आत्मस्वीकृति
कितनी-कितनी देर तक
बैठी रहती हूँ
देखती रहती हूँ स्क्रीन।
उपर से नीचे घुमाती रहती हैं
अंगुलियां स्क्रीन को।
कुछ पढ़ती हूँ
और कुछ अनपढ़ी रचनाओं को
निरखती हूँ।
निरर्थक वीडियो देखती रहती हूँ,
कुछ नाराज़गी से, कुछ चिढ़ से
न जाने क्या-क्या सोचती रहती हूँ।
मन करता है, कुछ लिखूं।
पर क्या करूंगी लिखकर।
न लिखने का मन रहता है
न पढ़ने का।
भटकन कहाँ है
बस यही समझ नहीं आता।
एक समय के बाद
शब्द बिखर जाते हैं
अर्थ बदल जाते हैं
भाव सिमट जाते हैं,
चल बन्द कर यह नाटक
और कुछ और काम कर।