गया। धन्यवाद इस मंच का जिसने इस मुहावरे की महत्ता एवं विशेषताओं पर चिन्तन करने का अवसर प्रदान किया।

पर उपदेश कुशल बहुतेरे!!

वाह!!

इसका अर्थ यह है कि जो कुशल होगा वही तो पर को अर्थात अन्य को बहुत सारे उपदेश दे सकेगा। जो कुशल ही नहीं है वह किसी को क्या उपदेश देगा और क्या मार्ग-दर्शन करेगा।

हम जीवन में कोई भी कार्य करते हैं हमारी जवाबदेही तय होती है। घर-परिवार में, समाज में, नौकरी में, कार्यालय में, व्यवसाय में, सड़क पर चलते हुए, हर जगह, हर जगह। हानि-लाभ, अच्छा-बुरा, खरा-खोटा, उत्तर-प्रति-उत्तर, लिखित, मौखिक। हम बच नहीं पाते।

किन्तु उपदेश देने में किसी उत्तरदायित्व का वहन नहीं होता। आप उपदेश दीजिए, चाय-नाश्ता  लीजिए और निकल लीजिए। किन्तु ध्यान रहे कि न तो अपने घर बुलाकर उपदेश दीजिए और न किसी उपवन-बात में। जिसे उपदेश देना हो सीधे उसके घर जाकर ही स्थापित रहिए। उपदेशात्मक संस्था खोल लीजिए, दान-दक्षिणा लीजिए, दिल खोलकर परामर्श दीजिए।

किन्तु बस पहले से ही बचने का उपाय बांधकर चलिए।

कुछ ऐसे ‘‘ देखिए मैं तो अपने मन से एक अच्छा परामर्श आपको दे रहा हूँ /दे रही हूँ, यह तो आप पर और परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि फ़लित हो। और आपकी मनोभावनाओं का भी इस पर प्रभाव रहेगा। बस कोई कमी नहीं रहनी चाहिए हमारे बताये उपाय में। ’’

और जब आपका बताया परामर्श फ़लित न हो तो आपके पास पहले से ही तैयार  उत्तर होगा कि ‘‘देखिए मैंने तो पहले ही कहा था कि मन से कीजिएगा, अथवा आपने कोई न कोई विधि तो छोड़ दी होगी। ’’

और साथ ही कुछ अगली सलाहें परोस दीजिए।। और आप जब अपना समय दे रहे हैं, दिमाग़ दे रहे हैं तो कुछ न कुछ मूल्य तो लेंगे ही, चाहे अच्छा चाय-पानी ही।

किन्तु यह उपदेश मैं आप सब मित्रों को दे रही हूँ, मेरे अपने लिए नहीं है।

  

 

अपनेपन की दुविधा

हमारे भारतीय परिवारों में दो ऐसे समय होते हैं जब निकट-दूर के सब अपरिचित-परिचित अगली-पिछली भूलकर एक साथ होते हैं अथवा कहें कि दिखाई देते हैं। एक
विवाह-समारोहों में और दूसरा किसी के निधन पर। विवाह-समारोह तो केवल दो-तीन दिन के ही होते हैं, और इस अवसर वे ही लोग होते हैं, जिन्हें सही से निमन्त्रित किया गया हो।
किन्तु किसी के निधन पर तो 16-17 दिन ऐसे लोगों के बीच बीतते हैं, जिनमें से कुछ बहुत अपने होते हैं। कुछ कभी-कभार चिट्ठी-पत्री जैसे, जिनका नाम देखकर हम बन्द लिफ़ाफा रख देते हैं, बाद में पढ़ लेंगे। कुछ समाचार पत्र की सूचनाओं जैसे, कुछ दीपावली, जन्मदिवस, नये वर्ष पर शुभकामनाओं जैसे, और कुछ ऐसे जिन्हें हम बरसों-बरस नहीं मिले होते, और कुछ ऐसे जो न जाने कहां-कहां से अलमारी की पुरानी पुस्तकों से निकलकर सामने आ खड़े होते हैं । ऐसी पुस्तकें जिन्हें हम न तो रद्दी में बेच पाते हैं और न सहेज पाते हैं, इसलिए अलमारी के किसी कोने में पीछे-से रख देते हैं। और ऐसी ही दो-चार अधूरी पढ़ी, छूटी पुस्तकों के माध्यम से हम जीवन के सारे अध्याय पुन: पढ़ डालते हैं न चाहते हुए भी।
जीवन में कौन साथ है और कौन नहीं, हम कभी जान ही नहीं पाते और हमें ही कोई कितना जान पाया है, ऐसे ही समय ज्ञात होता है। बस हवाओं में जीते हैं, हवाओं से लड़ते हैं, और उन्हें ही ओढ़-बिछाकर सो जाते हैं।

निजी एवं सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर
मेरे विचार में यदि केवल एक नियम बना दिया जाये कि सभी सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों के बच्चे उनके अपने ही विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करेंगे तो इन विद्यालयों के अध्यापक स्वयं ही शिक्षा के स्तर को सुधारने का प्रयास करेंगे।

निजी विद्यालयों एवं सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के स्तर में अन्तर के मुख्य कारण मेरे विचारानुसार ये हैं:

निजी विद्यालयों में स्थानान्तरण नहीं होते, अवकाश भी कम होते हैं तथा  जवाबदेही सीधे सीधे एवं तात्कालिक होती है।

निजी विद्यालयों में प्रवेश ही चुन चुन कर अच्छे विद्यार्थियों को दिया जाता है चाहे वह प्रथम कक्षा ही क्यों न हो।

कमज़ोर विद्यार्थियों को बाहर का रास्ता दिखा  दिया जाता है।

- भारी भरकम वेतन पर अध्यापकों की नियुक्ति, मिड डे मील,यूनीफार्म आदि बेसिक सुविधाओं से शिक्षा का स्तर नहीं उठाया जा सकता। बदलती सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप शिक्षा के बदलते मानदण्डों , शिक्षा की नवीन पद्धति, समयानुकूल पाठ्यक्रमों में परिवर्तन की ओर जब तक ध्यान नहीं दिया जायेगा सरकारी विद्यालयों की शिक्षा पिछड़ी ही रहेगी।

, यदि हम यह मानते हैं कि निजी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा है तो यह हमारी भूल है। वर्तमान में निजी विद्यालयों में भी शिक्षा नाममात्र रह गई है। क्योंकि यहां उच्च वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं तो वे ट्यूशन पर ही निर्भर होते हैं। निजी विद्यालयों में तो नाम, प्रचार, अंग्रेज़ी एवं अन्य गतिविधियों की ओर ही ज़्यादा ध्यान दिया जाने लगा है।

सबसे बड़ी बात यह कि हम निजी विद्यालयों की शिक्षा पद्धति एवं शिक्षा नीति को बहुत अच्छा समझने लग गये हैं । किन्तु वास्तव में यहाँ प्रदर्शन अधिक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि निजी विद्यालयों की तुलना में सरकारी विद्यालय पिछड़े हुए दिखाई देते हैं किन्तु इसका कारण केवल सरकारी अव्यवस्था, अध्यापकों पर शिक्षा के स्तर को बनाये रखने के लिए किसी भी प्रकार के दबाव का न होना एवं निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों का ही इन विद्यालयों में प्रवेश लेना, जिनकी पढ़ाई में अधिक रुचि ही नहीं होती।

मेरे विचार में कमी व्यवस्था में है। सरकार विद्यालय दूर दराज के क्षेत्रों में भी हैं जहां कोई भी जाना नहीं चाहता।

भ्रष्टाचार पर चर्चा
जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और  दूसरे की ओर अंगुली उठाते हैं तो चार अंगुलियाँ स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।

वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रुपये की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रुपये वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और  अपना आवश्यकता, विवशता।

यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार अंगुलियों के प्रश्न और  उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:

पहली अंगुली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकती हूँ कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूँ ।

दूसरी अंगुली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूँ ?

तीसरी अंगुली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूँ ।

और  अंत में  चौथी अंगुली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की अंगुली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और  मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और   सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।

  

आदान-प्रदान का युग है
जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक हो

जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो

पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते

आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो

कर लो नारी पर वार

जब कुछ न लिखने को मिले तो कर लो नारी पर वार।

वाह-वाही भरपूर मिलेगी, वैसे समझते उसको लाचार।

कल तक माँ-माँ लिख नहीं अघाते थे सारे साहित्यकार

आज उसी में खोट दिखे, समझती देखो पति को दास

पत्नी भी माँ है क्यों कभी नहीं देख पाते हो तुम

यदि माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजा, किसका है यह दोष

परिवारों में निर्णय पर हावी होते सदा पुरुष के भाव

जब मन में आता है कर लेते नारी के चरित्र पर प्रहार।

लिखने से पहले मुड़ अपनी पत्नी पर दृष्टि डालें एक बार ।

अपने बच्चों की माँ के मान की भी सोच लिया करो कभी कभार

 

शुभकामना संदेश
एक समय था

जब हम

हाथों से कार्ड बनाया करते थे

रंगों और मन की

रंगीनियों से सजाया करते थे।

अच्छी-अच्छी शब्दावली चुनकर

मन के भाव बनाया करते थे।

लिफ़ाफ़ों पर

सुन्दर लिखावट से

पता लिखवाया करते थे।

और प्रतीक्षा भी रहती थी

ऐसे ही कार्ड की

मिलेंगे किसी के मन के भावों से

सजे शुभकामना संदेश।

फिर धन्यवाद का पत्र लिखवाया करते थे।

.

समय बदला

बना-बनाया कार्ड आया

मन के रंग

बनाये-बनाये शब्दों के संग

बाज़ार में मिलने लगे

और हम अपने भावों को

छपे कार्ड पर ही समझने लगे।

.

और अब

भाव नहीं

शब्द रह गये

बने-बनाये चित्र

और नाम रह गये।

न कलम है, न कार्ड है

न पत्र है, न तार है

न टिकट है न भार है

न व्यय है

न समय की मार है

पल भर का काम है

सैंकड़ों का आभार है

ज़रा-सी अंगुली चलाईये

एक नहीं,

बीसियों

शुभकामना संदेश पाईये

औपचारिकताएँ निभाईये

काॅपी-पेस्ट कीजिए

एक से संदेश भेजिए

और एक से संदेश पाईये

 

जल की महिमा

बूंद-बूंद से घट भरे, बूंद-बूंद से न घटे सागर

जल की महिमा वो जाने, जिसके पास न गागर

पानी की बरबादी चुभती है, खड़़े पानी में कीट

अंजुरी-भर पानी ले, सोचिए कैसे रखें पानी बचाकर

प्रकृति का सौन्दर्य

फूलों पर मंडराती तितली को मदमाते देखा

भंवरे को फूलों से गुपचुप पराग चुराते देखा

सूरज की गुनगुनी धूप, चंदा से चांदनी आई

हमने गिरगिट को कभी न रंग बदलते देखा

 

मन हर्षाए बादल
 बिन मौसम आज आये बादल

कड़क-कड़क यूँ डराये बादल

पानी बरस-बरस मन भिगाये

शाम सुहानी, मन हर्षाए बादल

राजनीति अब बदल गई
राजनीति अब बदल गई, मानों दंगल हो रहे

देश-प्रेम की बात कहां, सब अपने सपने बो रहे

इसको काटो, उसको बांटों, बस सत्ता हथियानी है

धमा- चौकड़ी मची है मानों हथेली सरसों बो रहे

प्रकृति की ये कलाएँ

अपने ही रूप को देखो निहार रही ये लताएँ

मन को मुदित कर रहीं मनमोहक फ़िज़ाएँ

जल-थल-गगन मौन बैठे हो रहे आनन्दित

हर रोज़ नई कथा लिखती हैं इनकी अदाएँ

कौन समझ पाया है प्रकृति की ये कलाएँ

जीवन के अनमोल पल
यादों की गठरियों में कुछ अनमोल रत्न हुआ करते हैं

कभी कभी कुछ रिसते-से जख्म भी हुआ करते हैं

इन सबके बीच झूलता है मन,क्‍या करे कोई

जीवन के पल जैसे भी हों,सब अनमोल हुआ करते है।

 

कौन किसी का होता है
पत्थर संग्रहालयों में सुरक्षित हैं जीवन सड़कों पर रोता है

अरबों-खरबों से खेल रहे हम रुपया हवा हो रहा होता है

किसकी मूरत, किसकी सूरत, न पहचानी, बस नाम दे रहे

बस शोर मचाए बैठे हैं, यहाँ अब कौन किसी का होता है

अब मैं शर्मिंदा नहीं होता

अब मैं शर्मिंदा नहीं होता

जब कोई मेरी फ़ोटो खींचता है

मुझे ऐसे-वैसे बैठने

पोज़ बनाने के लिए कहता है।

हाँ, कार्य में व्यवधान आता है

मेरी रोज़ी-रोटी पर

सवाल आता है।

कैमरे के सामने पूछते हैं मुझसे

क्या तुम स्कूल नहीं जाते

तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें नहीं पढ़ाते

क्या बाप तुम्हारा कमाता नहीं

अपनी कमाई घर लाता नहीं

कहीं शराब तो पीता-पिलाता नहीं

तुम्हारी माँ को मारता-वारता तो नहीं

अनाथ हो या सनाथ

और कितने भाई-बहन हो

ले जायेगी तुम्हें पुलिस पकड़कर

बाल-श्रम के बारे में क्या जानते हो

किसे अपना माई-बाप मानते हो

सरकारी योजनाओं को जानते हो

उनका लाभ उठाते हो

 

पूछते-पूछते

उनकी फ़ोटू पूरी हो जाती है

दस रुपये पकड़ाते हैं

और चले जाते हैं

मैं उजबुक-सा बना देखता रह जाता हूँ

और काम पर लौट आता हूँ।

 

नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे

किसी मित्र ने मुझसे कहा कि आपकी सोच यानी मेरी यानी कविता की सोच बहुत नकारात्मक है। यदि मैं अच्छा सोचूँगी, सकारात्मक रहूँगी तो सब अच्छा ही होगा। इस बात पर उन्होंने एक मुहावरा पढ़ डाला ‘‘नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे’’ किन्तु कैसे उन्होने नहीं बताया।

तो इस मुहावरे पर मेरा एक सरल सा हास्य-व्यंग्य

*-*-*-*-*-*-*

आप अवश्य ही सोचेंगे इसकी तो बुद्धि ही उलट-पुलट है। किन्तु जैसी है, वैसी ही है, मैं क्या कर सकती हूँ। आप सब हर विषय पर गम्भीरता का ताना-बाना क्यों ओढ़ लेते हैं?

अब आप कह रहे हैं, नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे। कैसे भई, किस तरह?

अब इस आयु में मैं तो बदलने से रही। कोई भी योगी-महायोगी कहेगा, बदलने, सीखने की कोई उम्र नहीं होती। बस प्रयास करना पड़ता है। अब सारा जीवन प्रयास करते ही निकल गया, कभी किसी के लिए बदले, तो कभी किसी के लिए। बचपन में माँ-पिता, बड़े भाई-बहनों के आदेश-निर्देश बदलने के लिए, फिर ससुराल पक्ष के, उपरान्त बच्चों के और अब आप शुरु हो गये। अब तो थोड़ा मनमर्ज़ी से आराम करने दीजिए।

चलिए, कुछ गम्भीर बात कर लेते हैं। क्या मात्र नज़रिया बदलने से नज़ारे बदल जाते हैं? पता नहीं, चलिए विचार करने का प्रयास करते हैं। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि नज़ारे बदलें तो नज़रिया अवश्य बदलता है।

मन उदास है और बाहर खिली-खिली धूप है, गुंजन करते भंवरे, हवाओं से लहलहाते पुष्प, पंछियों की चहक, दूर तक फैली हरियाली, देखिए कैसे नज़रिया बदलता है। आप ही चेहरे पर मुस्कुराहट खिल आती है, मन आनन्दमय होने लगता है और चाय पीने का मन हो आता है जिसे हम गुस्से में अन्दर छोड़ आये थे।

कोई यदि हमारे सामने अपशब्दों का प्रयोग करता है तो हम नज़रिया कैसे बदल लें? किन्तु मन खिन्न होने पर हमें कोई सान्त्वना के दो मधुर शब्द बोल देता है, हमारे हित में बात करता है, तो नज़रिया बदल जाता है।

*

किन्तु मैं आपको पहले ही बता चुकी हूँ कि बु़िद्ध उलट-पुलट है। अब आपके पक्ष से विचार करते हैं। नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे।

मैंने नज़रिया बदल लिया।

करेला कड़वा नहीं है, नीम मीठी है। मिर्च तीखी नहीं है, कौआ कितना मीठा गाता है, गोभी का फूल कितना सुन्दर है किसी को भेंट करने के लिए।

हमने करेले-नीम की सब्जी बनाई और यह कहकर सबको खिलाई कि मेरे सकारात्मक विचारों से बनी देखिए कितनी मीठी सब्ज़ी है।

अब यह नज़रिया बदलने पर हमारे क्या नज़ारे बदले न ही पूछिए, क्योंकि हम जानते हैं आप अत्यधिक सकारात्मक विचारों के हैं हमारा दर्द क्या समझेंगे।

  

 

कोई बात ही नहीं

आज तो कोई बात ही नहीं है बताने के लिए

बस यूँ ही लिख रहे हैं कुछ जताने के लिए

दर्दे-दिल की बात तो अब हम करते ही नहीं

वे झट से आँसू बहाने लगते हैं दिखाने के लिए।

स्थायी समाधान की बात मत करना
हर रोज़ नहीं करते हम

चिन्ता किसी भी समस्या की,

जब तक विकराल न हो जाये।

बात तो करते हैं

किन्तु समाधान ढूँढना

हमारा काम नहीं है।

हाँ, नौटंकी हम खूब

करना जानते हैं।

खूब चिन्ताएँ परोसते हैं

नारे बनाते हैं

बातें बनाते हैं।

ग्रीष्म ऋतु में ही

हमें याद आता है

जल संरक्षण

शीत ऋतु में आप

स्वतन्त्र हैं

बर्बादी के लिए।

जल की ही क्यों,

समस्या हो पर्यावरण की

वृक्षारोपण की बात हो

अथवा वृक्षों को बचाने की

या हो बात

पशु-पक्षियों के हित की

याद आ जाती है

कभी-कभी,

खाना डालिए, पानी रखिए,

बातें बनाईये

और कोई नई समस्या ढूँढिये

चर्चा के लिए।

बस

स्थायी समाधान की बात मत करना।

 

चाहतों की भूख

जीवन में आगे-पीछे, ऊपर-नीचे तो चलता रहता है

जो पाया, अनायास न जाने कभी कहाँ खो जाता है

बहुत-बहुत की चाह में धक्का-मुक्की में लगे हैं हम

चाहतों की भूख से मानव कहाँ कभी पार पा पाता है।

 

धन्यवाद देते रहना हमें Keep Thanking
आकाश को थाम कर खड़े हैं नहीं तो न जाने कब का गिर गया होता

पग हैं धरा पर अड़ाये, नहीं तो न जाने कब का भूकम्प आ गया होता

धन्यवाद देते रहना हमें, बहुत ध्यान रखते हैं हम आप सबका सदैव ही

पानी पीते हैं, नहा-धो लेते हैं नहीं तो न जाने कब का सुनामी आ गया होता।

 

ज्योति प्रज्वलित है
क्यों ढूंढते हो दीप तले अंधेरा जब ज्योति प्रज्वलित है

 क्यों देखते हो मुड़कर पीछे, जब सामने प्रशस्त पथ है

जीवन में अमा और पूर्णिमा का आवागमन नियत है

अंधेरे में भी आंख खुली रखें ज़रा, प्रकाश की दमक सरस है

 

ऐसा अक्सर होता है
ऐसा अक्सर होता है जब हम रोते हैं जग हंसता है

ऐसा अक्सर होता है हम हंसते हैं जग ताने कसता है

न हमारी हंसी देख सकते हो न दुख में साथ होते हो

दुनिया की बातों में आकर मन यूँ ही फ़ँसता है।

 

 

धर्म-कर्म के नाम

धर्म-कर्म के नाम पर पाखण्ड आज होय

मंत्र-तंत्र के नाम पर घृणा के बीज बोयें

परम्परा के नाम पर रूढ़ियां पाल रहे हम

किसकी मानें, किसकी छोड़ें, इसी सोच में खोय