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ज़िन्दगी के सवाल
कभी भी
पहले और आखिरी नहीं होते।
बस सवाल होते हैं
जो एक-के-बाद एक
लौट-लौटकर
आते ही रहते हैं।
कभी उलझते हैं
कभी सुलझते हैं
और कभी-कभी
पूरा जीवन बीत जाता है
सवालों को समझने में ही।
वैसे ही जैसे
कभी-कभी हम
अपनी उलझनों को
सुलझाने के लिए
या अपनी उलझनों से
बचने के लिए
डायरी के पन्ने
काले करने लगते हैं
पहला पृष्ठ खाली छोड़ देते हैं
जो अन्त तक
पहुँचते-पहुँचते
अक्सर फ़ट जाता है।
तब समझ आता है
कि हम तो जीवन-भर
निरर्थक प्रश्नों में
उलझे रहे
न जीवन का आनन्द लिया
और न खुशियों का स्वागत किया।
और इस तरह
आखिरी पृष्ठ भी
बेकार चला जाता है।
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सोचने का वक्त ही कहां मिला
ज़िन्दगी की खरीदारी में मोल-भाव कभी कर न पाई
तराजू लेकर बैठी रही खरीद-फरोख्त कभी कर न पाई
कहां लाभ, कहां हानि, सोचने का वक्त ही कहां मिला
इसी उधेड़बुन में उलझी जिन्दगी कभी सम्हल न पाई
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मन कुहुकने लगा है
इधर भीतर का मौसम
करवटें लेने लगा है
बाहर शिशिर है
पर मन बहकने लगा है
चली है बासंती बयार
मन कुहुकने लगा है
तुम्हारी बस याद ही आई
मन महकने लगा है
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पुतले बनकर रह गये हैं हम
हां , जी हां
पुतले बनकर रह गये हैं हम।
मतदाता तो कभी थे ही नहीं,
कल भी कठपुतलियां थे
आज भी हैं
और शायद कल भी रहेंगे।
कौन नचा रहा है
और कौन भुना रहा है
सब जानते हैं।
स्वार्थान्धता की कोई सीमा नहीं।
बुद्धि कुण्ठित हो चुकी है
जिह्वा को लकवा मार गया है
और श्रवण-शक्ति क्षीण हो चुकी है।
फिर भी आरोप-प्रत्यारोप की एक
लम्बी सूची है
और यहां जिह्वा खूब चलती है।
किन्तु जब
निर्णय की बात आती है
तब हम कठपुतलियां ही ठीक हैं।
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शब्दों के घाव
दिल के
कुछ ज़ख्मों का दर्द
मानों दर्द नहीं होता,
स्मृतियों का
खजाना होता है,
उनकी टीस
आनन्द देती है
कुछ यादें
कुछ वफ़ाएँ
कुछ बेवफ़ाएँ
शब्दों के घाव
रिसते रहते हैं
चुभते हैं
पर भरने का
मन नहीं करता
आँखें बन्द कर
कुरेदने में मज़ा आता है
और जब आँख का पानी
रिसता है
उन जख़्मों पर,
तब टीस
और गहरी होती है
और आनन्द और ज़्यादा।
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धन-दौलत जीवन का आधार
धन-दौलत पर दुनिया ठहरी, धन-दौलत से चलती है
जीवन का आधार है यह, सुच्ची रोटी इसी से बनती है
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं, कहने की बातें हैं
नहीं हाथ की मैल है यह, श्रम से सबको फलती है।
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ज़िन्दगी प्रश्न या उत्तर
जिन्हें हम
ज़िन्दगी के सवाल समझकर
उलझे बैठे रहते हैं
वास्तव में
वे सवाल नहीं होते
निर्णय होते हैं
प्रथम और अन्तिम।
ज़िन्दगी
आपसे
न सवाल पूछती है
न किसी
उत्तर की
अपेक्षा लेकर चलती है।
बस हमें समझाती है
सुलझाती है
और अक्सर
उलझाती भी है।
और हम नासमझ
अपने को
कुछ ज़्यादा ही
बुद्धिमान समझ बैठे हैं
कि ज़िन्दगी से ही
नाराज़ बैठे हैं।
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बालपन को जी लें
अपनी छाया को पुकारा, चल आ जा बालपन को फिर से जी लें
यादों का झुरमुट खोला, चल कंचे, गोली खेलें, पापड़, इमली पी लें
कैसे कैसे दिन थे वे सड़कों पर छुपन छुपाई, गुल्ली डंडा खेला करते
वो निर्बोध प्यार की हंसी ठिठोली, चल उन लम्हों को फिर से जी लें
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संस्मरण /यात्रा संस्मरण
रविवार 3 जुलाई का दिन बहुत अच्छा बीता। एक नया अनुभव, फ़ेसबुक के वे मित्र जिनसे वर्षों से कविताओं एवं प्रतिक्रियाओं के माध्यम से मिलते थे, ऑनलाईन कवि सम्मेलन में मिलते थे एवं कभी फ़ोन पर भी बात होती थी, उनसे मिलना और एक सुन्दर, भव्य कवि सम्मेलन का हिस्सा बनना।
फ़ेसबुक का पर्पल पैन साहित्यिक मंच एवं मंच की संस्थापक/संचालक वसुधा कनुप्रिया जी का दूर से ही मिलने वाला नेह मुझे कल दिल्ली ले गया।
इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनने के लिए मैंने कल पंचकूला से दिल्ली तक की आने-जाने की टैक्सी की और लगभग दस घंटे की यात्रा की। प्रातः सात बजे जब घर से निकली तो मूसलाधार वर्षा, सड़कों पर बने तालाब, रुकता-चलता ट्रैफ़िक प्रतीक्षा कर रहा था। मेरी अधिक यात्रा तो सोते ही बीतती है। करनाल से पहले से मौसम ठीक होने लगा था। वसुधा जी से और घर में भी निरन्तर बात अथवा वाट्सएप संदेष चल रहे थे। उन्होंने मुझे लोकेशन, निकटवर्ती स्थल आदि की सूचना भी भेज दी। करनाल में अल्पाहार कर जब दिल्ली की सीमा के निकट पहुँचे तो मोबाईल ने कुछ पूछा, हाँ अथवा कैंसल। मैं ऐसे मामलों में अपना दिमाग़ कदापि नहीं लगाती, बेटे से पूछा, शायद मैं उसे कुछ ठीक बता नहीं पाई और रोमिंग बंद। वाट्सएप बन्द। मैं समझाने पर भी नहीं समझ पाई। इस बीच हम कार्यक्रम स्थल तक पहुँच चुके थे। फिर वसुधा जी का सहारा लिया। भाग्य रहा कि निकट ही एक छोटी सी दुकान मिल गई और उन्होंने रोमिंग चला दी। सांस में सांस आई।
वसुधा जी की चिन्ता मन को छू जाती है। उनका प्रातः भी फ़ोन आया कि मौसम देखकर निकलिएगा। वे इस बात की भी चिन्ता कर रही थीं कि मैं दोपहर में एक-दो बजे पहुँचूंगी तो भूख लगी होगी। वे मेरे लिए और मेरे टैक्सी चालक के लिए विशेष रूप ढोकला लेकर आईं। वसुधा जी एवं डॉण् इन्दिरा शर्माए मीनाक्षी भटनागर ए रजनी रामदेवए गीता भाटियाए वंदना मोदी गोयलए वीणा तँवरए शारदा मदराए रामकिशोर उपाध्यायए एवं एक-दो मित्र-परिचित और जिनके मैं नाम भूल रही हूँ, लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं। एक अपनत्व की धारा थी। अन्य कवि भी प्रथम परिचय में आत्मीय भाव से मिले। वसुधा जी की मम्मी से मिलना भी बहुत सुखद रहा।
मधुश्री जी की पुस्तक का विमोचन भी हुआ।
कवि सम्मेलन का अनुभव बहुत अच्छा रहा। एक नयापन, विविधात्मक रचनाएँ, एवं सहज वातावरण, सुव्यवस्थित कार्यक्रम एवं आयोजन मन आनन्दित कर गया।
आयोजन की अध्यक्षता मशहूर उस्ताद शायर श्री सीमाब सुल्तानपुरी ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में विधि भारती परिषद् की संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री संतोष खन्ना, विष्णु प्रभाकर संस्थान के संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार श्री अतुल प्रभाकर और विख्यात शायर श्री मलिकज़ादा जावेद की गरिमामयी उपस्थिति एवं उनका काव्य पाठ सुनना अत्यन्त सुखद अनुभव रहे।
दोपहर में दिल्ली में वर्षा के कारण कार्यक्रम कुछ विलम्ब से आरम्भ हो पाया और समाप्त होते-होते साढ़े सात बज गये। अब भूख तो लग ही रही थी। रात्रि किसी ढाबे में भोजन के लिए रुकना बनता ही नहीं था। इस कारण विलम्ब होते हुए भी मैं समोसे और चने खाने से अपने-आपको रोक नहीं पाई। रात्रि आठ बजकर दस मिनट में दिल्ली से निकले और रात्रि 12.15 पर पंचकूला पहुंची।
किन्तु इस बीच दो दुर्घटनाएँ देखीं। एक कार पीछे से तेज़ गति से आ रही थी, चालक ने देख लिया और उसे रास्ता देने का प्रयास किया । वह तेज़ी से निकली किन्तु अनियन्त्रित हो चुकी थी। हमारी टैक्सी से बाईं ओर चल रहे ट्रक के सामने घूम गई, ट्रक चालक ने भी गति धीमी कर उसे बचाने का प्रयास किया किन्तु कार तेज़ी से घूमती हुई बाईं ओर बैरीकेड मोड़ से टकराई और तीन-चार बार पलटकर बड़े धुएँ के गुबार में खो गई। उसके बाद मेरी नींद उड़ गई। थोड़ी ही आगे जाने पर सड़क बीच में एक ट्रैक्टर ट्राली पलटी हुई थी। थकावट और टांगों में दर्द तो थी ही, मैंने जल्दी से पर्स से कांबीफ्लेम निकाली और खा ली, और फिर मैं सो गई।
इस बीच घर तो बात चल ही रही थी, वसुधा जी का भी दो बार कुशलता जानने के लिए फ़ोन आया। अपनी सारी व्यस्तताओं के बीच वे सबकी जानकारी ले रही थीं। ऐसे मित्र और ऐसा नेह कठिनाई से मिलता है, नेह बना रहे।
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न आंख मूंद समर्थन कर
न आंख मूंद समर्थन कर किसी का, बुद्धि के दरवाज़े खोल,
अंध-भक्ति से हटकर, सोच-समझकर, मोल-तोलकर बोल,
कभी-कभी सूरज को भी दीपक की रोशनी दिखानी पड़ती है,
चेत ले आज, नहीं तो सोचेगा क्यों नहीं मैंने बोले निडर सच्चे बोल
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आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
ज्यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल
डांट पड़ी तो रो दिये,मां का आंचल भीगा
शरारती-से,जाने कहां गये ज़रा देखो बादल