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नयनों पर परदे पड़े हैं
आंसुओं पर ताले लगे हैं
मुंह पर मुखौट बंधे हैं।
बोलना मना है,
आंख खोलना मना है,
देखना और बताना मना है।
इसलिए मस्तिष्क में बीज बोकर रख।
दिल में आस जगाकर रख।
आंसुओं को आग में तपाकर रख।
औरों के मुखौटे उतार,
अपनी धार साधकर रख।
ज़िन्दगी आंख मूंदकर,
जिह्वा दबाकर,
आंसुओं के सैलाब में नहीं बीतती,
बस इतना याद रख।
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कैसे मना रहे हम अपने राष्ट्रीय दिवस
हमें स्वतन्त्र हुए
इतने
या कितने वर्ष हो गये,
इस बार हम
कौन सा
गणतन्त्र दिवस
या स्वाधीनता दिवस
मनाने जा रहे हैं,
गणना करने लगे हैं हम।
उत्सवधर्मी तो हम हैं ही।
सजने-संवरने में लगे हैं हम।
गली-गली नेता खड़े हैं,
अपने-अपने मोर्चे पर अड़े हैं,
इस बार कौन ध्वज फ़हरायेगा
चर्चा चल रही है।
स्वाधीनता सेनानियों को
आज हम इसलिए
स्मरण नहीं कर रहे
कि उन्हें नमन करें,
हम उन्हें जाति, राज्य और
धर्म पर बांध कर नाप रहे।
सड़कों पर चीखें बिखरी हैं,
सुनाई नहीं देती हमें।
सैंकड़ों जाति, धर्म वर्ग बताकर
कहते हैं
हम एक हैं, हम एक हैं।
किसको सम्मान मिला,
किसे नहीं
इस बात पर लड़-मर रहे।
मूर्तियों में
इनके बलिदानों को बांध रहे।
पर उनसे मिली
अमूल्य धरोहर को कौन सम्हाले
बस यही नहीं जान रहे।
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कोयल और कौए दोनों की वाणी मीठी होती है
बड़ी मौसमी,
बड़ी मूडी होती है कोयल।
अपनी कूक सुनाने के लिए
एक मौसम की प्रतीक्षा में
छिपकर बैठी रहती है।
पत्तों के झुरमुट में,
डालियों के बीच।
दूर से आवाज़ देती है
आम के मौसम की प्रतीक्षा में,
बैठी रहती है, लालची सी।
कौन से गीत गाती है
मुझे आज तक समझ नहीं आये।
मुझे तो आनन्द देती है
कौए की कां कां भी।
आवाज़ लगाकर,
कितने अपनेपन से,
अधिकार से आ बैठता है
मुंडेर पर।
बिना किसी नाटक के
आराम से बैठकर
जो मिल जाये
खाकर चल देता है।
हर मौसम में
एक-सा भाव रखता है।
बस कुछ धारणाएं
बनाकर बैठ जाते हैं हम,
नहीं तो, बेचारे पंछी
तो सभी मधुर बोलते हैं,
मौसम की आहट तो
हमारे मन की है
फिर वह बसन्त हो
अथवा पतझड़।
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आनन्द उठाने चल रही ज़िन्दगी
रंगों के बीच कदम उठाकर चल रही है ज़िन्दगी।
चांद की मद्धम रोशनी में पल रही है ज़िन्दगी।
धरा और आकाश में भावों का ज्वार उठ रहा,
एकाकीपन का आनन्द उठाने चल रही है ज़िन्दगी।
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जीवन में यह उलट-पलट होती है
बहुत छोटी हूं मैं
कुछ समझने के लिए।
पर
इतनी छोटी भी तो नहीं
कि कुछ भी समझ न आये।
मेरे आस-पास लोग कहते हैं
हर औरत मां होती है
बहन होती है,पत्नी होती है
बेटी और सखा होती है।
फिर मुझे देखकर कहते हैं
देखो,कष्टों में भी मुस्कुरा लेती है
ममतामयी, देवी है देवी।
मुझे नहीं पता
औरत क्या, मां क्या,
बेटी क्या, बहन क्या, देवी क्या
और ममता क्या होती है।
मुझे नहीं पता
मेरी गोद यह में कौन है
बेटा है, भाई है
पति है, या कोई और।
बहुत सी बातें
नहीं समझ पाती हूं
और जो समझ जाती हूं
वह भी कहां समझ पाती हूं।
लोग कहते हैं, देखो
भाई की देख-भाल करती है।
बड़ा होकर यही तो है
इसकी रक्षा करेगा
राखी बंधवायेगा, हाथ पीले करेगा,
अपने घर भेजेगा।
कोई समझायेगा मुझे
जीवन में यह उलट-पलट कैसे होती है।
बहुत सी बातें
नहीं समझ पाती हूं
और जो समझ जाती हूं
वह भी कहां समझ पाती हूं।
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विचलित करती है यह बात
मां को जब भी लाड़ आता है
तो कहती है
तू तो मेरा कमाउ पूत है।
पिता के हाथ में जब
अपनी मेहनत की कमाई रखती हूं
तो एक बार तो शर्म और संकोच से
उनकी आंखें डबडबा जाती हैं
फिर सिर पर हाथ फेरकर
दुलारते हुए कहते हैं
मुझे बड़ा नाज़ है
अपने इस होनहार बेटे पर।
किन्तु
मुझे विचलित करती है यह बात
कि मेरे माता पिता को जब भी
मुझ पर गर्व होता है
तो वे मुझे
बेटा कहकर सम्बोधित क्यों करते हैं
बेटी मानकर गर्व क्यों नहीं कर पाते।
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पुष्प निःस्वार्थ भाव से
पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते।
पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते।
चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हरपल,
हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते।
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गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
बोली मायके से भाई आया था कितने दिन
क्या-क्या लाया, क्या दे गया और क्या बात हुई
मां की बहुत याद आई रो पड़ी, गौरैया उस दिन
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फागुन आया
बादलों के बीच से
चाँद झांकने लगा
हवाएँ मुखरित हुईं
रवि-किरणों के
आलोक में
प्रकृति गुनगुनाई
मन में
जैसे तान छिड़ी,
लो फागुन आया।
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प्यार का नाता
एक प्यार का नाता है, विश्वास का नाता है
भाई-बहन से मान करता, अपनापन भाता है
दूर रहकर भी नज़दीकियाँ यूँ बनी रहें सदा
जब याद आती है, आँख में पानी भर आता है
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कहते हैं कोई फ़ागुन आया
फ़ागुन आया, फ़ागुन आया, सुनते हैं, इधर कोई फ़ागुन आया
रंग-गुलाल, उमंग-रसरंग, ठिठोली-होली, सुनते हैं फ़ागुन लाया
उपवन खिले, मन-मनमीत मिले, ढोल बजे, कहीं साज सजे
आकुल-व्याकुल मन को करता, कहते हैं, कोई फ़ागुन आया।