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एक असमंजस की स्थिति में हूं।
शब्दों के अर्थ
अक्सर मुझे भ्रमित करते हैं।
कहते हैं
पर्यायवाची शब्द
समानार्थक होते हैं,
तब इनकी आवश्यकता ही क्या ?
इंसान और मानव से मुझे,
इंसानियत और मानवीयता का बोध होता है।
आदमी से एक भीड़ का,
और व्यक्ति से व्यक्तित्व,
एकल भाव का।
.
शायद
इन सबके संयोग से
यह जग चलता है,
और तब ईश्वर यहीं
इनमें बसता है।
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आत्मनिर्भर हूं
देशभक्ति बस राजगद्दी पर बैठे लोगों की बपौती नहीं है
तिरंगा बेचती हूं,आत्मनिर्भर हूं,कोई फिरौती नहीं है
भिक्षा नहीं,दान नहीं,दया नहीं,आत्मग्लानि भी नहीं
पीड़ा नहीं कि शिक्षित नहीं हैं,मुस्कानों में कटौती नहीं है
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एक वृक्ष बरगद का सपना
मेरे आस-पास
एक बंजर है - रेगिस्तान।
मैंने अक्सर बीज बोये हैं।
पर वर्षा नहीं होती।
पर पानी के बिना भी
पता नहीं
कहां से नमी पाकर
अक्सर
हरी-हरी, विनम्र, कोमल-सी
कांेपल उग आया करती है
एक वृक्ष बरगद का सपना लेकर।
लेकिन वज्रपात !
इस बेमौसम
ओलावृष्टि का क्या करूं
जो सब-कुछ
छिन्न-भिन्न कर देती है।
पर मैं
चुप बैठने वाली नहीं हूं।
निरन्तर बीज बोये जा रही हूं।
यह निमन्त्रण है।
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शायद यही जीवन है
इन राहों पर
खतरनाक अंधे मोड़
होते हैं
जो दिखते तो नहीं
बस अनुभव की बात होती है
कि आप जान जायें
पहचान जायें
इन अंधों मोड़ों को
नहीं जान पाते
नहीं देख पाते
नहीं समझ पाते
कि उस पार से आने वाला
जीवन लेकर आ रहा है
या मौत।
इधर ऊँचे खड़े पहाड़
कभी छत्रछाया-से लगते हैं
और कभी दरकते-खिसकते
जीवन लीलते।
उधर गहरी खाईयां डराती हैं
मोड़ों पर।
.
फिर
बादलों के घेरे
बरसती बूंदें
अनुपम, अद्भुत,
अनुभूत सौन्दर्य में
उलझता है मन।
.
शायद यही जीवन है।
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आस लिए जीती हूँ
सपनों में जीती हूँ
सपनों में मरती हूँ
सपनों में उड़ती हूँ
ऐसे ही जीती हूँ।
धरा पर सपने बोती हूँ
गगन में छूती हूँ ।
मन में चाँद-तारे बुनती हूँ।
बादलों-से उड़ जाते हैं,
हवाएँ बहकाती हैं
सहम जाता है मन
पंछी-सा,
पंख कतरे जाते हैं
फिर भी उड़ती हूँ।
लौट धरा पर आती हूँ,
पर गगन की
आस लिए जीती हूँ।
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तीर खोज रही मैं
गहरे सागर के अंतस में
तीर खोज रही मैं।
ठहरा-ठहरा-सा सागर है,
ठिठका-ठिठका-सा जल।
कुछ परछाईयां झलक रहीं,
नीरवता में डूबा हर पल।
-
चकित हूं मैं,
कैसे द्युतिमान जल है,
लहरें आलोकित हो रहीं,
तुम संग हो मेरे
क्या यह तुम्हारा अक्स है?
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मौन पर दो क्षणिकाएं
मौन को शब्द दूं
शब्द को अर्थ
और अर्थ को अभिव्यक्ति
न जाने राहों में
कब, कौन
समझदार मिल जाये।
*-*-*-*
मौन को
मौन ही रखना।
किन्तु
मौन न बने
कभी डर का पर्याय।
चाहे
न तोड़ना मौन को
किन्तु
मौन की अभिव्यक्ति को
सार्थक बनाये रखना।
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प्रकृति के प्रपंच
प्रकृति भी न जाने कहां-कहां क्या-क्या प्रपंच रचा करती है
पत्थरों को जलधार से तराश कर दिल बना दिया करती है
कितना भी सजा संवार लो इस दिल को रंगीनियों से तुम
बिगड़ेगा जब मिज़ाज उसका, पल में सब मिटा दिया करती है
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मेरे बारे में क्या लिखेंगे लोग
अक्सर
अपने बारे में सोचती हूं
मेरे बारे में
क्या लिखेंगे लोग।
हंसना तो आता है मुझे
पर मेरी हंसी
कितनी खुशियां दे पाती है
किसी को,
यही सोच कर सोचती हूं,
कुछ ज्यादा अच्छा नहीं
मेरे बारे में लिखेंगे लोग।
ज़िन्दगी में उदासी तो
कभी भी किसी को सुहाती नहीं,
और मैं जल्दी मुरझा जाती हूं
पेड़ से गिरे पत्तों की तरह।
छोटी-छोटी बातों पर
बहक जाती हूं,
रूठ जाती हूं,
आंसूं तो पलकों पर रहते हैं,
तब
मेरे बारे में कहां से
कुछ अच्छा लिखेंगे लोग।
सच बोलने की आदत है बुरी,
किसी को भी कह देती हूं
खोटी-खरी,
बेबात
किसी को मनाना मुझे आता नहीं
अकारण
किसी को भाव देना मुझे भाता नहीं,
फिर,
मेरे बारे में कहां से
कुछ अच्छा लिखेंगे लोग।
अक्सर अपनी बात कह पाती नहीं
किसी की सुननी मुझे आती नहीं
मौसम-सा मन है,
कभी बसन्त-सा बहकता है,
पंछी-सा चहकता है,
कभी इतनी लम्बी झड़ी
कि सब तट-बन्ध टूटते है।
कभी वाणी में जलाती धूप से
शब्द आकार ले लेते हैं
कभी
शीत में-से जमे भाव
निःशब्द रह जाते हैं।
फिर कैसे कहूं,
कि मेरे बारे में
कुछ अच्छा लिखेंगे लोग।
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शब्द और भाव
बड़े सुन्दर भाव हैं
दया, करूणा, कृपा।
किन्तु कभी-कभी
कभी-कभी क्यों,
अक्सर
आहत कर जाते हैं
ये भाव
जहां शब्द कुछ और होते हैं
और भाव कुछ और।
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किस बात का हम मान करें
कहते हैं
मिट्टी की यह देह
मिट्टी में मिल जायेगी।
मिट्टी चुन-चुन
थाप-थापकर
घट का निर्माण करें।
रंग-रूप में,
चमक-दमक में,
अपनी यूं ही शान करें।
ज़रा-सी धमक,
बिखर कर
फिर मिट्टी के नाम करें।
मिट्टी से बनते हैं,
फिर मिट्टी में मिल जाते हैं।
किस बात का हम मान करें।