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शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें
हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने
विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का
वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें
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तितलियां
फूल-फूल से पराग चुराती तितलियां
उड़ती-फिरती, मुस्कुराती तितलियां
पंख जोड़ती, पंख खोलतीं रंग सजाती
उड़-उड़ जातीं, हाथ न आतीं तितलियां
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काश! यह दुनिया कोई सपना होती
काश!
यह दुनिया कोई सपना होती,
न तेरी होती न मेरी होती।
न किस्से होते
न कोई कहानी होती।
न झगड़ा, न लफ़ड़ा।
न मेरा न तेरा,
ये दुनिया कितनी अच्छी होती।
न जात-पात,
न धर्म-कर्म, न भेद-भाव।
आकाश भी अपना,
जमीन भी अपनी होती,
बहक-बहक कर,
चहक-चहक कर,
दिन-भर मीठे गीत सुनाते।
रात-रात भर
तारों संग
टिम-टिम-टिम-टिम घूमा करते,
सबका अपना चंदा होता,
चांदनी से न कोई शिकायत होती।
सब कुछ अपना-अपना लगता।
काश!
यह दुनिया कोई सपना होती,
न तेरी होती न मेरी होती।
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तुम तो चांद से ही जलने लगीं
तुम्हें चांद क्या कह दिया मैंने, तुम तो चांद से ही जलने लगीं
सीढ़ियां तानकर गगन से चांद को उतारने की बात करने लगीं
अरे, चांद का तो हर रात आवागमन रहता है टिकता नहीं कभी
हमारे जीवन में बस पूर्णिमा है,इस बात को क्यों न समझने लगीं
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तितली बोली
तितली उड़ती चुप-चुप, भंवरा करता भुन-भुन
भंवरे से बोली तितली, ज़रा मेरी बात तो सुन
तू काला, मैं सुंदर, रंग-बिरंगी, सबके मन भाती,
फूल-फूल मैं उड़ती फिरती, तू न सपने बुन।
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नौ दिन बीतते ही
वर्ष में
बस दो बार
तेरे अवतरण की
प्रतीक्षा करते हैं
तेरे रूप-गुण की
चिन्ता करते हैं
सजाते हैं तेरा दरबार
तेरे मोहक रूप से
आंखें नम करते हैं
गुणगान करते हैं
तेरी शक्ति, तेरी आभा से
मन शान्त करते हैं।
दुराचारी
प्रवृत्तियों का
दमन करते हैं।
किन्तु
नौ दिन बीतते ही
तिरोहित कर
भूल जाते हैं
और लौट आते हैं
अपने चिर-स्वभाव में।
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सदानीरा अमृत-जल- नदियाँ
नदियों के अब नाम रह गये
नदियों के अब कहाँ धाम रह गये।
गंगा, यमुना हो या सरस्वती
बातों की ही बात रह गये।
कभी पूजा करते थे
नदी-नीर को
अब कहते हैं
गंदे नाले के ये धाम रह गये।
कृष्ण से जुड़ी कथाएँ
मन मोहती हैं
किन्तु जब देखें
यमुना का दूषित जल
तो मन में कहाँ वे भाव रह गये।
पहले मैली कर लेते
कचरा भर-भरकर,
फिर अरबों-खरबों की
साफ़-सफ़ाई पर करते
बात रह गये।
कहते-कहते दिल दुखता है
पर
सदानीरा अमृत-जल-नदियों के तो
अब बस नाम ही नाम रह गये।
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किसकी टोपी किसका सिर
बचपन में कथा पढ़ी है,
टोपी वाला टोपी बेचे,
पेड़ के नीचे सो जाये।
बन्दर उसकी टोपी ले गये,
पेड़ पर बैठे उसे चिड़ायें।
टोपी पहने भागे जायें।
बन्दर थे पर नकल उतारें।
टोपी वाले ने आजमाया
अपनी टोपी फेंक दिखलाया।
बन्दरों ने भी टोपी फेंकी,
टोपी वाला ले उठाये।
.
हर पांच साल में आती हैं,
टोपी पहनाकर जाती हैं।
समझ आये तो ठीक
नहीं तो जाकर माथा पीट।
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शायद प्यार से मन मिला नहीं था
यूं तो उनसे कोई गिला नहीं था
यादों का कोई सिला नहीं था
कभी-कभी मिल लेते थे यूं ही
शायद प्यार से मन मिला नहीं था
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किसने रची विनाश की लीला
जल जीवन है, जल पावन है
जल सावन है, मनभावन है
जल तृप्ति है, जल पूजा है।
मन डरता है, जल प्लावन है।
कब सूखा होगा
कब होगी अति वृष्टि
मन उलझा है।
कब तरसें बूंद बूंद को
और कब
सागर ही सागर लहरायेगा,
उतर धरा पर आयेगा
मन डरता है।
किसने रची विनाश की लीला
किसने दोहा प्रकृति को,
कौन बतलायेगा।
जीवन बदला, शैली बदली
रहन सहन की भाषा बदली।
अब यह होना था, और होना है
कहने सुनने से क्या होगा।
आयेंगी और जायेंगी
ये विपदाएं।
बस इतना होना है
कि हम सबको
यहां] सदा
साथ साथ होना है।
घन बरसे या सागर उफ़न पड़े
हमें नहीं डरना है
बस इतना ही कहना है।