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जीवन में जरूरी है
किसी परिधि में सिमटना,
सीमाओं में बंधना।
और ये सीमाएं
हम स्वयं तय करें,
तय करें अपनी दूरियां,
अपनी दीवारें चुनें,
बनायें किले या ढहायें।
तुम कुछ भी सोचते रहो
कि फंस रहें हैं हम
अपने ही जाल में,
लेकिन सदा ऐसा नहीं होता।
जब हम
सबकी उपेक्षा कर
अपना सुरक्षा कवच
स्वयं बुनते हैं,
तो तकलीफ होती है,
कहानियां बुनी जाती हैं,
कथाएं सुनी जाती हैं।
कुछ भी कहो,
हम मस्त हैं
अपने ही बुने मकड़जाल में।
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ख्वाहिशों की लकीर
ख्वाहिशों की एक
लम्बी-सी लकीर होती है
ज़िन्दगी में
आप ही खींचते हैं
और आप ही
उस पर दौड़ते-दौड़ते
उसे मिटा बैठते है।
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कहां गये वे दिन बारिश के
कहां गये वे दिन जब बारिश की बातें होती थीं, रिमझिम फुहारों की बातें होती थीं,
मां की डांट खाकर भी, छिप-छिपकर बारिश में भीगने-खेलने की बातें होती थीं
अब तो बारिश के नाम से ही बाढ़, आपदा, भूस्खलन की बातों से मन डरता है,
कहां गये वे दिन जब बारिश में चाट-पकौड़ी खाकर, आनन्द मनाने की बातें होती थीं।
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मतदान मेरा कर्त्तव्य भी है
मतदान मेरा अधिकार है
पर किसने कह दिया
कि ज़िम्मेदारी भी है।
हां, अधिकार है मेरा मतदान।
पर कौन समझायेगा
कि अधिकार ही नहीं
कर्त्तव्य भी है।
जिस दिन दोनों के बीच की
समानान्तर रेखा मिट जायेगी
उस दिन मतदान सार्थक होगा।
किन्तु
इतना तो आप भी जानते ही होंगें
कि समानान्तर रेखाएं
कभी मिला नहीं करतीं।
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चांद मानों मुस्कुराया
चांद मानों हड़बड़ाया
बादलों की धमक से।
सूरज की रोशनी मिट चुकी थी,
चांद मानों लड़खड़ाया
अंधेरे की धमक से।
लहरों में मची खलबली,
देख तरु लड़खड़ाने लगे।
जल में देख प्रतिबिम्ब,
चांद मानों मुस्कुराया
अपनी ही चमक से।
अंधेरों में भी रोशनी होती है,
चमक होती है, दमक होती है,
यह समझाया हमें चांद ने
अपनेपन से मनन से ।
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सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी
साईकिल, हाथी, पंखा, छाता, लिए हाथ में खड़े रहे
जब से आया झाड़ूवाला सब इधर-उधर हैं दौड़ रहे
छूट न जाये,रूठ न जाये, सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी
देखेंगे गिनती के बाद कौन-कौन कहां-कहां हैं गढ़े रहे
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कशमकश
कशमकश
इस बात की नहीं
कि जो मुझे मिला
जितना मुझे मिला
उसके लिए
ईश्वर को धन्यवाद दूँ,
कशमकश इस बात की
कि कहीं
तुम्हें
मुझसे ज़्यादा तो नहीं मिल गया।
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प्रश्न सुलझा नहीं पाती मैं
वैसे तो
आप सबको
बहुत बार बता चुकी हूँ
कि समझ ज़रा छोटी है मेरी।
आज फिर एक
नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ
मेरे सामने।
पता नहीं क्यों
बहुत छोटे-छोटे प्रश्न
सुलझा नहीं पाती मैं
इसलिए
बड़े प्रश्नों से तो
उलझती ही नहीं मैं।
जब हम छोटे थे
तब बस इतना जानते थे
कि हम बच्चे हैं
लड़का-लड़की
बेटा-बेटी तो समझ ही नहीं थी
न हमें
न हमारे परिवार वालों को।
न कोई डर था न चिन्ता।
पूजा-वूजा के नाम पर
ज़रूर लड़कियों की
छंटाई हुआ करती थी
किन्तु और किसी मुद्दे पर
कभी कोई बात
होती हो
तो मुझे याद नहीं।
अब आधुनिक हो गये हैं हम
ठूँस-ठूँसकर भरा जाता है
सोच में
लड़का-लड़की एक समान।
बेटा-बेटी एक समान।
किसी को पता हो तो
बताये मुझे
अलग कब हुए थे ये।
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बारिश के मौसम में
बारिश के मौसम में मन देखो, है भीग रहा
तरल-तरल-सा मन-भाव यूं कुछ पूछ रहा
क्यों मन चंचल है आज यहां कौन आया है
कैसे कह दूं किसकी यादों में मन सीज रहा
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रोशनी की चकाचौंध में
रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम
सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम
तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं
ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम
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प्रभास है जीवन
हास है, परिहास है, विश्वास है जीवन।
हर दिन एक नया प्रयास है जीवन।
सूरज भी चंदा के पीछे छिप जाता है,
आप मुस्कुरा दें तो तो प्रभास है जीवन।