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किसी ने कहा
ज़िन्दगी पर
एक उपन्यास लिखो।
सालों-साल का
हिसाब-बेहिसाब लिखो।
स्मृतियों को
उलटने-पलटने लगी।
समेटने लगी
सालों, महीनों, दिनों
और घंटों का,
पल-पल का गणित।
बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।
न जाने कितने झंझावात,
कितने विप्लव,
कितने भूचाल बिखर गये।
कहीं आंसू, कहीं हर्ष,
कहीं आहों के,
सुख-दुख के सागर उफ़न गये।
न जाने
कितने दिन-महीने, साल लग गये
कथाओं का समेटने में।
और जब
अन्तिम रूप देने का समय आया
तो देखा
एक क्षणिका भी न बन पाई।
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चिड़िया फूल रंग और मन
चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक।
राग बजे मधुर-मधुर, मन गया बहक-बहक।
सरगम की तान छिड़ी, साज़ बजे, राग बने।
सतरंगी आभा छाई , ताल बजे ठुमुक-ठुमुक।
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ख़ुद में कमियाँ निकालते रहना
मेरा अपना मन है।
बताने की बात तो नहीं,
फिर भी मैंने सोचा
आपको बता दूं
कि मेरा अपना मन है।
आपको अच्छा लगे
या बुरा,
आज,
मैंने आपको बताना
ज़रूरी समझा कि
मेरा अपना मन है।
यह बताना
इसलिए भी ज़रूरी समझा
कि मैं जैसी भी हूॅं,
अच्छी या बुरी,
अपने लिए हूॅं
क्योंकि मेरा अपना मन है।
यह बताना
इसलिए भी
ज़रूरी हो गया था
कि मेरा अपना मन है,
कि मैं अपनी कमियाॅं
जानती हूॅं
नहीं जानना चाहती आपसे
क्योंकि मेरा अपना मन है।
जैसी भी हूॅं, जो भी हूॅं
अपने जैसी हूॅं,
क्योंकि मेरा अपना मन है।
चाहती हू
किसी की कमियाॅं न देखूॅं
बस अपनी कमियाॅं निकालती रहूॅं
क्योंकि मेरा अपना मन है।
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झुकना तो पड़ता ही है
कहां समय मिलता है
कमर सीधी करने का।
काम कोई भी करें,
घर हो या खलिहान,
झुकना तो पड़ता ही है,
झुककर ही
काम करना पड़ता है।
फिर धीरे-धीरे
आदत हो जाती है,
झुके रहने की।
और फिर एक समय
ऐसा आता है
कि सिर उठाकर
चलना ही भूल जाती हैं।
फिर,
कहां कभी सिर उठाकर
चल पाती हैं।
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यह जीवन है
कुछ गांठें जीवन-भर
टीस देती हैं
और अन्त में
एक बड़ी गांठ बनकर
जीवन ले लेती हैं।
जीवन-भर
गांठों को उकेरते रहें
खोलते
या किसी से
खुलवाते रहें,
बेहिचक बांटते रहें
गांठों की रिक्तता,
या उनके भीतर
जमा मवाद उकेरते रहें,
तो बड़ी गांठें नहीं लेंगी जीवन
नहीं देंगी जीवन-भर का अवसाद।
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भेदभावकारी योजनाएं
(पंजाब नैशनल बैंक में एक योजना है “बहुलाभकारी”
बैंक में लिखा था “बहू लाभकारी”
इस मात्रा भेद ने मुझे इस रचना के लिए प्रेरित किया)
प्रबन्धक महोदय हैरान थे।
माथे पर
परेशानी के निशान थे।
बैंक के बाहर शहर भर की सासें जमा थीं
और मज़े की बात यह
कि इन सासों की नेता
प्रबन्धक महोदय की अपनी अम्मां थीं।
उनके हाथों में
बड़ी बड़ी तख्तियां थीं
नारे थे और फब्तियां थीं :
“प्रबन्धक महोदय को हटाओ
नहीं तो सासलाभकारी योजना चलाओ।
ये बैंक में परिवारवाद फैला रहे हैं
पत्नियों के नाम से
न जाने कितना कमा रहे हैं।
और हम सासों को
सड़क का रास्ता दिखा रहे हैं।
वे नये नये प्रबन्धक बने थे।
शादी भी नयी नयी थी।
अपनी पत्नी और माता के संग
इस शहर में आकर
अभी अभी बसे थे
फिर सास बहू में खूब पटती थी,
प्रबन्धक महोदय की जिन्दगी
बढ़िया चलती थी।
पर यह आज क्या हो गया?
अपनी अम्मां को देख
प्रबन्धक महोदय घबराये।
केबिन से उठकर बाहर आये।
और अम्मां से बोले
“क्या हो गया है तुम्हें अम्मां
ये तख्तियां लिए जुलूस में खड़ी हो।
क्यों मुझे नौकरी से निकलवाने पर तुली हो।
घर जाओ, खाओ पकाओ
सास बहू मौज उड़ाओ।
अम्मां ने दो आंसू टपकाए
और भरे गले से बोलीं
“बेटा, दुनिया कहती थी
शादी के बाद
बेटे बहुओं के होकर रह जाते हैं
पर मैं न मानती थी।
पर आज मैंने
अपनी आंखों से देख ली तुम्हारी करतूत।
बहू के आते ही
हो गये तुम कपूत।
सुन लो,
मैं इन सासों की नेता हूं।
और हम सासों की भीड़
यहां से हटानी है
तो इस बोर्ड पर लिख दो
कि तुम्हें
सासलाभकारी योजना चलानी है।“
यह सुन प्रबन्धक महोदय बोले,
“सुन ओ सासों की नेता,
जो कहता है तेरा बेटा,
ये योजनाएं तो उपर वाले बनाते हैं
इसमें हम प्रबन्धक कुछ नहीं कर पाते हैं।“
“झूठ बोलते हो तुम,
“परबन्धक “ अपनी बहू के”
सासों की नेता बोलीं
“शादी के बाद इधर आये हो
तभी तो ये बोर्ड लगवाए हो।
पुराने दफ्तर में तो
ये योजनाएं न थीं
वहां तो कोई तख्तियां जड़ीं न थीं।“
“ओ सासों की नेता
मैं पहले क्षेत्रीय कार्यालय में काम था करता।
किसी योजना में हाथ नहीं होता मेरा
किसने तुम्हें भड़का दिया
मैं सच्चा सुपूत हूं तेरा।“
प्रबन्धक महोदय बोले
“किसी भी योजना में
धन लगा दो, ओ सासो !
बैंक सबको
बिना भेद भाव
समान दर से है ब्याज है देता।
इस सासलाभकारी योजना की याद
तुम्हें क्यों आई ?
मेरे बैंक की
कौन सी योजना तुम्हें नहीं भाई ?
सासों की सामूहिक आवाज़ आई,
“यदि बैंक भेद भाव नहीं करता
तो यह बहू लाभकारी योजना क्यों चलाई?
तभी तो हमें
सासलाभकारी योजना की याद आई।
यदि सासों की भीड़ यहां से हटानी है
तो इस तख्ती पर लिख दो
कि तुम्हें
सास लाभकारी योजना चलानी है।
और यदि
सास लाभकारी योजना न चलाओ,
तो अपनी यह
बहू लाभकारी योजना हटाओ,
और सास बहू के लिए
कोई एक सी योजना चलाओ।“
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एक मुस्कान का आदान-प्रदान
क्या आपके साथ
हुआ है कभी ऐसा,
राह चलते-चलते,
सामने से आते
किसी अजनबी का चेहरा,
अपना-सा लगा हो।
बस यूं ही,
एक मुस्कान का आदान-प्रदान।
फिर पीछे मुड़कर देखना ,
कहीं देखा-सा लगता है चेहरा।
दोनों के चेहरे पर एक-से भाव।
फिर,
एक हिचकिचाहट-भरी मुस्कान।
और अपनी-अपनी राह बढ़ जाना।
-
सालों-साल,
याद रहती है यह मुस्कान,
और अकारण ही
चेहरे पर मुस्कान ले आती है।
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कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
गत-आगत के मोह में आज को खो रहे हैं हम
जो मिला या न मिला इस आस को ढो रहे हैं हम
यहां-वहां, कहां-कहां, किस-किसके पास क्या है
इसी कशमकश में कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
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दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे
किसी ने मुझे कह दिया
दिन
सभी मुट्ठियों से
फ़िसल जायेंगे,
इस डर से
न जाने कब से मैंने
हाथों को समेटना
बन्द कर दिया है
मुट्ठियों को
बांधने से डरने लगी हूँ।
रेखाएँ पढ़ती हूँ
चिन्ह परखती हूँ
अंगुलियों की लम्बाई
जांचती हूँ,
हाथों को
पलट-पलटकर देखती हूँ
पर मुट्ठियाँ बांधने से
डरने लगी हूँ।
इन छोटी -छोटी
दो मुट्ठियों में
कितने समेट लूँगी
जिन्दगी के बेहिसाब पल।
अब डर नहीं लगता
खुली मुट्ठियों में
जीवन को
शुद्ध आचमन-सा
अनुभव करने लगी हूँ,
जीवन जीने लगी हूँ।
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कथा प्रकाश की
बुझा भी दोगे इस दीप की लौ को, प्रतिच्छाया मिटा न पाओगे
बूंद बूंद में लिखी जा चुकी है कथा प्रकाश की, मिटा न पाओगे
कांच की दीवार के आर हो या पार, सत्य तो सुरभित होकर रहेगा
बाती और धूम्र पहले ही लिख चुके इतिहास को, मिटा न पाओगे
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हाथ पर रखें लौ को
रोशनी के लिए दीप प्रज्वलित करते हैं
फिर दीप तले अंधेरे की बात करते हैं
तो हिम्मत करें, हाथ पर रखें लौ को
जो जग से तम मिटाने की बात करते है