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सांझ-सवेरे, भागा-दौड़ी
सूरज भागा, चंदा चमका
तारे बिखरे
कुछ चमके, कुछ निखरे
रंगों की डोली पलटी
हल्के-हल्के रंग बदले
फूलों ने मुख मोड़ लिए
पल्लव देखो सिमट गये
चिड़िया ने कूक भरी
तितली-भंवरे कहाँ गये
कीट-पतंगे बिखर गये
ओस की बूँदें टहल रहीं
देखो तो कैसे बहक रहीं
रंगों से देखो खेल रहीं
अभी यहीं थीं
कहाँ गईं, कहाँ गईं
ढूंढो-ढूंढों कहाँ गईं।
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मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है
मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है।
चौराहे पर रीता, बैठक में मीता
दफ्तर में नीता, मन्दिर में गीता
वन वन सीता,
कहती है
रावण आओ, मुझे बचाओ
अपहरण कर लो मेरा
अशोक वाटिका बनवाओ।
ऋषि मुनियों की, विद्वानों की
बलशाली बाहुबलियों की
पितृभक्तों-मातृभक्तों की
सत्यवादी, मर्यादावादी, वचनबद्धों की
अगणित गाथाएं हैं।
वेद-ज्ञाता, जन-जन के हितकारी
धर्मों के नायक और गायक
भीष्म प्रतिज्ञाधारी, राजाज्ञा के अनुचारी
धर्मों के गायक और नायक
वचनों से भारी।
कर्म बड़े हैं, धर्म बड़े हैं
नियम बड़े हैं, कर्म बड़े हैं।
नाक काट लो, देह बांट लो
संदेह करो और त्याग करो।
वस्त्र उतार लो, वस्त्र चढ़ा दो।
श्रापित कर दो, शिला बना दो।
मुक्ति दिला दो। परीक्षा ले लो।
कथा बना लो।चरित्र गिरा दो।
देवी बना दो, पूजा कर लो
विसर्जित कर दो।
हरम सजा लो, भोग लगा लो।
नाच नचा लो, दुकान सजा लो।
भाव लगा लो। बेचो-बेचो और खरीदो।
बलात् बिठा लो, बलात् भगा लो।
मूर्ख बहुत था रावण।
जीत चुका था जीवन ,हार चुकी थी मौत।
विश्व-विजेता, ज्ञानी-ध्यानी
ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी।
न चेहरा देखा, न स्पर्श किया।
पत्नी बना लूं, हरम सजा लूं
दासी बना लूं
बिना स्वीकृति कैसे छू लूं
सोचा करता था रावण।
मूर्ख बहुत था रावण।
सुरक्षा दी, सुविधाएं दी
इच्छा पूछी, विनम्र बना था रावण।
दूर दूर रहता था रावण।
मूर्ख बहुत था रावण।
धर्म-विरोधी, काण्ड-विरोधी
निर्मम, निर्दयी, हत्यारा,
असुर बुद्धि था रावण।
पर औरत को औरत माना
मूर्ख बहुत था रावण।
अपमान हुआ था एक बहन का
था लगाया दांव पर सिहांसन।
राजा था, बलशाली था
पर याचक बन बैठा था रावण
मूर्ख बहुत था रावण।
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जीवन की गति एक चक्रव्यूह
जीवन की गति
जब किसी चक्रव्यूह में
अटकती है
तभी
अपने-पराये का एहसास होता है।
रक्त-सम्बन्ध सब गौण हो जाते हैं।
पता भी नहीं लगता
कौन पीठ में खंजर भोंक गया ,
और किस-किस ने सामने से
घेर लिया।
व्यूह और चक्रव्यूह
के बीच दौड़ती ज़िन्दगी,
अधूरे प्रश्र और अधूरे उत्तर के बीच
धंसकर रह जाती है।
अधसुनी, अनसुनी कहानियां
लौट-लौटकर सचेत करती हैं,
किन्तु हम अपनी रौ में
चेतावनी समझ ही नहीं पाते,
और अपनी आेर से
एक अधबुनी कहानी छोड़कर
चले जाते हैं।
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तिनके का सहारा
कभी किसी ने कह दिया
एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है,
किस्मत साथ दे
तो सीखा हुआ
ककहरा भी बहुत होता है।
लेकिन पुराने मुहावरे
ज़िन्दगी में साथ नहीं देते सदा।
यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को
यूं ही लांघ जाता है आदमी,
लेकिन कभी-कभी एक तिनके की चोट से
घायल मन
हर आस-विश्वास खोता है।
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मेरा घर जलाता कौन है
घर में भी अब नहीं सुरक्षित, विचलित मन को यह बात बताता कौन है,
भीड़-तन्त्र हावी हो रहा, कानून की तो बात यहं अब समझाता कौन है,
कौन है अपना, कौन पराया, कब क्या होगा, कब कौन मिटेगा, पता नहीं
यू तो सब अपने हैं, अपने-से लगते हैं, फिर मेरा घर जलाता कौन है।
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आत्मनिर्भर हूं
देशभक्ति बस राजगद्दी पर बैठे लोगों की बपौती नहीं है
तिरंगा बेचती हूं,आत्मनिर्भर हूं,कोई फिरौती नहीं है
भिक्षा नहीं,दान नहीं,दया नहीं,आत्मग्लानि भी नहीं
पीड़ा नहीं कि शिक्षित नहीं हैं,मुस्कानों में कटौती नहीं है
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यह भावुकता
कहां है अपना वश !
कब के रूके
कहां बह निकलेगें
पता नहीं।
चोट कहीं खाई थी,
जख्म कहीं था,
और किसी और के आगे
बिखर गये।
सबने अपना अपना
अर्थ निकाल लिया।
अब
क्या समझाएं
किस-किसको
क्या-क्या बताएं।
तह-दर-तह
बूंद-बूंद
बनती रहती हैं गांठें
काल की गति में
कुछ उलझी, कुछ सुलझी
और कुछ रिसती
बस यूं ही कह बैठी,
जानती हूं वैसे
तुम्हारी समझ से बाहर है
यह भावुकता !!!
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कच्चे घड़े-सी युवतियां
कच्चे घड़े-सी होती हैं
ये युवतियां।
घड़ों पर रचती कलाकृति
न जाने क्या सोचती हैं
ये युवतियां।
रंग-बिरंगे वस्त्रों से सज्जित
श्रृंगार का रूप होती हैं
ये युवतियां।
रंग सदा रंगीन नहीं होते
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
हाट सजता है,
बाट लगता है,
ठोक-बजाकर बिकता है,
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
कला-संस्कृति के नाम पर
बैठक की सजावट बनते हैं]
सजते हैं घट
और चाहिए एक ओढ़नी
जानती हैं सब
केवल, ये युवतियां।
बातें आसमां की करते हैं
पर इनके जीवन में तो
ठीक से धरा भी नहीं है
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
कच्चे घड़ों की ज़िन्दगी
होती है छोटी
इस बात को
सबसे ज़्यादा जानती हैं
ये युवतियां।
चाहिए जल की तरलता, शीतलता
किन्तु आग पर सिंक कर
पकते हैं घट
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
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गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी
पिछले बहत्तर साल से
देश में
योजनाओं की भरमार है
धन अपार है।
मन्दिर-मस्जिद की लड़ाई में
धन की भरमार है।
चुनावों में अरबों-खरबों लुट गये
वादों की, इरादों की ,
किस्से-कहानियों की दरकार है।
खेलों के मैदान पर
अरबों-खरबों का खिलवाड़ है।
रोज़ पढ़ती हूं अखबार
देर-देर तक सुनती हूं समाचार।
गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी
सुनते-सुनते सालों निकल गये।
सुना है देश
विकासशील से विकसित देश
बनने जा रहा है।
किन्तु अब भी
गरीब और गरीबी के नाम पर
खूब बिकते हैं वादे।
वातानूकूलित भवनों में
बन्द बोतलों का पानी पीकर
काजू-मूंगफ़ली टूंगकर
गरीबी की बात करते हैं।
किसकी गरीबी,
किसके लिए योजनाएं
और किसे घर
आज तक पता नहीं लग पाया।
किसके खुले खाते
और किसे मिली सहायता
आज तक कोई बता नहीं पाया।
फिर वे
अपनी गरीबी का प्रचार करते हैं।
हम उनकी फ़कीरी से प्रभावित
बस उनकी ही बात करते हैं।
और इस चित्र को देखकर
आहें भरते हैं।
क्योंकि न वे कुछ करते हैं।
और न हम कुछ करते हैं।
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जीवन क्या होता है
जीवन में अमृत चाहिए
तो पहले विष पीना पड़ता है।
जीवन में सुख पाना है
तो दुख की सीढ़ी पर भी
चढ़ना पड़ता है।
धूप खिलेगी
तो कल
घटाएँ भी घिर आयेंगी
रिमझिम-रिमझिम बरसातों में
बिजली भी चमकेगी
कब आयेगी आँधी,
कब तूफ़ान से उजड़ेगा सब
नहीं पता।
जीवन में चंदा-सूरज हैं
तो ग्रहण भी तो लगता है
पूनम की रातें होती हैं
अमावस का
अंधियारा भी छाता है।
किसने जाना, किसने समझा
जीवन क्या होता है।
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एक मधुर संदेश
प्रतिदिन प्रात में सूर्य का आगमन एक मधुर संदेश देता है
तोड़े न कभी क्रम अपना, मार्ग सुगम नहीं दिखाई देता है
कभी बदली, आंधी, कभी ग्रहण भी नहीं रोक पाते राहों को
मंज़िल कभी दूर नहीं होती, बस लगे रहो, यही संदेश देता है