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कहते हैं जी,
हाथ की है मैल रूपया,
थोड़ी मुझको देना भई।
मुट्ठी से रिसता है धन,
गुल्लक मेरी टूट गई।
सिक्के सारे खन-खन गिरते
किसने लूटे पता नहीं।
नोट निकालो नोट निकालो
सुनते-सुनते
नींद हमारी टूट गई।
छल है, मोह-माया है,
चाह नहीं है
कहने की ही बातें हैं।
मेरा पैसा मुझसे छीनें,
ये कैसी सरकार है भैया।
टैक्सों के नये नाम
समझ न आयें
कोई हमको समझाए भैया
किसकी जेबें भर गईं,
किसकी कट गईं,
कोई कैसे जाने भैया।
हाल देख-देखकर सबका
अपनी हो गई ता-ता थैया।
नोटों की गद्दी पर बैठे,
उठने की है चाह नहीं,
मोह-माया सब छूट गई,
बस वैरागी होने को
मन करता है भैया।
आगे-आगे हम हैं
पीछे-पीछे है सरकार,
बचने का है कौन उपाय
कोई हमको सुझाओ दैया।
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ऋण नहीं मांगता दान नहीं मांगता
समय बदला, युग बदले,
ज़मीन से आकाश तक,
चांद तारों को परख आया मानव।
और मैं !! आज भी
उसी खेत में
बंजर ज़मीन पर
अपने उन्हीं बूढ़े दो बैलों के साथ
हल जोतता ताकता हूं आकाश
कब बरसेगा मेह मेरे लिए।
तब धान उगेगा
भरपेट भोजन मिलेगा।
ऋण नहीं मांगता। दान नहीं मांगता।
बस चाहता हूं
अपने परिश्रम की दो रोटी।
नहीं मरना चाहता मैं बेमौत।
अगर यूं ही मरा
तब मेरे नाम पर राजनीति होगी।
सुर्खियों में आयेगा मेरा नाम।
फ़ोटो छपेगी।
मेरी गरीबी और मेरी यह मौत
अनेक लोगों की रोज़ी-रोटी बनेगी।
धन बंटेगा, चर्चाएं होंगी
मेरी उस लाश पर
और भी बहुत कुछ होगा।
और इन सबसे दूर
मेरे घर के लोग
इन्हीं दो बैलों के साथ
उसी बंजर ज़मीन पर
मेरी ही तरह
नज़र गढ़ाए बैठे होंगे आकाश पर
कब बरसेगा मेह
और हमें मिलेगी
अपने परिश्रम की दो रोटी
हां ! ये मैं ही हूं।
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कितने बन्दर झूम रहे हैं
शेर की खाल ओढ़कर शहर में देखो गीदड़ घूम रहे हैं
टूटे ढोल-पोल की ताल पर देखो कितने बन्दर झूम रहे हैं
कौन दहाड़ रहा पता नहीं, और कौन कर रहा हुआं-हुंआ
कौन है असली, कौन है नकली, गली-गली में ढूंढ रहे है।
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मन भटकता है यहां-वहां
अपने मन पर भी एकाधिकार कहां
हर पल भटकता है देखो यहां-वहां
दिशाहीन हो, इसकी-उसकी सुनता
लेखन में बिखराव है तभी तो यहां
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स्वप्न हों साकार
तुम बरसो, मैं थाम लूं मेह की रफ्तार
न कहीं सूखा हो न धरती बहे धार धार
नदी, कूप, सर,निर्झर सब हों अमृतमय
शस्यश्यामला धरा पर स्वप्न हों साकार
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जीवन है मेरा राहें हैं मेरी सपने हैं अपने हैं
साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं
जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं
अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या
जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं
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ठहरा-सा लगता है जीवन
नदिया की धाराओं में टकराव नहीं है
हवाओं के रुख वह में झनकार नहीं है
ठहरा-ठहरा-सा लगता है अब जीवन
जब मन में ही अब कोई भाव नहीं हैं
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श्रम की धरा पर पांव धरते हैं
श्रम की धरा पर पांव धरते हैं
न इन राहों से डरते हैं
दिन-भर मेहनत कर
रात चैन की नींद लेते हैं
कहीं भी कुछ नया
या अटपटा नहीं लगता
यूं ही
जीवन की राहों पर चलते हैं
न बड़े सपनों में जीते हैं
न आहें भरते हैं।
न किसी भ्रम में रहते हैं
न आशाओं का
अनचाहा जाल बुनते हैं।
पर इधर कुछ लोग आने लगे हैं
हमें औरत होने का एहसास
कराने लगे हैं
कुछ अनजाने-से
अनचाहे सपने दिखाने लगे हैं
हमें हमारी मेहनत की
कीमत बताने लगे हैं
दया, दुख, पीड़ा जताने लगे हैं
महल-बावड़ियों के
सपने दिखाने लगे हैं
हमें हमारी औकात बताने लगे हैं
कुछ नारे, कुछ दावे, कुछ वादे
सिखाने लगे हैं
मिलें आपसे तो
मेरी ओर से कहना
एक बार धरा पर पांव रखकर देखो
काम को छोटा या बड़ा न देखकर
बस मेहनत से काम करके देखो
ईमान की रोटी तोड़ना
फिर रात की नींद लेकर देखो
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नेह का बस एक फूल
जीवन की इस आपाधापी में,
इस उलझी-बिखरी-जि़न्दगी में,
भाग-दौड़ में बहकी जि़न्दगी में,
नेह का बस कोई एक फूल खिल जाये।
मन संवर संवर जाता है।
पत्ती-पत्ती , फूल-फूल,
परिमल के संग चली एक बयार,
मन बहक बहक जाता है।
देखएि कैसे सब संवर संवर जाता है।
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हरपल बदले अर्थ यहाँ
शब्दों के अब अर्थ कहाँ, सब कुछ लगता व्यर्थ यहाँ
कहते कुछ हैं, करते कुछ है, हरपल बदले अर्थ यहाँ
भाव खो गये, नेह नहीं, अपनेपन की बात नहीं अब
किसको मानें, किसे मनायें, इतनी अब सामर्थ्य कहाँ
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हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या
इस जग में एक सुन्दर जीवन मिला है, मर्त्यन लोक है इससे क्या
सुख-दुख तो आने जाने हैं,पतझड़-सावन, प्रकाश-तम है हमको क्या
जब तक जीवन है, भूलकर मृत्यु के डर को जीत लें तो क्या बात है
कोई कुछ भी उपदेश देता रहे, हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या