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इस जग में एक सुन्दर जीवन मिला है, मर्त्यन लोक है इससे क्या
सुख-दुख तो आने जाने हैं,पतझड़-सावन, प्रकाश-तम है हमको क्या
जब तक जीवन है, भूलकर मृत्यु के डर को जीत लें तो क्या बात है
कोई कुछ भी उपदेश देता रहे, हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या
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समानता का भाव
बस एक इंसानियत का भाव जगाना होगा।
समानता का भाव सबके मन में लाना होगा।
मानवता को बांटकर देश प्रगति नहीं करते,
हर तरह का भेद-भाव अब मिटाना होगा।
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सागर का मन
पूर्णिमा के चांद को देख
चंचल हो उठता है
सागर का मन,
उत्ताल तरंगें
उमड़ती हैं
उसके मन में,
वैसे ही सीमा-विहीन है
सागर का मन।
ऐसे में
और बिखर-बिखर जाता है,
कौन समझा है यहां।
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एक उपहार है ज़िन्दगी
हर रोज़ एक नई कथा पढ़ाती है जिन्दगी
हर दिन एक नई आस लाती है ज़िन्दगी
कभी हंसाती-रूलाती-जताती है ज़िन्दगी
हर दिन एक नई राह दिखाती है ज़िन्दगी
कदम दर कदम नई आस दिलाती है जिन्दगी
घनघोर घटाओं में भी धूप दिखाती है जिन्दगी
कभी बादलों में कड़कती-चमकती-सी है ज़िन्दगी
कुछ पाने के लिए निरन्तर भगाती है जिन्दगी
भोर से शाम तक देखो जगमगाती है जिन्दगी
झड़ी में भी कभी-कभी धूप दिखाती है जिन्दगी
कभी आशाओं का सागर लहराती है जिन्दगी
और कभी कभी खूब धमकाती भी है जिन्दगी
तब दांव पर पूरी लगानी पड़ती है जिन्दगी
यूं ही तो नहीं आकाश दिला देती है जिन्दगी
पर कुल मिलाकर देखें तो एक उपहार है ज़िन्दगी
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असमंजस में रहते हैं हम
कितनी बार,
हम समझ ही नहीं पाते,
कि परम्पराओं में जी रहे हैं,
या रूढ़ियों में।
.
दादी की परम्पराएं,
मां के लिए रूढ़ियां थीं,
और मां की परम्पराएं
मुझे रूढ़ियां लगती हैं।
.
हमारी पिछली पीढ़ियां
विरासत में हमें दे जाती हैं,
न जाने कितने अमूल्य विचार,
परम्पराएं, संस्कृति और व्यवहार,
कुछ पुराने यादगार पल।
इस धरोहर को
कभी हम सम्हाल पाते हैं,
और कभी नहीं।
कभी सार्थक लगती हैं,
तो कभी अर्थहीन।
गठरियां बांधकर
रख देते हैं
किसी बन्द कमरे में,
कभी ज़रूरत पड़ी तो देखेंगे,
और भूल जाते हैं।
.
ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी
सौंपी जाती है विरासत,
किसी की समझ आती है
किसी की नहीं।
किन्तु यह परम्परा
कभी टूटती नहीं,
चाहे गठरियों
या बन्द कमरों में ही रहें,
इतना ही बहुत है।
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एक आदमी मरा
एक आदमी मरा।
अक्सर एक आदमी मरता है।
जब तक वह जिंदा था
वह बहुत कुछ था।
उसके बार में बहुत सारे लोग
बहुत-सी बातें जानते थे।
वह समझदार, उत्तरदायी
प्यारा इंसान था।
उसके फूल-से कोमल दो बच्चे थे।
या फिर वह शराबी, आवारा बदमाश था।
पत्नी को पीटता था।
उसकी कमाई पर ऐश करता था।
बच्चे पैदा करता था।
पर बच्चों के दायित्व के नाम पर
उन्हें हरामी के पिल्ले कहता था।
वह आदमी एक औरत का पति था।
वह औरत रोज़ उसके लिए रोटी बनाती थीं,
उसका बिस्तर बिछाती थी,
और बिछ जाती थी।
उस आदमी के मरने पर
पांच सौ आदमी
उसकी लाश के आस-पास एकत्र थे।
वे सब थे, जो उसके बारे में
कुछ भी जानते थे।
वे सब भी थे
जो उसके बारे में तो नहीं जानते थे
किन्तु उसकी पत्नी और बच्चों के बारे
में कुछ जानते थे।
कुछ ऐसे भी थे जो कुछ भी नहीं जानते थे
लेकिन फिर भी वहां थे।
उन पांच सौ लोगों में
एक भी ऐसा आदमी नहीं था,
जिसे उसके मरने का
अफ़सोस न हो रहा हो।
लेकिन अफ़सोस का कारण
कोई नहीं बता पा रहा था।
अब उसकी लाश ले जाने का
समय आ गया था।
पांच सौ आदमी छंटने लगे थे।
श्मशान घाट तक पहुंचते-पहुंचते
बस कुछ ही लोग बचे थे।
लाश जल रही थी,भीड़ छंट रही थी ।
एक आदमी मरा। एक औरत बची।
पता नहीं वह कैसी औरत थी।
अच्छी थी या बुरी
गुणी थी या कुलच्छनी।
पर एक औरत बची।
एक आदमी से
पहचानी जाने वाली औरत।
अच्छे या बुरे आदमी की एक औरत।
दो अच्छे बच्चों की
या फिर हरामी पिल्लों की मां।
अभी तक उस औरत के पास
एक आदमी का नाम था।
वह कौन था, क्या था,
अच्छा था या बुरा,
इससे किसी को क्या लेना।
बस हर औरत के पीछे
एक अदद आदमी का नाम होने से ही
कोई भी औरत
एक औेरत हो जाती है।
और आदमी के मरते ही
औरत औरत न रहकर
पता नहीं क्या-क्या बन जाती है।
-
अब उस औरत को
एक नया आदमी मिला।
क्या फर्क पड़ता है कि वह
चालीस साल का है
अथवा चार साल का।
आदमी तो आदमी ही होता है।
उस दिन हज़ार से भी ज़्यादा
आदमी एकत्र थे।
एक चार साल के आदमी को
पगड़ी पहना दी गई।
सत्ता दी गई उस आदमी की
जो मरा था।
अब वह उस मरे हुए आदमी का
उत्तरााधिकारी था ,
और उस औरत का भी।
उस नये आदमी की सत्ता की सुरक्षा के लिए
औरत का रंगीन दुपट्टा
और कांच की चूड़ियां उतार दी गईं।
-
एक आदमी मरा।
-
नहीं ! एक औरत मरी।
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महिला अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष
1975 में लिखी गई रचना
************-*********
तुम हर युग में बनो रहो राम
पर मैं नहीं बनूंगी सीता।
तुम बने रहो अंधे धृतराष्ट्र्
पर मैं बनूंगी गांधारी।
तुम बजाओ मुरली
पर मैं नहीं बनूंगी राधा।
उर्मिला हूं अगर
तो नहीं बैठी रहूंगी
चौदह वर्ष तुम्हारी प्रतीक्षा में।
मैं ब्याही गई थी तुम संग
या तुम ब्याहे गये थे राम संग।
राम संग गई थी सीता
किसे छोड़ गये थे तुम मेरे संग।
द्रौपदी हूं अगर
तो पांडवों की चालाकी जान चुकी हूं।
माता की आज्ञा के इतने ही थे अनुसार
तो क्यों खाने पहुंचे थे
दुर्योधन से जुए में हार।
द्रौपदी अब बनेगी नारी
नहीं चाहिए उसे तुम्हारे मणि हार।
नहीं रह गई है वह केवल
तुम्हारी इच्छा पूर्त्तियों का आधार।
कर लेगी वह अपनी रक्षा
स्वयं ही जयद्रथ से
हे युधिष्ठिर !
नहीं चाहिए उसे तुम्हारी सम्बल।
तुम स्वयं तो बच लो पहले कर्ण से।
तुम्हारी सोलह हज़ार रानियों में
हे कृष्ण ! नहीं चाहिए स्थान मुझे।
रह लूंगी कुंवारी ही
नहीं चाहिए तुम्हारा एहसान मुझे।
तुम्हारे लिए हे राम !
मैंने छोड़ी सारी सुख सुविधा, राज पाट
और तुमने ! तुमने !
एक धोबी के कहने से छोड़ दिया मुझे।
तो स्वयं ही सिद्ध किया
कि अग्नि-परीक्षा
मेरे अपमान का एक अद्भुत ढंग था।
और बहाना ! क्या सुन्दर था।
प्रजा का सुख था।
मैंने छोड़ दिया था तुम्हारे लिए सुख साज।
तो क्या तुम नहीं छोड़ सकते थे
मेरे लिए वही सुख राज।
और अब चाहते हो मैं गांधारी बनूं
फिरूं तुम्हारे पीछे पीछे आंखों पर पट्टी बांधे।
नहीं ! उस बंधी पट्टी को खोल
अपनी दृष्टि अपने पर ही डाल
बनूंगी स्वयं ही वज्र।
पर जानती हूं यह भी,
कि कृष्ण और दुर्योधन
अभी भी तुम्हारे अन्दर विद्यमान हैं।
लेकिन फिर भी हे पुरूष !
हर युग में तुम आओगे
मेरे ही आगे हाथ पसारे
हे मात: ! मुझे बना दो वज्र समान
जिससे, हर युग में मैं
कभी राम तो कभी कृष्ण
कभी कौरव तो कभी पाण्डव
तो कभी धृतराष्ट्र् बनकर
तुम्हें ही चोट पर चोट दे सकूं।
तुम्हारे ही अस्त्र से तुम्हें ही दबाउं
मुक्ति के गीत सुनाकर तुम्हें ही बन्दी बनाउं।
पर आज !
आज भी क्या है मेरे पास ?
सीता न बनूं, न बनूं गांधारी
राधा न बनूं, न बनूं द्रौपदी
या गांधारी भी न बनूं
तो क्या बन कर रहूं
बीसवीं सदी की नारी?
तो क्या यहां स्थितियां कुछ नेक हैं ?
हां हैं !
तुम्हारे हथकण्डे नये, बढ़िया, अनेक हैं।
या यूं कहूं फारेन मेक हैं।
यहां जकड़न और भी गहरी है।
नारी अभिशप्त हर जगह बेचारी है।
उसे देवी के आसन पर बिठाओ
मुक्ति के गीत सुनाओ, स्वपन दिखाओ
हर जगह तुम्हारी जीत है।
हर जगह तुम्हारी जीत है।
आज तो तुमने नया हथकण्डा अपनाया है
सारे संसार में
महिला अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष का नारा गुंजाया है।
नारी को स्वाधीन बनाने का,
अधिकार दिलाने का स्वांग रचाया है।
तुम देवी हो, तुममें प्रतिभा है,
बुद्धिमती हो, तुम सब कुछ कर सकती हो।
सफल गृहिणी हो।
यानी कि आया भी हो
मेहरी भी हो अवैतनिक
और रसोईये का काम तो
भली भांति जानती ही हो।
और दफ्तर !
वहां तो आज नारी ही प्रधान है।
बिल्कुल ठीक !
पहले पिसती थी एक पाट में
अब उसे पीसो चक्की के दो पाटों में।
घर के भीतर भी और घर के बाहर भी।
इस तरह नारी के शोषण की
व्यंग्य प्रहारों से उसे पीड़ित करने की
एक नई राह पाई है।
नारी ने एक बार फिर मार खाई है।
हर युग में यही होता आया है
यह युग भी इसका अपवाद नहीं।
यत्र नारयस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता
भुलावे का मन्त्र यह,
नारी का जीवन था, नारी का जीवन है।
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चूड़ियां: रूढ़ि या परम्परा
आज मैंने अपने हाथों की
सारी चूड़ियों उतार दी हैं
और उतार कर सहेज नहीं ली हैं
तोड़ दी हैं
और टुकड़े टुकड़े करके
उनका कण-कण
नाली में बहा दिया हैं।
इसे
कोई बचकानी हरकत न समझ लेना।
वास्तव में मैं डर गई थी।
चूड़ियों की खनक से,
उनकी मधुर आवाज़ से,
और उस आवाज़ के प्रति
तुम्हारे आकर्षण से।
और साथ ही चूड़ियों से जुड़े
शताब्दियों से बन रहे
अनेक मुहावरों और कहावतों से।
मैंने सुना है
चूड़ियों वाले हाथ कमज़ोर हुआ करते हैं।
निर्बलता का प्रतीक हैं ये।
और अबला तो मेरा पर्यायवाची
पहले से ही है।
फिर चूड़ी के कलाई में आते ही
सौर्न्दय और प्रदर्शन प्रमुख हो जाता है
और कर्म उपेक्षित।
और सबसे बड़ा खतरा यह
कि पता नहीं
कब, कौन, कहां,
परिचित-अपरिचित
अपना या पराया
दोस्त या दुश्मन
दुनिया के किसी
जाने या अनजाने कोने में
मर जाये
और तुम सब मिलकर
मेरी चूड़ियां तोड़ने लगो।
फ़िलहाल
मैंने इस खतरे को टाल दिया है।
जानती हूं
कि तुम जब यह सब जानेगे
तो बड़ा बुरा मानोगे।
क्योंकि, बड़ी मधुर लगती है
तुम्हें मेरी चूड़ियों की खनक।
तुम्हारे प्रेम और सौन्दर्य गीतों की
प्रेरणा स्त्रोत हैं ये।
फुलका बेलते समय
चूड़ियों से ध्वनित होते स्वर
तुम्हारे लिए अमर संगीत हैं
और तुम
मोहित हो इस सब पर।
पर मैं यह भी जानती हूं
कि इस सबके पीछे
तुम्हारा वह आदिम पुरूष है
जो स्वयं तो पहुंच जाना चाहता है
चांद के चांद पर।
पर मेरे लिए चाहता है
कि मैं,
रसोईघर में,
चकले बेलने की ताल पर,
तुम्हारे लिए,
संगीत के स्वर सर्जित करती रहूं,
तुम्हारी प्रतीक्षा में,
तुम्हारी प्रशंसा के
दो बोल मात्र सुनने के लिए।
पर मैं तुम्हें बता दूं
कि तुम्हारे भीतर का वह आदिम पुरूष
जीवित है अभी तो हो,
किन्तु,
मेरे भीतर की वह आदिम स्त्री
कब की मर चुकी है।
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नेह का बस एक फूल
जीवन की इस आपाधापी में,
इस उलझी-बिखरी-जि़न्दगी में,
भाग-दौड़ में बहकी जि़न्दगी में,
नेह का बस कोई एक फूल खिल जाये।
मन संवर संवर जाता है।
पत्ती-पत्ती , फूल-फूल,
परिमल के संग चली एक बयार,
मन बहक बहक जाता है।
देखएि कैसे सब संवर संवर जाता है।
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जिजीविषा के लिए
रंगों की रंगीनियों में बसी है जि़न्दगी।
डगर कठिन है,
पर जिजीविषा के लिए
प्रतिदिन, यूं ही
सफ़र पर निकलती है जिन्दगी।
आज के निकले कब लौटेंगे,
यूं ही एकाकीपन का एहसास
देती रहती है जिन्दगी।
मृगमरीचिका है जल,
सूने घट पूछते हैं
कब बदलेगी जिन्दगी।
सुना है शहरों में, बड़े-बडे़ भवनों में
ताल-तलैया हैं,
घर-घर है जल की नदियां।
देखा नहीं कभी, कैसे मान ले मन ,
दादी-नानी की परी-कथाओं-सी
लगती हैं ये बातें।
यहां तो,
रेत के दानों-सी बिखरी-बिखरी
रहती है जिन्दगी।
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एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।
हर वर्ष आती है यह विभीषिका।
प्रतीक्षा में बैठै रहते हैं
कब बरसेगा जल
कब होगी अतिवृष्टि
डूबेंगे शहर-दर-शहर
टूटेंगे तटबन्ध
मरेगा आदमी
भूख से बिलखेगा
त्राहि-त्राहि मचेगी चारों ओर।
फिर लगेंगे आरोप-प्रत्यारोप
वातानुकूलित भवनों में
योजनाओं का अम्बार लगेगा
मीडिया को कई दिन तक
एक समाचार मिल जायेगा,
नये-पुराने चित्र दिखा-दिखा कर
डरायेंगे हमें।
कितनी जानें गईं
कितनी बचा ली गईं
आंकड़ों का खेल होगा।
पानी उतरते ही
भूल जायेंगे हम सब कुछ।
मीडिया कुछ नया परोसेगा
जो हमें उत्तेजित कर सके।
और हम बैठे रहेंगे
अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।
नहीं पूछेंगे अपने-आपसे
कितने अपराधी हैं हम,
नहीं बनायेंगे
कोई दीर्घावधि योजना
नहीं ढूंढेगे कोई स्थायी हल।
बस, एक-दूसरे का मुंह ताकते
बैठे रहेंगे
एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।