श्मशान घाट

कौन कहता है कि श्मशान घाट से कोई लौटकर नहीं आता। जाता तो केवल एक है, शेष सब तो लौट ही आते हैं, डरे, सहमे, घबराये, अतीत की अमिट परछाईयों के साथ,  जीवन के प्रति एक ऐसे  नये चिन्तन एवं दृष्टिकोण के साथ जिसे हम न तो कभी सोच पाये थे और न ही समझ पाये थे।  अपने-परायों, सम्बन्धों की उधेड़-बुन के साथ। जो गया, क्यों   चला गया, कौन था, कितना अपना था, क्यों  चला गया। सबसे कठिन होता है, जब हम जाने वाले के लिए तैयारी करने लगते हैं, सामान, सामग्री जुटाते हैं, समय निर्धारित करते हैं। सबको सूचित करने लगते हैं।  आहत करती हैं ये स्थितियाँ, तोड़ती हैं, पूछती हैं, क्या कर लोगे तुम, कैसे करोगे। एक लम्बी कहानी रह जाती है, सम्बन्धों की, स्मृतियों की, अनुभवों की, और सबसे विशेष उन कथाओं की जो हमारे आस-पास बुनी जाने लगती हैं। जीवन के न जाने कितने नये पृष्ठ खुल जाते हैं। एक जीवन समाप्त होता है तो एक नया शुरु भी होता है।  कुछ साथ देती हैं और कुछ उपेक्षा, कुछ मरहम लगाती हैं और कुछ कुरेदती हैं। यही जीवन के आने-जाने की वास्तविकता है।