कहत हैं रेत से घर नहीं बनते

मन से

अपनी राहों पर चलती हूं

दूर तक छूटे

अपने ही पद-चिन्हों को

परखती हूं

कहत हैं रेत से घर नहीं बनते

नहीं छूटते रेत पर निशान,

सागर पलटता है

और सब समेट ले जाता है

हवाएं उड़ती हैं और

सब समतल दिखता है,

किन्तु भीतर कितने उजड़े घर

कितने गहरे निशान छूटे हैं

कौन जानता है,

कहीं गहराई में

भीतर ही भीतर पलते

छूटे चिन्ह

कुछ पल के लिए

मन में गहरे तक रहते हैं

कौन चला, कहां चला, कहां से आया

कौन जाने

यूं ही, एक भटकन है

निरखती हूं, परखती हूं

लौट-लौट देखती हूं

पर बस अपने ही

निशान नहीं मिलते।