औरत का गुणगान करें

चलो,

आज फिर

औरत का गुणगान करें।

चूल्हे पर

पकती रोटी का

रसपान करें।

कितनी सरल-सीधी

संस्कारी है ये औरत

घूँघट काढ़े बैठी है

आधुनिकता से परे

शील की चादर ओढ़े बैठी है।

लकड़ी का धुआँ

आँखों में चुभता है

मन में घुटता है।

पर तुमको

बहुत भाता है

संसार भर में

मेरी मासूमियत के

गीत गाता है।

आधुनिकता में जीता है

आधुनिकता का खाता है

पर समझ नहीं पाती

कि तुमको

मेरा यही रूप क्यों सुहाता है।

 

मौसम बदलता है या मन

मौसम बदलता है या मन

समझ नहीं पाते हैं हम।

कभी शीत ऋतु में भी

मन चहकता है

कभी बसन्त भी

बहार लेकर नहीं आता।

ग्रीष्म में मन में

कोमल-कोमल भाव

करवट लेने लगते हैं

तब तपन का

एहसास नहीं होता

और शीत ऋतु में

मन जलता है।

मौसम बदलता है या मन

समझ नहीं पाते हैं हम।

 

सृजनकर्ता का आभार

उस सृजनकर्ता का

आभार व्यक्त नहीं कर पाती मैं

जिसने इतने सुन्दर,

मोहक संसार की रचना की।

उस आनन्द को

व्यक्त नहीं कर सकती मैं

जो इस सृष्टिकर्ता ने

हमें दिया।

उससे ही मिले

आकाश को विस्तार देकर

गर्वोन्नत होने लगते हैं हम।

उससे मिली अमूल्य धरोहर को

अपना कहकर

अधिकार जमाने लगते हैं हम।

भूल जाते हैं उसे।

-

किन्तु नहीं जानते

कब जीवन में सब

उलट-पुलट हो जायेगा,

खाली हो जायेंगे हाथ।

और ये खाली हाथ

जुड़ जायेंगे

उसकी सत्ता स्वीकार करते हुए।

 

पानी के बुलबुलों सी ज़िन्दगी

जल के चिन्ह

कभी ठहरते नहीं

पलभर में

अपना रूप बदलकर

भाग जाते हैं

बिखर जाते हैं

तो कभी कुछ

नया बना जाते हैं।

छलक-छलक कर

बहुत कुछ कह जाते हैं

हाथों से छूने पर

बुलबुलों से

भाग जाते हैं।

लेकिन कभी-कभी

जल की बूंदें भी

बहुत गहरे

निशान बना जाती हैं

जीवन में,

बस हम अर्थ

ढूंढते रह जाते हैं।

और ज़िन्दगी

जब

कदम-ताल करती है,

तब हमारी समझ भी

पानी के बुलबुलों-सी

बिखर-बिखर जाती है।

 

मेरी प्रार्थनाएं
मैं नहीं जानती

प्रार्थनाएं कैसे करते हैं

क्यों करते हैं,

और किसके सामने करते हैं।

मैं तो यह भी नहीं जानती

कि प्रार्थनाएं करने से

क्या मिल पाता है

और क्या मांगना चाहिए।

सूरज को देखती हूं।

चांद को निरखती हूं।

बाहर निकलती हूं

तो प्रकृति से मिलती हूं।

पत्तों-फूलों को छूकर

कुछ एहसास

जोड़ती हूं।

गगन को आंखों में

बसाती हूं

धरा से नेह पाती हूं।

लौटकर बच्चों के माथे पर

स्नेह-भाव अंकित करती हूं,

वे मुझे गले से लगा लेते हैं

इस तरह मैं

ज़िन्दगी से जुड़ जाती हूं।

मेरी प्रार्थनाएं

पूरी हो जाती हैं।

 

वो हमारे बाप बन गये

छोटा-सा बच्चा कब बाप बन गया।

बहू आई तब बच्ची-सी।

प्यारी-दुलारी-न्यारी पोती आई

जीवन में बहार छाई।

बेटे ने घर-बार सम्हाला,

डाँट-डपटकर हमें समझाते।

चिन्ता में हर दम घुलते रहते।

हारी-बीमारी में

भागे-भागे चिन्ता करते।

ये खालो, वो खा लो

मीठा छीनकर ले जाते।

आराम करो, आराम करो

हरदम बस ये ही कहते रहते।

हर सुविधा देकर भी

चैन से न बैठ पाते।

हम हो गये बच्चों से

वो हमारे बाप बन गये।

 

अंधविश्वास अथवा विश्वास

अंधविश्वास पर बात करना एक बहुत ही विशद, गम्भीर एवं मनन का विषय है जिसे कुछ शब्दों में नहीं समेटा जा सकता। कल तक जो विश्वास था, परम्पराएँ थीं, रीति-नीति थे, सिद्धान्त थे, काल परिवर्तन के साथ रूढ़ियाँ और अंधविश्वास बन जाते हैं। तो क्या हमारे पूर्वज रूढ़िवादी, अंधविश्वासी थे अथवा हम कुछ ज़्यादा ही आधुनिक हो रहे हैं और अपनी परम्पराओं की उपेक्षा करने लगे हैं?

मेरी ओर से दोनों ही का उत्तर नहीं में हैं।

 

अंधविश्वास और विश्वास में कितना अन्तर है? केवल एक महीन-सी रेखा का। विश्वास और अंधविश्वास दोनों को ही किसी तराजू में तोलकर अथवा किसी मापनी द्वारा सही-गलत नहीं सिद्ध किया जा सकता। यदि हम अंधविश्वास पर बात करते हैं तो विश्वास पर तो बात करनी ही होगी। वास्तव में मेरे विचार में विश्वास एवं अंधविश्वास एक मनोभाव हैं, स्वचिन्तन हैं, अनुभूत सत्य है और कुछ सुनी-सुनाई, जिनके कारण हमारे विचारों एवं चिन्तन का विकास होता है।

विश्वास और अंधविश्वास दोनों ही काल, आवश्यकता, विकास, प्रगति, एवं जीवनचर्या के अनुसार बदलते हैं। इनके साथ एक सामान्य ज्ञान, अनुभूत सत्य बहुत महत्व रखते हैं।

एक-दो उदाहरणों द्वारा अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूँगी।

जैसे हमारी माँ रात्रि में झाड़ू लगाने के लिए मना करती थी, कारण कि अपशकुन होता है। कभी सफ़ाई करनी ही पड़े तो कपड़े से कचरा समेटा जाता था और बाहर नहीं फ़ेंका जाता था। हमारे लिए यह अंधविश्वास था। किन्तु इसके पीछे उस समय एक ठोस कारण था कि बिजली नहीं होती थी और अंधेरे में कोई काम की वस्तु जा सकती है इसलिए या तो झाड़ू ही न लगाया जाये और यदि सफ़ाई करनी ही पड़े तो एक कोने में कचरा समेट दें, सुबह फ़ेंके।

उस समय अनेक गम्भीर रोगों की चिकित्सा उपलब्ध नहीं थी, घरेलू उपचार ही होते थे। रोग संक्रामक होते थे। तब लोग इन रोगों से बचने के लिए हवन करवाते थे जो हमें आज अंधविश्वास लगते हैं। किन्तु वास्तव में हवन-सामग्री में ऐसी वस्तुएँ एवं समिधा में ऐसे गुण रहते थे जो कीटाणुनाशक होते थे और घर में कीटाणुओं का नाश होने से परिवार के अन्य सदस्यों को उस संक्रामक रोग से बचाने का प्रयास होता था। आज ऐसी शुद्ध सामग्री ही उपलब्ध नहीं है और चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध हैं अतः यह आज हमारी दृष्टि में अंधविश्वास है।

शंख-ध्वनि से अदृश्य जीवाणुओं का भी नाश होता है, इसी कारण हवन में एवं शव के साथ शंख बजाया जाता है क्योंकि यह माना जाता है कि शव के साथ अदृश्य जीवाणु उत्पन्न होने लगते हैं जिनका अन्यथा नाश सम्भव ही नहीं है। आज हमारी दृष्टि में यह अंधविश्वास हो सकता है किन्तु यह वैज्ञानिक सत्य भी है।

अंगूठियाँ, धागे, तावीज़, कान, नाक, पैरों में आभूषण: यह सब हमारे रक्त प्रवाह एवं नाड़ी तंत्र को प्रभावित करते हैं जिस कारण रोग-प्रतिरोधक क्षमता बनती है किन्तु वर्तमान में हमें यह अंधविश्वास ही लगते हैं क्योंकि हम इनके नियमों का पालन नहीं करते इस कारण ये अप्रभावी रहते हैं एवं शुद्ध रूप में उपलब्ध भी नहीं होते।

अतः कह सकते हैं कि अंधविश्वास भी एक विश्वास ही है बस जैसा हम मान लें, न कुछ गलत न ठीक। बस हमारे विश्वास अथवा अंधविश्वास से किसी की हानि न हो।

  

कोरोना ने नहीं छोड़ा कोई कोना

कोरोना ने नहीं छोड़ा कोई कोना, अब क्या-क्या रोना, और क्या कोरो-ना और क्या न कोरो-ना। किसी न किसी रूप में सबके घर में, मन में, वस्तुओं में पसर ही गया है।

खांसी, बुखार, गले में खराश। बस इनसे बचकर रहना होगा।

 पहले कहते थे, खांसी आ रही है, जा बाहर हवा में जा।

अब कहते हैं बाहर मत जाना कोई खांसी की आवाज़ न सुन ले।

प्रत्येक वर्ष अप्रैल में घूमने जाने का कार्यक्रम बनाते हैं, बच्चों की छुट्टियां होती हैं चार-पांच दिन की। अभी सोच ही रहे थे कि बुकिंग करवा ले, कि कोरोना की आहट होने लगी। बच गये, पैसे भी और हम भी।

एकदम से एक भय व्याप्त हुआ, राशन है क्या, दूध का कैसे होगा, सब्ज़ियां मिलेंगी क्या, छोटी-सी पोती के दूध का कैसे करेंगे?

भाग्यवश बच्चे तो पहले ही वर्क फ्राम होम थे, पति सेवा-निवृत्त, अब हम भी हो गये घर में ही।

लगभग दो महीने विद्यालय बन्द हो गये। 23 मार्च से लेकर पूरा अप्रैल और मई घर में ही बन्द होकर निकल गया, एक महीना तो सील बन्द रहे। 5 दिन सब्जी, फल, दूध कुछ नहीं। किन्तु समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं लगा।

जून में धीरे-धीरे विद्यालय के द्वार उन्मुक्त होने लगे। एक-एक करके गैरशैक्षणिक कर्मचारियों को बुलाया जाने लगा। अब मै। 65 वर्ष की, 66वें प्रवेश कर चुकी। इसलिए मुझे ज़रा देर से आवाज़ लगी। 2 जून को विद्यालय जाने लगी, सप्ताह में पांच दिन कार्यदिवस, मात्र चार घंटे के लिए। किन्तु मन नहीं मान रहा था। न तो दूरी का ध्यान रखा जा रहा था और न ही सैनिटाईज़ेशन का, एक लापरवाही दिख रही थी मुझे। जिसे कहो वही रूष्ट। अब संस्थाएं वेतन का एक हिस्सा तो दे रही थीं, तो काम भी लेना था।

सरकार ने कहा आप 66 के हो अतः घर बैठो, घर से काम करो। अब घर से तो काम नहीं हो सकते सारे। विद्यालय के कम्पयूटर पर, साफ्टवेयर और डाटा तो वहीं रहेगा, पुस्तकें तो घर नहीं आयेंगी। कहना अलग बात है किन्तु कार्यालयों में 6 फ़ीट की दूरी से काम चल ही नहीं सकता।

अब जुलाई में किये जाने काम वाले हावी होने लगे थे, परीक्षा परिणाम, नये विद्यार्थियों का प्रवेश, वार्षिक मिलान और पता नहीं क्या-क्या।

हमारे सैक्टर में कोरोना के मामले फिर बढ़ने लगे, हम सब डरने लगे।

तो क्या पलायन करना होगा अथवा इसे सावधानी और एक सही निर्णय कहा जायेगा, पता नहीं।

किन्तु निर्णय लिया और भारी मन से 18 वर्ष की नौकरी सकारण या अकारण अनायास ही छोड़ दी।

सब कहते हैं मैं तो भवन से निकल आई, भवन मेरे भीतर से कभी नहीं निकलेगा।

   

 

संयुक्त परिवार या एकल परिवार
समाज में, जीवन में एवं परिवारों में कुछ परिवर्तन सहज होते हैं किन्तु हम उन्हें उतनी सहजता से स्वीकार नहीं करते। इसका सबसे बड़ा कारण यह कि हमारे मन-मस्तिष्क में प्राचीनता बहुत गहरे से पहरा डालकर बैठी है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि संयुक्त परिवार समाप्त होते जा रहे हैं। मेरी दृष्टि में यह पारिवारिक जीवन में परिवर्तन की एक सहज स्थिति है जिस पर हमारा वश नहीं है।

हाँ, इस पर हमारा वश अवश्य है कि यदि हम वयोवृद्ध हैं तो नई पीढ़ी पर सारा आरोप थोप देते हैं कि युवा पीढ़ी दिशा भटक गई है, बुज़ुर्गों को बोझ समझती है, उन्हें पसन्द नहीं करती, उसकी देखभाल नहीं करती, श्रवण कुमार नहीं है। संस्कृति, परम्पराओं, नैतिक मूल्यों का सम्मान नहीं करती, बड़ों का आदर नहीं करती।

मैंने आज तक युवा पीढ़ी में किसी को यह कहते नहीं सुना कि हमारे माता-पिता हमारे बच्चों यानी अपने नाती-पोतियों का ध्यान नहीं रखते, उनसे प्यार नहीं करते अथवा उनकी देखभाल में समय नहीं देते। सारी की सारी शिकायत गुज़री हुई पीढ़ी को ही है।

यदि हम, हमसे भी पिछली पीढ़ी की बात करें तब पूर्णतया संयुक्त परिवार ही होते थे। अर्थात् प्रायः पूरी तीन पीढ़ियाँ एक साथ रहती थीं। यदि चार भाई हैं तो वे भी एक ही छत और व्यवस्था के भीतर साथ ही रहते थे। और प्रायः सभी परिवारों में पाँच-सात बच्चे तो होते ही थे। उस समय अधिकांश परिवार व्यवसाय-आधारित अथवा कृषि पर ही आश्रित हुआ करते थे। और यदि किसी परिवार से कोई एक सदस्य नौकरी करने जाता भी था तो ‘‘दूर देस’’ जाता था, उसका अपना परिवार अर्थात् पत्नी और बच्चे वहीं रहते थे। वह एक व्यवस्था थी। अपने घर, खुले स्थान, घर की दाल-रोटी एवं कार्यों का अनकहा बंटवारा हुआ करता था फिर वह घर से बाहर पुरुषों का कार्यक्षेत्र हो अथवा घर के भीतर महिलाओं का।

फिर परिवर्तन का दौर शुरु हुआ। परिवार छोटे होने लगे। दो या तीन बच्चे। व्यवसाय एवं कृषि से परिवारों का पालन कठिन होने लगा और पुरुष नौकरी करने लगे। नारी शिक्षा आरम्भ हुई और महिलाओं के जीवन में एक गहरा परिवर्तन आया। शिक्षा का विस्तार होने लगा और माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए शहरों की ओर बढ़ने लगे। यह विकास का एक सहज-स्वाभाविक रूप था। अपने घर एवं स्थान से जुड़े माता-पिता अपना स्थान नहीं छोड़ना चाहते, नवीनता एवं आधुनिकता को सहजता से स्वीकार नहीं करते और युवा अपनी नौकरी, कार्य-स्थल, प्रगति, शिक्षा के अवसरों के कारण शहरों में बसने लगी। इस समस्या का कोई समाधान नहीं है। समाधान है तो केवल इतना कि इस परिवर्तन को सहज रूप से स्वीकार किया जाये और जितना सामंजस्य बिठाया जा सके, बिठाया जाये न कि दोषारोपण पद्धति पर चला जाये। प्रश्न संयुक्त परिवार के पक्ष-विपक्ष का है ही नहीं, बदली जीवन-शैली का है, शिक्षा के बदले स्वरूप का है, वैश्विक दौर का है, विकास की गति का है, जिसे हम कदापि दोष नहीं दे सकते।

अब हम आज भी कहें कि गाँवों की जीवन-शैली बहुत अच्छी थी, भारत की गुरुकुल शिक्षा जैसी कोई पद्धति नहीं थी, निःसंदेह नहीं थी किन्तु आज तो सम्भव नहीं है ये सब। तो जो आज सम्भव है उसमें सन्तोष करें और अकारण पीढ़ियों, संस्कारों, परम्पराओं को कोसना और राग अलापना बन्द करें।

  

हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि काकभुशुण्डि
काकभुशुण्डि की कथा बहुत रोचक है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इनका जन्म अयोध्या में शूद्र परिवार में हुआ था। ये अनन्य रामभक्त थे। ज्ञानी ऋषि थे, भगवान शिव का मंत्र प्राप्त कर महाज्ञानी बने किन्तु अभिमानी भी।  इस अभिमान में उन्होंने अपने गुरु ब्राह्मण का एवं शिव का भी अपमान किया जिस कारण भगवान शिव ने उन्हें सर्प की अधर्म योनि में जाने के श्राप के साथ उपरान्त एक हज़ार योनियों में जन्म लेने का भी श्राप दिया। काकभुशुण्डि के गुरु ने शिव से उन्हें श्राप से मुक्त करने की प्रार्थना की। किन्तु शिव ने कहा कि वे श्रापमुक्त तो नहीं हो सकते किन्तु उन्हें इन जन्म-मरण में कोई कष्ट नहीं होगा, ज्ञान भी नहीं मिटेगा एवं रामभक्ति भी बनी रहेगी। इस तरह इन्हें अन्तिम जन्म ब्राह्मण का मिला। इस जन्म में वे ज्ञान प्राप्ति के लिए लोमश ऋषि के पास गये किन्तु वहां उनके तर्क-वितर्क से कुपित होकर लोमश ऋषि ने उन्हें चाण्डाल पक्षी कौआ बनने का श्राप दे दिया। बाद में लोमश ऋषि को अपने दिये श्राप पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने कौए को वापिस बुलाकर राम-मंत्र दिया और इच्छा मृत्यु का वरदान भी। श्रीराम का मंत्र मिलने पर कौए को अपने इसी रूप से प्यार हो गया और वह कौए के रूप में ही रहने लगा, तभी से उन्हें काकभुशुण्डि नाम से जाना जाने लगा।
वेद और पुराणों के अनुसार काकभुशुण्डि न 11 बार रामायण और 16 बार महाभारत देखीं वह कल्प अर्थात जब तक यह संसार रहेगा वे उसके अन्त तक अपने शाश्वत रूप में जीवित रहेंगे। यह अमरता राम ने ही प्रदान की कि काल भी काकभुशुण्डि को नहीं मार सकता और वे इस कल्प के अन्त तक जीवित रहेंगे। इस शाश्वत आनन्द को काकभुशुण्डि समय यात्रा अर्थात Time Travel कहा जाता है। 

  


 
भाई के नाम एक प्यार भरी पाती
प्रिय भाई, 
कैसे हैं आप। 
हर वर्ष तुम्हें मेरे दो पत्र मिलते हैं और मैं एक झूठी आशा में रहती हूं कि उत्तर आयेगा। तुम्हें अपना बनाने की कोशिश में तो आजीवन रहूंगी भाई। 
भाई, बरसों हो गये, हर राखी, भैया-दूज सूनी निकल जाती है। क्यों आज भाई यह समझने लगे हैं कि बहनें बस स्वार्थवश ही भाईयों को स्मरण करती हैं? मम्मी-पापा के रहते शायद तुम्हारी विवशता थी मुझे बुलाना। तुम्हारी उपेक्षा तब भी मैं समझती थी किन्तु सोचती थी कि तुम्हारा स्वभाव ही ऐसा है तो कोई बात नहीं।  किन्तु जब भी ये पर्व आते हैं, भाई-बहनों को हंसते-खिलखिलाते देखती हूं तो बहुत कुछ टूटता है मेरे भीतर।
जानती हूं कि पारिवारिक स्थितियों के कारण परिवार का बोझ तुम्हारे कंधों पर बहुत जल्दी आ गया था और चार-चार बहनें थीं तुम्हारी। तुम्हारे मन में यह गहरे से बैठ गया था कि चारों बहनें तुम पर बोझ हैं और शायद हमारे कारण तुम जीवन में कभी कुछ न कर पाओ। हर परिचित-अपरिचित तुम्हें यही कहता था बेचारा विनोद, बूढ़े माता-पिता और चार-चार बहनें। बेचारा। किन्तु हमने तो तुम्हें कभी भी बेचारा नहीं बनने दिया। हम सब बहनों ने सदैव तुम्हारा हाथ बंटाया और अपना कर्तव्य भी निभाया। हम चारों ही आत्मनिर्भर हुईं और अपने-अपने रास्ते निकल गईं। किन्तु बचपन से बंधी गांठ कभी भी तुम्हारे मन से निकल ही नहीं पाई। केवल यह सोचकर कि बहनें बोझ होती हैं तुमने हम सब बहनों से सम्बन्ध ही तोड़ लिये। हमने तो कभी कोई मांग नहीं की। तुम भाई-बहन के सरल-सहज रिश्ते को कभी समझ ही नहीं पाये।
कितने वर्ष हो गये, हर वर्ष पत्र लिखती हूं यह जानते हुए भी कि उत्तर नहीं आयेगा किन्तु मेरा मन नहीं मानता। शायद कभी तुम समझ सको। एक निरर्थक-सी आस लिए जी रही हूं और सदैव इस आस में रहूंगी। मैं जानती हूं कि यह पत्र तुम्हारे लिए निरर्थक है किन्तु अपने मन को कैसे समझाउं।
तुम सदैव स्वस्थ रहो, सानन्द रहो, यही कामना है मेरी।
तुम्हारी बहन
कविता सूद 

 


 
सच आज लिख ज़रा

जीवन का हर सच, आज लिख ज़रा

झूठ को समझकर, आज लिख ज़रा

न डर किसी से, आज कोई क्या कहे

राज़ खोल दे आज, हर बात लिख ज़रा

फूलों की मधुर मुस्कान
हथेलियों पर लेकर आये हैं फूलों की मधुर मुस्कान

जीवन महका, रंगों की आभा से खिल रही मुस्कान

पीले रंगों से मन बासन्ती हो उठा, क्यों बहक रहा

प्यार का संदेश है यहाँ हर पल बिखर रही मुस्कान

वक्त तक  तोड़ न पाया मुझे

मेरे इरादों को मेरी उम्र से जोड़कर हरगिज़ मत देखना

हिमालय को परखती हूं यह समझ कर, मेरी ओर हेरना

उम्र सत्तर है तो क्या हुआ, हिम्मत अभी भी बीस की है

वक्त तक  तोड़ न पाया मुझे, समझकर मेरी ओर देखना

अपना जीवन है
अपनी इच्छाओं पर जीने का साहस रख

कोई क्या कहता है इससे न मतलब रख

घुट-घुटकर जीना भी कोई जीना है यारो

अपना जीवन है, औरों के आरोप ताक पर रख

अनिच्छाओं को रोक मत
अनिच्छाओं को रोक मत प्रदर्शित कर

कोई रूठता है तो रूठने दे, तू मत डर

कब तक औरों की खुशियों को ढोते रहेंगे

जो मन न भाये उससे अपने को दूर रख

जीवन की भाग-दौड़ में

जीवन की भाग-दौड़ में कौन हमराही, हमसफ़र कौन

कौन मिला, कौन छूट गया, हमें यहाँ बतलाएगा कौन

आपा-धापी, इसकी-उसकी, उठा-पटक लगी हुई है

कौन है अपना, कौन पराया, ये हमें समझायेगा कौन

भटकन है
दर्द बहुत है पर क्यों बतलाएँ तुमको

प्रश्न बहुत हैं पर कौन सुलझाए उनको

बात करते हैं तब उलाहने ही मिलते हैं

भटकन है पर कोई न राह दिखाए हमको

मन के सच्चे
कानों के तो कच्चे हैं

लेकिन मन के सच्चे हैं

जो सुनते हैं कह देते हैं

मन में कुछ न रखे हैं।

तुमसे ही करते हैं तुम्हारी शिकायत

क्षणिक आवेश में कुछ भी कह देते हैं

शब्द तुम्हारे लौटते नहीं, सह लेते हैं

तुमसे ही करते हैं तुम्हारी शिकायत

इस मूर्खता को आप क्या कहते हैं

भाव

हाइकु

=======

मन में आस

कैसे करें विश्वास

चेहरे बोलें

-

मन में भाव

आशा और निराशा

आँखें बरसें।

-

मन तरसे

कैसे कहें किसी से

कौन अपना

-

 

हम धीरे-धीरे मरने लगते हैं We just Start Dying Slowly

जब हम अपने मन से

जीना छोड़ देते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम

अपने मन की सुनना

बन्द कर देते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम अपने नासूर

कुरेद कर

दूसरों के जख़्म भरने लगते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम अपने आंसुओं को

आंखों में सोखकर

दूसरों की मुस्कुराहट पर

खिलखिलाकर हँसते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम अपने सपनों को

भ्रम समझकर

दूसरों के सपने संजोने लगते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम अपने सत्कर्मों को भूलकर

दूसरों के अपराधों का

गुणगान करने लगते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम सवालों से घिरे

उत्तर देने से बचने लगते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम सच्चाईयों से

टकराने की हिम्मत खो बैठते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

जब हम

औरों के झूठ का पुलिंदा लिए

उसे सत्य बनाने के लिए

घूमने लगते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम कांटों में

सुगन्ध ढूंढने लगते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम

दुनियादारी की कोशिश में

परायों को अपना समझने लगते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम

विरोध की ताकत खो बैठते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम औरों के अपराध के लिए

अपने-आपको दोषी मानने लगते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हमारी आँखें

दूसरों की आँखों से

देखने लगती हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हमारे कान

केवल वही सुनने लगते हैं

जो तुम सुनाना चाहते हो

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम केवल

इसलिए खुश रहने लगते हैं

कि कोई रुष्ट न हो जाये

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हमारी तर्कशक्ति

क्षीण होने लगती है

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हमारी विरोध की क्षमता

मरने लगती है

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम

नीम-करेले के रस को

शहद समझकर पीने लगते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम

सपने देखने से डरने लगते हैं

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

जब हम

अकारण ही

हँसते- हँसते रोने लगते हैं

और हँसते-हँसते रोने

तब हम

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

-

हम बस यूँ ही

धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

 

 

आज मौसम मिला

आज मौसम मिला।

मैंने पूछा

आजकल

ये क्या रंग दिखा रहे हो।

कौन से कैलेण्डर पर

अपना रूप बना रहे हो।

अप्रैल में अक्तूबर,

और मई में

अगस्त के दर्शन

करवा रहे हो।

मौसम

मासूमियत से बोला

आजकल

इंसानों की बस्ती में

ज़्यादा रहने लगा था।

माह और तारीखों पर

ध्यान नहीं लगा था।

उनके मन को पढ़ता था

और वैसे ही मौसम रचने लगा था।

अपने और परायों में

भेद समझने में लगा था।

कौन किसका कब हुआ

यह परखने में लगा था।

कब कैसे पल्टी मारी जाती है,

किसे क्यों

साथ लेकर चलना है

और किसे पटखनी मारी जानी है

बस यही समझने में लगा था।

गर्मी, सर्दी, बरसात

तो आते-जाते रहते हैं

मैं तो तुम्हारे भीतर के

पल-पल बदलते मौसम को

समझने में लगा था।

.

इतनी जल्दी घबरा गये।

तुमसे ही तो सीख रहा हूँ।

पल में तोला,पल में माशा

इधर पंसेरी उधर तमाशा।

अभी तो शुरुआत है प्यारे

आगे-आगे देखिए होता है क्या!!!

 

और जब टूटती है तन्द्रा

चलती हुई घड़ी

जब अचानक ठहर-जी जाती है,

लगता है

जीवन ही ठहर गया।

सूईयाँ अटकी-सी,

सहमी-सी,

कण-कण

खिसकने का प्रयास करती हैं,

अनमनी-सी,

किन्तु फिर वहीं आकर रुक जाती हैं।

हमारी लापरवाही, आलस्य

और काल के महत्व की उपेक्षा,

कभी-कभी भारी पड़ने लगती है

जब हम भूल जाते हैं

कि घड़ी ठहरी हुई,

चुपचाप, उपेक्षित,

हमें निरन्तर देख रही है।

और हम उनींदे-से,

उसकी चुप्पी से प्रभावित

उसके ठहरे समय को ही

सच मान लेते हैं।

और जब टूटती है तन्द्रा

तब तक न जाने कितना कुछ

छूट जाता है

बहुत कुछ बोलती है घड़ी

बस हम सुनना ही नहीं चाहते

इतना बोलने लगे हैं

कि किसी की क्या

अपनी ही आवाज़ से

उकता गये हैं ।

 

 

 

 

 

 

आंसुओं का क्या

भीग जाने दो आज

चेहरे को आंसुओं से,

भीतर जमी गर्द

धुल जायेगी।

नहीं चाहती मैं

कोई

उस गर्द को

छूने की कोशिश करे,

कोई पढ़े

उसके धुंधले हो चुके शब्द।

नहीं चाहती मैं

कोई कहानियां लिखे।

आंसुओं का क्या

वे तो

सुख-दुख दोनों में

बहते हैं

कौन समझता है

उनका अर्थ यहां।

 

शाम

हाइकु

शाम सुहानी

चंद्रमा की चांदनी

मन बहका

-

शाम सुहानी

पुष्प महक उठे

रंग बिखरे

-

किससे कहूं

रंगीन हुआ मन

शाम सुहानी

-

शाम की बात

सूरज डूब रहा

मन में तारे

 

शरद

हाइकु

शरद ऋतु

मीठी मीठी बयार

मन मुदित

-

कण बरसें

शरद की चांदनी

मन हुलसे

-

शरद ऋतु

चंदा की चांदनी

मन हुलसा

-

ओस के कण

पत्तों पर बहकते

भाव बिखरे

 

नहीं करूंगी इंतज़ार

मैं नहीं करूंगी

इंतज़ार तेरा कयामत तक।

.

कयामत की बात

नहीं करती मैं।

कयामत होने का

इंतज़ार नहीं करती मैं।

यह ज़िन्दगी

बड़ी हसीन है।

इसलिए

बात करती हूं

ज़िन्दगी की।

सपनों की।

अपनों की।

पल-पल की

खुशियों की।

मिलन की आस में

जीती हूं,

इंतज़ार की घड़ियों में

कोई आनन्द

नहीं मिलता है मुझे।

.

आना है तो आ,

नहीं तो

जहां जाना है वहां जा।

मैं नहीं करूंगी

इंतज़ार तेरा कयामत तक।


 

जीवन संघर्ष  का दूसरा नाम है

कहते हैं

जीवन संघर्ष  का

दूसरा नाम है।

किन्तु जीवन

बस

संघर्ष ही बना रहे

कभी समर या

संग्राम बनने दें।

कहने को तो

पर्यायवाची शब्द हैं

किन्तु जब

जीवन में उतरते हैं

तब

सबका अर्थ बदल जाता है

इसलिए सावधान रहें।

 

हे सागर, रास्ता दो मुझे

हे सागर, रास्ता दो मुझे

कहा था सतयुग में राम ने।

सागर की राह से

एक युद्ध की भूमिका थी।

कारण कोई भी रहा हो

युद्ध सुनिश्चित था।

किन्तु फिर भी

सागर का 

एक प्रयास

शायद

युद्ध को रोकने का,

और इसी कारण

मना कर दिया था

राम को राह देने के लिए,

राम की शक्ति को

जानते हुए भी।

शायद वह भी चाहता था

कि युद्ध न हो।

 

युद्ध राम-रावण का हो

अथवा कौरवों-पाण्डवों का

विनाश तो होता ही है

जिसे युगों-युगों तक

भोगती हैं

अगली पीढ़ियां।

 

युद्ध कोई भी हो,

अपनों से

या परायों से

एक बार तो

रोकने की कोशिश

करनी ही चाहिए।