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यह निर्विवाद सत्य है
कि ज़िन्दगी
बने-बनाये रास्तों पर नहीं चलती।
कितनी कोशिश करते हैं हम
जीवन में
सीधी राहों पर चलने की।
निश्चित करते हैं कुछ लक्ष्य
निर्धारित करते हैं राहें
पर परख नहीं पाते
जीवन की चालें
और अपनी चाहतें।
ज़िन्दगी
एक बहकी हुई
नदी-सी लगती है,
तटों से टकराती
कभी झूमती, कभी गाती।
राहें बदलती
नवीन राहें बनाती।
किन्तु
बार-बार बदलती हैं राहें
बार-बार बदलती हैं चाहतें
बस,
शायद यही अटूट सत्य है।
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जीवन का राग
रात में सूर्य रश्मियां द्वार खटखटाती हैं
दिन भर जीवन का राग सुनाती हैं
शाम ढलते ढलते सुर साज़ बदल जाते हैं
तब चंद्र किरणें थपथपाकर सुलाती हैं
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जिन्दगी संवारती हूं
भीतर ही भीतर
न जाने कितने रंग
बिखरे पड़े हैं,
कितना अधूरापन
खंगालता है मन,
कितनी कहानियां
कही-अनकही रह जाती हैं,
कितने रंग बदरंग हो जाते हैं।
आज उतारती हूं
सबको
तूलिका से।
अपना मन भरमाती हूं,
दबी-घुटी कामनाओं को
रंग देती हूं,
भावों को पटल पर
निखारती हूं,
तूलिका से जिन्दगी संवारती हूं।
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शायद यही जीवन है
इन राहों पर
खतरनाक अंधे मोड़
होते हैं
जो दिखते तो नहीं
बस अनुभव की बात होती है
कि आप जान जायें
पहचान जायें
इन अंधों मोड़ों को
नहीं जान पाते
नहीं देख पाते
नहीं समझ पाते
कि उस पार से आने वाला
जीवन लेकर आ रहा है
या मौत।
इधर ऊँचे खड़े पहाड़
कभी छत्रछाया-से लगते हैं
और कभी दरकते-खिसकते
जीवन लीलते।
उधर गहरी खाईयां डराती हैं
मोड़ों पर।
.
फिर
बादलों के घेरे
बरसती बूंदें
अनुपम, अद्भुत,
अनुभूत सौन्दर्य में
उलझता है मन।
.
शायद यही जीवन है।
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आह! डाकिया!
आह! डाकिया!
खबरें संसार भर की।
डाक तरह-तरह की।
छोटी बात तो
पोस्टकार्ड भेजते थे,
औरों के अन्तर्देशीय पत्रों को
झांक-झांककर देखते थे।
और बन्द लिफ़ाफ़े को
चोरी से पढ़ने के लिए
थूक लगाकर
गीला कर खोलते थे।
जब चोरी की चिट्ठी आनी हो
तो द्वार पर खड़े होकर
चुपचाप डाकिए के हाथ से
पत्र ले लिया करते थे,
इससे पहले कि वह
दरार से चिट्ठी घर में फ़ेंके।
फ़टा पोस्टकार्ड
काली लकीर
किसी अनहोनी से डराते थे
और तार की बात से तो
सब कांपते थे।
सालों-साल सम्हालते थे
संजोते थे स्मृतियों को
अंगुलियों से छूकर
सरासराते थे पत्र
अपनों की लिखावट
आंखों को तरल कर जाती थी
होठों पर मुस्कान खिल आती थी
और चेहरा गुलाल हो जाया करता था
इस सबको छुपाने के लिए
किसी पुस्तक के पन्नों में
गुम हो जाया करते थे।
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कर लो नारी पर वार
जब कुछ न लिखने को मिले तो कर लो नारी पर वार।
वाह-वाही भरपूर मिलेगी, वैसे समझते उसको लाचार।
कल तक माँ-माँ लिख नहीं अघाते थे सारे साहित्यकार
आज उसी में खोट दिखे, समझती देखो पति को दास
पत्नी भी माँ है क्यों कभी नहीं देख पाते हो तुम
यदि माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजा, किसका है यह दोष
परिवारों में निर्णय पर हावी होते सदा पुरुष के भाव
जब मन में आता है कर लेते नारी के चरित्र पर प्रहार।
लिखने से पहले मुड़ अपनी पत्नी पर दृष्टि डालें एक बार ।
अपने बच्चों की माँ के मान की भी सोच लिया करो कभी कभार
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इंसान को न धिक्कारो यारो
आत्माओं का गुणगान करके इंसान को न धिक्कारो यारो
इंसानियत की नीयत और गुणों में पूरा विश्वास करो यारो
यह जीवन है, अच्छा-बुरा, ,खरा-खोटा तो चला रहेगा
अपनों को अपना लो, फिर जीवन सुगम है, समझो यारो।
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शिकायतों का पुलिंदा
शिकायतों का
पुलिंदा है मेरे पास।
है तो सबके पास
बस सच बोलने का
मेरा ही ठेका है।
काश!
कि शिकायतें
आपसे होतीं
किसी और से होतीं,
इससे-उससे होतीं,
तब मैं कितनी प्रसन्न होती,
बिखेर देती
सारे जहाँ में।
इसकी, उसकी
बुराईयाँ कर-कर मन भरती।
किन्तु
क्या करुँ
सारी शिकायतें
अपने-आपसे ही हैं।
जहाँ बोलना चाहिए
वहाँ चुप्पी साध लेती हूँ
जहाँ मौन रहना चाहिए
वहाँ बक-झक कर जाती हूँ।
हँसते-हँसते
रोने लग जाती हूँ,
रोते-रोते हँस लेती हूँ।
न खड़े होने का सलीका
न बैठने का
न बात करने का,
बहक-बहक जाती हूँँ
मन कहीं टिकता नहीं
बस
उलझी-उलझी रह जाती हूँ।
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रिश्तों के तो माने हैं
पेड़ सूखे तो क्या
सावन रूठे तो क्या
पत्ते झरे तो क्या
कांटे चुभे तो क्या।
हम भूले नहीं
अपना बसेरा।
लौट लौट कर आयेंगे
बसेरा यहीं बसायेंगे
तुम्हें न छोड़कर जायेंगे।
दु:ख सुख तो आने जाने हैं।
पर रिश्तों के तो माने हैं।
जब तक हैं
तब तक तो
इन्हें निभायेंगे।
बसेरा यहीं बसायेंगे।
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चल न मन,पतंग बन
आकाश छूने की तमन्ना है
पतंग में।
एक पतली सी डोर के सहारे
यह जानते हुए भी
कि कट सकती है,
फट सकती है,
लूट ली जा सकती है
तारों में उलझकर रह सकती है
टूटकर धरा पर मिट्टी में मिल सकती है।
किन्तु उन्मुक्त गगन
जीवन का उत्साह
खुली उड़ान,
उत्सव का आनन्द
उल्लास और उमंग।
पवन की गति,
कुछ हाथों की यति
रंगों की मति
राहें नहीं रोकते।
* * * *
चल न मन,
पतंग बन।