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तुमको क्यों ईर्ष्या होती है मैंने भी आई-फोन लिया है।
साथ समय के चलना होगा इतना मैंने समझ लिया है।
चिट्ठियां-विट्ठियां पीछे छूटीं, इतना ज्ञान मिला है मुझको,
ई-मेल, फेसबुक, ट्विटर सब कुछ मैंने खोल लिया है।
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औरत की दुश्मन औरत
एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है कि औरत औरत की दुश्मन होती है। बड़ी सरलता से हमारे समाज में, व्यवहार में, परिवारों में, महिलाओं का उपहास करने के लिए इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है।
कारण प्रायः केवल सास-बहू के बनते-बिगड़ते सम्बन्धों के आधार पर सत्यापित किया जाता है। अथवा कभी-कभी ननद-भाभी की परस्पर अनबन को लेकर।
किन्तु जितनी कहानियाँ हमारे समाज में इस तरह की बुनी जाती रही हैं और महिलाओं को इन कहानियों द्वारा अपमानित किया जाता है वे सत्य में कितनी हैं? क्या हम ही अपने परिवारों में देखें तो कितनी महिलाएँ परिवारों में दुश्मनों की तरह रह रही हैं। और केवल परिवारों में ही नहीं, समाज में, कार्यस्थलों में, राहों में , कहीं भी इस वाक्य को सुनाकर महिलाओं का अपमान कर दिया जाता है।
अनबन पिता-पुत्र में भी होती है, भाईयों में भी होती है, विशेषकर कार्यस्थलों में तो बहुत ही गहन ईर्ष्या-द्वेष भाव होता है किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन है।
ऐसा क्यों ? क्यों महिलाओं के विरुद्ध इस तरह की कहावतें, मुहावरे बने हैं?
कहने को कुछ भी कह लें कि समाज बदल गया है, परिवारों में अब लड़का-लड़की समान हैं किन्तु कहीं एक क्षीण रेखा है जो भेद-भाव बताती है।
एक युवती अपना वह घर छोड़कर जाती है जहां उसने परायों की तरह बीस पच्चीस वर्ष बिताये हैं कि यह उसका घर नहीं है। और जिस घर में प्रवेश करती है वहां उसके लिए नये नियम.कानून पहले ही निर्धारित होते हैं जिनको उसे तत्काल भाव से स्वीकार करना होता है, मानों बिजली का बटन है वह, कि इस कमरे की बत्ती बुझाई और उस कमरे की जला दी। उसे अपने आपको नये वातावरण में स्थापित करने में जितना अधिक समय लगता है उतनी ही वह बुरी होती जाती है।
वास्तव में यदि सास-बहू अथवा ननद-भाभी की अनबन देखें तो वह वास्तव में अधिकार की लड़ाई है। एक युवती को मायके में अधिकार नहीं मिलते, वहाँ भाई और पिता ही सर्वोपरि होते हैं। ससुराल में वह इस आशा के साथ प्रवेश करती है कि यह उसका घर है और यहाँ उसके पास अधिकार होंगे। किन्तु उसके प्रवेश के साथ ही सास और ननद के मन में भय समा जाता है कि उनके अधिकार जाते रहेंगे। और उनकी इस मनोवैज्ञानिक समस्या में परिवार के पुरुषों का व्यवहार प्रायः आग में घी का काम करता है। वे न किसी का सहयोग देते हैं, न उचित पक्ष लेते हैं, न राह दिखाते हैं, बस औरतें तो होती ही ऐसी हैं कह कर पतली गली से निकल लेते हैं।
कभी आपने सुना कि माँ ने बेटी को घर से निकाल दिया अथवा इसके विपरीत। अथवा बेटी ने सम्पत्ति के लिए माँ के विरुद्ध कार्य किया। किन्तु पुरुषों में आप नित्य-प्रति कथाएँ सुनते हैं कि भाई भाई को मार डालता है, बेटा सम्पत्ति के लिए पिता की हत्या कर देता है। चाचे-भतीजे की लड़ाईयाँ। ज़रा-सा पढ़-लिख जाता है तो उसे अपने माता-पिता पिछड़े दिखाई देने लगते हैं ऐसी सत्य अनगिनत कथाएं हम जानते हैं, किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन होता है। आज भी नारी: पुरूष अथवा परिवार की पथगामिनी ही है, वह अपने चुने मार्ग पर कहां चल पाती है। हां, परिवार में कुछ भी गलत हो तो आरोपी वही होती है। मां-बेटे, पिता-पुत्र, अन्य सम्बन्धियों के साथ कुछ भी बिगड़े, दोषारोपण नारी पर ही आता है।
दुख इस बात का कि हम स्वयं ही अपने विरूद्ध सोचने लगे हैं क्योंकि हमारा समाज हमारे विरूद्ध सोचता है।
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हमारे नाम की चाबी
मां-पिता
जब ईंटें तोड़ते हैं
तब मैंने पूछा
इनसे क्या बनता है मां ?
मां हंसकर बोली
मकान बनते हैं बेटा!
मैंने आकाश की ओर
सिर उठाकर पूछा
ऐसे उंचे बनते हैं मकान?
कब बनते हैं मकान?
कैसे बनते हैं मकान?
कहां बनते हैं मकान?
औरों के ही बनते हैं मकान,
या अपना भी बनता है मकान।
मां फिर हंस दी।
पिता की ओर देखकर बोली,
छोटा है अभी तू
समझ नहीं पायेगा,
तेरे हिस्से का मकान कब बन पायेगा।
शायद कभी कोई
हमारे नाम से चाबी देने आयेगा।
और फिर ईंटें तोड़ने लगी।
मां को उदास देख
मैंने भी हथौड़ी उठा ली,
बड़ी न सही, छोटी ही सही,
तोड़ूंगा कुछ ईंटें
तो मकान तो ज़रूर बनेगा,
इतना उंचा न सही
ज़मीन पर ज़रूर बनेगा मकान!
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ढोल की थाप पर
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।
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मन से मन मिले हैं
यूं तो
मेरा मन करता है
नित्य ही
पूजा-आराधना करुँ।
किन्तु
पूजा के भी
बहुत नियम-विधान हैं
इसलिए
डरती हूं पूजा करने से।
ऐसा नहीं
कि मैं
नियमों का पालन करने में
असमर्थ हूँ
किन्तु जहाँ भाव हों
वहाँ विधान कैसा ?
जहाँ नेह हो
वहां दान कैसा ?
जहाँ भरोसा हो
वहाँ प्रदर्शन कैसा ?
जब
मन से मन मिले हैं
तो बुलावा कैसा ?
जब अन्तर्मन से जुड़े हैं
तो दिनों का निर्धारण कैसा ?
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दाना डाला जाल बिछाया
नदी किनारे बैठे बैठे मन में आया चल डूब मरें
फिर देखा मीन बड़ी बड़ी, सोचा मस्ती खूब करें
दाना डाला, जाल बिछाया, सारे हथकंडे अपनाये
पकड़ी तो नकली निकली, आप न ऐसी भूल करें
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श्रम की धरा पर पांव धरते हैं
श्रम की धरा पर पांव धरते हैं
न इन राहों से डरते हैं
दिन-भर मेहनत कर
रात चैन की नींद लेते हैं
कहीं भी कुछ नया
या अटपटा नहीं लगता
यूं ही
जीवन की राहों पर चलते हैं
न बड़े सपनों में जीते हैं
न आहें भरते हैं।
न किसी भ्रम में रहते हैं
न आशाओं का
अनचाहा जाल बुनते हैं।
पर इधर कुछ लोग आने लगे हैं
हमें औरत होने का एहसास
कराने लगे हैं
कुछ अनजाने-से
अनचाहे सपने दिखाने लगे हैं
हमें हमारी मेहनत की
कीमत बताने लगे हैं
दया, दुख, पीड़ा जताने लगे हैं
महल-बावड़ियों के
सपने दिखाने लगे हैं
हमें हमारी औकात बताने लगे हैं
कुछ नारे, कुछ दावे, कुछ वादे
सिखाने लगे हैं
मिलें आपसे तो
मेरी ओर से कहना
एक बार धरा पर पांव रखकर देखो
काम को छोटा या बड़ा न देखकर
बस मेहनत से काम करके देखो
ईमान की रोटी तोड़ना
फिर रात की नींद लेकर देखो
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आज भी वहीं के वहीं हैं हम
कहां छूटा ज़माना पीछे, आज भी वहीं के वहीं हैं हम
न बन्दूक है न तलवार दिहाड़ी पर जा रहे हैं हम
नज़र बदल सकते नहीं किसी की कितनी भी चाहें
ये आत्म रक्षा नहीं जीवन यापन का साधन लिए हैं हम
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दिमाग़ में भरे भूसे का
घर जितना पुराना होता जाता है
अनचाही वस्तुओं का
भण्डार भी
उतना ही बड़ा होने लगता है।
सब अत्यावश्यक भी लगता है
और निरर्थक भी।
यही हाल आज
हमारे दिमाग़ में
भरे भूसे का है
अपने-आपको खन्ने खाँ
समझते हैं
और मौके सिर
आँख, नाक, कान, मुँह पर
सब जगह ताले लग जाते हैं।
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मोती बनीं सुन्दर
बूँदों का सागर है या सागर में बूँदें
छल-छल-छलक रहीं मदमाती बूँदें
सीपी में बन्द हुईं मोती बनीं सुन्दर
छू लें तो मानों डरकर भाग रही बूँदें
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प्रकृति का सौन्दर्य
फूलों पर मंडराती तितली को मदमाते देखा
भंवरे को फूलों से गुपचुप पराग चुराते देखा
सूरज की गुनगुनी धूप, चंदा से चांदनी आई
हमने गिरगिट को कभी न रंग बदलते देखा