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कितना अच्छा लगता है,
और कितना सम्मानजनक,
जब कोई कहता है,
चलो आज शाम
मिलते हैं कहीं बाहर।
-
बाहर !
बाहर कोई पब,
शराबखाना, ठेका
या कोई मंहगा होटल,
ये आपकी और उनकी
जेब पर निर्भर करता है,
और निर्भर करता है,
सरकार से मिली सुविधाओं पर।
.
एक सौ गज़ पर
न अस्पताल मिलेंगे,
न विद्यालय, न शौचालय,
न विश्रामालय।
किन्तु मेरे शहर में
खुले मिलेंगे ठेके, आहाते, पब, होटल,
और हुक्का बार।
सरकार समझती है,
आम आदमी की पहली ज़रूरत,
शराब है न कि राशन।
इसीलिए,
राशन से पहले खुले थे ठेके।
और शायद ठेके की लाईन में
लगने से
कोरोना नहीं होता था,
कोरोना होता था,
ठेला चलाने से,
सब्ज़ी-भाजी बेचने से,
छोटे-छोटे श्रम-साधन करके
पेट भरने वालों से।
इसीलिए सुरक्षा के तौर पर
पहले ठेके पर जाईये,
बाद में घर की सोचिए।
-
ज़िन्दगी जीने के लिए क्या ज़रूरी है
कौन लेगा यह निर्णय।
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झूठ के बल पर
सत्य सदैव प्रमाण मांगता है,
और हम इस डर से,
कि पता नहीं
सत्य प्रमाणित हो पायेगा
या नहीं,
झूठ के बल पर
बेझिझक जीते हैं।
तब हमें
न सत्य की आंच सहनी पड़ती है,
न किसी के सामने
हाथ फैलाने पड़ते हैं।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
नहीं ढोने पड़ते हैं
आरोप–प्रत्यारोप,
न कोई आहुति , न बलिदान,
न अग्नि-परीक्षाएं
न पाषाण होने का भय।
नि:शंक जीते हैं हम ।
और न अकेलेपन की समस्या ।
एक ढूंढो
हज़ारों मिलेंगे साथ चलने के लिए।
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ये दो दिन
कहते हैं
दुनिया
दो दिन का मेला,
कहाँ लगा
कबसे लगा,
मिला नहीं।
-
वैसे भी
69 वर्ष हो गये
ये दो दिन
बीत ही नहीं रहे।
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सपनों की बात न करना यारो मुझसे
आंखों में तिरते हैं, पलकों में छिपते हैं
शब्दों में बंधते हैं, आहों में कटते हैं
सपनों की बात न करना यारो मुझसे
सांसों में बिंधते हैं, राहों में चुभते हैं।
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इंसान को न धिक्कारो यारो
आत्माओं का गुणगान करके इंसान को न धिक्कारो यारो
इंसानियत की नीयत और गुणों में पूरा विश्वास करो यारो
यह जीवन है, अच्छा-बुरा, ,खरा-खोटा तो चला रहेगा
अपनों को अपना लो, फिर जीवन सुगम है, समझो यारो।
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समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून
जि़न्दगी बिना जोड़-जोड़ के कहां चली है
करता सब उपर वाला हमारी कहां चली है
समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून
इसी मैं-मैं के चक्कर में सबकी अड़ी पड़ी है
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मन गया बहक बहक
चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक
तुम बोले मधुर मधुर, मन गया बहक बहक
सरगम की तान उठी, साज़ बजे, राग बने,
सतरंगी आभा छाई, ताल बजे ठुमक ठुमक
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डर ज़िन्दगी से नहीं लगता
डर ज़िन्दगी से नहीं लगता
ज़िन्दगी जीने के
तरीके से लगता है।
एहसास मिटने लगे हैं
रिश्ते बिखरने लगे हैं
कौन अपना,
कौन पराया,
समझ से बाहर होने लगे हैं।
सड़कों पर खून बहता है
हाथ फिर भी साफ़ दिखने लगे हैं।
कहने को हम हाथ जोड़ते हैं,
पर कहां खुलते हैं,
कहां बांटते हैं,
कहां हाथ साफ़ करते हैं,
अनजाने से रहने लगे हैं।
क्या खोया , क्या पाया
इसी असमंजस में रहने लगे हैं।
पत्थरों को चिनने के लिए
अरबों-खरबों लुटाने के लिए
तैयार बैठे हैं,
पर भीतर जाने से कतराने लगे हैं।
पिछले रास्ते से प्रवेश कर,
ईश्वर में आस्था जताने लगे हैं।
प्रसाद की भी
कीमत लगती है आजकल
हम तो, यूं ही
आपका स्वाद
कड़वा करने में लगे हैं।
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शुद्ध जल से आचमन कर ले मेरे मन
जल की धार सी बह रही है ज़िन्दगी
नित नई आस जगा रही है ज़िन्दगी
शुद्ध जल से आचमन कर ले मेरे मन
काल के गाल में समा रही है ज़िन्दगी
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बताते हैं क्या कीजिए
सुना है ज्ञान, ध्यान, स्नान एक अनुष्ठान है, नियम, काल, भाव से कीजिए
तुलसी-नीम डालिए, स्वच्छ जल लीजिए, मंत्र पढ़िए, राम-राम कीजिए।।
शून्य तापमान, शीतकाल, शीतल जल, काम इतना कीजिए बस चुपचाप
चेहरे को चमकाईए, क्रीम लगाईए, और हे राम ! हे राम ! कीजिए ।।
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समाचार पत्र की आत्मकथा
अब समाचार-पत्र
समाचारों की बात नहीं करते,
क्या बात करते हैं
यही समझने में दिन बीत जाता है।
बस एक नज़र में
पूरा समाचार-पत्र पढ़ लिया जाता है।
जब समाचार-पत्र लेने की बात आती है,
तब उसकी गुणवत्ता से अधिक
उसकी रद्दी
कितने अच्छे भाव में बिकेगी,
यह ख्याल आता है।
कौन सा समाचार-पत्र
क्या उपहार लेकर आयेगा,
इस पर विचार किया जाता है।
कभी समय था
समाचार-पत्र घर में आने पर
कोहराम मच जाता था।
किसको कौन-सा पृष्ठ चाहिए ,
इस बात पर युद्ध छिड़ जाता था।
पिता की टेढ़ी आंख
कोई समाचार-पत्र को
उनसे पूछे बिना
हाथ नहीं लगा सकता था।
सम्पादकीय पृष्ठ पर
पिताजी का अधिकार,
सामान्य ज्ञान बड़े भाई के पास ,
और मां के नाम महिलाओं का पृष्ठ,
बच्चों का कोना, कार्टून और चुटकुले।
सालों-साल समाचार-पत्रों की कतरनें
अलमारियों से झांकती थी।
हिन्दी का समाचार-पत्र
बड़ी कठिनाई से
मां के आग्रह पर लिया जाता था।
और वह सस्ते भाव बिकता था।
धारावाहिक कहानियां,
बुनाई-कढ़ाई के डिज़ाईन,
रंग-बिरंगे चित्र,
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए,
सामान्य ज्ञान की फ़ाईलें,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाई जाती थीं।
यही समाचार-पत्र अलमारियों में
बिछाये जाते थे,
पुस्तकों-कापियों पर चढ़ाये जाते थे,
और दोपहर के भोजन के लिए भी
यही टिफ़न, फ़ायल हुआ करते थे।
शनिवार-रविवार का समाचार-पत्र
वैवाहिक विज्ञापनों के लिए
लिया जाता था।
समाचार-पत्रों पर लिखना
यूं लगा
मानों जीवन के किसी अनुभूत
सुन्दर सत्य, संस्मरण,
यात्रा-वृतान्त का लिखना
जिसका कोई आदि नहीं, अन्त नहीं।