मोबाईल की माया

आॅंख मूॅंदकर सब ज्ञान मिले, और क्या चाहिए भला

बिन पढ़े-लिखे सब हाल मिले और क्या चाहिए भला

दुनिया पूरी घूम रहे, इसका, उसका, सबका पता रहे

न टिकट लगे, न आरक्षण चाहिए, और क्या चाहिए भला

अपनी हिम्मत  अपनी राहें

बाधाओं को तोड़कर राहें बनाने का मज़ा ही कुछ और है

धरा और पाषाण को भेदकर जीने का मज़ा ही कुछ और है

सिखा जाता है यह अंकुरण, सुविधाओं में तो सभी पनप लेते हैं

अपनी हिम्मत से अपनी राहें बनाने का मज़ा ही कुछ और है।

डर-डरकर ज़िन्दगी नहीं चलती

डर-डरकर ज़िन्दगी नहीं चलती यह जान ले सखी

उठ हाथ थाम, आगे बढ़, साथ छोड़ेंगे रे सखी

घन छा रहे, रात घिर आई, नदी-नीर बैठ अब

नया सोच, चल ज़िन्दगी की राहों को बदलें रे सखी

उंची उड़ान
आज चांद का अर्थ बदल गया

आज चांद रोटी से घर बन गया

उंची उड़ान लेकर चले हैं हम

आज चांद से सर गर्व से तन गया।

सड़कों पर सागर बना

 सड़कों पर सागर बना, देख रहे हम हक्के-बक्के

बूंद-बूंद को मन तरसे, घर में पानी भर-भर के

कितने घर डूब गये, राहों पर खड़े देख रहे

कैसे बढ़े ज़िन्दगी, सोच-सोचकर नयन तरस रहे।

चढ़नी पड़ती हैं सीढ़ियाॅं

कदम-दर-कदम ही चढ़नी पड़ती हैं सीढ़ियाॅं

नीचे से उपर, उपर से नीचे ले आती हैं सीढ़ियाॅं

बस धरा की फ़िसलन का ज़रा ध्यान रखिए सदा

नहीं तो उपर से सीधे नीचे ले आती हैं सीढ़ियाॅं

बरसती बूॅंदें

बरसती बूंदों को रोककर जीवन को तरल करती हूं

बादलों से बरसती नेह-धार को मन से परखती हूं

कौन जाने कब बदलती हैं धाराएं और गति इनकी

अंजुरी में बांधकर मन को सरस-सरस करती हूं।

 

शोर बहुत होगा

बात ये जाने कितनों को चुभती जायेगी

हमारी हॅंसी जब दूर तक सुनाई दे जायेगी

शोर बहुत होगा, पूछताछ होगी, जांच होगी

खुशियाॅं हमारे जीवन में कैसे समा जायेंगी

जीवन-भर का सार

सुना करते हैं  रेखाओं में भाग्य लिखा रहता है

आड़ी-तिरछी रेखाओं में हाल लिखा रहता है

चेहरे पर चेहरे लगाकर बैठे हैं देखो तो ज़रा

इन रेखाओं में जीवन-भर का सार लिखा रहता है

कुशल रहें सब, स्वस्थ रहें

कुशल रहें सब, स्वस्थ रहें सब, यही कामना करते हैं

आनी-जानी तो लगी रहेगी, हम यूं ही डरते रहते हैं

कौन है अपना, कौन पराया, कहां जान पाते हैं हम

जो सुख-दुख के हों  साथी, वे ही अपने लगने लगते हैं

रंगों में जीवन को आशा

मुक्त गगन में चिड़िया को उड़ते देखा

भोर के सूरज की सुरमई आभा को देखा

मन-मयूर कहता है चल उड़ चलें कहीं

रंगों में जीवन को आशाओं में पलते देखा

हम-तुम तो हैं मूरख जी

युग है चपर कनाती का

ज़ोर चले है लाठी का

हम-तुम तो हैं मूरख जी

घोड़ा चलता काठी का

कड़वे बोल

मीठा खाकर बोले कड़वे बोल

झूठे की कभी न खोले पोल

इधर-उधर की लगाकर बैठे

ऐसी रसना का है क्या मोल

चिड़ियाॅं रानी

गुपचुप बैठी चिड़ियाॅं रानी

चल कर लें दो बातें प्यारी

कुछ तुम बोलो, कुछ मैं बोलूं

मन की बातें कर लें सारी

मौसम के रॅंग

सहमी-सहमी धूप है, खिड़कियों से झांक रही

कुहासे को भेदकर देखो घर के भीतर आ रही

पग-पग चढ़ती, पग-पग रुकती, कहाँ चली ये

पकड़ो-पकड़ो भाग न जाये, मेरे हाथ न आ रही।

दुख-सुख तो आने-जाने हैं
मिल जाये जब मज़बूत सहारा राहें सरल हो जाती हैं

कौन है अपना, कौन पराया, ज़रा पहचान हो जाती है

दुख-सुख तो आने-जाने हैं, किसने देखा, किसने समझा

जब हाथ थाम ले कोई, राहें समतल,सरल हो जाती हैं।

तू कोमल नार मैं तेरा प्यार
हाथ जोड़ता हूँ तेरे, तेरी चप्पल टूट गई, ला मैं जुड़वा लाता हूँ

न जा पैदल प्यारी, साईकल लाया मैं, इस पर लेकर जाता हूँ

लोग न जाने क्या-क्या समझेंगे, तू कोमल नार मैं तेरा प्यार

आजा-आजा, आज तुझे मैं लाल-किला दिखलाने ले जाता हूँ

माँ की ममता
जीवन के सुखमय पल बस माँ के संग ही होते हैं

नयनों से बरसे नेह, संतति के सुखद पल होते हैं

हिलमिल-हिलमिल बस जीवन बीता जाता यूँ ही

किसने जाना, माँ की ममता में अनमोल रत्न होते हैं।

वन्दन करें अभिनन्दन करें

देश की आन, शान, बान के लिए शहीद हुए, मोल न लगाईये

उनकी दिखाई राह पर चल सकें, बस इतनी सोच ही बढ़ाईये

भारत की सुन्दर धरा को निखार सकें, इतना विचार कीजिए

वन्दन करें, अभिनन्दन करें, उनकी शान में शीश ही झुकाईये

 

आंख की कमान तान

आंख की कमान तान

मेरी ले यह बात मान

रखना नज़र टेढ़ी सदा

साथ रखना खुले कान

दो पंछी

गुपचुप, छुपछुपकर बैठे दो पंछी

नेह-नीर में भीग रहे दो पंछी

घन बरसे, मन हरषे, देख रहे

साथ-साथ बैठे खुश हैं दो पंछी

बस यूं ही
बेमौसम मन में बिजली कड़के

जब देखो दाईं आंख है फ़ड़के

मन यूं ही बस डरने लगता है

आंखों से तब गंगा-यमुना बरसे

वेदनाओं की गांठें खोल

बांध ज़िन्दगी में पीड़ा की गठरियों को

कुछ हंस-बोल ले, खोल दे गठरियों को

वेदनाओं की गांठें खोल, कहीं दूर फेंक

तोड़ फेंक झूठे रिश्तों की गठरियों को

इच्छाएं अनन्त
इच्छाएं अनन्त, फैली दिगन्त

पूर्ण होती नहीं, भाव भिड़न्त 

कितनी है भागम-भाग यहां

प्रारम्भ-अन्त सब है ज्वलन्त

धागा प्रेम का

रहिमन धागा प्रेम का

कब का गया है टूट।

गांठें मार-मार,

रहें हैं रस्सियाॅं खींच।

रस्सियाॅं भी अब गल गईं

धागा-धागा बिखर रहा।

गांठों को सहेजकर

बंधे नहीं अब मन की डोर।

जाने किस आस में

बैठे हाथों को जोड़।

जो छूट गया

उसे छोड़कर

अब तो आगे बढ़।

प्रेम-प्यार के किस्से

हो गये अब तो झूठ

हीर-रांझा, लैला-मजनूं

को जाओ अब तुम भूल।

रस्सियों का अब गया ज़माना

कसकर हाथ पकड़कर घूम।

 

अच्छा ही हुआ

अच्छा ही हुआ

कोई समझा नहीं।

कुछ शब्द थे

जो मैं यूॅं ही कह बैठी,

मन का गुबार निकाल बैठी।

कहना कुछ था

कह कुछ बैठी।

न नाराज़गी थी

न थी कोई खुशी।

पर कुछ तो था

जो मैं कह बैठी।

बहुत कुछ होता है

जो नहीं कहना चाहिए

बस मन ही मन में

कुढ़ते रहना चाहिए

अन्तर्मन जले तो जले

पर दुनिया को

कुछ भी पता न चले।

वैसे भी मेरी बातें

कहाॅं समझ आती हैं

किसी को।

पर

ऐसा कुछ तो था

जो नहीं कहना चाहिए था

मैं यूॅं ही कह बैठी।

 

 

बसन्त के फूल खिलें
फूलों के बसन्त की 

प्रतीक्षा नहीं करती मैं

मन में बसन्त के फूल खिलें

बस इतना ही चाहती हूं मैं

जीवन की राहों में

कदम-ताल करते चलें

मन में उमंग

भावों में तरंग

बगिया में हर रंग

और तुम संग

सुनहरे रंगों की लकीर

आप ही खिंच जाती है

ज़िन्दगी में

तो और क्या चाहिए भला।

 

जब से मुस्कुराना देखा हमारा

जब से मुस्कुराना देखा हमारा

जाने क्यों आप चिन्तित दिखे

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हमारे उपवन में फूल सुन्दर खिले

तुम्हारी खुशियों पर क्यों पाला पड़ा

-

चली थी चाॅंद-तारों को बांध मुट्ठी में मैं

तुम क्यों कोहरे की चादर लेकर चले

-

बारिश की बूंदों से आह्लादित था मेरा मन

तुम क्यों आंधी-तूफ़ान लेकर आगे बढ़े

-

भाग-दौड़ तो ज़िन्दगी में लगी रहती है

तुम क्यों राहों में कांटे बिछाते चले।

-

अब और क्या-क्या बताएॅं तुम्हें

-

हमने अपना दर्द छिपा लिया था

झूठी मुस्कुराहटों में

तुम कभी भी तो यह समझ पाये।

 

कहीं सच न बोल बैठे

रहने दो मत छेड़ो दर्द को

कहीं सच न बोल बैठे।

राहों में फूल थे

न जाने कांटे कैसे चुभे।

चांद-सितारों से सजा था आंगन

न जाने कैसे शूल बन बैठे।

हरी-भरी थी सारी दुनिया

न जाने कैसे सूखे पल्लव बन बैठे।

सदानीरा थी नदियां

न जाने कैसे हृदय के भाव रीत गये।

रिश्तों की भीड़ थी मेरे आस-पास

न जाने कैसे सब मुझसे दूर हो गये।

स्मृतियों का अथाह सागर उमड़ता था

न जाने कैसे सब पन्ने सूख गये।

सूरज-चंदा की रोशनी से

आंखें चुंधिया जाती थीं

न जाने कैसे सब अंधेरे में खो गये।

बंद आंखों में हज़ारों सपने सजाये बैठी थी

न जाने कैसे आंख खुली, सब ओझल हो गये।

नहीं चाहा था कभी बहुत कुछ

पर जो चाहा वह भी सपने बनकर रह गये।

ध्वनियां विचलित करती हैं मुझे

कुछ ध्वनियां

विचलित करती हैं मुझे

मानों

कोई पुकार है

कहीं दूर से

अपना है या अजनबी

नहीं समझ पाती मैं।

कोई इस पार है

या उस पार

नहीं परख पाती मैं।

शब्दरहित ये आवाजे़ं

भीतर जाकर

कहीं ठहर-सी जाती हैं

कोई अनहोनी है,

या किसी अच्छे पल की आहट

नहीं बता पाती मैं।

कुछ ध्वनियां

मेरे भीतर भी बिखरती हैं

और बाहर की ध्वनियों से बंधकर

एक नया संसार रचती हैं

अच्छा या बुरा

दुख या सुख

समय बतायेगा।