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अच्छाईयों से भी अब डरने लगे हैं हम
हर किसी में खोट ढूंढने में लगे हैं हम
अपने भीतर झांकने की तो आदत नहीं
औरों के पांव के नीचे से चादर खींचने में लगे हैं हम
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दिल चीज़ क्या है
आज किसी ने पूछा
‘‘दिल चीज़ क्या है’’?
-
अब क्या-क्या बताएँ आपको
बड़़ी बुरी चीज़ है ये दिल।
-
हाय!!
कहीं सनम दिल दे बैठे
कहीं टूट गया दिल
किसी पर दिल आ गया,
किसी को देखकर
धड़कने रुक जाती हैं
तो कहीं तेज़ हो जाती हैं
कहीं लग जाता है किसी का दिल
टूट जाता है, फ़ट जाता है
बिखर-बिखर जाता है
तो कोई बेदिल हो जाता है सनम।
पागल, दीवाना है दिल
मचलता, बहकता है दिल
रिश्तों का बन्धन है
इंसानियत का मन्दिर है
ये दिल।
कहीं हो जाते हैं
दिल के हज़ार टुकड़े
और किसी -किसी का
दिल ही खो ही जाता है।
कभी हो जाती है
दिलों की अदला-बदली।
फिर भी ज़िन्दा हैं जनाब!
ग़जब !
और कुछ भी हो
धड़कता बहुत है यह दिल।
इसलिए
अपनी धड़कनों का ध्यान रखना।
वैसे तो सुना है
मिनट-भर में
72 बार
धड़कता है यह दिल।
लेकिन
ज़रा-सी ऊँच-नीच होने पर
लाखों लेकर जाता है
यह दिल।
इसलिए
ज़रा सम्हलकर रहिए
इधर-उधर मत भटकने दीजिए
अपने दिल को।
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समाचार पत्र की आत्मकथा
अब समाचार-पत्र
समाचारों की बात नहीं करते,
क्या बात करते हैं
यही समझने में दिन बीत जाता है।
बस एक नज़र में
पूरा समाचार-पत्र पढ़ लिया जाता है।
जब समाचार-पत्र लेने की बात आती है,
तब उसकी गुणवत्ता से अधिक
उसकी रद्दी
कितने अच्छे भाव में बिकेगी,
यह ख्याल आता है।
कौन सा समाचार-पत्र
क्या उपहार लेकर आयेगा,
इस पर विचार किया जाता है।
कभी समय था
समाचार-पत्र घर में आने पर
कोहराम मच जाता था।
किसको कौन-सा पृष्ठ चाहिए ,
इस बात पर युद्ध छिड़ जाता था।
पिता की टेढ़ी आंख
कोई समाचार-पत्र को
उनसे पूछे बिना
हाथ नहीं लगा सकता था।
सम्पादकीय पृष्ठ पर
पिताजी का अधिकार,
सामान्य ज्ञान बड़े भाई के पास ,
और मां के नाम महिलाओं का पृष्ठ,
बच्चों का कोना, कार्टून और चुटकुले।
सालों-साल समाचार-पत्रों की कतरनें
अलमारियों से झांकती थी।
हिन्दी का समाचार-पत्र
बड़ी कठिनाई से
मां के आग्रह पर लिया जाता था।
और वह सस्ते भाव बिकता था।
धारावाहिक कहानियां,
बुनाई-कढ़ाई के डिज़ाईन,
रंग-बिरंगे चित्र,
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए,
सामान्य ज्ञान की फ़ाईलें,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाई जाती थीं।
यही समाचार-पत्र अलमारियों में
बिछाये जाते थे,
पुस्तकों-कापियों पर चढ़ाये जाते थे,
और दोपहर के भोजन के लिए भी
यही टिफ़न, फ़ायल हुआ करते थे।
शनिवार-रविवार का समाचार-पत्र
वैवाहिक विज्ञापनों के लिए
लिया जाता था।
समाचार-पत्रों पर लिखना
यूं लगा
मानों जीवन के किसी अनुभूत
सुन्दर सत्य, संस्मरण,
यात्रा-वृतान्त का लिखना
जिसका कोई आदि नहीं, अन्त नहीं।
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नारी स्वाधीनता की बात
मैं अक्सर
नारी स्वाधीनता की
बहुत बात करती हूँ।
रूढ़ियों के विरुद्ध
बहुत आलेख लिखती हूँ।
पर अक्सर
यह भी सोचती हूँ
कि समाज और जीवन की
सच्चाई से
हम मुँह तो मोड़ नहीं सकते।
जीवन तो जीवन है
उसकी धार के विपरीत
तो जा नहीं सकते।
वैवाहिक संस्था को हम
नकार तो नहीं सकते।
मानती हूँ मैं
कि नारी-हित में
शिक्षा से बड़ी कोई बात नहीं।
किन्तु परिवार को हम
बेड़ियाँ क्यों मानने लगे हैं
रिश्तों में हम
जकड़न क्यों महसूस करने लगे हैं।
पर्व-त्यौहार
क्यों हमें चुभने लगे हैं,
रीति-रिवाज़ों से क्यों हम
कतराने लगे हैं।
परिवार और शिक्षा
कोई समानान्तर रेखाएँ नहीं।
जीवन का आधार हैं ये
भरा-पूरा संसार हैं ये।
रूढ़ियों को हटायें
हाथ थाम आगे बढ़ाएँ।
जीवन को सरल-सुगम बनाएँ।
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दिमाग़ में भरे भूसे का
घर जितना पुराना होता जाता है
अनचाही वस्तुओं का
भण्डार भी
उतना ही बड़ा होने लगता है।
सब अत्यावश्यक भी लगता है
और निरर्थक भी।
यही हाल आज
हमारे दिमाग़ में
भरे भूसे का है
अपने-आपको खन्ने खाँ
समझते हैं
और मौके सिर
आँख, नाक, कान, मुँह पर
सब जगह ताले लग जाते हैं।
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प्रेम-प्यार की बात न करना
प्रेम-प्यार की बात न करना,
घृणा के बीज हम बो रहे हैं।
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सम्बन्धों का मान नहीं अब,
दीवारें हम अब चिन रहे हैं।
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काले-गोरे की बात चल रही,
चेहरों को रंगों से पोत रहे हैं ।
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अमीर-गरीब की बात कर रहे,
पैसे से दुनिया को तोल रहे हैं ।अ
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कौन है सच्चा, कौन है झूठा,
बिन जाने हम कोस रहे हैं।
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पढ़ना-लिखना बात पुरानी
सुनी-सुनाई पर चल रहे हैं।
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सर्वधर्म समभाव भूल गये,
भेद-भाव हम ढो रहे हैं।
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अपने-अपने रूप चुन लिए,
किस्से रोज़ नये बुन रहे हैं।
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राजनीति का ज्ञान नहीं है
चर्चा में हम लगे हुए हैं।
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मन में बसन्त खिलता है
जीवन में कुछ खुशियां
बसन्त-सी लगती हैं।
और कुछ बरसात के बाद
मिट्टी से उठती
भीनी-भीनी खुशबू-सी।
बसन्त के आगमन की
सूचना देतीं,
आती-जाती सर्द हवाएं,
झरते पत्तों संग खेलती हैं,
और नव-पल्ल्वों को
सहलाकर दुलारती हैं।
पत्तों पर झूमते हैं
तुषार-कण,
धरती भीगी-भीगी-सी
महकने लगती है।
फूलों का खिलना
मुरझाना और झड़ जाना,
और पुनः कलियों का लौट आना,
तितलियों, भंवरों का गुनगुनाना,
मन में यूं ही
बसन्त खिलता है।
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कहलाने को ये सन्त हैं
साठ करोड़ का आसन, सात करोड़ के जूते,
भोली जनता मूरख बनती, बांधे इनके फीते,
कहलाने को ये सन्त हैं, करते हैं व्यापार,
हमें सिखायें सादगी आप जीवन का रस पीते।
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चैन से सो लेने दो
अच्छे-भले मुंह ढककर सो रहे थे यूं ही हिला हिलाकर जगा दिया
अच्छा-सा चाय-नाश्ता कराओं खाना बनाओ, हुक्म जारी किया
अरे अवकाश हमारा अधिकार है, चैन से सो लेने दो, न जगाओ
नींद तोड़ी हमारी तो मीडिया बुला लेंगे हमने बयान जारी किया
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चिराग जलायें बैठे हैं
घनघोर अंधेरे में
जुगनुओं को जूझते देखा।
गहरे सागर में
दीपक को राह ढूंढते
तिरते देखा।
गहन अंधेरी रातों में
चांद-तारे भी
भटकते देखे मैंने,
रातों की आहट से
सूरज को भी डूबते देखा।
और हमारी
हिम्मत देखो
चिराग जलायें बैठे हैं
चलो, राह दिखाएं तुमको।
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ऐसा नहीं होता मेरे मालिक
कर्म न करना,
परिश्रम न करना,
धर्म न निभाना
बस राम-नाम जपना।
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आंखें बन्द कर लेने से
बिल्ली नहीं भाग जाती।
राम-नाम जपने से
समस्या हल नहीं हो जाती।
.
कुछ चरित्र हमें राह दिखाते हैं।
सन्मार्ग पर चलाते हैं।
किन्तु उनका नाम लेकर
हाथ पर हाथ धरे
बैठने को नहीं कहते हैं।
.
बुद्धि दी, समझ दी,
दी हमें निर्माण-विध्वंस की शक्ति।
दुरुपयोग-सदुपयोग हमारे हाथ में था।
.
भूलें करें हम,
उलट-पुलट करें हम,
और जब हाथ से बाहर की बात हो,
तो हे राम ! हे राम!
.
ऐसा नहीं होता मेरे मालिक।