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अक्सर मन करता है
पूछूं चांद से
औरों से मिली रोशनी में
चमकने में
यूं कैसे दम भरता है।
मत गरूर कर
कि कोई पूजता है,
कोई गणनाएं करता है।
शायद इसीलिए
दाग लिये घूमता है,
इतना घटता-बढ़ता है,
कभी अमावस
तो कभी ग्रहण लगता है।
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मैं करती हूं दुआ
धूप-दीप जलाकर, थाल सजाकर,
मां को अक्सर देखा है मैंने ज्योति जलाते।
टीका करते, सिर झुकाते, वन्दन करते,
पिता को देखा है मैंने आरती उतारते।
हाथ जोड़कर, आंख मूंदकर देखा है मैंने
भाई-बहनों को आरती गाते
मां कहती है सबके दुख-दर्द मिटा दे मां
पिता मांगते सबको बुद्धि, अन्न-धन दे मां
भाई-बहन शिक्षा का आशीष मांगे
और सब करते मेरे लिए दुआ।
मां, पिता, भाई-बहनों की बातें सुनती हूं
आज मैं भी करती हूं तुमसे इन सबके लिए दुआ।
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मन के आतंक के साये में
जिन्दगी
इतनी सरल सहज भी नहीं
कि जब चाहा
उठकर चहक लिए।
एक डर, एक खौफ़
के बीच घूमता है मन।
और यह डर
हर साये में है रहता है अब।
ज़्यादा सुरक्षा में भी
असुरक्षा का
एहसास सालने लगा है अब।
संदेह की दीवारें, दरारें
बहुत बढ़ गई हैं।
अपने-पराये के बीच का भेद
अब टालने लगा है मन।
किस वेश में कौन मिलेगा
पहचान भूलता जा रहा है मन।
हाथ से हाथ मिलाकर
चलने का रास्ता भूलने लगे हैं
और अपनी अपनी राह
चलने लगे हैं हम।
और जब मन में पसरता है
अपने ही भीतर का आतंकवाद
तब अकेलापन सालता है मन।
आने वाली पीढ़ी को
अपनेपन, शांति, प्रेम, भाईचारे का
पाठ नहीं पढ़ाते हम।
सिखाते हैं उसे
जीवन में कैसे रहना है डर डर कर
अविश्वास, संदेह और बंद तालों में
उसे जीना सिखाते हैं हम।
मुठ्ठियां कस ली हैं
किसी से मिलने-मिलाने के लिए
हाथ नहीं बढ़ाते हैं हम।
बस हर समय
अपने ही मन के
आतंक के साये में जीते हें हम।
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एक बोध कथा
बचपन में
एक बोध कथा पढ़ाई जाती थी:
आंधी की आहट से आशंकित
घास ने
बड़े बड़े वृक्षों से कहा
विनम्रता से झुक जाओ
नहीं तो यह आंधी
तुम्हें नष्ट कर देगी।
वृक्ष सुनकर मुस्कुरा दिये
और आकाश की ओर सिर उठाये
वैसे ही तनकर खड़े रहे।
आंधी के गुज़र जाने के बाद
घास मुस्कुरा रही थी
और वृक्ष धराशायी थे।
किन्तु बोध कथा के दूसरे भाग में
जो कभी समझाई नहीं गई
वृक्ष फिर से उठ खड़े हुए
अपनी जड़ों से
आकाश की ओर बढ़ते हुए
एक नई आंधी का सामना करने के लिए
और झुकी हुई घास
सदैव पैरों तले रौंदी जाती रही।
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मन में बोनसाई रोप दिये हैं
विश्वास का आकाश
आज भी उतना ही विस्तारित है
जितना पहले हुआ करता था।
बस इतनी सी बात है
कि हमने, अपने मन में बसे
पीपल, वट-वृक्ष को
कांट-छांट कर
बोनसाई रोप दिये हैं,
और हर समय खुरपा लेकर
जड़ों को खोदते रहते हैं,
कहने को निखारते हैं,
सजाते-संवारते हैं,
किन्तु, वास्तव में
अपनी ही कृति पर अविश्वास करते हैं।
तो फिर किसी और से कैसी आशा।
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मैंने तो बस यूं बात की
न मिलन की आस की , न विरह की बात की
जब भी मिले बस यूं ही ज़रा-सी बात ही बात की
ये अच्छा रहा, न चिन्ता बनी, न मन रमा कहीं
कुछ और न समझ लेना मैंने तो बस यूं बात की
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जब भी दूध देखा
सुना ही है
कि भारत में कभी
दूध-घी की
नदियाँ बहा करती थीं।
हमने तो नहीं देखीं।
बहती होंगी किसी युग में।
हमने तो
दूध को सदा
टीन के पीपों से ही
बहते देखा है।
हम तो समझ ही नहीं पाये
कि दूध के लिए
दुधारु पशुओं का नाम
क्यों लिया जाता है।
कैसे उनका दूध समा जाता है
बन्द पीपों में
थैलियों में और बोतलों में।
हमने तो जब भी दूध देखा
सदा पीपों में, थैलियों में
बन्द बोतलों में ही देखा।
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यह दिल की बात है
कभी दिल है
कभी दिलदार होगा ।
बादलों में
यूं हमारा नाम होगा ।
कभी होती है झड़ी
कभी चांद का रोब-दाब होगा ।
देखो , झांकती है रोशनी ।
कहती है दिलदार से
दीदार होगा ।
कभी टूटते हैं
कभी जुड़ते हैं दिल ।
इस बात का भी
कोई तो जवाबदार होगा ।
ज़रा-सी आह से
पिघल जाते हैं,
ऐसे दिल से दिल लगाकर,
कौन-सा सरोकार होगा ।
बदलते मौसम के आसार हैं ये ।
न दिल लगा
नहीं तो बुरा हाल होगा ।
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जल लेने जाते कुएँ-ताल
बाईसवीं सदी के
मुहाने पर खड़े हम,
चाँद पर जल ढूँढ लाये
पर इस धरा पर
अभी भी
कुएँ, बावड़ियों की बात
बड़े गुरूर से करते हैं
कितना सरल लगता है
कह देना
चली गोरी
ले गागर नीर भरन को।
रसपान करते हैं
महिलाओं के सौन्दर्य का
उनकी कमनीय चाल का
घट भरकर लातीं
प्रेमरस में भिगोती
सखियों संग मदमाती
कहीं पिया की आस
कहीं राधा की प्यास।
नहीं दिखती हमें
आकाश से बरसती आग
बीहड़ वन-कानन
समस्याओं का जंजाल
कभी पुरुषों को नहीं देखा
सुबह-दोपहर-शाम
जल लेने जाते कुएँ-ताल।
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कथा प्रकाश की
बुझा भी दोगे इस दीप की लौ को, प्रतिच्छाया मिटा न पाओगे
बूंद बूंद में लिखी जा चुकी है कथा प्रकाश की, मिटा न पाओगे
कांच की दीवार के आर हो या पार, सत्य तो सुरभित होकर रहेगा
बाती और धूम्र पहले ही लिख चुके इतिहास को, मिटा न पाओगे
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ज़िन्दगी की पथरीली राहों में
सुना था
पत्थरों में फूल खिलते हैं,
किन्तु यह लिखते समय
यह क्यों नहीं याद रहता
कि फूलों से ही
फल मिलते हैं।
ज़िन्दगी की
पथरीली राहों में,
कांटों से उलझकर,
मिट्टी से सुलझकर,
बस फूल खिलते रहें,
फल ज़रूर मिलेंगें।