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कुछ यूं बात हुई
उनसे आंखें चार हुईं
दिल, दिल से छू गया
कहां-कहां से बात हुई
कुछ हम न समझे
कुछ वे न समझे
कुछ हम समझे
और कुछ वे समझे
कभी नींद उड़ी
कभी दिन में तारे चमके
कभी सपनों ही सपनों में बात हुई
बहके-बहके भाव चले
आंखों ही आंखों में कुछ बात हुई
उम्र हमारी साठ हुई
मिलने लगे कुछ उलाहने
सुनने में आया
ये क्या कर बैठे
हम तो उन पर मर बैठे
ये भी क्या बात हुई
जी हां,
हमने उनको समझाया
‘गर किसी पर
न हो मरना
तो
जीने का मजा क्या
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सहज भाव से जीना है जीवन
कल क्या था,बीत गया,कुछ रीत गया,छोड़ उन्हें
खट्टी थीं या मीठी थीं या रिसती थीं,अब छोड़ उन्हें
कुछ तो लेख मिटाने होंगे बीते,नया आज लिखने को
सहज भाव से जीना है जीवन,कल की गांठें,खोल उन्हें
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भेदभावकारी योजनाएं
(पंजाब नैशनल बैंक में एक योजना है “बहुलाभकारी”
बैंक में लिखा था “बहू लाभकारी”
इस मात्रा भेद ने मुझे इस रचना के लिए प्रेरित किया)
प्रबन्धक महोदय हैरान थे।
माथे पर
परेशानी के निशान थे।
बैंक के बाहर शहर भर की सासें जमा थीं
और मज़े की बात यह
कि इन सासों की नेता
प्रबन्धक महोदय की अपनी अम्मां थीं।
उनके हाथों में
बड़ी बड़ी तख्तियां थीं
नारे थे और फब्तियां थीं :
“प्रबन्धक महोदय को हटाओ
नहीं तो सासलाभकारी योजना चलाओ।
ये बैंक में परिवारवाद फैला रहे हैं
पत्नियों के नाम से
न जाने कितना कमा रहे हैं।
और हम सासों को
सड़क का रास्ता दिखा रहे हैं।
वे नये नये प्रबन्धक बने थे।
शादी भी नयी नयी थी।
अपनी पत्नी और माता के संग
इस शहर में आकर
अभी अभी बसे थे
फिर सास बहू में खूब पटती थी,
प्रबन्धक महोदय की जिन्दगी
बढ़िया चलती थी।
पर यह आज क्या हो गया?
अपनी अम्मां को देख
प्रबन्धक महोदय घबराये।
केबिन से उठकर बाहर आये।
और अम्मां से बोले
“क्या हो गया है तुम्हें अम्मां
ये तख्तियां लिए जुलूस में खड़ी हो।
क्यों मुझे नौकरी से निकलवाने पर तुली हो।
घर जाओ, खाओ पकाओ
सास बहू मौज उड़ाओ।
अम्मां ने दो आंसू टपकाए
और भरे गले से बोलीं
“बेटा, दुनिया कहती थी
शादी के बाद
बेटे बहुओं के होकर रह जाते हैं
पर मैं न मानती थी।
पर आज मैंने
अपनी आंखों से देख ली तुम्हारी करतूत।
बहू के आते ही
हो गये तुम कपूत।
सुन लो,
मैं इन सासों की नेता हूं।
और हम सासों की भीड़
यहां से हटानी है
तो इस बोर्ड पर लिख दो
कि तुम्हें
सासलाभकारी योजना चलानी है।“
यह सुन प्रबन्धक महोदय बोले,
“सुन ओ सासों की नेता,
जो कहता है तेरा बेटा,
ये योजनाएं तो उपर वाले बनाते हैं
इसमें हम प्रबन्धक कुछ नहीं कर पाते हैं।“
“झूठ बोलते हो तुम,
“परबन्धक “ अपनी बहू के”
सासों की नेता बोलीं
“शादी के बाद इधर आये हो
तभी तो ये बोर्ड लगवाए हो।
पुराने दफ्तर में तो
ये योजनाएं न थीं
वहां तो कोई तख्तियां जड़ीं न थीं।“
“ओ सासों की नेता
मैं पहले क्षेत्रीय कार्यालय में काम था करता।
किसी योजना में हाथ नहीं होता मेरा
किसने तुम्हें भड़का दिया
मैं सच्चा सुपूत हूं तेरा।“
प्रबन्धक महोदय बोले
“किसी भी योजना में
धन लगा दो, ओ सासो !
बैंक सबको
बिना भेद भाव
समान दर से है ब्याज है देता।
इस सासलाभकारी योजना की याद
तुम्हें क्यों आई ?
मेरे बैंक की
कौन सी योजना तुम्हें नहीं भाई ?
सासों की सामूहिक आवाज़ आई,
“यदि बैंक भेद भाव नहीं करता
तो यह बहू लाभकारी योजना क्यों चलाई?
तभी तो हमें
सासलाभकारी योजना की याद आई।
यदि सासों की भीड़ यहां से हटानी है
तो इस तख्ती पर लिख दो
कि तुम्हें
सास लाभकारी योजना चलानी है।
और यदि
सास लाभकारी योजना न चलाओ,
तो अपनी यह
बहू लाभकारी योजना हटाओ,
और सास बहू के लिए
कोई एक सी योजना चलाओ।“
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अब मौन को मुखर कीजिए
बस अब बहुत हो चुका,
अब मौन को मुखर कीजिए
कुछ तो बोलिए
न मुंह बन्द कीजिए।
संकेतों की भाषा
कोई समझता नहीं
बोलकर ही भाव दीजिए।
खामोशियां घुटती हैं कहीं
ज़रा ज़ोर से बोलकर
आवाज़ दीजिए।
जो मन न भाए
उसका
खुलकर विरोध कीजिए।
यह सोचकर
कि बुरा लगेगा किसी को
अपना मन मत उदास कीजिए।
बुरे को बुरा कहकर
स्पष्ट भाव दीजिए,
और यही सुनने की
हिम्मत भी
अपने अन्दर पैदा कीजिए।
चुप्पी को सब समझते हैं कमज़ोरी
चिल्लाकर जवाब दीजिए।
कलम की नोक तीखी कीजिए
शब्दों को आवाज़ कीजिए।
मौन को मुखर कीजिए।
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अस्त होते सूर्य को नमन करें
हार के बाद भी जीत मिलती है
चलो आज हम अस्त होते सूर्य को नमन करें
घूमकर आयेगा, तब रोशनी देगा ही, मनन करें
हार के बाद भी जीत मिलती है यह जान लें,
न डर, बस लक्ष्य साध कर, मन से यत्न करें
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दो चाय पिला दो
प्रात की नींद से न अच्छा समय कोई
दो चाय पिला दो आपसे अच्छा न कोई
मोबाईल की टन-टन न हमें जगा पाये
कुम्भकरण से कम न जाने हमें कोई
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मन में बस सम्बल रखना
चिड़िया के बच्चे सी
उतरी थी मेरे आंगन में।
दुबकी, सहमी सी रहती थी
मेरे आंचल में।
चिड़िया सी चीं-चीं करती
दिन भर
घर-भर में रौनक भरती।
फिर कब पंख उगे
उड़ना सिखलाया तुझको।
धीरे धीरे भरना पग
समझाया तुझको।
दुर्गम हैं राहें,
तपती धरती है,
कंकड़ पत्थर बिखरे हैं,
कदम सम्हलकर रखना
बतलाया तुझको।
हाथ छोड़कर तेरा
पीछे हटती हूं।
अब तुझको
अपने ही दम पर
है आगे बढ़ना।
हिम्मत रखना।
डरना मत ।
जब मन में कुछ भ्रम हो
तो आंखें बन्द कर
करना याद मुझे।
कहीं नहीं जाती हूं
बस तेरे पीछे आती हूं।
मन में बस इतना ही
सम्बल रखना।
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कड़वा-कड़वा देते रहना
नीम करेले का रस पी ले
हंस-बोलकर जीवन जी ले
कड़वा-कड़वा देते रहना
खट्टे की खुद चटनी पी ले
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बस जूझना पड़ता है
मछलियां गहरे पानी में मिलती हैं
किसी मछुआरे से पूछना।
माणिक-मोती पाने के लिए भी
गहरे सागर में
उतरना पड़ता है,
किसी ज्ञानी से बूझना।
किश्तियां भी
मझधार में ही डूबती हैं
किसी नाविक से पूछना।
तल-अतल की गहराईयों में
छिपा है ज्ञान का अपरिमित भंडार,
किसी वेद-ध्यानी से पूछना।
पाताल लोक से
चंद्र-मणि पाने के लिए
कौन-सी राह जाती है,
किसी अध्यवसायी से पूछना।
.
उपलब्धियों को पाने के लिए
गहरे पानी में
उतरना ही पड़ता है।
जूझना पड़ता है,
सागर की लहरों से,
सहना पड़ता है
मझधार के वेग को,
और आकाश से पाताल
तक का सफ़र तय करना पड़ता है।
और इन कोशिशों के बीच
जीवन में विष मिलेगा
या अमृत,
यह कोई नहीं जानता।
बस जूझना पड़ता है।
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हां, मैं हूं कुत्ता
एक कुत्ते ने
फेसबुक पर अपना चित्र देखा,
और बड़बड़ाया
इस इंसान को देखो
फेसबुक पर भी मुझे ले आया।
पता नहीं क्या-क्या कह डालेगा मेरे बारे मे।
दुनिया-जहां में तो
नित्यप्रति मेरी कहानियां
गढ़-गढ़कर समय बिताता है।
पता नहीं कितने मुहावरे
बनाये हैं मेरे नाम से,
तरह तरह की बातें बनाता है।
यह तो शिष्ट-सभ्य,
सुशिक्षित बुद्धिजीवियों का मंच है,
मैं अपने मन की पीड़ा
यहां कह भी तो नहीं सकता।
कोई टेढ़ी पूंछ के किस्से सुनाता है,
तो कोई स्वामिभक्ति के गुण गाता है।
कोई तलुवे चाटने की बात करता है
तो कोई बेवजह ही दुत्कारता है।
किसी को मेरे भाग्य से ईर्ष्या होती है
तो कोई अपनी भड़ास निकालने के लिए
मुझे लात मारकर चला जाता है।
और महिलाओं के हाथ में
मेरा पट्टा देखकर तो
मेरी भांति ही लार टपकाता है।
बची बासी रोटी डालने से
कोई नहीं हिचकिचाता है।
बस,आज तक
एक ही बात समझ नहीं आई
कि मैं कुत्ता हूं, जानता हूं,
फिर मुझे कुत्ता-कुत्ता कहकर क्यों चिड़ाता है।
और हद तो तब हो गई
जब अपनी तुलना मेरे साथ करने लगता है।
बस, तभी मेरा मन
इस इंसान को
काट डालने का करता है।
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भावों की छप-छपाक
यूं ही जीवन जीना है।
नयनों से छलकी एक बूंद
कभी-कभी
सागर के जल-सी गहरी होती है,
भावों की छप-छपाक
न जाने क्या-क्या कह जाती है।
और कभी ओस की बूंद-सी
झट-से ओझल हो जाती है।
हो सकता है
माणिक-मोती मिल जायें,
या फिर
किसी नागफ़नी में उलझे-से रह जायें।
कौन जाने, कब
फूलों की सुगंध से मन महक उठे,
तरल-तरल से भाव छलक उठें।
इसी निराश-आस-विश्वास में
ज़िन्दगी बीतती चली जाती है।