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सुनो,
एकान्त का
मधुर-मनोहर स्वर।
बस अनुभव करो
अन्तर्मन से उठती
शून्य की ध्वनियां,
आनन्द देता है
यह एकाकीपन,
शान्त, मनोहर।
कितने प्रयास से
बिछी यह श्वेत-धवल
स्वर लहरी
मानों दूर कहीं
किसी
जलतरंग की ध्वनियां
प्रतिध्वनित हो रही हों
उन स्वर-लहरियों से
आनन्दित
झुक जाते हैं विशाल वृक्ष
तृण भारमुक्त खड़े दिखते हैं
ऋतु बांध देती है हमें
जताती है
ज़रा मेरे साथ भी चला करो
सदैव मनमानी न करो
आओ, बैठो दो पल
बस मेरे साथ
बस मेरे साथ।
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बंजारों पर चित्राधारित रचना
किसी चित्रकार की
तूलिका से बिखरे
यह शोख रंग
चित्रित कर पाते हैं
बस, एक ठहरी-सी हंसी,
थोड़ी दिखती-सी खुशी
कुछ आराम
कुछ श्रृंगार, सौन्दर्य का आकर्षण
अधखिली रोशनी में
दमकता जीवन।
किन्तु, कहां देख पाती है
इससे आगे
बन्द आंखों में गहराती चिन्ताएं
भविष्य का धुंधलापन
अधखिली रोशनी में जीवन तलाशता
संघर्ष की रोटी
राहों में बिखरा जीव
हर दिन
किसी नये ठौर की तलाश में
यूं ही बीतता है जीवन ।
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इन्द्रधनुष-सी ज़िन्दगी
प्रतिदिन निरखती हूँ
आकाश को
भावों से सराबोर
कभी मुस्कुराता
कभी खिल-खिल हँसता
कभी रूठता-मनाता
सूरज, चंदा, तारों संग खेलता
कभी मुट्ठी में बाँधता कभी छोड़ता।
बादलों को अपने ऊपर ओढ़ता
फिर बादलों की ओट से
झाँक-झाँक देखता।
.
आकाश में बिखरे रंगों से
कभी मुलाकात की है आपने?
मेरे मन में अक्सर उतर आते हैं।
गिन नहीं पाती, परख नहीं पाती
बस हाथों में लिए
निरखती रह जाती हूँ।
आकाश से धरा तक बरसते
चाँद-तारों संग गीत गाते
बादलों में उलझते
दिन-रात, सांझ-सवेरे
नवीन आकारों में ढलते
पल-पल, हर पल रूप बदलते
वर्षा की रिमझिम बूँदों से झांकते।
पत्तों पर लहराती
ओस की बूँदों के भीतर
छुपन-छुपाई खेलते।
.
और फिर
सूरज की किरणों से झांकती
रिमझिम बारिश के बीच से
रंगों के बनते हैं भंवर
जिनमें डूबता-उतरता है मन
आकाश में लहराते हैं
लहरिए सात रँग।
.
इन रँगों को अपनी आँखों से
मन के भीतर तक ले जाती हूँ
और इस तरह
इन्द्रधनुष-सी रंगीन
हो जाती है ज़िन्दगी।
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धरा और आकाश के बीच उलझे स्वप्न
कुछ स्वप्न आकाश में टंगे हैं, कुछ धरा पर पड़े हैं,
किसे छोड़ें, किसे थामें, हम बीच में अड़े खड़े हैं।
असमंजस में उलझे, कोई तो मिले, हाथ थामे,
यहां नीचे कंकड़-पत्थर, उपर से ओले बरस रहे हैं।
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मेरा भारत महान
ऐसे चित्र देखकर
मन द्रवित, भावुक होता है,
या क्रोधित,
अपनी ही समझ नहीं आता।
.
कुछ कर नहीं सकते,
या करना नहीं चाहते,
किंतु बनावट की कहानियां,
इस तरह की बानियां,
गले नहीं उतरतीं।
मेरा भारत महान है।
महान ही रहेगा।
पर रोटी, कपड़ा, मकान
की बात कौन करेगा?
सोचती हूं
बच्चे के हाथ में
किसने दी
स्लेट और चाॅक,
और कौन सिखा रहा
इसे लिखना
मेरा भारत महान?
स्लेट की जगह दो रोटी दे देते,
और देते पिता को कोई काम।
बच्चे के तन पर कपड़े होते,
तब शायद मुझे लगता,
मेरा भारत और भी ज़्यादा महान।
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यादों का पिटारा
इस डिब्बे को देखकर
यादों का पिटारा खुल गया।
भूली-बिसरी चिट्ठियों के अक्षर
मस्तिष्क पटल पर
उलझने लगे।
हरे, पीले, नीले रंग
आंखों के सामने चमकने लगे।
तीन पैसे का पोस्ट कार्ड
पांच पैसे का अन्तर्देशीय,
और
बहुत महत्वपूर्ण हुआ करता था
बन्द लिफ़ाफ़ा
जिस पर डाकघर से खरीदकर
पचास पैसे का
डाक टिकट चिपकाया करते थे।
पत्र लिखने से पहले
कितना समय लग जाता था
यह निर्णय करने में
कि कार्ड प्रयोग करें
अन्तर्देशीय या लिफ़ाफ़ा।
तीन पैसे और पचास पैसे में
लाख रुपये का अन्तर
लगता था
और साथ ही
लिखने की लम्बाई
संदेश की सच्चाई
जीवन की खटाई।
वृक्षों पर लटके ,
सड़क के किनारे खड़े
ये छोटे-छोटे लाल डब्बे
सामाजिकता का
एक तार हुआ करते थे
अपनों से अपनी बात करने का,
दूरियों को पाटने का
आधार हुआ करते थे
द्वार से जब सरकता था पत्र
किसी अपने की आहट का
एहसास हुआ करते थे।
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मेरी आंखों में आँसू देख
मुझसे
प्याज न कटवाया करो।
मुझे
प्याज के आँसू न रुलाया करो।
मेरी आंखों में आँसू देख
न मुस्कुराया करो।
खाना बनाने की
रोज़-रोज़
नई-नई
फ़रमाईशें न बताया करो।
रोज़-रोज़ मुझसे खाना बनवाते हो
कभी तो बनाकर खिलाया करो।
चलो, न बनाओ
तो बस
कभी तो हाथ बंटाया करो।
श्रृंगार किये बैठी थी मैं
कुछ तो
मुझ पर तरस खाया करो।
श्रृंगार का सामान मांगती हूँ
तब मँहगाई का राग न गाया करो।
मेरी आँसू देखकर
न जाने कितनी कहानियाँ बनेंगीं,
हँस-हँसकर मुझे न चिड़ाया करो।
शब्दों से न सही
भावों से ही
कभी तो प्रेम-भाव जतलाया करो।
रूठकर बैठती हूँ
कभी तो मनाने आ जाया करो।
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जल लेने जाते कुएँ-ताल
बाईसवीं सदी के
मुहाने पर खड़े हम,
चाँद पर जल ढूँढ लाये
पर इस धरा पर
अभी भी
कुएँ, बावड़ियों की बात
बड़े गुरूर से करते हैं
कितना सरल लगता है
कह देना
चली गोरी
ले गागर नीर भरन को।
रसपान करते हैं
महिलाओं के सौन्दर्य का
उनकी कमनीय चाल का
घट भरकर लातीं
प्रेमरस में भिगोती
सखियों संग मदमाती
कहीं पिया की आस
कहीं राधा की प्यास।
नहीं दिखती हमें
आकाश से बरसती आग
बीहड़ वन-कानन
समस्याओं का जंजाल
कभी पुरुषों को नहीं देखा
सुबह-दोपहर-शाम
जल लेने जाते कुएँ-ताल।
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आशाओं का सूरज
ये सूरज मेरी आशाओं का सूरज है
ये सूरज मेरे दु:साहस का सूरज है
सीढ़ी दर सीढ़ी कदम उठाती हूं मैं
ये सूरज तम पर मेरी विजय का सूरज है
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दैवीय सौन्दर्य
रंगों की शोखियों से
मन चंचल हुआ।
रक्त वर्ण संग
बासन्तिका,
मानों हवा में लहरें
किलोल कर रहीं।
आंखें अपलक
निहारतीं।
काश!
यहीं,
इसी सौन्दर्य में
ठहर जाये सब।
कहते हैं
क्षणभंगुर है जीवन।
स्वीकार है
यह क्षणभंगुर जीवन,
इस दैवीय सौन्दर्य के साथ।
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सच बोलने की आदत है बुरी
सच बोलने की आदत है बुरी।
इसीलिए
सभी लोग रहने लगे हैं किनारे ।
पीठ पर वार करना मुझे भाता नहीं।
चुप रहना मुझे आता नहीं।
भाती नहीं मुझे झूठी मिठास।
मन मसोस कर मैं जीती नहीं।
खरी-खरी कहने से मैं रूकती नहीं।
इसीलिए
सभी लोग रहने लगे हैं किनारे।
-
हालात क्या बदले,
वक्त ने क्या चोट दी,
सब लोग रहने लगे हैं किनारे ।
काश !
कोई तो हमारी डूबती कश्ती में
सवार होता संग हमारे।
कहीं तो हम नाव खेते
किसी के सहारे।
-
किन्तु हालात यूं बदले
न पता लगा, कब टूटे किनारे।
सब लोग जो बैठे थे किनारे।
डूबते-उतरते वे अब ढूंढने लगे सहारे।
तैर कर निकल आये हम तो किनारे।
उसी कश्ती को थाम ,
अब वे भी ढूंढने में लगे हैं किनारे ।