अजब-सी भटकन है

फ़िरकी की तरह

घूमती है ज़िन्दगी।

कभी इधर, कभी उधर।

दुनियादारी में उलझी

कभी सुलझी, कभी न सुलझी।

अपनी-सी न लगती

जैसे उधारी किसी की।

अजब-सी भटकन है

कामनाओं का पर्वत है

उम्र पूछती है नाम।

अक्सर मन करता है

चादर ले

सिर ढक और लम्बी तान।

किन्तु

उन सलवटों का क्या करुं

जिन्हें वर्षों से छुपाती आ रही हूँ,

उन धागों का क्या करुँ

जिन्हें दुनिया-भर में तानती आ रही हूँ।

.

यार ! छोड़ अब ये ढकोसले।

बस, अपनी छान।

चादर ले

सिर ढक और लम्बी तान।