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दूर कहीं गगन में
सूरज को मैंने देखा
चन्दा को मैंने देखा
तारे टिमटिम करते
जीवन में रंग भरते
लुका-छिपी ये खेला करते
कहते हैं दिन-रात हुई
कभी सूरज आता है
कभी चंदा जाता है
और तारे उनके आगे-पीछे
देखो कैसे भागा-भागी करते
कभी लाल-लाल
कभी काली रात डराती
फिर दिन आता
सूरज को ढूंढ रहे
कोहरे ने बाजी मारी
दिन में देखो रात हुई
चंदा ने बाजी मारी
तम की आहट से
दिन में देखो रात हुई
प्रकृति ने नवचित्र बनाया
रेखाओं की आभा ने मन मोहा
दिन-रात का यूं भाव टला
जीवन का यूं चक्र चला
कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे
कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते
बस, जीवन का यूं चक्र चला
कैसे समझा, किसने समझा
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हम धीरे-धीरे मरने लगते हैं We just Start Dying Slowly
जब हम अपने मन से
जीना छोड़ देते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम
अपने मन की सुनना
बन्द कर देते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने नासूर
कुरेद कर
दूसरों के जख़्म भरने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने आंसुओं को
आंखों में सोखकर
दूसरों की मुस्कुराहट पर
खिलखिलाकर हँसते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने सपनों को
भ्रम समझकर
दूसरों के सपने संजोने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने सत्कर्मों को भूलकर
दूसरों के अपराधों का
गुणगान करने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम सवालों से घिरे
उत्तर देने से बचने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम सच्चाईयों से
टकराने की हिम्मत खो बैठते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
जब हम
औरों के झूठ का पुलिंदा लिए
उसे सत्य बनाने के लिए
घूमने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम कांटों में
सुगन्ध ढूंढने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम
दुनियादारी की कोशिश में
परायों को अपना समझने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम
विरोध की ताकत खो बैठते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम औरों के अपराध के लिए
अपने-आपको दोषी मानने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारी आँखें
दूसरों की आँखों से
देखने लगती हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हमारे कान
केवल वही सुनने लगते हैं
जो तुम सुनाना चाहते हो
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम केवल
इसलिए खुश रहने लगते हैं
कि कोई रुष्ट न हो जाये
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हमारी तर्कशक्ति
क्षीण होने लगती है
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हमारी विरोध की क्षमता
मरने लगती है
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम
नीम-करेले के रस को
शहद समझकर पीने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम
सपने देखने से डरने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम
अकारण ही
हँसते- हँसते रोने लगते हैं
और हँसते-हँसते रोने
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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हम बस यूँ ही
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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गांधी जी ने ऐसा तो नहीं कहा था
गांधी जी को तो
गोली मार दी गई।
वे चले गये।
किन्तु उनके तीन बन्दर
यहीं रह गये
आंख, कान, मुंह बन्द किये।
आज उनकी संतति
पीढ़ी दर पीढ़ी
यूं ही आंख, कान, मुंह
बन्द किये बैठी है,
तीन हिस्सों में बंटी
गांधी जी ने
ऐसा तो नहीं कहा था।
किन्तु, यही है सत्य।
जो सुनते-देखते हैं वे बोलते नहीं,
जो बोलते-देखते हैं, वे सुनते नहीं
जो बोलते-सुनते हैं, वे देखते नहीं।
फिर कहते हैं
इस देश में कुछ बदल क्यों नहीं रहा !!!!!
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विरोध से दुनिया नहीं चलती
ज़रा ज़रा सी बात पर अक्सर क्रोध करने लगी हूं मैं
किसी ने ज़रा सी बात कह दी तर्क करने लगी हूं मैं
विरोध से दुनिया नहीं चलती, सब समझाते हैं मुझे
समझाने वालों से भी इधर बहुत लड़ने लगी हूं मैं
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श्वेत हंसों का जोड़ा
अपनी छाया से मोहित मन-मग्न हुआ हंसों का जोड़ा
चंदा-तारों को देखा तो कुछ शरमाया हंसों का जोड़ा
इस मिलन की रात को देख चंदा-तारे भी मग्न हुए
नभ-जल की नीलिमा में खो गया श्वेत हंसों का जोड़ा
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पीछे से झांकती है दुनिया
कुछ तो घटा होगा
जो यह पत्थर उठे होंगे।
कुछ तो टूटा होगा
जो यह घुटने फूटे होंगे।
कुछ तो मन में गुबार होगा
जो यूं हाथ उठे होंगे।
फिर, कश्मीर हो या कन्याकुमारी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
वह कौन-सी बात है
जो शब्दों में नहीं ढाली जा सकी,
कलम ने हाथ खींच लिया
और हाथ में पत्थर थमा दिया।
अरे ! अबला-सबला-विमला-कमला
की बात मत करो,
मत करो बात लाज, ममता, नेह की।
एक आवरण में छिपे हैं भाव
कौन समझेगा ?
न यूं ही आरोप-प्रत्यारोप में उलझो।
कहीं, कुछ तो बिखरा होगा।
कुछ तो हुआ होगा ऐसा
कि चुप्पी साधे सब देख रहे हैं
न रोक रहे हैं, न टोक रहे हैं,
कि पीछे से झांकती है दुनिया
न रोकती है, न मदद करती है
न राह दिखाती है
तमाशबीन हैं सब।
कुछ शब्दों के, कुछ नयनों के।
क्यों ? क्यों ?
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देखो किसके कितने ठाठ
एक-दो-तीन-चार
पांच-छः-सात-आठ
देखो किसके कितने ठाठ
इसको रोटी, उसको दूध
किसी को पानी
किसी को भूख
किसकी कितनी हिम्मत
देखें आज
देखो तुम सब
हमरे ठाठ
किके्रट टीम तो बनी नहीं
किस खेल में होते आठ
अपनी टीम बनाएंगे
मौज खूब उड़ायेंगे
सस्ते में सब निपटायेंगे
पढ़ना-लिखना हुआ है मंहगा
बना ले घर में ही टीम
पढ़ोगे-लिखोगे होंगे खराब
खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब
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कहां समझ पाता है कोई
न आकाश की समझ
न धरा की,
अक्सर नहीं दिखाई देता
किनारा कोई।
हर साल,बार-बार,
जिन्दगी यूं भी तिरती है,
कहां समझ पाता है कोई।
सुना है दुनिया बहुत बड़ी है,
देखते हैं, पानी पर रेंगती
हमारी इस दुनिया को,
कहां मिल पाता है किनारा कोई।
सुना है,
आकाश से निहारते हैं हमें,
अट्टालिकाओं से जांचते हैं
इस जल- प्रलय को।
जब पानी उतर जाता है
तब बताता है कोई।
विमानों में उड़ते
देख लेते हैं गहराई तक
कितने डूबे, कितने तिर रहे,
फिर वहीं से घोषणाएं करते हैं
नहीं मरेगा
भूखा या डूबकर कोई।
पानी में रहकर
तरसते हैं दो घूंट पानी के लिए,
कब तक
हमारा तमाशा बनाएगा हर कोई।
अब न दिखाना किसी घर का सपना,
न फेंकना आकाश से
रोटियों के टुकड़े,
जी रहे हैं, अपने हाल में
आप ही जी लेंगे हम
न दिखाना अब
दया हम पर आप में से कोई।
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यादों के उजाले नहीं भाते
यादों के उजाले
नहीं भाते।
घिर गये हैं
आज के अंधेरों में।
गहराती हैं रातें।
बिखरती हैं यादें।
सिहरती हैं सांसें
नहीं सुननी पुरानी बातें।
बिखरते हैं एहसास।
कहता है मन
नहीं चाहिए यादें।
बस आज में ही जी लें।
अच्छा है या बुरा
बस आज ही में जी लें।
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आस्थाएं डांवाडोल हैं
किसे मानें किसे छोड़ें, आस्थाएं डांवाडोल हैं
करते पूजा-आराधना, पर कुण्ठित बोल हैं
अंधविश्वासों में उलझे, बाह्य आडम्बरों में डूबे,
विश्वास खण्डित, सच्चाईयां सब गोल हैं।
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हम सजग प्रहरी
द्वार के दोनों ओर खड़े हैं हम सजग प्रहरी
परस्पर हमारी न शत्रुता, न कोई भागीदारी
मध्य में एक रेखा खींचकर हमें किया विलग
इसी विभाजन के समक्ष हमारी मित्रता हारी