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मां-पिता
जब ईंटें तोड़ते हैं
तब मैंने पूछा
इनसे क्या बनता है मां ?
मां हंसकर बोली
मकान बनते हैं बेटा!
मैंने आकाश की ओर
सिर उठाकर पूछा
ऐसे उंचे बनते हैं मकान?
कब बनते हैं मकान?
कैसे बनते हैं मकान?
कहां बनते हैं मकान?
औरों के ही बनते हैं मकान,
या अपना भी बनता है मकान।
मां फिर हंस दी।
पिता की ओर देखकर बोली,
छोटा है अभी तू
समझ नहीं पायेगा,
तेरे हिस्से का मकान कब बन पायेगा।
शायद कभी कोई
हमारे नाम से चाबी देने आयेगा।
और फिर ईंटें तोड़ने लगी।
मां को उदास देख
मैंने भी हथौड़ी उठा ली,
बड़ी न सही, छोटी ही सही,
तोड़ूंगा कुछ ईंटें
तो मकान तो ज़रूर बनेगा,
इतना उंचा न सही
ज़मीन पर ज़रूर बनेगा मकान!
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अपने कर्मों पर रख पकड़
चाहे न याद कर किसी को
पर अपने कर्मों से डर
न कर पूजा किसी की
पर अपने कर्मों पर रख पकड़ ।
न आराधना के गीत गा किसी के
बस मन में शुद्ध भाव ला ।
हाथ जोड़ प्रणाम कर
सद्भाव दे,
मन में एक विश्वास
और आस दे।
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भीतर के भाव
हर पुस्तक के
आरम्भ और अन्त में
कुछ पृष्ठ
कोरे चिपका दिये जाते हैं
शायद
पुस्तकों को सहेजने के लिए।
किन्तु हम
बस पन्नों को ही
सहेजते रह जाते हैं
पुस्तकों के भीतर के भाव
कहाँ सहेज पाते हैं।
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जब मूक रहे तब मूर्ख कहलाये
जब मूक रहे तब मूर्ख कहलाये
बोले तो हम बड़बोले बन जायें
यूं ही क्यों चिन्तन करता रे मन !
जिसको जो कहना है कहते जायें
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प्रकाश तम में कहीं सिमटा है
मन में आज एक द्वंद्व है,
सब उल्टा-सुल्टा।
चांद-सितारे मानों भीतर,
सूरज कहीं गायब है।
धरा-गगन एकमेक हुए,
न अन्तर कोई दिखता है।
आंख मूंद जगत को निरखें,
कौन, कहां, कहीं दिखता है।
सब सूना-सूना-सा लगता है,
मन न जाने कहां भटकता है।
सुख-दुख से परे हुआ है मन,
प्रकाश तम में कहीं सिमटा है।
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कोशिश तो करते हैं
लिखने की
कोशिश तो करते हैं
पर क्या करें हे राम!
छुट्टी के दिन करने होते हैं
घर के बचे-खुचे कुछ काम।
धूप बुलाती आंगन में
ले ले, ले ले विटामिन डी
एक बजे तक सेंकते हैं
धूप जी-भरकर जी।
फिर करके भारी-भारी भोजन
लेते हैं लम्बी नींद जी।
संध्या समय
मंथन पढ़ते-पढ़ते ही
रह जाते हैं हम
जब तक सोंचे
कमेंट करें
आठ बज जाते हैं जी।
फिर भी
लिखने की
कोशिश तो करते हैं
पर क्या करें हे राम!
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निडर भाव रख
राही अपनी राहों पर चलते जाते
मंज़िल की आस लिए बढ़ते जाते
बाधाएँ तो आती हैं, आनी ही हैं
निडर भाव रख मन की करते जाते।
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सहज भाव से जीना है जीवन
कल क्या था,बीत गया,कुछ रीत गया,छोड़ उन्हें
खट्टी थीं या मीठी थीं या रिसती थीं,अब छोड़ उन्हें
कुछ तो लेख मिटाने होंगे बीते,नया आज लिखने को
सहज भाव से जीना है जीवन,कल की गांठें,खोल उन्हें
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भ्रष्टाचार
जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और दूसरे की ओर उंगली उठाते हैं तो चार उंगलियां स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।
वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रू. की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रू वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और अपना आवश्यकता, विवशता।
यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार उंगलियों के प्रश्न और उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:
पहली उंगली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकते हूं कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं।
दूसरी उंगली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूं ?
तीसरी उंगली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूं।
और अंत में चौथी उंगली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की उंगली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।
यदि प्रत्येक नागरिक आत्मनियन्त्रण करे तो भ्रष्टाचार अवश्य ही दूर होगा।
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सबको बहकाते
पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते
पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते
चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हर पल
हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते
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मुझको मेरी नज़रों से परखो
मन विचलित होता है।
मन आतंकित होता है।
भूख मरती है।
दीवारें रिसती हैं।
न भावुक होता है।
न रोता है।
आग जलती भी है।
आग बुझती भी है।
कब तक दर्शाओगे
मुझको ऐसे।
कब तक बहाओगे
घड़ियाली आंसू।
बेचारी, अबला, निरीह
कहकर
कब तक मुझ पर
दया दिखलाओगे।
मां मां मां मां कहकर
कब तक
झूठे भाव जताओगे।
बदल गई है दुनिया सारी,
बदल गये हो तुम।
प्यार, नेह, त्याग का अर्थ
पिछड़ापन,
थोथी भावुकता नहीं होता।
यथार्थ, की पटरी पर
चाहे मिले कुछ कटुता,
या फिर कुछ अनचाहापन,
मुझको, मेरी नज़रों से देखो,
मुझको मेरी नज़रों से परखो,
तुम बदले हो
मुझको भी बदली नज़रों से देखो।