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मुस्कुराहटें बांटती हूँ
टोकरी-भर मुस्कुराहटें बांटती हूँ।
जीवन बोझ नहीं, ऐसा मानती हूँ।
काम जब ईमान हो तो डर कैसा,
नहीं किसी का एहसान माँगती हूँ।
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प्रकृति है जीवन सौन्दर्य
रक्त पीत वर्ण में बासंती बयार फ़लक है।
आकर्षित करता तुम्हारा रूप दृष्टि ललक है।
न जाने कब छा जायें घटाएं, बदले मौसम,
जीवन के सौन्दर्य की यह बस एक झलक है।
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इंसानों से काम करेंगें
इंसानों में रहते हैं तो इंसानों से काम करेंगें
आग जलाई तुमने हम सेंककर शीत हरेंगे
बाहर झड़ी लगी है, यहीं बितायेंगे दिन-रात
यहीं बैठकर रोटी-पानी खाकर पेट भरेंगे।
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दिल आजमाने में लगे हैं
अब गुब्बारों में दिल सजाने लगे हैं
उनकी कीमत हम लगाने लगे हैं
पांच-सात रूपये में ले जाईये मनचाहे
फुलाईये, फोड़िए
या यूं ही समय बिताने में लगे हैं
मायूसे दिल की ओर तो कोई देखता ही नहीं
सोने चांदी के भाव अब लगाने लगे हैं
दिल कहां, दिलदार कहां अब
बातें करते बहुत
पर असल ज़िन्दगी में टांके लगाने लगे हैं
कुछ तुम दीजिए, कुछ हमसे लीजिए
पर न फोड़ना इस दिल को
न काटना इसे
असलियत निकल आयेगी
न खून बहेगा, न आस आहें भरेंगी
बस रोंआ-रोंआ बिखरेगा
सरकार ने प्लास्टिक बन्द कर दिया है
बस इतनी सी बात हम बताने में लगे हैं
समझ आया हो कुछ, तो ठीक
नहीं तो हम
कहीं और दिल आजमाने में लगे हैं।
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ये आंखें
ज़रा-ज़रा-सी बात पर बहक जाती हैं ये आंखें।
ज़रा-ज़रा-सी बात पर भर आती हैं ये आंखें।
मुझसे न पूछना कभी
आंखों में नमी क्यों है,
इनकी तो आदत ही हो गई है,
न जाने क्यों
हर समय तरल रहती हैं ये आंखें।
अच्छे-बुरे की समझ कहाॅं
इन आंखों को
बिन समझे ही बरस पड़ती हैं ये आंखें।
पता नहीं कैसी हैं ये आंखें।
दिल-दिमाग से ज़्यादा देख लेती हैं ये आंखें।
जो न समझना चाहिए
वह भी न झट-से समझ लेती हैं ये आंखें।
बहुत कोशिश करती हूॅं
झुकाकर रखूॅं इन आंखों को
न जाने कैसे खुलकर
चिहुॅंक पड़ती हैं ये आंखें।
किसी और को क्या कहूॅं,
ज़रा बचकर रहना,
आंखें तरेरकर
मुझसे ही कह देती हैं ये आंखें।
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यह भावुकता
कहां है अपना वश !
कब के रूके
कहां बह निकलेगें
पता नहीं।
चोट कहीं खाई थी,
जख्म कहीं था,
और किसी और के आगे
बिखर गये।
सबने अपना अपना
अर्थ निकाल लिया।
अब
क्या समझाएं
किस-किसको
क्या-क्या बताएं।
तह-दर-तह
बूंद-बूंद
बनती रहती हैं गांठें
काल की गति में
कुछ उलझी, कुछ सुलझी
और कुछ रिसती
बस यूं ही कह बैठी,
जानती हूं वैसे
तुम्हारी समझ से बाहर है
यह भावुकता !!!
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पर मुझे चिड़िया से तो पूछना होगा
नन्हीं चिड़िया रोज़ उड़ान भरती है
क्षितिज पर छितराए रंगों से आकर्षित होकर।
पर इससे पहले
कि चिड़िया उन रंगों को छू ले
रंग छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।
फिर रंग भी छलावा-भर हैं
शायद, तभी तो रोज़ बदलते हैं अपना अर्थ।
उस दिन
सूरज आग का लाल गोला था।
फिर अचानक किसी के गोरे माथे पर
दमकती लाल बिन्दी सा हो गया।
शाम घिरते-घिरते बिखरते सिमटते रंग
बिन्दी लाल, खून लाल
रंग व्यंग्य से मुस्कुराते
हत्या के बाद सुराग न मिल पाने पर
छूटे अपराधी के समान।
आज वही लाल–पीले रंग
चूल्हे की आग हो गये हैं
जिसमें रोज़ रोटी पकती है
दूध उफ़नता है, चाय गिरती है,
गुस्सा भड़कता है
फिर कभी–कभी, औरत जलती है।
आकाश नीला है, देह के रंग से।
फिर सब शांत। आग चुप।
सफ़ेद चादर । लाश पर । आकाश पर ।
कभी कोई छोटी चिड़िया
अपनी चहचहाहट से
क्षितिज के रंगों को स्वर देने लगती है
खिलखिलाते हैं रंग।
बच्चे किलोल करते हैं,
संवरता है आकाश
बिखरती है गालों पर लालिमा
जिन्दगी की मुस्कुराहट।
तभी, कहीं विस्फ़ोट होता है
रंग चुप हो जाते हैं,
बच्चा भयभीत।
और क्षितिज कालिमा की ओर अग्रसर।
अन्धेरे का लाभ उठाकर
क्षितिज – सब दफ़ना देता है
सुबह फ़िर सामान्य।
पीला रंग कभी तो बसन्त लगता है,
मादकता भरा
और कभी बीमार चेहरा, भूख
भटका हुआ सूरज,
मुर्झाई उदासी, ठहरा ठण्डापन।
सुनहरा रंग, सुनहरा संसार बसाता है
फिर अनायास
क्षितिज के माथे पर
टूटने– बिखरने लगते हैं सितारे
सब देखते है, सब जानते हैं,
पर कोई कुछ नहीं बोलता।
सब चुप ! क्षितिज बहुत बड़ा है !
सब समेट लेगा।
हमें क्या पड़ी है।
इतना सब होने पर भी
चिड़िया रोज़ उड़ान भरती है।
पर मैं, अब
शेष रंगों की पहचान से
डर गई हूं
और पीछे हट गई हूं।
समझ नहीं पा रही हूं
कि चिड़िया की तरह
रोज़ उड़ान भरती रहूं
या फ़िर इन्हीं रंगों से
क्षितिज का इतिहास लिख डालूं
पर मुझे
चिड़िया से तो पूछना होगा।
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नहीं करूंगी इंतज़ार
मैं नहीं करूंगी
इंतज़ार तेरा कयामत तक।
.
कयामत की बात
नहीं करती मैं।
कयामत होने का
इंतज़ार नहीं करती मैं।
यह ज़िन्दगी
बड़ी हसीन है।
इसलिए
बात करती हूं
ज़िन्दगी की।
सपनों की।
अपनों की।
पल-पल की
खुशियों की।
मिलन की आस में
जीती हूं,
इंतज़ार की घड़ियों में
कोई आनन्द
नहीं मिलता है मुझे।
.
आना है तो आ,
नहीं तो
जहां जाना है वहां जा।
मैं नहीं करूंगी
इंतज़ार तेरा कयामत तक।
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तुम मेरी छाया हो
तुम मेरी छाया हो, प्रतिच्छाया हो
पर तुम्हें
अपने कदमों के निशान नहीं दे रहा हूं।
हर छपक-छपाक के साथ
मिट जाते हैं पिछले निशान
और नये बनते हैं
जो आप ही सिमट जाते हैं
जल की गहराईयों में।
इस छपाछप-छपाछप से देखो तो
बूंदें कैसे मोतियों-सी खिलती हैं।
फिर गगन, हवाओं और सागर के बीच
कहीं छूट जाती हैं,
सतरंगी आभा बिखेरकर
अन्तर्मन को छू जाती हैं।
यह जीवन का आनन्द है।
पर याद रखना
गगन की नीलाभा में
पवन के वेग में
और जल की लहरों पर
कभी कोई छाप नहीं छूटती।
इसके लिए कठोर तपती धरा पर
छोड़ने पड़ते हैं
अपने कदमों के निशान
जो सदियों-सदियों तक
ध्वनित होते हैं
गगन की उंचाईयों में
पवन के वेग में
और जल की लहरों में।
पर यह भी याद रखना
छपक-छपाक, छपाछप-छपाछप
जीवन का उतना ही हिस्सा है
जितना गगन, पवन और जल में
नाम अंकित कर सकना।
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चलो खिचड़ी पकाएॅं
वैसे तो
रोगियों का भोजन है
खिचड़ी,
स्वादहीन,
कोई खाना नहीं चाहता।
किन्तु जब
हमारे-तुम्हारे बीच पकती है
कोई खिचड़ी
तो सारी दुनिया के कान
खड़े हो जाते हैं,
मुहॅं का स्वाद
चटपटा हो जाता है
कहानियाॅं बनती हैं
मिर्च-मसाले से
जिह्वा जलने लगती है,
घूमने लगते हैं आस-पास
जाने-अनजाने लोग।
क्या पकाया, क्या पकाया?
अब क्या बताएॅं
तुम भी आ जाओ
हमारे गुट में
मिल-बैठ नई खिचड़ी पकायेंगे।