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मम्मी मुझको गुस्सा करतीं
पापा भी हैं डांट पिलाते
मैं बहुत बातें करता हूं
कहते-कहते हैं थक जाते
चिड़िया चीं-चीं-ची-चीं करती
कौआ कां-कां-कां-कां करता
टाॅमी दिन भर भौं-भौं करता
उनको क्यों नहीं कुछ भी कहते
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नेह की चांदनी
स्मृतियों से निकलकर
सच बनने लगी हो।
मन में एक उमंग
भरने लगी हो।
गगन के चांद सी
आभा लेकर आई
जीवन में तुम्हारी मुस्कान,
तुम भाने लगी हो।
अतीत की
धुंधलाती तस्वीरें
रंगों में ढलने लगी हैं।
भूले प्रेम की तरंगे
स्वर-लहरियों में
गुनगुनाने लगी हैं।
नेह की चांदनी
भिगोने लगी है,
धरा-गगन
एक होने लगे हैं।
रंगों के भेद
मिटने लगे हैं।
गहराती रोशनियों में
आशाएं दमकने लगी हैं।
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झूठे मुखौटे मत चढ़ा
झूठे मुखौटे मत चढ़ा।
असली चेहरा दुनिया को दिखा।
मन के आक्रोश पर आवरण मत रख।
जो मन में है
उसे निडर भाव से प्रकट कर।
यहां डर से काम नहीं चलता।
वैसे भी हंसी चेहरे,
और चेहरे पर हंसी,
लोग ज़्यादा नहीं सह पाते।
इससे पहले
कि कोई उतारे तुम्हारा मुखौटा,
अपनी वास्तविकता में जीओ,
अपनी अच्छाईयों-बुराईयों को
समभाव से समझकर
जीवन का रस पीओे।
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हमारे भीतर ही बसता है वह
कहां रूपाकार पहचान पाते हैं हम
कहां समझ पाते हैं
उसका नाम,
नहीं पहचानते,
कब आ जाता है सामने
बेनाम।
उपासना करते रह जाते हैं
मन्दिरों की घंटियां
घनघनाते रह जाते हैं
नवाते हैं सिर
करते हैं दण्डवत प्रणाम।
हर दिन
किसी नये रूप को आकार देते हैं
नये-नये नाम देते हैं,
पुकारते हैं
आह्वान करते हैं,
पर नहीं मिलता,
नहीं देता दिखाई।
पर हम ही
समझ नहीं पाये आज तक
कि वह
सुनता है सबकी,
बिना किसी आडम्बर के।
घूमता है हमारे आस-पास
अनेक रूपों में, चेहरों में
अपने-परायों में।
थाम रखा है हाथ
बस हम ही समझ नहीं पाते
कि कहीं
हमारे भीतर ही बसता है वह।
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अपनेपन की कामना
रेशम की डोरी
कोमल भावों से बंधी
बन्धन नहीं होती,
प्रतिदान की
लालसा भी नहीं होती।
बस होती है तो
एक चाह, एक आशा
अपनेपन की कामना
नेह की धारा।
बस, जुड़े रहें
मन से मन के तार,
दुख-सुख की धार
बहती रहे,
अपनेपन का एहसास
बना रहे।
लेन-देन की न कोई बात हो
न आस हो
बस
रिश्तों का एहसास हो।
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याद है आपको डंडे खाया करते थे
याद है आपको, भूगोल की कक्षा में ग्लोब घुमाया करते थे
शहरों की गलत पहचान करने पर कितने डंडे खाया करते थे
नदी, रेल, सड़क, सूखा, हरियाली के चिह्न याद नहीं होते थे
मास्टर जी के जाते ही ग्लोब को गेंद बनाकर नचाया करते थे
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आंसुओं का क्या
भीग जाने दो आज
चेहरे को आंसुओं से,
भीतर जमी गर्द
धुल जायेगी।
नहीं चाहती मैं
कोई
उस गर्द को
छूने की कोशिश करे,
कोई पढ़े
उसके धुंधले हो चुके शब्द।
नहीं चाहती मैं
कोई कहानियां लिखे।
आंसुओं का क्या
वे तो
सुख-दुख दोनों में
बहते हैं
कौन समझता है
उनका अर्थ यहां।
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तेरी माया तू ही जाने
कभी तो चांद पलट न।
कभी तो सूरज अटक न।
रात-दिन का आभास देते,
तम-प्रकाश का भाव देते,
कभी तो दूर सटक न।
चांद को अक्सर
दिन में देखती हूं,
कभी तो सूरज
रात में निकल न।
तुम्हारा तो आवागमन है
प्रकृति का चलन है
हमने न जाने कितने
भाव बांध लिये हैं
रात-दिन का मतलब
सुख-दुख, अच्छा-बुरा
और न जाने क्या-क्या।
कभी तो इन सबसे
हो अलग न।
तेरी माया तू ही जाने
कभी तो रात-दिन से
भटक न।
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जीवन यूं ही चलता है
पीतल की एक गगरी होती
मुस्कानों की नगरी होती
सुबह शाम की बात यह होती
जल-जीवन की बात यह होती
जीवन यूं ही चलता है
कुछ रूकता है, कुछ बहता है
धूप-छांव सब सहता है।
छोड़ो राहें मेरी
मां देखती राह,
मुझको पानी लेकर
जल्दी घर जाना है
न कर तू चिन्ता मेरी
जीवन यूं ही चलता है
सहज-सहज सब लगता है।
कभी हंसता है, कभी सहता है।
न कर तू चिन्ता मेरी।
सहज-सहज सब लगता है।
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मन में बजे सरगम
मस्ती में मनमौजी मन
पायल बजती छन-छनछन
पैरों की अनबन
बूँदों की थिरकन
हाथों से छल-छल
जल में
बनते भंवर-भंवर
हल्की-हल्की छुअन
बूँदों की रागिनी
मन में बजती सरगम।