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ज़िन्दगी के सवाल
कभी भी
पहले और आखिरी नहीं होते।
बस सवाल होते हैं
जो एक-के-बाद एक
लौट-लौटकर
आते ही रहते हैं।
कभी उलझते हैं
कभी सुलझते हैं
और कभी-कभी
पूरा जीवन बीत जाता है
सवालों को समझने में ही।
वैसे ही जैसे
कभी-कभी हम
अपनी उलझनों को
सुलझाने के लिए
या अपनी उलझनों से
बचने के लिए
डायरी के पन्ने
काले करने लगते हैं
पहला पृष्ठ खाली छोड़ देते हैं
जो अन्त तक
पहुँचते-पहुँचते
अक्सर फ़ट जाता है।
तब समझ आता है
कि हम तो जीवन-भर
निरर्थक प्रश्नों में
उलझे रहे
न जीवन का आनन्द लिया
और न खुशियों का स्वागत किया।
और इस तरह
आखिरी पृष्ठ भी
बेकार चला जाता है।
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करिये योग भगाये रोग
कैसी विडम्बना एवं आश्चर्य की बात है कि जिस योग पद्धति का उल्लेख हमारे प्राचीनतम ग्रंथों ऋग्वेद एवं कठोपनिषद ग्रंथों में मिलता है, जो ईसा पूर्व के ग्रंथ हैं, उस प्राचीनतम योग पद्धति को हम आज प्रदर्शन के रूप में योगा डे के रूप में मना रहे हैं। पतंजलि का योगसूत्र योग का सबसे महत्वपूर्ण गं्रथ है। अन्य अनेक ग्रंथों में भी योग की परिभाषाएँ महत्व एवं क्रियाएँ उल्लिखित हैं। योग केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं है, अपितु एक मानसिक, चिकित्सीय पद्धति भी है।
वर्तमान में हम इस बात से ज़्यादा प्रसन्न नहीं हैं कि एक हमारी प्राचीनतम योग पद्धति जो लुप्त हो रही थी, पुनः प्रकाश में आई है, हमारे जीवन का हिस्सा बनने लगी है, उसके गुणों को हम अपने जीवन में उतारने में लगे हैं बल्कि हम इस बात की ज़्यादा खुशियाँ मनाने में लगे हैं कि देखिए हमारा योगा अब विश्व में मनाया जाने लगा है। हमारे योगा का अब अन्तर्राष्ट्रीय दिवस है।
यदि सत्य को समझने का साहस रखते हों तो आज भी योग हमारे दैनिक जीवन का, नित्यप्रति का हिस्सा नहीं बन सका है। चाहे विद्यालयों में यह एक विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा है किन्तु बच्चे भी इसे एक विषय के रूप में ही लेते हैं न कि दैनिक जीवन की एक अपरिहार्य क्रिया के रूप में, जीवन-शैली के रूप में अथवा चिकित्सा-पद्धति के रूप में। बड़े-बुजुर्ग पार्क में एकत्र होकर अनुलोम-विलोम आदि करते दिखाई दे जायेंगे अथवा एक-दो और क्रियाएँ , और हमारा योगा डे सम्पन्न हो जाता है।
21 जून को सड़कों पर छपी टी-शर्ट पहने, बढ़िया-सी चटाई बिछाये और बाद में कुछ खान-पानी ही योगा-डे की उपलब्धि बनकर रह जाते हैं।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में योग का जो महत्व दर्शाया गया है एवं क्रियाएँ बताईं गईं हैं हम उनसे अभी भी बहुत-बहुत दूर हैं। आवश्यकता है प्रत्येक स्तर पर प्रयास की, अभ्यास की, सम्मान की और इसे अपने दैनिन्दन जीवन का हिस्सा बनाने की। योग को उचित रूप में जीवन का हिस्सा बनाने से निश्चित रूप से आधुनिक जीवन शैली से उत्पन्न मानसिक, शारीरिक एवं अने मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समाधान हो पायेगा।
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सहज भाव से जीना है जीवन
कल क्या था,बीत गया,कुछ रीत गया,छोड़ उन्हें
खट्टी थीं या मीठी थीं या रिसती थीं,अब छोड़ उन्हें
कुछ तो लेख मिटाने होंगे बीते,नया आज लिखने को
सहज भाव से जीना है जीवन,कल की गांठें,खोल उन्हें
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भाईयों को भारी पड़ती थी मां।
भाईयों को भारी पड़ती थी मां।
पता नहीं क्यों
भाईयों से डरती थी मां।
मरने पर कौन देगा कंधा
बस यही सोचा करती थी मां।
जीते-जी रोटी दी
या कभी पिलाया पानी
बात होती तो टाल जाती थी मां।
जो कुछ है घर में
चाहे टूटा-फूटा या उखड़ा-बिखरा
सब भाइयों का है,
कहती थी मां।
बेटा-बेटा कहती फ़िरती थी
पर आस बस
बेटियों से ही करती थी मां।
राखी-टीके बोझ लगते थे
लगते थे नौटंकी
क्या रखा है इसमें
कहते थे भाई ।
क्या देगी, क्या लाई
बस यही पूछा करते थे भाई।
पर दुनिया कहती थी
बेचारे होते हैं वे भाई
जिनके सिर पर होता है
अविवाहित बहनों का बोझा
इसी कारण शादी करने
से डरती थी मैं।
मां-बाप की सेवा करना
लड़कियों का भी दायित्व होता है
यह बात समझाते थे भाई
लेकिन घर पर कोई अधिकार नहीं
ये भी बतलाते थे भाईA
एक दूर देश में चला गया
एक रहकर भी तो कहां रहा।
सोचा करती थी मैं अक्सर
क्या ऐसे ही होते हैं भाई।
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जीवन क्या होता है
जीवन में अमृत चाहिए
तो पहले विष पीना पड़ता है।
जीवन में सुख पाना है
तो दुख की सीढ़ी पर भी
चढ़ना पड़ता है।
धूप खिलेगी
तो कल
घटाएँ भी घिर आयेंगी
रिमझिम-रिमझिम बरसातों में
बिजली भी चमकेगी
कब आयेगी आँधी,
कब तूफ़ान से उजड़ेगा सब
नहीं पता।
जीवन में चंदा-सूरज हैं
तो ग्रहण भी तो लगता है
पूनम की रातें होती हैं
अमावस का
अंधियारा भी छाता है।
किसने जाना, किसने समझा
जीवन क्या होता है।
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अपनी बत्ती गुल हो जाती है
बड़ा हर्ष होता है जब दफ्तर में बिजली गुल हो जाती है
काम छोड़ कर चाय-पानी की अच्छी दावत हो जाती है
इधर-उधर भटकते, इसकी-उसकी चुगली करते, दिन बीते
काम नहीं, वेतन नहीं, यह सुनकर अपनी बत्ती गुल हो जाती है
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मानव के धोखे में मत आ जाना
समझाया था न तुझको
जब तक मैं न लौटूं
नीड़ से बाहर मत जाना
मानव के
धोखे में मत आ जाना।
फैला चारों ओर प्रदूषण
कहीं चोट मत खा जाना।
कहां गये सब संगी साथी
कहां ढूंढे अब उनको।
समझाकर गई थी न
सब साथ-साथ ही रहना।
इस मानव के धोखे में मत आ जाना।
उजाड़ दिये हैं रैन बसेरे
कहां बनाएं नीड़।
न फल मिलता है
न जल मिलता है
न कोई डाले चुग्गा।
हाथों में पिंजरे है
पकड़ पकड़ कर हमको
इनमें डाल रहे हैं
कोई अभयारण्य बना रहे हैं,
परिवारों से नाता टूटे
अपने जैसा मान लिया है।
फिर कहते हैं, देखो देखो
हम जीवों की रक्षा करते हैं।
चलो चलो
कहीं और चलें
इन शहरों से दूर।
करो उड़ान की तैयारी
हमने अब यह ठान लिया है।
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बड़ा मुश्किल है Very Difficult
बड़ा मुश्किल है नाम कमाना
मेहनत का फल किसने जाना
बाधाएँ आती हैं आनी ही हैं
किसने राहें रोकी, भूल जाना
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प्रकृति मुस्काती है
मधुर शब्द
पहली बरसात की
मीठी फुहारों-से होते हैं
मानों हल्के-फुल्के छींटे,
अंजुरियों में
भरती-झरती बूंदें
चेहरे पर रुकती-बहतीं,
पत्तों को रुक-रुक छूतीं
फूलों पर खेलती,
धरा पर भागती-दौड़ती
यहां-वहां मस्ती से झूमती
प्रकृति मुस्काती है
मन आह्लादित होता है।
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एक पंथ दो काज
आजकल ज़िन्दगी
न जाने क्यों
मुहावरों के आस-पास
घूमने लगी है
न तो एक पंथ मिलता है
न ही दो काज हो पाते हैं।
विचारों में भटकाव है
जीवन में टकराव है
राहें चौराहे बन रही हैं
काज कितने हैं
कहाँ सूची बना पाते हैं
कब चयन कर पाते हैं
चौराहों पर खड़े ताकते हैं
काज की सूची
लम्बी होती जाती है
राहें बिखरने लगती हैं।
जो राह हम चुनते हैं
रातों-रात वहां
नई इमारतें खड़ी हो जाती हैं
दोराहे
और न जाने कितने चौराहे
खिंच जाते हैं
और हम जीवन-भर
ऊपर और नीचे
घूमते रह जाते हैं।