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रात -दिन अंखियों में बसता दर्द का सावन नया
बाहर बरसे, भीतर बरसे, मन भरमाता सावन नया
कभी मिलते, कभी बिछुड़ते, दर्द का सागर मिला
भावों की नदिया सूखी, कहने को है सावन नया
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मेरे मित्र
उपर वाला
बहुत रिश्ते बांधकर देता है
लेकिन कहता है
कुछ तो अपने लिए
आप भी मेहनत कर
इसलिए जिन्दगी में
दोस्त आप ही ढूंढने पड़ते हैं
लेकिन कभी-कभी उपरवाला भी
दया दिखाता है
और एक अच्छा दोस्त झोली में
डालकर चला जाता है
लेकिन उसे समझना
और पहचानना आप ही पड़ता है।
.
कब क्या कह बैठती हूं
और क्या कहना चाहती हूं
अपने-आप ही समझ नहीं पाती
शब्द खिसकते है
कुछ अर्थ बनते हैं
भाव संवरते हैं
और कभी-कभी लापरवाही
अर्थ को अनर्थ बना देती है
.
सब कहते हैं मुझे
कम बोला कर, कम बोला कर
.
पर न जाने कितने दिन रह गये हैं
जीवन के बोलने के लिए
.
मन करता है
जी भर कर बोलूं
बस बोलती रहूं, बस बोलती रहूं
.
लेकिन ज्यादा बोलने की आदत
बहुत बार कुछ का कुछ
कहला देती है
जो मेरा अभिप्राय नहीं होता
लेकिन
जब मैं आप ही नहीं समझ पाती
तो किसी और को
कैसे समझा सकती हूं
.
किन्तु सोचती हूं
मेरे मित्र
मेरे भाव को समझेंगे
.
हास-परिहास को समझेंगे
न कि
शब्दों का बुरा मानेंगे
उलझन को सुलझा देंगे
कान खींचोंगे मेरे
आंख तरेरेंगे
न कोई
लकीर बनने दोगे अनबन की।
.
कई बार यूं ही
खिंची लकीर भी
गहरी होती चली जाती है
फिर दरार बनती है
उस पर दीवार चिनती है
इतना होने से पहले ही
सुलझा लेने चाहिए
बेमतलब मामले
तुम मेरे कान खींचो
और मै तुम्हारे
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अहं सर्वत्र रचयिते : एक व्यंग्य
हम कविता लिखते हैं।
कविता को गज़ल, गज़ल को गीत, गीत को नवगीत, नवगीत को मुक्त छन्द, मुक्त छन्द को मुक्तक और चतुष्पदी बनाना जानते हैं। और इन सबको गद्य की विविध विधाओं में परिवर्तित करना भी जानते हैं।
अर्थात् , मैं ही लेखक हूँ, मैं ही कवि, गीतकार, गज़लकार, साहित्यकार, गद्य-पद्य की रचयिता, , प्रकाशक, मुद्रक, विक्रेता, क्रेता, आलोचक, समीक्षक भी मैं ही हूँ।
मैं ही संचालक हूँ, मैं ही प्रशासक हूँ।
सब मंचों पर मैं ही हूँ।
इस हेतु समय-समय पर हम कार्यशालाएँ भी आयोजित करते हैं।
अहं सर्वत्र रचयिते।
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समाचार पत्र की आत्मकथा
अब समाचार-पत्र
समाचारों की बात नहीं करते,
क्या बात करते हैं
यही समझने में दिन बीत जाता है।
बस एक नज़र में
पूरा समाचार-पत्र पढ़ लिया जाता है।
जब समाचार-पत्र लेने की बात आती है,
तब उसकी गुणवत्ता से अधिक
उसकी रद्दी
कितने अच्छे भाव में बिकेगी,
यह ख्याल आता है।
कौन सा समाचार-पत्र
क्या उपहार लेकर आयेगा,
इस पर विचार किया जाता है।
कभी समय था
समाचार-पत्र घर में आने पर
कोहराम मच जाता था।
किसको कौन-सा पृष्ठ चाहिए ,
इस बात पर युद्ध छिड़ जाता था।
पिता की टेढ़ी आंख
कोई समाचार-पत्र को
उनसे पूछे बिना
हाथ नहीं लगा सकता था।
सम्पादकीय पृष्ठ पर
पिताजी का अधिकार,
सामान्य ज्ञान बड़े भाई के पास ,
और मां के नाम महिलाओं का पृष्ठ,
बच्चों का कोना, कार्टून और चुटकुले।
सालों-साल समाचार-पत्रों की कतरनें
अलमारियों से झांकती थी।
हिन्दी का समाचार-पत्र
बड़ी कठिनाई से
मां के आग्रह पर लिया जाता था।
और वह सस्ते भाव बिकता था।
धारावाहिक कहानियां,
बुनाई-कढ़ाई के डिज़ाईन,
रंग-बिरंगे चित्र,
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए,
सामान्य ज्ञान की फ़ाईलें,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाई जाती थीं।
यही समाचार-पत्र अलमारियों में
बिछाये जाते थे,
पुस्तकों-कापियों पर चढ़ाये जाते थे,
और दोपहर के भोजन के लिए भी
यही टिफ़न, फ़ायल हुआ करते थे।
शनिवार-रविवार का समाचार-पत्र
वैवाहिक विज्ञापनों के लिए
लिया जाता था।
समाचार-पत्रों पर लिखना
यूं लगा
मानों जीवन के किसी अनुभूत
सुन्दर सत्य, संस्मरण,
यात्रा-वृतान्त का लिखना
जिसका कोई आदि नहीं, अन्त नहीं।
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हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या
इस जग में एक सुन्दर जीवन मिला है, मर्त्यन लोक है इससे क्या
सुख-दुख तो आने जाने हैं,पतझड़-सावन, प्रकाश-तम है हमको क्या
जब तक जीवन है, भूलकर मृत्यु के डर को जीत लें तो क्या बात है
कोई कुछ भी उपदेश देता रहे, हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या
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गांधी जी ने ऐसा तो नहीं कहा था
गांधी जी को तो
गोली मार दी गई।
वे चले गये।
किन्तु उनके तीन बन्दर
यहीं रह गये
आंख, कान, मुंह बन्द किये।
आज उनकी संतति
पीढ़ी दर पीढ़ी
यूं ही आंख, कान, मुंह
बन्द किये बैठी है,
तीन हिस्सों में बंटी
गांधी जी ने
ऐसा तो नहीं कहा था।
किन्तु, यही है सत्य।
जो सुनते-देखते हैं वे बोलते नहीं,
जो बोलते-देखते हैं, वे सुनते नहीं
जो बोलते-सुनते हैं, वे देखते नहीं।
फिर कहते हैं
इस देश में कुछ बदल क्यों नहीं रहा !!!!!
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हम सब तो बस बन्दर हैं
नाचते तो सभी हैं
बस
इतना ही पता नहीं लगता
कि डोरी किसके हाथ में है।
मदारी कौन है और बन्दर कौन।
बहुत सी गलतफहमियां रहती हैं मन में।
खूब नाचते हैं हम
यह सोच कर , कि देखों
कैसा नाच नचाया हमने सामने वाले को।
लेकिन बहुत बाद में पता लगता है कि
नाच तो हम ही रहे थे
और सामने वाला तो तमाशबीन था।
किसके इशारे पर
कब कौन नाचता है
और कौन नचाता है पता ही नहीं लगता।
इशारे छोड़िए ,
यहां तो लोग
उंगलियों पर नचा लेते हैं
और नाच भी लेते हैं।
और भक्त लोग कहते हैं
कि डोरी तो उपर वाले के हाथ में है
वही नचाता है
हम सब तो बस बन्दर हैं।
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वर्षा ऋतु पर हाईकू
पानी बरसा
चांद-सितारे डूबे
गगन हंसा
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पानी बरसा
धरती भीगी-भीगी
मिट्टी महकी
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पानी बरसा
अंकुरण हैं फूटे
पुष्प महके
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पानी बरसा
बूंद-बूंद टपकती
मन हरषा
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पानी बरसा
अंधेरा घिर आया
चिड़िया फुर्र
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पानी बरसा
मन है आनन्दित
तुम ठिठुरे
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आनन्द के कुछ पल
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।
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कुछ चमकते सपने बुनूं
जीवन में अकेलापन
बहुत कुछ बोलता है
कभी कभी
अथाह रस घोलता है।
अपने से ही बोलना
मन के तराने छेड़ना
कुछ पूछना कुछ बताना
अपने आप से ही रूठना, मनाना
उलटना पलटना
कुछ स्मृतियों को।
यहां बैठूं या वहां बैठूं
पेड़ों पर चढ़ जाउं
उपवन में भागूं दौड़ूं
तितली को छू लूं
फूलों को निहारूं
बादलों को पुकारूं
आकाश को पुकारूं
फिर चंदा-तारों को ले मुट्ठी में
कुछ चमकते सपने बुनूं
अपने मन की आहटें सुनूं
अपनी चाहतों को संवारू
फिर
ताज़ी हवा के झोंके के साथ
लौट आउं वर्तमान में
सहज सहज।
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तीर और तुक्का
एक बार आसमां पर तीर जरूर तानिए
लौटकर आयेगा, प्रभाव, उसका जानिए
तीर के साथ तुक्के का ध्यान भी रखें
नहीं तो तरकस खाली होगा, यह मानिए