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साथी तेरा प्यार
जैसे खट्टा-मीठा
मिर्ची का अचार।
कभी पतझड़
तो कभी बहार,
कभी कण्टक चुभते
कभी फूल खिलें।
कभी कड़क-कड़क
बिजली कड़के
कभी बिन बादल बरसात।
कभी नदियां उफ़ने
कभी तलछट बनते
कभी लहर-लहर
कभी भंवर-भंवर।
कभी राग बने
सुर-साज सजे
जीवन की हर तान बजे।
लुक-छिप, लुक-छिप
खेल चला
जीवन का यूं ही
मेल चला।
साथी तेरा प्यार
जैसे खट्टा-मीठा अचार।
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ठहरी ठहरी सी लगती है ज़िन्दगी
अब तो
ठहरी-ठहरी-सी
लगती है ज़िन्दगी।
दीवारों के भीतर
सिमटी-सिमटी-सी
लगती है ज़िन्दगी।
द्वार पर पहरे लगे हैं,
मन पर गहरे लगे हैं,
न कोई चोट है कहीं,
न घाव रिसता है,
रक्त के थक्के जमने लगे हैं।
भाव सिमटने लगे हैं,
अभिव्यक्ति के रूप
बदलने लगे हैं।
इच्छाओं पर ताले लगने लगे हैं।
सत्य से मन डरने लगा है,
झूठ के ध्वज फ़हराने लगे हैं।
न करना शिकायत किसी की
न बताना कभी मन के भेद,
लोग बस
तमाशा बनाने में लगे हैं।
न ग्रहण है न अमावस्या,
तब भी जीवन में
अंधेरे गहराने लगे हैं।
जीतने वालों को न पूछता कोई
हारने वालों के नाम
सुर्खियों में चमकने लगे हैं।
अनजाने डर और खौफ़ में जीते
अपने भी अब
पराये-से लगने लगे हैं।
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किसकी डोर किसके हाथ
कहां समझे हैं हम,
जीवन की सच्चाईयों और
चित्रों में बहुत अन्तर होता है।
कठपुतली नाच और
जीवन के रंगमंच के
नाटक का
अन्त अलग-अलग होता है।
स्वप्न और सत्य में
धरा-आकाश का अन्तर होता है।
इस चित्र को देखकर मन बहला लो ।
कटाक्ष और व्यंग्य का
पटल बड़ा होता है।
किसकी डोर किसके हाथ
यह कहां पता होता है।
कहने और लिखने की बात और है,
जीवन का सत्य क्या है,
यह सबको पता होता है ।
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इशारों में ही बात हो गई
मेरे हाथ आज लगे
जिन्न और चिराग।
पूछा मैंने
क्या करोगे तुम मेरे
सारे काम-काज।
बोले, खोपड़ी तेरी
क्या घूम गई है
जो हमसे करते बात।
ज्ञात हो चुकी हमको
तुम्हारी सारी घात।
बहुत कर चुके रगड़ाई हमारी।
बहुत लगाये ढक्कन।
किन्तु अब हम
बुद्धिमान हो गये।
बोतल बड़ी-बड़ी हो गई,
लेन-देन की बात हो गई,
न रगड़ाई और न ढक्कन।
बस देता जा और लेता जा।
लाता जा और पाता जा।
भर दे बोतल, काम करा ले।
काम करा ले बोतल भर दे।
इशारों में ही बात हो गई
समझ आ गई तो ठीक
नहीं आई तो
जाकर अपना माथा पीट।
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कभी धरा कभी गगन को छू लें
चल री सखी
आज झूला झूलें,
कभी धरा
तो कभी
गगन को छू लें,
डोर हमारी अपने हाथ
जहां चाहे
वहां घूमें।
चिन्ताएं छूटीं
बाधाएं टूटीं
सखियों संग
हिल-मिल मन की
बातें हो लीं,
कुछ गीत रचें
कुछ नवगीत रचें,
मन के सब मेले खेंलें
अपने मन की खुशियां लें लें।
नव-श्रृंगार करें
मन से सज-संवर लें
कुछ हंसी-ठिठोली
कुछ रूसवाई
कभी मनवाई हो ली।
मेंहदी के रंग रचें
फूलों के संग चलें
कभी बरसे हैं घन
कभी तरसे है मन
आशाओं के दीप जलें
हर दिन यूं ही महक रहे
हर दिन यूं ही चहक रहे।
चल री सखी
आज झूला झूलें
कभी धरा
तो कभी
गगन को छू लें।
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अन्तर्मन की आवाजें
अन्तर्मन की आवाजें अब कानों तक पहुंचती नहीं
सन्नाटे को चीरकर आती आवाजें अन्तर्मन को भेदती नहीं
यूं तो पत्ता भी खड़के, तो हम तलवार उठा लिया करते हैं
पर बडे़-बडे़ झंझावातों में उजडे़ चमन की बातें झकझोरती नहीं
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कयामत के दिन चार होते हैं
कहीं से सुन लिया है
कयामत के दिन चार होते हैं,
और ज़िन्दगी भी
चार ही दिन की होती है।
तो क्या कयामत और ज़िन्दगी
एक ही बात है?
नहीं, नहीं,
मैं ऐसे डरने वाली नहीं।
लेकिन
कंधा देने वाले भी तो
चार ही होते हैं
और दो-दूनी भी
चार ही होते हैं।
और हां,
बातें करने वाले भी
चार ही लोग होते हैं,
एक है न कहावत
‘‘चार लोग क्या कहेंगे’’।
वैसे मुझे अक्सर
अपनी ही समझ नहीं आती।।
बात कयामत की करने लगी थी
और दो-दूनी चार के
पहाड़े पढ़ने लगी।
ऐसे थोड़े ही होता है।
चलो, कोई बात नहीं।
फिर कयामत की ही बात करते हैं।
सुना है, कोई
कोरोना आया है,
आयातित,
कहर बनकर ढाया है।
पूरी दुनिया को हिलाया है
भारत पर भी उसकी गहन छाया है।
कहते हैं,
उसके साथ
छुपन-छुपाई खेल लो चार दिन,
भाग जायेगा।
तुम अपने घर में बन्द रहो
मैं अपने घर में।
ढूंढ-ढूंढ थक जायेगा,
और अन्त में थककर मर जायेगा।
तब मिलकर करेंगे ज़िन्दगी
और कयामत की बात,
चार दिन की ही तो बात है,
तो क्या हुआ, बहुत हैं
ये भी बीत जायेंगे।
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कशमकश
कशमकश
इस बात की नहीं
कि जो मुझे मिला
जितना मुझे मिला
उसके लिए
ईश्वर को धन्यवाद दूँ,
कशमकश इस बात की
कि कहीं
तुम्हें
मुझसे ज़्यादा तो नहीं मिल गया।
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मेरे हिस्से का सूरज
कैसे कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज खा भी गये।
यूं देखा जाये
तो रोशनी पर सबका हक़ है।
पर सबके पास
अपने-अपने हक का
सूरज भी तो होता है।
फ़िर, क्यों, कैसे
कुछ लोग
मेरे हिस्से का सूरज खा गये।
बस एक बार
इतना ही समझना चाहती हूं
कि गलती मेरी थी कहीं,
या फिर
लोगों ने मेरे हक का सूरज
मुझसे छीन लिया।
शायद गलती मेरी ही थी।
बिना सोचे-समझे
रोशनियां बांटने निकल पड़ी मैं।
यह जानते हुए भी
कि सबके पास
अपना-अपना सूरज भी है।
बस बात इतनी-सी
कि अपने सूरज की रोशनी पाने के लिए
कुछ मेहनत करनी पड़ती है,
उठाने पड़ते हैं कष्ट,
झेलनी पड़ती हैं समस्याएं।
पर जब यूं ही
कुछ रोशनियां मिल जायें,
तो क्यों अपने सूरज को जलाया जाये।
जब मैं नहीं समझ पाई,
इतनी-सी बात।
तो होना यही था मेरे साथ,
कि कुछ लोग
मेरे हिस्से का सूरज खा गये।
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प्रेम-प्यार के मधुर गीत
मौसम बदला, फूल खिले, भंवरे गुनगुनाते हैं।
सूरज ने धूप बिखेरी, पंछी मधुर राग सुनाते हैं।
जी चाहता है भूल जायें दुनियादारी के किस्से,
चलो मिलकर प्रेम-प्यार के मधुर गीत गाते हैं।
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मानव के धोखे में मत आ जाना
समझाया था न तुझको
जब तक मैं न लौटूं
नीड़ से बाहर मत जाना
मानव के
धोखे में मत आ जाना।
फैला चारों ओर प्रदूषण
कहीं चोट मत खा जाना।
कहां गये सब संगी साथी
कहां ढूंढे अब उनको।
समझाकर गई थी न
सब साथ-साथ ही रहना।
इस मानव के धोखे में मत आ जाना।
उजाड़ दिये हैं रैन बसेरे
कहां बनाएं नीड़।
न फल मिलता है
न जल मिलता है
न कोई डाले चुग्गा।
हाथों में पिंजरे है
पकड़ पकड़ कर हमको
इनमें डाल रहे हैं
कोई अभयारण्य बना रहे हैं,
परिवारों से नाता टूटे
अपने जैसा मान लिया है।
फिर कहते हैं, देखो देखो
हम जीवों की रक्षा करते हैं।
चलो चलो
कहीं और चलें
इन शहरों से दूर।
करो उड़ान की तैयारी
हमने अब यह ठान लिया है।