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समय के साथ कथाएं इतिहास बनकर रह गईं
कुछ पढ़ी, कुछ अनपढ़ी धुंधली होती चली गईं
न अन्त मिला न आमुख रहा, अर्थ सब खो गये
बस ज़िन्दगी एक बेनाम शीर्षक बनकर रह गई
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अब तो कुछ बोलना सीख
आग दिल में जलाकर रख
अच्छे बुरे का भाव परख कर रख।
न सुन किसी की बात को
अपने मन से जाँच-परख कर रख।
कब समझ पायेंगें हम!!
किसी और के घर में लगी
आग की चिंगारी
जब हवा लेती है
तो हमारे घर भी जलाकर जाती है।
तब
दिलों के भाव जलते हैं
अपनों के अरमान झुलसते हैं
पहचान मिटती है,
जिन्दगियां बिखरती हैं
धरा बिलखती है।
गगन सवाल पूछता है।
इसीलिए कहती हूँ
न मौन रह
अब तो कुछ बोलना सीख।
अपने हाथ आग में डालना सीख
आग परख। हाथ जला।
कुछ साहस कर, अपने मन से चल।
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कोरोनामय वातावरण में मानसिकता
एक बात समझ नहीं पा रही हूं। जब से कोरोना या कोविड -19 आया है, पहले की तरह साधारण बुखार, वायरल, गला खराब, खांसी-जुकाम होना बन्द हो गया है क्या? मौसम बदलने पर, बारिश में भीगने पर, सर्दी लग जाने पर, ज़्यादा धूप में घूमने या लू लग जाने पर, ए सी या कूलर की सीधी हवा लग जाने से उक्त समस्याएं हो जाती थीं। अब क्या ये सब बन्द हो गई हैं, सीधा कोरोना ही होता है क्या? आजकल चिकित्सकों की बात से तो ऐसा ही लगता है। घर में किसी को इनमें से कोई समस्या होने पर किसी चिकित्सक को फोन कीजिए कि एक-दो दिन से बुखार है अथवा उक्त सारी समस्याओं में से कोई समस्या है। सीधा दो टूक उत्तर मिलता है कोरोना टैस्ट करवा लीजिए।
नहीं डाक्टर ऐसी बात नहीं है।
डाक्टर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं।
नहीं पहले आप कोरोना टैस्ट करवा लीजिए, फिर देखेंगे।
लेकिन डाक्टर, उसमें तो दो दिन लग जायेंगे, बुखार तो तेज़ है।
तो ठीक है ये दो गोली नोट कर लीजिए, 100 बुखार होने तक पहली गोली दे देना दिन में एक बार। 101 से ज़्यादा होने पर पी सी एम दे देना।
मिलते-जुलते उत्तर ही मिलते हैं।
अब मान लीजिए 1 तारीख को बुखार हुआ। हर कोई पहले तो घर में ही रखी पी सी एम या क्रोसीन ले लेता है। दूसरे दिन बुखार न उतरने पर डाक्टर को फोन किया। डाक्टर का उत्तर आपने पढ़ लिया। तीसरे दिन टैस्ट करवाया। पांचवें दिन रिपोर्ट मिली। नैगेटिव।
डाक्टर ने नैगेटिव रिपोर्ट की बात सुनकर कहा, चलो ठीक है, आप बुखार की ये दवाई ले लीजिए।
किन्तु वे पांच दिन कितने भारी थे, उन पांच दिन में बुखार बिगड़कर कोई भी रूप ले लेता है, कोरोना का नहीं। क्या उन पांच दिन के लिए साधारण बुखार की या वायरल की दवाई नहीं दी जा सकती थी, मैं तो डाक्टर नहीं हूं। कोई बतायेगा क्या?
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ये त्योहार
ये त्योहार रोज़ रोज़, रोज़ रोज़ आयें
हम मेंहदी लगाएं वे ही रोटियां बनाएं
चूड़ियां, कंगन, हार नित नवीन उपहार
हम झूले पर बैठें वे संग झूला झुलाएं
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जीवन की धूप में
सुना है
किसी वंशी की धुन पर
सारा गोकुल
मुग्ध हुआ करता था।
ग्वाल-बाल, राधा-गोपियां
नृत्य-मग्न हुआ करते थे।
वे हवाओं से बहकने वाले
वंशी के सुर
आज लाठी पर अटक गये,
जीवन की धूप में
स्वर बहक गये
नृत्य-संगीत की गति
ठहर-ठहर-सी गई,
खिलखिलाती गति
कुछ रूकी-सी
मुस्कानों में बदल गई
दूर कहीं भविष्य
देखती हैं आंखें
सुना है
कुछ अच्छे दिन आने वाले हैं
क्यों इस आस में
बहकती हैं आंखें
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राजनीति अब बदल गई
राजनीति अब बदल गई, मानों दंगल हो रहे
देश-प्रेम की बात कहां, सब अपने सपने बो रहे
इसको काटो, उसको बांटों, बस सत्ता हथियानी है
धमा- चौकड़ी मची है मानों हथेली सरसों बो रहे
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मोबाईल: आवश्यकता अथवा व्यसन
हमारी एक प्रवृत्ति हो गई है कि हम बहुत जल्दी किसी भी बात की आलोचना अथवा सराहना करने लगते हैं। कोई एक करता है और फिर सब करने लगते हैं जैसे मानों नम्बर बनाने हों कि किसने कितनी आलोचना कर ली अथवा सराहना कर ली। जैसे हमारी विचार-शक्ति समाप्त हो जाती है और हम निर्भाव बहती धारा के साथ बहने लगते हैं।
मोबाईल!!!
आधुनिकता के इस युग में मोबाईल जीवन की आवश्यकता बन चुका है। चाहे कितनी भी आलोचना कर लें किन्तु वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में इसके महत्व और आवश्यकता को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि आपको मोबाईल किस स्तर का चाहिए और किस कार्य के लिए।
एक समय था जब विद्यालयों में मोबाईल ले जाना प्रतिबन्धित था। फिर समय ऐसा आया कि यही मोबाईल शिक्षा का केन्द्र बन गया। कोराना काल ने आम आदमी के जीवन में इतने परिवर्तन कर दिये कि एक बार तो वह स्वयं ही समझ नहीं पाया कि यह सब क्या हो रहा है। जब तक समझ आती, जीवन की धाराएँ ही बदल चुकीं थीं।
शिक्षा का यह ऐसा काल था, लगभग दो वर्ष का, जिसने शिक्षा, ज्ञान और परीक्षाओं के सारे प्रतिमान ही बदल कर रख दिये। शिक्षा की इस नवीन प्रणाली ने पारिवारिक व्यवस्थाएँ, आवश्यकताएँ, जीवन का ढाँचा ही बदल कर रख दिया। देश के मध्यमवर्गीय परिवारों में रोटी से अधिक महत्वपूर्ण मोबाईल हो उठे। फिर वह पहली कक्षा का विद्यार्थी हो अथवा किसी बड़ी कक्षा का। किसी-किसी परिवार में एक साथ दो-दो लैपटॉप और तीन-चार मोबाईल की आवश्यकता उठ खड़ी हुई अर्थात लाखों का व्यय। आय बन्द, व्यवसाय बन्द, वेतन आधा और मोबाईल ज़रूरी। ऐसे कितने ही परिवार मैंने इस समय में देखे जहाँ माता-पिता के पास एक-एक मोबाईल था और पिता के पास लैपटॉप। अब तीन बच्चे। तीनों की एक समय ऑनलाईन क्लास। माता अध्यापिका। अब एक लैपटॉप और तीन मोबाईल की अनिवार्यता उठ खड़ी हुई। चाहिए भी एंड्राएड अर्थात कम से कम 15-20 हज़ार प्रति। जहाँ मोबाईल पढ़ाई की आवश्यकता बने वहाँ आदत का हिस्सा भी। असीमित ज्ञान का भण्डार। आय-व्यय, बैंकिंग, भुगतान-प्राप्ति का सरल साधन, डिजिटल पेमंट, खेल का माध्यम। बच्चे घर में बैठकर पूरी दुनिया से जुड़ रहे थे, ज्ञान का असीमित भण्डार का पिटारा मानों उनके सामने खुल गया था और वे अचम्भित थे। माता-पिता से जल्दी बच्चे यह सब सीखने लगे। इसमें कहीं भी कुछ भी ग़लत अथवा ठीक नहीं कहा जा सकता था, यह सब समय की आवश्यकता के कारण विकसित हो रहा था, जो धीरे-धीरे हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता गया। यदि शिक्षा के क्षेत्र में यह मोबाईल न होता तो बच्चे दो वर्ष पीछे चले जाते और उन्होंने ऑन लाईन जो ज्ञान प्राप्त किया, आधुनिकता से जुड़े, वह एक बहुत बड़ा अभाव रह जाता।
आज का समय ऐसा नहीं है कि बच्चे विद्यालय से निकले और घर। नहीं जी, ट्यूशन, डांस क्लास, स्विमिंग, क्रिकेट और न जाने क्या-क्या। तब माता-पिता और बच्चों के बीच यही एक वार्तालाप का सहारा बनता है
ऐसा नहीं कि कोरोना काल में ही मोबाईल ने हमारे जीवन को प्रभावित किया। इससे पूर्व भी विद्यालयों में सीनियर कक्षाओं में प्रोजेक्ट वर्क, आर्ट वर्क और अनेक गृह कार्य ऐसे दिये जाते थे जो गूगल देवता की सहायता से ही किये जाते थे। कक्षाओं में स्मार्ट बोर्ड और अनेक तकनीक प्रयोग में पहले से ही चल रहे थे, बस मोबाईल की इसमें वृद्धि हुई।
किसी सीमा तक यह बात ठीक है कि जब किसी वस्तु का हम अत्याधिक प्रयोग करने लगत हैं तब आवश्यकता से बढ़कर वह हमारी आदत बन जाती है, हमें उसकी लत लग जाती है और जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ने लगता है।
निश्चित रूप से बच्चे आज पक्षियों की भांति स्वतन्त्र पंछी नहीं रह गये हैं। इसका एक कारण मोबाईल हो सकता है किन्तु सारा दोष केवल मोबाईल को नहीं दिया जा सकता। आधुनिकतम जीवन शैली, शिक्षा एवं ज्ञान का माध्यम, बच्चे तो क्या हमारी पीढ़ी भी इसमें उलझी बैठी है। अब यह माता-पिता का कर्तव्य है और शिक्षा-संस्थानों का भी कि बच्चों को मोबाईल के उचित प्रयोग एवं सीमित प्रयोग के लिए प्रेरित करें न कि उन्हें आरोपित।
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सिंदूरी शाम
अक्सर मुझे लगता है
दिन भर
आकाश में घूमता-घूमता
सूरज भी
थक जाता है
और संध्या होते ही
बेरंग-सा होने लगता है
हमारी ही तरह।
ठिठके-से कदम
धीमी चाल
अपने गंतव्य की ओर बढ़ता।
जैसे हम
थके-से
द्वार खटखटाते हैं
और परिवार को देखकर
हमारे क्लांत चेहरे पर
मुस्कान छा जाती है
दिनभर की थकान
उड़नछू हो जाती है
कुछ वैसे ही सूरज
जब बढ़ता है
अस्ताचल की ओर
गगन
चाँद-तारों संग
बिखेरने लगता है
इतने रंग
कि सांझ सराबोर हो जाती है
रंगों से।
और
बेरंग-सा सूरज
अनायास झूम उठता है
उस सिंदूरी शाम में
जाते-जाते हमें भी रंगीनियों से
भर जाता है।
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युग प्रदर्शन का है
मैं आज तक
समझ नहीं पाई
कि मोर शहर में
क्यों नहीं नाचते।
जंगल में नाचते हैं
जहां कोई देखता नहीं।
सुना है
मोरनी को लुभाने के लिए
नृत्य करते हो तुम।
बादल-वर्षा की आहट से
इंसान का मन-मयूर नाच उठता है,
तो तुम्हारी तो बात ही क्या।
तुम्हारी पायल से मुग्ध यह संसार
वन-वन ढूंढता है तुम्हें।
अद्भुत सौन्दर्य का रूप हो तुम।
रंगों की निराली छटा
मनमोहक रूप हो तुम।
पर कहां
जंगल में छिपे बैठे तुम।
कृष्ण अपने मुकुट में
पंख तुम्हारा सजाये बैठे हैं,
और तुम वहां वन में
अपना सौन्दर्य छिपाये बैठे हो।
युग प्रदर्शन का है,
दिखावे और चढ़ावे का है,
काक और उलूव
मंचों पर कूकते हैं यहां,
गर्धभ और सियार
शहरों में घूमते हैं यहां।
मांग बड़ी है।
एक बार तो आओ,
एक सिंहासन तुम्हें भी
दिलवा देंगे।
राष्ट््र पक्षी तो हो
दो-चार पद और दिलवा देंगे।
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ये औरतें
हर औरत के भीतर एक औरत है
और उसके भीतर एक और औरत।
यह बात स्वयं औरत भी नहीं जानती
कि उसके भीतर
कितनी लम्बी कड़ी है इन औरतों की।
धुरी पर घूमती चरखी है वह
जिसके चारों ओर
आदमी ही आदमी हैं
और वह घूमती है
हर आदमी के रिश्ते में।
वह दिखती है केवल
एक औरत-सी,
सजी-धजी, सुन्दर , रंगीन
शेष सब औरतें
उसके चारों ओर
टहलती रहती हैं,
उसके भीतर सुप्त रहती हैं।
कब कितनी औरतें जाग उठती हैं
और कब कितनी मर जाती हैं
रोज़ पैदा होती हैं कितनी नई औरतें
उसके भीतर
यह तो वह स्वयं भी नहीं जानती।
लेकिन,
ये औरतें संगठित नहीं हैं
लड़ती-मरती हैं,
अपने-आप में ही
अपने ही अन्दर।
कुछ जन्म लेते ही
दम तोड़ देती हैं
और कुछ को
वह स्वयं ही, रोज़, हर रोज़
मारती है,
वह स्वयं यह भी नहीं जानती।
औरत के भीतर सुप्त रहें
भीतर ही भीतर लड़ती-मरती रहें
जब तक ये औरतें,
सिलसिला सही रहता है।
इनका जागना, संगठित होना
खतरनाक होता है समाज के लिए
और, खतरनाक होता है
आदमी के लिए।
जन्म से लेकर मरण तक
मरती-मारती औरतें
सुख से मरती हैं।
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भावों की छप-छपाक
यूं ही जीवन जीना है।
नयनों से छलकी एक बूंद
कभी-कभी
सागर के जल-सी गहरी होती है,
भावों की छप-छपाक
न जाने क्या-क्या कह जाती है।
और कभी ओस की बूंद-सी
झट-से ओझल हो जाती है।
हो सकता है
माणिक-मोती मिल जायें,
या फिर
किसी नागफ़नी में उलझे-से रह जायें।
कौन जाने, कब
फूलों की सुगंध से मन महक उठे,
तरल-तरल से भाव छलक उठें।
इसी निराश-आस-विश्वास में
ज़िन्दगी बीतती चली जाती है।