स्मृतियां सदैव मधुर नहीं होतीं
आओगे जब तुम साजना

द्वार पर खड़ी नहीं मिलूंगी मैं

घर-बाहर संवारती नहीं दिखूंगी मैं।

भाव मिट जाते हैं

इच्छाएं मर जाती हैं

सब अधूरा-सा लगता है

जब तुम वादे नहीं निभाते,

कहकर भी नहीं आते।

मन उखड़ा-उखड़ा-सा रहता है।

प्रतीक्षा के पल

सदैव मोहक नहीं होते,

स्मृतियां सदैव मधुर नहीं होतीं।

समय के साथ

स्मृतियां धुल जाती हैं

नेह-भाव पर

धूल जम जाती है।

ज़िन्दगी ठहर-सी जाती है।

इस ठहरी हुई ज़िन्दगी में ही

अपने लिए फूल चुनती हूं।

नहीं कोई आस रखती किसी से,

अपने लिए जीती हूं

अपने लिए हंसती हूं।

  

अपनेपन की कामना
रेशम की डोरी

कोमल भावों से बंधी

बन्धन नहीं होती,

प्रतिदान की

लालसा भी नहीं होती।

बस होती है तो

एक चाह, एक आशा

अपनेपन की कामना

नेह की धारा।

बस, जुड़े रहें

मन से मन के तार,

दुख-सुख की धार

बहती रहे,

अपनेपन का एहसास

बना रहे।

लेन-देन की न कोई बात हो

न आस हो

बस

रिश्तों का एहसास हो।

 

बिखरती है ज़िन्दगी

अपनों के बीच

निकलती है ज़िन्दगी,

न जाने कैसे-कैसे

बिखरती है ज़िन्दगी।

बहुत बार रोता है मन

कहने को कहता है मन।

किससे कहें

कैसे कहें

कौन समझेगा यहां

अपनों के बीच

जब बीतती है ज़िन्दगी।

शब्दों को शब्द नहीं दे पाते

आंखों से आंसू नहीं बहते

किसी को समझा नहीं पाते।

लेकिन

जीवन के कुछ

अनमोल संयोग भी होते हैं

जब बिन बोले ही

मन की बातों को

कुछ गैर समझ लेते हैं

सान्त्वना के वे पल

जीवन को

मधुर-मधुर भाव दे जाते हैं।

अपनों से बढ़कर

अपनापन दे जाते हैं।

 

अनचाही दस्तक

श्रवण-शक्ति

तो ठीक है मेरी

किन्तु नहीं सुनती मैं

अनचाही दस्तक।

खड़काते रहो तुम

मेरे मन को

जितना चाहे,

नहीं सुनना मुझे

यदि किसी को,

तो नहीं सुनना।

अपने मन से

जीने की

मेरी कोशिश को

तुम्हारी अनचाही दस्तक

तोड़ नहीं सकती।

 

अगर तुम न होते

अगर तुम न होते

तो दिन में रात होती।

अगर तुम न होते

तो बिन बादल बरसात होती।

अगर तुम न होते

तो सुबह सांझ-सी,

और सांझ

सुबह-सी होती।

अगर तुम न होते

तो कहां

मन में गुलाब खिलते

कहां कांटों की चुभन होती।

अगर तुम न होते

तो मेरे जीवन में

कहां किसी की परछाईं न होती।

अगर तुम न होते

तो ज़िन्दगी

कितनी निराश होती।

अगर तुम न होते

तो भावों की कहां बाढ़ होती।

अगर तुम न होते

तो मन में कहां

नदी-सी तरलता

और पहाड़-सी गरिमा होती।

अगर तुम न होते

तो ज़िन्दगी में

इन्द्रधनुषी रंग न होते ।

अगर तुम न होते

कहां लरजती ओस की बूंदें

कहां चमकती चंदा की चांदनी

और कहां

सुन्दरता की चर्चा होती।

.

अगर तुम न होते

-

ओ मेरे सूरज, मेरे भानु

मेरे दिवाकर, मेरे भास्कर

 मेरे दिनेश, मेरे रवि

मेरे अरुण

-

अगर तुम न होते।

अगर तुम न होते ।

अगर तुम न होते ।

 

रिश्ते ऑनलाइन या ऑफलाइन

क्या ऑनलाइन रिश्ते ऑफलाइन रिश्तों पर हावी हो रहे हैं

----------.----------

मेरी दृष्टि में ऑनलाइन रिश्ते ऑफलाइन रिश्तों पर हावी नहीं हो रहे हैंए दोनों का आज हमारे जीवन में अपना.अपना महत्व है। हर रिश्ते को साधकर रखना हमें आना चाहिएए फिर वह ऑनलाइन हो अथवा ऑफलाइन ।

वास्तव में ऑनलाइन रिश्तों ने हमारे जीवन को एक नई दिशा दी है जो कहीं भी ऑफलाइन रिश्तों पर हावी नहीं है।

अब वास्तविकता देखें तो ऑफलाइन रिश्ते रिश्तों में बंधे होते हैंए कुछ समस्याएंए कुछ विवशताएंए कुछ औपचारिकताएं, कुछ गांठें। यहां हर रिश्ते की सीमाएं हैंए बन्धन हैंए लेनदारीए देनदारी हैए आयु.वर्ग के अनुसार मान.सम्मान हैए जो बहुत बार इच्छा न होते हुए भीए मन न होते हुए भी निभानी पड़ती हैं। और कुछ स्वार्थ भी हैं। यहां हर रिश्ते की अपनी मर्यादा हैए जिसे हमें निभाना ही पड़ता है। ऐसा बहुत कम होता है कि ये रिश्ते बंधे रिश्तों से हटकर मैत्री.भाव बनते हों।

जीवन में कोई तो एक समय आता है जब हमारे पास अपने नहीं रहते, एक अकेलापन, नैराश्य घेर लेता है। और जो हैं, कितने भी अपने हों, हम उनसे मन की बात नहीं बांट पाते। यह सब मानते हैं कि हम मित्रों से जो बात कह सकते हैं बहुत बार बिल्कुल अपनों से भी शेयर नहीं कर पाते। ऐसा ही रिश्ता कभी-कभी कहीं दूर बैठे अनजाने रिश्तों में मिल जाता है। और वह मिलता है ऑनलाईन रिश्ते में।

किन्तु ऑनलाइन रिश्तों में कोई किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं है। एक नयापन प्रतीत होता हैए एक सुलझापनए जहां मित्रता में आयुए वर्ग का बन्धन नहीं होता। बहुत बार हम समस्याओं से घिरे जो बात अपनों से नहीं कर पातेए इस रिश्ते में बात करके सुलझा लेते हैं। एक डर नहीं होता कि मेरी कही बात सार्वजनिक हो जायेगी।

हांए इतना अवश्य है कि रिश्ते चाहे ऑनलाइन हों अथवा ऑफलाइनए सीमाएं दोनों में हैंए अतिक्रमण दोनों में ही नहीं होना चाहिए।

  

जीवन का गणित

बालपन से ही

हमें सिखा दी जाती हैं

जीवन जीने के लिए

अलग-अलग तरह की

जाने कितनी गणनाएं,

जिनका हल

किसी भी गणित में

नहीं मिलता।

.

लेकिन ज़िन्दगी की

अपनी गणनाएं होती हैं

जो अक्सर हमें

समझ ही नहीं आतीं।

यहां चलने वाला

जमा-घटाव, गुणा-भाग

और जाने कितने फ़ार्मूले

समझ से बाहर रहते हैं।

.

ज़िन्दगी

हमारे जीवन में

कब क्या जमा कर देगी

और कब क्या घटा देगी,

हम सोच ही नहीं सकते।

.

क्या ऐसा हो सकता है

कि गणित के

विषय को

हम जीवन से ही निकाल दें,

यदि सम्भव हो

तो ज़रूर बताना मुझे।

 

फिर वही कहानी

कछुए से मिलना

अच्छा लगा मुझे।

धूप सेंकता

आराम से बैठा

कभी जल में

कभी थल में।

कभी पत्थर-सा दिखता

तो कभी सशरीर।

मैंने बात करनी चाही

किन्तु उसने मुँह फ़ेर लिया।

फिर अचानक पलटकर बोला

जानता हूँ

वही सैंकड़ों वर्ष पुरानी

कहानी लेकर आये होंगे

खरगोश सो गया था

और कछुआ जीत गया था।

पता नहीं किसने गढ़ी

यह कथा।

मुझे तो कुछ स्मरण नहीं,

और न ही मेरे पूर्वजों ने

मुझे कोई ऐसी कथा सुनाई थी

न अपनी ऐसी जीत की

कोई गुण-गाथा गाई थी।

नया तो कुछ लिखते नहीं

उसी का पिष्ट-पेषण करने में

लगे रहते हो।

कब तक बच्चों को

खरगोश-कछुए,

शेर-बकरी और बन्दर मामा की

अर्थहीन कहानियाँ

सुनाकर बहलाते रहोगे,

कब तक

मेरी चाल का उपहास

बनाते रहोगे।

अरे,

साहस से

अपने बारे में लिखो,

अपने रिश्तों को उकेरो

अपनी अंधी दौड़ को लिखो,

आरोप-प्रत्यारोप,

बदलते समाज को लिखो।

यूँ तो अपनी

हज़ारों साल पुरानी संस्कृति का

लेखा-जोखा लिखते फ़िरते हो

किन्तु

जब काम की बात आती है

तो मुँह फ़ेरे घूमते हो।

 

और कितना सच कहूं

सच कहूं तो

अब सच बोलने का मन नहीं करता।

सच कहूं तो

अब मन किसी काम में नहीं लगता।

सच कहूं तो

अब कुछ भी यहां अच्छा नहीं लगता।

सच कहूं तो

अब कुछ लिखने में मन नहीं लगता।

सच कहूं तो

अब विश्वास लायक कोई नहीं दिखता।

सच कहूं तो

अब रफ्फू सीने का मन नहीं करता।

सच कहूं तो

अब रिश्ते सुलझाने का मन नहीं करता।

सच कहूं तो

अब अपनों से ही बात करने का मन नहीं करता।

सच कहूं तो

अब हंसने या रोने का भी मन नहीं करता।

सच कहूं तो

अब सपनों में जीने का मन नहीं करता।

सच कहूं तो

अब तुमसे भी बात करने का मन नहीं करता।

 

 

अकेलापन
अच्छा लगता है.

अकेलापन।

समय देता है

कुछ सोचने के लिए

अपने-आपसे बोलने के लिए।

गुनगुनी धूप

सहला जाती है मन।

खिड़कियों से झांकती रोशनी

कुछ कह जाती है।

रात का उनींदापन

और अलसाई-सी सुबह,

कड़वी-मीठी चाय के साथ

दिन-भर के लिए

मधुर-मधुर भाव दे जाती है।

 

जागरण का आंखों देखा हाल

चलिए,

आज आपको

मेरे परिचित के घर हुए

जागरण का

आंखों देखा हाल सुनाती हूं।

मैं मूढ़

मुझे देर से समझ आया

कि वह जागरण ही था।

भारी भीड़ थी,

कनातें सजी थीं,

दरियां बिछी थीं।

लोगों की आवाजाही लगी थी।

चाय, ठण्डाई का

दौर चल रहा था।

पीछे भोजन का पंडाल

सज रहा था।

लोग आनन्द ले रहे थे

लेकिन मां की प्रतीक्षा कर रहे थे।

इतने में ही एक ट्रक में 

चार लोग आये

बक्सों में कुछ मूर्तियां लाये।

पहले कुछ टूटे-फ़ूटे

फ़ट्टे सजाये।

फिर मूर्तियों को जोड़ा।

आभूषण पहनाये, तिलक लगाये,

भक्त भाव-विभोर

मां के चरणों में नत नज़र आये।

जय-जयकारों से पण्डाल गूंज उठा।

फ़िल्मी धुनों के भक्ति गीतों पर

लोग झूमने लगे।

गायकों की टोली

गीत गा रही थी

भक्तगण झूम-झूमकर

भोजन का आनन्द उठा रहे थे।

भोजन सिमटने लगा

भीड़ छंटने लगी।

भक्त तन्द्रा में जाने लगे।

गायकों का स्वर डूबने लगा।

प्रात होने लगी

कनात लेने वाले

दरियां उठाने वाले

और मूर्तियां लाने वालों की

भीड़ रह गई।

पण्डित जी ने भोग लगाया।

मैंने भी प्रसाद खाया।

ट्रक चले गये

और जगराता सम्पन्न हुआ।

जय मां ।

 

ज़िन्दगी के साथ एक और तकरार

अक्सर मन करता है

ज़िन्दगी

तुझसे शिकायत करुं।

न  जाने कहां-कहां से

सवाल उठा लाती है

और मेरे जीने में

अवरोध बनाने लगती है।

जब शिकायत करती हूं

तो कहती है

बस

सवाल एक छोटा-सा था।

लेकिन,

तुम्हारा एक छोटा-सा सवाल

मेरे पूरे जीवन को

झिंझोड़कर रख देता है।

उत्तर तो बहुत होते हैं

मेरे पास,

लेकिन देने से कतराती हूं,

क्योंकि

तर्क-वितर्क

कभी ख़त्म नहीं होते,

और मैं

आराम से जीना चाहती हूं।

बस इतना समझ ले

ज़िन्दगी

तुझसे

हारी नहीं हूं मैं

इतनी भी बेचारी नहीं हूं मैं।

 

 

चींटियों के पंख

सुना है

चींटियों की

मौत आती है

तो पर निकल आते हैं।

.

किन्तु चिड़िया के

पर नहीं निकलते

तब मौत आती है।

.

कभी-कभी

इंसान के भी

पर निकल आते हैं

अदृश्य।

उसे आप ही नहीं पता होता

कि वह कब

आसमान में उड़ रहा है

और कब धराशायी हो जाता है।

क्योंकि

उसकी दृष्टि

अपने से ज़्यादा

औरों के

पर गिनने पर रहती है।

 

जीवन के पल

जीवन के

कितने पल हैं

कोई न जाने।

कर्म कैसे-कैसे किये

कितने अच्छे

कितने बुरे

कौन बतलाए।

समय बीत जाता है

न समझ में आता है

कौन समझाये।

सोच हमारी ऐसी

अब आपको

क्या-क्या बतलाएं।

न थे, न हैं, न रहेंगे,

जानते हैं

तब भी मन

चिन्तन करता है हरपल,

पहले क्या थे,

अब क्या हैं,

कल क्या होंगे,

सोच-सोच मन घबराये।

जो बीत गया

कुछ चुभता है

कुछ रुचता है।

जो है,

उसकी चलाचल

रहती है।

आने वाले को

कोई न जाने

बस कुछ सपने

कुछ अपने

कुछ तेरे, कुछ मेरे

बिन जाने, बिन समझे

जीवन

यूं ही बीता जाये।

 

जीवन के वे पल

जीवन के वे पल

बड़े

सुखद होते हैं जब

पलभर की पहचान से

अनजाने

अपने हो जाते हैं,

किन्तु

कहीं एक चुभन-सी

रह जाती है

जब महसूस होता है

कि जिनके साथ

सालों से जी रहे थे

कभी

समझ ही न पाये

कि वे

अपने थे या अनजाने।

 

लिख नहीं पाती

मौसम बदल रहा है

बाहर का

या मन का

समझ नहीं पाती अक्सर।

हवाएं

तेज़ चल रही हैं

धूल उड़ रही है,

भावों पर गर्द छा रही है,

डालियां

बहकती हैं

और पत्तों से रुष्ट

झाड़ देती हैं उन्हें।

खिली धूप में भी

अंधकार का एहसास होता है,

बिन बादल भी

छा जाती हैं घटाएं।

लगता है

घेर रही हैं मुझे,

तब लिख नहीं पाती।

 

कह रहा है आइना

कह रहा है आईना

ज़रा रंग बदलकर देख

अपना मन बदलकर देख।

देख अपने-आपको

बार-बार देख।

न देख औरों की नज़र से

अपने-आपको,

बस अपने आईने में देख।

एक नहीं

अनेक आईने लेकर देख।

देख ज़रा

कितने तेरे भाव हैं

कितने हैं तेरे रूप।

तेरे भीतर

कितना सच है

और कितना है झूठ।

झेल सके तो झेल

नहीं तो

आईने को तोड़कर देख।

नये-नये रूप देख

नये-नये भाव देख

साहस कर

अपने-आपको परखकर देख।

देख-देख

अपने-आपको आईने में देख।

 

सपने

अजीब सी होती हैं

ये रातें भी।

कभी जागते बीतती हैं

तो कभी सोते।

कभी सपने आते हैं

तो कभी

सपने डराकर

जगा जाते हैं।

कहते हैं

सिरहाने पानी ढककर

रख दें

तो बुरे सपने नहीं आते।

पर सपनों को

पानी नहीं दिखता।

उन्हें

आना है

तो ही जाते हैं।

कभी सोते-सोते

जगा जाते हैं

कभी पूरी-पूरी रात जगाकर

प्रात होते ही

सुला जाते हैं।

 

एक और अलग-सी बात

दिन हो या रात

अंधेरे में आंखें

बन्द हो ही जाती हैं।

और मुश्किल यह

कि जो देखना होता है

फिर भी देख ही लिया जाता है

क्योंकि

देखते तो हम

मन की आंखों से हैं

अंधेरे और रोशनी

दिन और रात को इससे क्या।

 

ज़िन्दगी प्रश्न या उत्तर

जिन्हें हम

ज़िन्दगी के सवाल समझकर

उलझे बैठे रहते हैं

वास्तव में

वे सवाल नहीं होते

निर्णय होते हैं

प्रथम और अन्तिम।

ज़िन्दगी

आपसे

न सवाल पूछती है

न किसी

उत्तर की

अपेक्षा लेकर चलती है।

बस हमें समझाती है

सुलझाती है

और अक्सर

उलझाती भी है।

और हम नासमझ

अपने को

कुछ ज़्यादा ही

बुद्धिमान समझ बैठे हैं

कि ज़िन्दगी से ही

नाराज़ बैठे हैं।

 

 

 

 

 

वहम की दीवारें

बड़ी नाज़ुक होती हैं

वहम की दीवारें

ज़रा-सा हाथ लगते ही

रिश्तों में

बिखर-बिखर जाती हैं

कांच की किरचों की तरह।

कितने गहरे तक

घाव कर जायेंगी

हम समझ ही नहीं पाते।

सच और झूठ में उलझकर

अनजाने में ही

किरचों को समेटने लग जाते हैं,

लेकिन जैसे

कांच

एक बार टूट जाने पर

जुड़ता नहीं

घाव ही देता है

वैसे ही

वहम की दीवारों से रिसते रिश्ते

कभी जुड़ते नहीं।

जब तक

हम इस उलझन को समझ सकें

दीवारों में

किरचें उलझ चुकी होती हैं।

 

खेल दिखाती है ज़िन्दगी

क्या-क्या खेल दिखाती है ज़िन्दगी।

कभी हरी-भरी,

कभी तेवर दिखाती है ज़िन्दगी।

कभी दौड़ती-भागती,

कभी ठहरी-ठहरी-सी लगती है ज़िन्दगी।

कभी संवरी-संवरी,

कभी बिखरी-बिखरी-सी लगती है जिन्दगी।

स्मृतियों के सागर में उलझाकर,

भटकाती भी है ज़िन्दगी।

हँसा-हँसाकर खूब रुलाती है ज़िन्दगी।

पथरीली राहों पर चलना सिखाती है ज़िन्दगी।

एक गलत मोड़, एक अन्त का संकेत

दे जाती है ज़िन्दगी।

आकाश और धरा एक साथ

दिखा जाती है ज़िन्दगी।

कभी-कभी ठोकर मारकर

गिरा भी देती है ज़िन्दगी।

समय कटता नहीं,

अब घड़ी से नहीं चलती है ज़िन्दगी।

अपनों से नेह मिले

तो सरस-सरस-सी लगती है ज़िन्दगी।

 

 

  

पर्यायवाची शब्दों में हेर-फ़ेर

इधर बड़ा हेर-फ़ेर

होने लगा है

पर्यायवाची शब्दों में।

लिखने में शब्द

अब

उलझने लगे हैं।

लिखा तो मैंने

अभिमान, गर्व था,

किन्तु तुम उसे

मेरा गुरूर समझ बैठे।

अपने अच्छे कर्मों को लेकर

अक्सर

हम चिन्तित रहते हैं।

प्रदर्शन तो नहीं,

किन्तु कभी तो कह बैठते हैं।

फिर इसे

आप मेरा गुरूर समझें

या कोई पर्यायवाची शब्द।

कभी-कभी

अपनी योग्यताएँ

बतानी पड़ती हैं

समझानी पड़ती हैं

क्योंकि

इस समाज को

बुराईयों का काला चिट्ठा तो

पूरा स्मरण रहता है

बस अच्छाईयाँ

ही नहीं दिखतीं।

इसलिए

जताना पड़ता है,

फिर तुम उसे

मेरा गुरूर समझो

या कुछ और।

नहीं तो ये दुनिया तुम्हें

मूर्खानन्द ही समझती रहेगी।

 

ज़िन्दगी सहज लगने लगी है

आजकल, ज़िन्दगी

कुछ नाराज़-सी लगने लगी है।

शीतल हवाओं से भी

चुभन-सी होने लगी है।

नयानाभिराम दृश्य

चुभने लगे हैं नयनों में,

हरीतिमा में भी

कालिमा आभासित होने लगी है।

सूरज की तपिश का तो

आभास था ही,

ये चाँद भी अब तो

सूरज-सा तपने लगा है।

मन करता है

कोई सहला जाये धीरे से

मन को,

किन्तु यहाँ भी कांटों की-सी

जलन होने लगी है।

ज़िन्दगी बीत जाती है

अपनों और परायों में भेद समझने में।

कल क्या था

आज क्या हो गया

और कल क्या होगा कौन जाने

क्यों तू सच्चाईयों से

मुँह मोड़ने लगी है।

कहाँ तक समझायें मन को

अब तो यूँ ही

ऊबड़-खाबड़ राहों पर

ज़िन्दगी सहज लगने लगी है।

 

 

प्रतिबन्धित स्मृतियाँ

जब-जब

प्रतिबन्धित स्मृतियों ने

द्वार उन्मुक्त किये हैं

मन हुलस-हुलस जाता है।

कुछ नया, कुछ पुराना

अदल-बदलकर

सामने आ जाता है।

जाने-अनजाने प्रश्न

सर उठाने लगते हैं

शान्त जीवन में

एक उबाल आ जाता है।

जान पाती हूँ

समझ जाती हूँ

सच्चाईयों से

मुँह मोड़कर

ज़िन्दगी नहीं निकलती।

अच्छा-बुरा

खरा-खोटा,

सुन्दर-असुन्दर

सब मेरा ही है

कुछ भोग चुकी

कुछ भोगना है

मुँह चुराने से

पीछा छुड़ाने से

ज़िन्दगी नहीं चलती

कभी-न-कभी

सच सामने आ ही जाता है

इसलिए

प्रतीक्षा करती हूँ

प्रतिबन्धित स्मृतियों का

कब द्वार उन्मुक्त करेंगी

और आ मिलेंगी मुझसे

जीवन को

नये अंदाज़ में

जीने का

सबक देने के लिए।

 

 

डगमगाये नहीं कदम कभी

डगमगाये नहीं कदम कभी!!!

.

कैसे, किस गुरूर में

कह जाते हैं हम।

.

जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्ते

मन पर मौसम की मार

सफ़लता-असफ़लता की

सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते

अनचाही अव्यवस्थाएँ

गलत मोड़ काटते

अनजाने, अनचाहे गतिरोध

बन्द गलियों पर रुकते

लौट सकने के लिए

राहें नहीं मिलतीं।

भटकन कभी नहीं रुकती।

ज़िन्दगी निकल जाती है

नये रास्तों की तलाश में।

.

कैसे कह दूँ

डगमगाये नहीं कदम कभी!!!

 

सिंदूरी शाम

अक्सर मुझे लगता है

दिन भर

आकाश में घूमता-घूमता

सूरज भी

थक जाता है

और संध्या होते ही

बेरंग-सा होने लगता है

हमारी ही तरह।

ठिठके-से कदम

धीमी चाल

अपने गंतव्य की ओर बढ़ता।

जैसे हम

थके-से

द्वार खटखटाते हैं

और परिवार को देखकर

हमारे क्लांत चेहरे पर

मुस्कान छा जाती है

दिनभर की थकान

उड़नछू हो जाती है

कुछ वैसे ही सूरज

जब बढ़ता है

अस्ताचल की ओर

गगन

चाँद-तारों संग

बिखेरने लगता है

इतने रंग

कि सांझ सराबोर हो जाती है

रंगों से।

और

बेरंग-सा सूरज

अनायास झूम उठता है

उस सिंदूरी शाम में

जाते-जाते हमें भी रंगीनियों से

भर जाता है।

 

दिल चीज़ क्या है

आज किसी ने पूछा

‘‘दिल चीज़ क्या है’’?

-

अब क्या-क्या बताएँ आपको

बड़़ी बुरी चीज़ है ये दिल।

-

हाय!!

कहीं सनम दिल दे बैठे

कहीं टूट गया दिल

किसी पर दिल आ गया,

किसी को देखकर

धड़कने रुक जाती हैं

तो कहीं तेज़ हो जाती हैं

कहीं लग जाता है किसी का दिल

टूट जाता है, फ़ट जाता है

बिखर-बिखर जाता है

तो कोई बेदिल हो जाता है सनम।

पागल, दीवाना है दिल

मचलता, बहकता है दिल

रिश्तों का बन्धन है

इंसानियत का मन्दिर है

ये दिल।

कहीं हो जाते हैं

दिल के हज़ार टुकड़े

और किसी -किसी का

दिल ही खो ही जाता है।

कभी हो जाती है

दिलों की अदला-बदली।

 फिर भी ज़िन्दा हैं जनाब!

ग़जब !

और कुछ भी हो

धड़कता बहुत है यह दिल।

इसलिए

अपनी धड़कनों का ध्यान रखना।

वैसे तो सुना है

मिनट-भर में

72 बार

धड़कता है यह दिल।

लेकिन

ज़रा-सी ऊँच-नीच होने पर

लाखों लेकर जाता है

यह दिल।

इसलिए

ज़रा सम्हलकर रहिए

इधर-उधर मत भटकने दीजिए

अपने दिल को।

 

सांझ-सवेरे भागा-दौड़ी

सांझ-सवेरे, भागा-दौड़ी

सूरज भागा, चंदा चमका

तारे बिखरे

कुछ चमके, कुछ निखरे

रंगों की डोली पलटी

हल्के-हल्के रंग बदले

फूलों ने मुख मोड़ लिए

पल्लव देखो सिमट गये

चिड़िया ने कूक भरी

तितली-भंवरे कहाँ गये

कीट-पतंगे बिखर गये

ओस की बूँदें टहल रहीं

देखो तो कैसे बहक रहीं

रंगों से देखो खेल रहीं

अभी यहीं थीं

कहाँ गईं, कहाँ गईं

ढूंढो-ढूंढों कहाँ गईं।

 

बचपन-बचपन खेलें

हमने फ़ोन बनाया

न बिल आया

न हैंग हुआ।

न पैसे लगे

न टैंग हुआ।

न टूटे-फ़ूटे,

न सिग्नल की चिन्ता

न चार्ज किया।

न लड़ाई

न बहस-बसाई।

जब तक

चाहे बात करो

कोई न रोके

कोई न टोके।

हम भी लें लें

तुम भी ले लो

आओ आओ

बचपन-बचपन खेलें।

 

औरत होती है एक किताब

औरत होती है एक किताब।

सबको चाहिए

पुरानी, नई, जैसी भी।

अपनी-अपनी ज़रूरत

अपनी-अपनी पसन्द।

उस एक किताब की

अपने अनुसार

बनवा लेते हैं

कई प्रतियाँ,

नामकरण करते हैं

बड़े सम्मान से।

सबका अपना-अपना अधिकार

उपयोग का

अपना-अपना तरीका

अदला-बदली भी चलती है।

कुछ पृष्ठ कोरे रखे जाते है

इस किताब में

अपनी मनमर्ज़ी का

लिखने के लिए।

और जब चाहे

फाड़ दिये जाते हैं कुछ पृष्ठ।

सब मालिकाना हक़

जताते हैं इस किताब पर,

किन्तु कीमत के नाम पर

सब चुप्पी साध जाते हैं।

सबसे बड़ा आश्चर्य यह

कि पढ़ता कोई नहीं

इस किताब को

दावा सब करते हैं।

उपयोगी-अनुपयोगी की

बहस चलती रहती है

दिन-रात।

वैसे कोई रैसिपी की

किताब तो नहीं होती यह

किन्तु सबसे ज़्यादा

काम यहीं आती है।

अपने-आप में

एक पूरा युग जीती है

यह किताब

हर पन्ने पर

लिखा होता है

युगों का हिसाब।

अद्भुत है यह किताब

अपने-आपको ही पढ़ती है

समझने की कोशिश करती है

पर कहाँ समझ पाती है।