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खबरों की हम खबर बनाएं,
उलट-पलटकर बात सुझाएं,
काम किसी का, बात किसी की,
हम यूं ही आलोचक बनते जाएं।
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सिंदूरी शाम
अक्सर मुझे लगता है
दिन भर
आकाश में घूमता-घूमता
सूरज भी
थक जाता है
और संध्या होते ही
बेरंग-सा होने लगता है
हमारी ही तरह।
ठिठके-से कदम
धीमी चाल
अपने गंतव्य की ओर बढ़ता।
जैसे हम
थके-से
द्वार खटखटाते हैं
और परिवार को देखकर
हमारे क्लांत चेहरे पर
मुस्कान छा जाती है
दिनभर की थकान
उड़नछू हो जाती है
कुछ वैसे ही सूरज
जब बढ़ता है
अस्ताचल की ओर
गगन
चाँद-तारों संग
बिखेरने लगता है
इतने रंग
कि सांझ सराबोर हो जाती है
रंगों से।
और
बेरंग-सा सूरज
अनायास झूम उठता है
उस सिंदूरी शाम में
जाते-जाते हमें भी रंगीनियों से
भर जाता है।
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दैवीय सौन्दर्य
रंगों की शोखियों से
मन चंचल हुआ।
रक्त वर्ण संग
बासन्तिका,
मानों हवा में लहरें
किलोल कर रहीं।
आंखें अपलक
निहारतीं।
काश!
यहीं,
इसी सौन्दर्य में
ठहर जाये सब।
कहते हैं
क्षणभंगुर है जीवन।
स्वीकार है
यह क्षणभंगुर जीवन,
इस दैवीय सौन्दर्य के साथ।
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उदित होते सूर्य से पूछा मैंने
उदित होते सूर्य से पूछा मैंने, जब अस्त होना है तो ही आया क्यों
लौटते चांद-तारों की ओर देख, सूरज मन ही मन मुस्काया क्यों
कभी बादल बरसे, इन्द्रधनुष निखरा, रंगीनियां बिखरीं, मन बहका
परिवर्तन ही जीवन है, यह जानकर भी तुम्हारा मन भरमाया क्यों
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मुस्कानों की भाषा लिखूं
छलक-छलक-छलकती बूंदें,
मन में रस भरती बूंदें
लहर-लहर लहराता आंचल
मन हरषे जब घन बरसे
मुस्कानों की भाषा लिखूं
हवाओं संग उड़ान भरूं मैं
राग बजे और साज बजे
मन ही मन संगीत सजे
धारा संग बहती जाती
अपने में ही उड़ती जाती
कोई न रोके कोई न टोके
जीवन-भर ये हास सजे।
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न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो
न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो
न तुम बोले न मैं, मुस्कानों में क्यों बातें करते हो
अनजाने-अनपहचाने रिश्ते अपनों से अच्छे लगते हैं
कदम ठिठकते, दहलीज रोकती, यूं ही मन चंचल करते हो
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मन ठोकर खाता
चलते-चलते मन ठोकर खाता
कदम रुकते, मन सहम जाता
भावों की नदिया में घाव हुए
समझ नहीं, मन का किससे नाता
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रिश्तों की अकुलाहट
बस कहने की ही तो बातें हैं कि अगला-पिछला छोड़ो रे
किरचों से चुभते हैं टूटे रिश्ते, कितना भी मन को मोड़ो रे
पत्थरों से बांध कर जल में तिरोहित करती रहती हूं बार-बार
फिर मन में क्यों तर आते हैं, क्यों कहते हैं, फिर से जोड़ो रे
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नारी स्वाधीनता की बात
मैं अक्सर
नारी स्वाधीनता की
बहुत बात करती हूँ।
रूढ़ियों के विरुद्ध
बहुत आलेख लिखती हूँ।
पर अक्सर
यह भी सोचती हूँ
कि समाज और जीवन की
सच्चाई से
हम मुँह तो मोड़ नहीं सकते।
जीवन तो जीवन है
उसकी धार के विपरीत
तो जा नहीं सकते।
वैवाहिक संस्था को हम
नकार तो नहीं सकते।
मानती हूँ मैं
कि नारी-हित में
शिक्षा से बड़ी कोई बात नहीं।
किन्तु परिवार को हम
बेड़ियाँ क्यों मानने लगे हैं
रिश्तों में हम
जकड़न क्यों महसूस करने लगे हैं।
पर्व-त्यौहार
क्यों हमें चुभने लगे हैं,
रीति-रिवाज़ों से क्यों हम
कतराने लगे हैं।
परिवार और शिक्षा
कोई समानान्तर रेखाएँ नहीं।
जीवन का आधार हैं ये
भरा-पूरा संसार हैं ये।
रूढ़ियों को हटायें
हाथ थाम आगे बढ़ाएँ।
जीवन को सरल-सुगम बनाएँ।
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एक अपनापन यूं ही
सुबह-शाम मिलते रहिए
दुआ-सलाम करते रहिए
बुलाते रहिए अपने घर
काफ़ी-चाय पिलाते रहिए
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वक्त की करवटें
जिन्दगी अब गुनगुनाने से डरने लगी है।
सुबह अब रात-सी देखो ढलने लगी है।
वक्त की करवटें अब समझ नहीं आतीं,
उम्र भी तो ढलान पर चलने लगी है।