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सुना था
पत्थरों में फूल खिलते हैं,
किन्तु यह लिखते समय
यह क्यों नहीं याद रहता
कि फूलों से ही
फल मिलते हैं।
ज़िन्दगी की
पथरीली राहों में,
कांटों से उलझकर,
मिट्टी से सुलझकर,
बस फूल खिलते रहें,
फल ज़रूर मिलेंगें।
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कामधेनु कुर्सी बनी
समुद्र मंथन से मिली सुरभि, मनोकामनाएं पूरी थी करती,
राजाओं, ऋषियों की स्पर्धा बनी, मान दिलाया थी करती,
गायों को अब कौन पूछता, अब कुर्सी की बात करो यारो,
कामधेनु कुर्सी बनी, इसके चैपायों की पूजा दुनिया करती।
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तरुणी की तरुणाई
मौसम की तरुणाई से मन-मग्न हुई तरुणी
बादलों की अंगड़ाई से मन-भीग गई तरूणी
चिड़िया चहकी, कोयल कूकी, मोर बोले मधुर
मन मधुर-मधुर, प्रेम-रस में डूब गई तरुणी
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हिन्दी की हम बात करें
शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें
हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने
विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का
वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें
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कौन पापी कौन भक्त कोई निष्कर्ष नहीं
कुछ कथाएं
जिस रूप में हमें
समझाई जाती हैं
उतना ही समझ पाते हैं हम।
ये कथाएं, हमारे भीतर
रस-बस गई हैं,
बस उतना ही
मान जाते हैं हम।
प्रश्न नहीं करते,
विवाद में नहीं पड़ते,
बस स्वीकार कर लेते हैं,
और सहज भाव से
इस परम्परा को आगे बढ़ाते हैं।
कौन पापी, कौन भक्त
कोई निष्कर्ष नहीं निकाल पाते हैं हम।
अनगिन चरित्र और कथाओं में
उलझे पड़े रहते हैं हम।
विशेष पर्वों पर उनकी
महानता या दुष्कर्मों को
स्मरण करते हैं हम।
सत्य-असत्य को
कहां समझ पाये हम।
सत्य और कपोल-कल्पना के बीच,
कहीं पूजा-आराधना से,
कहीं दहन से, कहीं सज्जा से,
कहीं शक्ति का आह्वान,
तो कहीं राम का नाम,
उलझे मस्तिष्क को
शांत कर लेते हैं हम।
और जयकारा लगाते हुए
भीड़ का हिस्सा बनकर
आनन्द से प्रसाद खाते हैं हम।
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शिक्षक दिवस : एक संस्मरण
वर्ष 1959 से लेकर 1983 तक मैं किसी न किसी रूप में विद्यार्थी रही। विविध अनुभव रहे। किन्तु पता नहीं क्यों सुनहरी स्मृतियाँ नहीं हैं मेरे पास।
मुझे बचपन से ही मंच पर चढ़कर बोलना, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना बहुत अच्छा लगता था। मेरा उच्चारण एवं स्मरण-शक्ति भी अच्छी थी। सब पसन्द भी करते थे किन्तु सदैव किसी न किसी कारण से मेरा नाम प्रतियोगिताओं से कट जाता था और मैं रोकर रह जाती थी। अध्यापक कहते सबसे अच्छा इसने ही बोला किन्तु बाहर भेजते समय किसी और का नाम चला जाता और मैं मायूस होकर रह जाती।
जब कालेज पहुंची तो मैंने सोचा अब तो भेद-भाव नहीं होगा और यहां मेरी योग्यता को वास्तव में ही देखा जायेगा। किन्तु वहां तो पहले से ही एक टीम चली आ रही थी और हर जगह उसका ही चयन होता था । यहां भी वही हाल।
तभी कालेज में हिन्दी साहित्य परिषद का गठन हुआ और मैं उसकी सदस्य बन गई। कहा गया कि आप यहां कविता-कहानी आदि कुछ भी सुना सकते हैं। मेरे घर में तो पुस्तकों का भण्डार था। एक पुस्तक से मैंने निम्न पंक्तियाँ सुनाईं 1972 की बात कर रही हूं
हर आंख यहां तो बहुत रोती है
हर बूंद मगर अश्क नहीं होती है
देख के रो दे जो ज़माने का गम
उस आंख से जो आंसू झरे मोती है
****-*****
सबने समझा यह मेरी अपनी लिखी है और मुझे बहुत सराहना मिली। तब मुझे लगा कि मैं अपनी पहचान कविताएं लिख कर ही क्यों न बनाउं। किन्तु समझ नहीं थी।
फिर उसके कुछ ही दिन बाद कालेज में ही वाद-विवाद प्रतियोगिता थी, संचालक ने मेरा नाम ही नहीं पुकारा। बाद में मैंने पूछा कि सूची में मेरा भी नाम था तो बोले कि मेरा ध्यान नहीं गया।
मैं आहत हुई और मैंने सोचा अब मैं कविताएं लिखूंगी जो यहां कोई नहीं लिखता और अपनी अलग पहचान बनाउंगी। उस दिन मैंने इसी भूलने के विषय पर अपनी पहली मुक्त-छन्द कविता लिखी ।
चाहे इसे शिक्षकों द्वारा किये जाने वाला भेद-भाव कहें अथवा उनकी भूल, किन्तु मेरे लिए लेखन का नवीन संसार उन्मुक्त हुआ जहां मैं आज तक हूं।
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नेताजी का आसन
नेताजी ने कुर्सी त्याग दी
और भूमि पर आसन बिछाकर बैठ गये।
हमने पूछा, ऐसा क्यों किया आपने।
वैसे तो हमें पता है,
कि आपकी औकात ज़मीन की ही है,
किन्तु
कुर्सी त्यागना तो बहुत महानता की बात है,
कैसे किया आपने यह साहस।
नेताजी मुस्कुराये, बोले,
क्या तुम्हें भी बताना पड़ेगा,
कि कुर्सी की चार टांगे होती हैं
और इंसान की दो।
कोई भी, कभी भी पकड़कर
कोई-सी भी टांग खींच देता था।
अब हम भूमि पर, आसन जमाकर
पालथी मारकर बैठ गये हैं,
कोई दिखाये हमारी टांग खींचकर।
समझदारी की बात यह
कि कुर्सी के पीछे
तो लोग भागते-छीनते दिखाई देते हैं,
कभी आपने देखा है किसी को
आसन छीनते।
अब गांधी जी भी तो
भूमि पर आसन जमाकर ही बैठते थे,
कोई चला उनकी राह पर
आज तक मांगा उनका आसन किसी ने क्या।
नहीं न !
अब मैं नेताजी को क्या समझाती,
गांधी जी का आसन तो उनके साथ ही चला गया।
और नेताजी आपका आसन ,
आधुनिक भारतीय राजनीति का आसन है,
आप पालथी मारे यूं ही बैठे रह जायेंगे,
और जनता कब आपके नीचे से
आपका आसन खींचकर चलती बनेगी,
आपको पता भी नहीं चलेगा।
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सच बोलने की आदत है बुरी
सच बोलने की आदत है बुरी।
इसीलिए
सभी लोग रहने लगे हैं किनारे ।
पीठ पर वार करना मुझे भाता नहीं।
चुप रहना मुझे आता नहीं।
भाती नहीं मुझे झूठी मिठास।
मन मसोस कर मैं जीती नहीं।
खरी-खरी कहने से मैं रूकती नहीं।
इसीलिए
सभी लोग रहने लगे हैं किनारे।
-
हालात क्या बदले,
वक्त ने क्या चोट दी,
सब लोग रहने लगे हैं किनारे ।
काश !
कोई तो हमारी डूबती कश्ती में
सवार होता संग हमारे।
कहीं तो हम नाव खेते
किसी के सहारे।
-
किन्तु हालात यूं बदले
न पता लगा, कब टूटे किनारे।
सब लोग जो बैठे थे किनारे।
डूबते-उतरते वे अब ढूंढने लगे सहारे।
तैर कर निकल आये हम तो किनारे।
उसी कश्ती को थाम ,
अब वे भी ढूंढने में लगे हैं किनारे ।
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साहस है मेरा
साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं
जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं
अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या
जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं
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आह! डाकिया!
आह! डाकिया!
खबरें संसार भर की।
डाक तरह-तरह की।
छोटी बात तो
पोस्टकार्ड भेजते थे,
औरों के अन्तर्देशीय पत्रों को
झांक-झांककर देखते थे।
और बन्द लिफ़ाफ़े को
चोरी से पढ़ने के लिए
थूक लगाकर
गीला कर खोलते थे।
जब चोरी की चिट्ठी आनी हो
तो द्वार पर खड़े होकर
चुपचाप डाकिए के हाथ से
पत्र ले लिया करते थे,
इससे पहले कि वह
दरार से चिट्ठी घर में फ़ेंके।
फ़टा पोस्टकार्ड
काली लकीर
किसी अनहोनी से डराते थे
और तार की बात से तो
सब कांपते थे।
सालों-साल सम्हालते थे
संजोते थे स्मृतियों को
अंगुलियों से छूकर
सरासराते थे पत्र
अपनों की लिखावट
आंखों को तरल कर जाती थी
होठों पर मुस्कान खिल आती थी
और चेहरा गुलाल हो जाया करता था
इस सबको छुपाने के लिए
किसी पुस्तक के पन्नों में
गुम हो जाया करते थे।
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सूखी धरती करे पुकार
वातानुकूलित भवनों में बैठकर जल की योजनाएं बनाते हैं
खेल के मैदानों पर अपने मनोरंजन के लिए पानी बहाते हैं
बोतलों में बन्द पानी पी पीकर, सूखी धरती को तर करेंगे
सबको समान सुविधाएं मिलेंगी, सुनते हैं कुछ ऐसा कहते हैं