पत्थरों में भगवान ढूंढते हैं

इंसान बनते नहीं,

पत्थर गढ़ते हैं,

भाव संवरते नहीं

पूजा करते हैं,

इंसानियत निभाते नहीं

निर्माण की बात करते हैं।

सिर ढकने को

छत दे सकते नहीं

आकाश छूती

मूर्तियों की बात करते हैं।

पत्थरों में भगवान

ढूंढते हैं

अपने भीतर की इंसानियत

को मारते हैं।

*  *  *  *

अपने भीतर

एक विध्वंस करके देख।

कुछ पुराना तोड़

कुछ नया बनाकर देख।

इंसानियत को

इंसानियत से जोड़कर देख।

पतझड़ में सावन की आस कर।

बादलों में

सतरंगी आभा की तलाश कर।

झड़ते पत्तों में

नवीन पंखुरियों की आस देख।

कुछ आप बदल

कुछ दूसरों से आस देख।

बस एक बार

अपने भीतर की कुण्ठाओं,

वर्जनाओं, मृत मान्यताओं को

तोड़ दे

समय की पुकार सुन

अपने को बदलने का साहस गुन।