Share Me
सरकार अपनी आ गई है चल अब तोड़ाे जी ये कुर्सियां
काम-धाम छोड़-छाड़कर अब सोने की हैं जी ये कुर्सियां
पांच साल का टिकट कटा है हमरे इस आसन का
कई पीढ़ियों का बजट बनाकर देंगी देखो जी ये कुर्सियां
Share Me
Write a comment
More Articles
वादों की फुलवारी
यादों का झुरमुट, वादों की फुलवारी
जीवन की बगिया , मुस्कानों की क्यारी
सुधि लेते रहना मेरी पल-पल, हर पल
मैं तुझ पर, तू मुझ पर हर पल बलिहारी
Share Me
मन का दीप प्रज्वलित हो
अपनों का साथ हो
सपनों का राग हो
सम्बन्धों का उन्माद हो
सबसे संवाद हो
मन बाग बाग हो
जीवन में राग राग हो
मधुर मधुर तान हो
भावों में अनुराग हो
मलिनता मिट जाए
दूरियां सिमट जाएं
रिश्तों की गरिमा हो
अपनों की महिमा हो
विश्वास की दमक हो
अपनेपन की महक हो
सहज सहज जीवन हो
सरल पावन मन हो
मन से मन का मिलन हो
न द्वेष का राग हो,
न सत्य से विराग हो
जीवन की सुंदर कहानी हो
अपनों की जु़बानी हो
जगमग जगमग संसार हो
खुशियां अपार हों
पर्वों की सी हरदम आहट हो
बस मन का दीप प्रज्वलित हो।
Share Me
फहराता है तिरंगा
प्रकृति के प्रांगण में लहराता है तिरंगा
धरा से गगन तक फहराता है तिरंगा
हरीतिमा भी गौरवान्वित है यहां देखो
भारत का मानचित्र सजाता है तिरंगा
Share Me
अब घड़ी से नहीं चलती ज़िन्दगी
अक्सर लगता है,
कुछ
निठ्ठलापन आ गया है।
वे ही सारे काम
जो खेल-खेल में
हो जाया करते थे,
पल भर में,
अब, दिनों-दिन
बहकने लगे हैं।
सुबह कब आती है,
शाम कब ढल जाती है,
आभास चला गया है।
अंधेरे -उजाले
एक-से लगने लगे हैं।
घर बंधन तो नहीं लगता,
किन्तु बंधे से रहते हैं,
फिर भी वे सारे काम,
जो खेल-खेल में
हो जाया करते थे,
अब, दिनों तक
टहलने लगे हैं।
समय बहुत है,
शायद यही एहसास
समय के महत्व को
समझने से रोकता है।
घड़ी के घंटों से
नहीं बंधे हैं अब।
न विलम्ब की चिन्ता,
न लम्बित कार्यों की।
मैं नहीं तो
कोई और कर लेगा,
मुझे चिन्ता नहीं।
खेल-खेल में
क्या समय का महत्व
घटने लगा है।
कहीं एक तकलीफ़ तो है,
बस शब्द नहीं हैं।
घड़ियां बन्द पड़ी हैं,
अब घड़ी से नहीं चलती ज़िन्दगी,
पर पता नहीं
समय कैसे कटने लगा है।
Share Me
आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
ज्यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल
डांट पड़ी तो रो दिये,मां का आंचल भीगा
शरारती-से,जाने कहां गये ज़रा देखो बादल
Share Me
भेदभावकारी योजनाएं
(पंजाब नैशनल बैंक में एक योजना है “बहुलाभकारी”
बैंक में लिखा था “बहू लाभकारी”
इस मात्रा भेद ने मुझे इस रचना के लिए प्रेरित किया)
प्रबन्धक महोदय हैरान थे।
माथे पर
परेशानी के निशान थे।
बैंक के बाहर शहर भर की सासें जमा थीं
और मज़े की बात यह
कि इन सासों की नेता
प्रबन्धक महोदय की अपनी अम्मां थीं।
उनके हाथों में
बड़ी बड़ी तख्तियां थीं
नारे थे और फब्तियां थीं :
“प्रबन्धक महोदय को हटाओ
नहीं तो सासलाभकारी योजना चलाओ।
ये बैंक में परिवारवाद फैला रहे हैं
पत्नियों के नाम से
न जाने कितना कमा रहे हैं।
और हम सासों को
सड़क का रास्ता दिखा रहे हैं।
वे नये नये प्रबन्धक बने थे।
शादी भी नयी नयी थी।
अपनी पत्नी और माता के संग
इस शहर में आकर
अभी अभी बसे थे
फिर सास बहू में खूब पटती थी,
प्रबन्धक महोदय की जिन्दगी
बढ़िया चलती थी।
पर यह आज क्या हो गया?
अपनी अम्मां को देख
प्रबन्धक महोदय घबराये।
केबिन से उठकर बाहर आये।
और अम्मां से बोले
“क्या हो गया है तुम्हें अम्मां
ये तख्तियां लिए जुलूस में खड़ी हो।
क्यों मुझे नौकरी से निकलवाने पर तुली हो।
घर जाओ, खाओ पकाओ
सास बहू मौज उड़ाओ।
अम्मां ने दो आंसू टपकाए
और भरे गले से बोलीं
“बेटा, दुनिया कहती थी
शादी के बाद
बेटे बहुओं के होकर रह जाते हैं
पर मैं न मानती थी।
पर आज मैंने
अपनी आंखों से देख ली तुम्हारी करतूत।
बहू के आते ही
हो गये तुम कपूत।
सुन लो,
मैं इन सासों की नेता हूं।
और हम सासों की भीड़
यहां से हटानी है
तो इस बोर्ड पर लिख दो
कि तुम्हें
सासलाभकारी योजना चलानी है।“
यह सुन प्रबन्धक महोदय बोले,
“सुन ओ सासों की नेता,
जो कहता है तेरा बेटा,
ये योजनाएं तो उपर वाले बनाते हैं
इसमें हम प्रबन्धक कुछ नहीं कर पाते हैं।“
“झूठ बोलते हो तुम,
“परबन्धक “ अपनी बहू के”
सासों की नेता बोलीं
“शादी के बाद इधर आये हो
तभी तो ये बोर्ड लगवाए हो।
पुराने दफ्तर में तो
ये योजनाएं न थीं
वहां तो कोई तख्तियां जड़ीं न थीं।“
“ओ सासों की नेता
मैं पहले क्षेत्रीय कार्यालय में काम था करता।
किसी योजना में हाथ नहीं होता मेरा
किसने तुम्हें भड़का दिया
मैं सच्चा सुपूत हूं तेरा।“
प्रबन्धक महोदय बोले
“किसी भी योजना में
धन लगा दो, ओ सासो !
बैंक सबको
बिना भेद भाव
समान दर से है ब्याज है देता।
इस सासलाभकारी योजना की याद
तुम्हें क्यों आई ?
मेरे बैंक की
कौन सी योजना तुम्हें नहीं भाई ?
सासों की सामूहिक आवाज़ आई,
“यदि बैंक भेद भाव नहीं करता
तो यह बहू लाभकारी योजना क्यों चलाई?
तभी तो हमें
सासलाभकारी योजना की याद आई।
यदि सासों की भीड़ यहां से हटानी है
तो इस तख्ती पर लिख दो
कि तुम्हें
सास लाभकारी योजना चलानी है।
और यदि
सास लाभकारी योजना न चलाओ,
तो अपनी यह
बहू लाभकारी योजना हटाओ,
और सास बहू के लिए
कोई एक सी योजना चलाओ।“
Share Me
हम तो रह गये पांच जमाती
क्या बतलाएं आज अपनी पीड़ा, टीचर मार-मार रही पढ़ाती
घर आने पर मां कहती गृह कार्य दिखला, बेलन मार लिखाती
पढ़ ले, पढ़ ले,कोई कहता टीचर बन ले, कोई कहता डाक्टर
नहीं ककहरा समझ में आया, हम तो रह गये पांच जमाती
Share Me
मैं भी तो
यहां
हर आदमी की ज़ुबान
एक धारदार छुरी है
जब चाहे, जहां चाहे,
छीलने लगती है
कभी कुरेदने तो कभी काटने।
देखने में तुम्हें लगेगी
एकदम अपनी सी।
विनम्र, झुकती, लचीली
तुम्हारे पक्ष में।
लेकिन तुम देर से समझ पाते हो
कि सांप की गति भी
कुछ इसी तरह की होती है।
उसकी फुंकार भी
आकर्षित करती है तुम्हें
किसी मौके पर।
उसका रंग रूप, उसका नृत्य _
बीन की धुन पर उसका झूमना
तुम्हें मोहने लगता है।
तुम उसे दूध पिलाने लगते हो
तो कभी देवता समझ कर
उसकी पूजा करते हो।
यह जानते हुए भी
कि मौका मिलते ही
वह तुम्हें काट डालेगा।
और तुम भी
सांप पाल लेते हो
अपनी पिटारी में।
Share Me
मां के आंचल की छांव
प्रकृति का नियम है
विशाल वट वृक्ष तले
नहीं पनपते छोटे पेड़ पौधे।
नहीं पुष्पित पल्लवित होतीं यूं ही लताएं।
और यदि कुछ पनप भी जाये
तो उसे नाम नहीं मिलता।
पहचान नहीं मिलती।
बस, वट वृक्ष की विशालता के सामने
खो जाते हैं सब।
लेकिन, एक ऐसा वट वृक्ष भी है
जिसका अपना कोई नाम नहीं होता
कोई पहचान नहीं होती।
बस एक दीर्घ आंचल होता है
जिसके साये तले, पलती बढ़ती है
एक पूरी की पूरी पीढ़ी,
एक पूरा का पूरा युग।
अपनी जड़ों से पोषण करती है उनका।
नये पौधों का रोपण करती है
अपने आपको खोकर।
उन्हें नाम देती है, पहचान देती है
आंचल की छांव देती है।
पूरी ज़मीन और पूरा आकाश देती है।
युग बदलते हैं, पर नहीं बदलती
नहीं छूटती आंचल की छांव।
Share Me
निद्रा पर एक झलकी
जब खरी–खरी कह लेते हैं,नींद भली-सी आती है
ज़्यादा चिकनी-चुपड़ी ठीक नहीं,चर्बी बढ़ जाती है
हृदयाघात का डर नहीं, औरों की नींद उड़ाते हैं
हमको तो जीने की बस ऐसी ही शैली आती है