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चलो आज ज़िन्दगी को हम कुछ सिखाएं।
कैसा भी समय हो, मन में मलाल न लाएं।
मन पुलकित होता है जब आस जगती है,
हारना नहीं है, इसी बात पर खिलखिलाएं।
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कैसे आया बसन्त
बसन्त यूँ ही नहीं आ जाता
कि वर्ष, तिथि, दिन बदले
और लीजिए
आ गया बसन्त।
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मन के उपवन में
सुमधुर भावों की रिमझिम
कुछ ओस की बूंदें बहकीं
कुछ खुशबू कुछ रंगों के संग
कहीं दूर कोयल कूक उठी।
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यूं ही पार उतरना है
नैया का क्या करना है, अब तो यूं ही पार उतरना है
कुछ डूबेंगे, कुछ तैरेंगे, सब अपनी हिम्मत से करना है
नहीं खड़ा है अब खेवट कोई, नैया पार लगाने को
जान लिया है सब दिया-लिया इस जीवन में ही भरना है
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आशाओं के दीप
सुना है
आशाओं के
दीप जलते हैं।
शायद
इसी कारण
बहुत छोटी होती है
आशाओं की आयु।
और
इसी कारण
हम
रोज़-हर-रोज़
नया दीप प्रज्वलित करते हैं
आशाओं के दीप
कभी बुझने नहीं देते।
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इक नल लगवा दे भैया
कहां है अब पनघट
कहां है अब कृष्ण कन्हैया
क्यो इन सबमें
अब उलझा है मन दैया
इतना ही है तू
कृष्ण कन्हैया
तो मेरे घर में
इक नल लगवा दे भैया।
युग बदल गया
तू भी अपना यह वेश बदल,
न छेड़ बैठना किसी को
गोपी समझ के
कारागार के द्वार खुले हैं दैया।
गीत-संगीत सब बदल गये
रास-बिहारी खिसक गये
ढोल की ताल अब बहक गई
रास-बिहारी चले गये
किचन में कितना काम पड़ा है मैया
इतना ही है तू
कृष्ण कन्हैया
तो अपनी अंगुली से
मेरे घर के सारे काम
करवा दे रे भैया।
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घर की पूरी खुशियां बसती थी
आंगन में चूल्हा जलता था, आंगन में रोटी पकती थी,
आंगन में सब्ज़ी उगती थी, आंगन में बैठक होती थी
आंगन में कपड़े धुलते थे, आंगन में बर्तन मंजते थे
गज़ भर के आंगन में घर की पूरी खुशियां बसती थी
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आंखें फ़ेर लीं
अपनों से अपनेपन की चाह में
जीवन-भर लगे रहे हम राह में
जब जिसने चाहा आंखें फ़ेर लीं
कहीं कोई नहीं था हमारी परवाह में
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खाली कागज़ पर लकीरें खींचता रहता हूं मैं
खाली कागज पर लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
यूं तो
अपने दिल का हाल लिखती हूं,
पर सुना नहीं सकती
इस जमाने को,
इसलिए कह देती हूं
यूं ही
समय बिताने के लिए
खाली कागज पर लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
जब कोई देख लेता है
मेरे कागज पर
उतरी तुम्हारी तस्वीर,
पन्ना पलट कर
कह देती हूं,
यूं ही
समय बिताने के लिए
खाली कागज पर
लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
कोई गलतफहमी न
हो जाये किसी को
इसलिए
दिल का हाल
कुछ लकीरों में बयान कर
यूं ही
खाली कागज पर
लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
पर समझ नहीं पाती,
यूं ही
कागज पर खिंची खाली लकीरें
कब रूप ले लेती हैं
मन की गहराईयों से उठी चाहतों का
उभर आती है तुम्हारी तस्वीर ,
डरती हूं जमाने की रूसवाईयों से
इसलिए
अब खाली कागज पर लकीरें
भी नहीं खींचती हूं मैं।
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इंसान को न धिक्कारो यारो
आत्माओं का गुणगान करके इंसान को न धिक्कारो यारो
इंसानियत की नीयत और गुणों में पूरा विश्वास करो यारो
यह जीवन है, अच्छा-बुरा, ,खरा-खोटा तो चला रहेगा
अपनों को अपना लो, फिर जीवन सुगम है, समझो यारो।
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आवाज़ ऊँची कर
आवाज़ ऊँची कर
चिल्ला मत।
बात साफ़ कर
शोर मचा मत।
अपनी बात कह
दूसरे की दबा मत।
कौन है गूँगा
कौन है बहरा
मुझे सुना मत।
सबकी आवाज़ें
जब साथ बोलेंगीं
तब कान फ़टेंगें
मुझे बता मत।
धरा की बातें
अकारण
आकाश पर उड़ा मत।
जीने का अंदाज़ बदल
बेवजह अकड़
दिखा मत।
मिलजुलकर बात करें
तू बीच में
अपनी टाँग अड़ा मत।
मिल-बैठकर खाते हैं
गाते हैं
ढोल बजाते हैं
तू अब नखरे दिखा मत।
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लौट गये वे भटके-भटके
जिनको समझी थी मैं भूले-भटके, वे सब निकले हटके-हटके
ज्ञान-ध्यान वे बांट रहे थे, हम अज्ञानी रह गये अटके-अटके
पोथी बांची, कथा सुनाई, फिर दान-धर्म की बात समझाई
हमने भी अपनी कविता कह डाली, लौट गये वे भटके-भटके