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मौसम की तरुणाई से मन-मग्न हुई तरुणी
बादलों की अंगड़ाई से मन-भीग गई तरूणी
चिड़िया चहकी, कोयल कूकी, मोर बोले मधुर
मन मधुर-मधुर, प्रेम-रस में डूब गई तरुणी
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जीवन की लम्बी राहों में
जीवन की लम्बी राहों में उलझे-बिखरे रस्ते हैं यादों के।
पीछे मुड़कर देखें तो कुछ मोती , कुछ कण्टक हैं वादों के।
किसने साथ दिया, कौन संग चला जीवन भर, क्या सोचना,
क्यों साथ लेकर चलें अकारण ही भरी संवादों के विवादों के ।
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मज़दूर दिवस मनाओ
तुम मेरे लिए
मज़दूर दिवस मनाओ
कुछ पन्ने छपवाओ
दीवारों पर लगवाओ
सभाओं का आयोजन करवाओ
मेरी निर्धनता, कर्मठता
पर बातें बनाओ।
मेरे बच्चों की
बाल-मज़दूरी के विरुद्ध
आवाज़ उठाओ।
उनकी शिक्षा पर चर्चा करवाओ।
अपराधियों की भांति
एक पंक्ति में खड़ाकर
कपड़े, रोटी और ढेर सारे
अपराध-बोध बंटवाओ।
एक दिन
बस एक दिन बच्चों को
केक, टाफ़ी, बिस्कुट खिलाओ।
.
कभी समय मिले
तो मेरी मेहनत की कीमत लगाओ
मेरे बनाये महलों के नीचे
दबी मेरी झोंपड़ी
की पन्नी हटवाओ।
मेरी हँसी और खुशी
की कीमत में कभी
अपने महलों की खुशी तुलवाओ।
अतिक्रमण के नाम पर
मेरी उजड़ी झोंपड़ी से
कभी अपने महल की सीमाएँ नपवाओ।
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अपने-आपसे करते हैं हम फ़रेब
अपने-आपसे करते हैं
हम फ़रेब
जब झूठ का
पर्दाफ़ाश नहीं करते।
किसी के धोखे को
सहन कर जाते हैं,
जब हँसकर
सह लेते हैं
किसी के अपशब्द।
हमारी सच्चाई
ईमानदारी का
जब कोई अपमान करता है
और हम
मन मसोसकर
रह जाते हैं
कोई प्रतिवाद नहीं करते।
हमारी राहों में
जब कोई कंकड़ बिछाता है
हम
अपनी ही भूल समझकर
चले रहते हैं
रक्त-रंजित।
औरों के फ़रेब पर
तालियाँ पीटते हैं
और अपने नाम पर
शर्मिंदा होते हैं।
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कल्पना में कमाल देखिए
मन में एक भाव-उमंग, तिरंगे की आन देखिए
रंगों से सजता संसार, कल्पना में कमाल देखिए
घर-घर लहराये तिरंगा, शान-आन और बान से
न सही पताका, पर पताका का यहाँ भाव देखिए
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लौटा दो मेरे बीते दिन
अब पानी में लहरें
हिलोरें नहीं लेतीं,
एक अजीब-सा
ठहराव दिखता है,
चंचलता मानों प्रश्न करती है,
किश्तियां ठहरी-ठहरी-सी
उदास
किसी प्रिय की आस में।
पर्वत सूने,
ताकते आकाश ,
न सफ़ेदी चमकती है
न हरियाली दमकती हैं।
फूल मुस्कुराते नहीं
भंवरे गुनगुनाते नहीं,
तितलियां
पराग चुनने से डरने लगी हैं।
केसर महकता नहीं,
चिड़िया चहकती नहीं,
इन सबकी यादें
कहीं पीछे छूटने लगी हैं।
जल में चांद का रूप
नहीं निखरता,
सौन्दर्य की तलाश में
आस बिखरने लगी है।
बस दूरियां ही दूरियां,
मन निराश करती हैं।
लौटा दो
मेरे बीते दिन।
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गूंगी,बहरी, अंधी दुनिया
कान तो हम
पहले ही बन्द किये बैठे थे,
चलो आज आंख भी मूंद लेते हैं।
वैसे भी हमने अपने दिमाग से तो
कब का
काम लेना बन्द कर दिया है
और दिल से सोचना-समझना।
हर बात के लिए
दूसरों की ओर ताकते हैं।
दायित्वों से बचते हैं
एक ने कहा
तो किसी दूसरे से सुना।
किसी तीसरे ने देखा
और किसी चौथे ने दिखाया।
बस इतने से ही
अब हम
अपनी दुनिया चलाने लगे हैं।
अपने डर को
औरों के कंधों पर रखकर
बंहगी बनाने लगे हैं।
कोई हमें आईना न दिखाने लग जाये
इसलिए
काला चश्मा चढ़ा लिया है
जिससे दुनिया रंगीन दिखती है,
और हमारी आंखों में झांककर
कोई हमारी वास्तविकता
परख नहीं सकता।
या कहीं कान में कोई फूंक न मार दे
इसलिए “हैड फोन” लगा लिए हैं।
अब हम चैन की नींद सोते हैं,
नये ज़माने के गीत गुनगुनाते हैं।
हां , इतना ज़रूर है
कि सब बोल-सुन चुकें
तो जिसका पलड़ा भारी हो
उसकी ओर हम हाथ बढ़ा देते हैं।
और फिर चश्मा उतारकर
हैडफोन निकालकर
ज़माने के विरूद्ध
एक लम्बी तकरीर देते हैं
फिर एक लम्बी जम्हाई लेकर
फिर अपनी पुरानी
मुद्रा में आ जाते हैं।
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अभिलाषाओं के कसीदे
आकाश पर अभिलाषाओं के कसीदे कढ़े थे
भावनाओं के ज्वार से माणिक-मोती जड़े थे
न जाने कब एक धागा छूटा हाथ से मेरे
समय से पहले ही सारे ख्वाब ज़मीन पर पड़े थे
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रे मन अपने भीतर झांक
सागर से गहरे हैं मन के भाव, किसने पाई थाह
सीपी में मोती से हैं मन के भाव, किसने पाई थाह
औरों के चिन्तन में डूबा है रे मन अपने भीतर झांक
जीवन लभ्य हो जायेगा जब पा लेगा अपने मन की थाह
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काश! यह दुनिया कोई सपना होती
काश!
यह दुनिया कोई सपना होती,
न तेरी होती न मेरी होती।
न किस्से होते
न कोई कहानी होती।
न झगड़ा, न लफ़ड़ा।
न मेरा न तेरा,
ये दुनिया कितनी अच्छी होती।
न जात-पात,
न धर्म-कर्म, न भेद-भाव।
आकाश भी अपना,
जमीन भी अपनी होती,
बहक-बहक कर,
चहक-चहक कर,
दिन-भर मीठे गीत सुनाते।
रात-रात भर
तारों संग
टिम-टिम-टिम-टिम घूमा करते,
सबका अपना चंदा होता,
चांदनी से न कोई शिकायत होती।
सब कुछ अपना-अपना लगता।
काश!
यह दुनिया कोई सपना होती,
न तेरी होती न मेरी होती।
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एक नाम और एक रूप हो
एक नाम और एक रूप हो
मन्दिर-मन्दिर घूम रही मैं।
भगवानों को ढूंढ रही मैं।
इसको, उसको, पूछ रही मैं।
कहां-कहां नहीं घूम रही मैं।
तू पालक, तू जगत-नियन्ता
तेरा राज्य ढूंढ रही मैं।
तू ही कर्ता, तू ही नियामक,
उलट-फेर न समझ रही मैं।
नामों की सूची है लम्बी,
किसको पूछूं, किसको पकड़ूं
दिन-भर कितना सोच रही मैं।
रूप हैं इतने, भाव हैं इतने,
किसको पूजूं, परख रही मैं।
सुनती हूं मैं, तू सुनता सबकी,
मेरी भी इक ले सुन,
एक नाम और एक रूप हो,
सबके मन में एक भाव हो,
दुनिया सारी तुझको पूजे,
न हो झगड़ा, न हो दंगा,
अपनी छोटी बुद्धि से
बस इतना ही सोच रही मैं।