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विनाश के लिए न बम चाहिए न हथियार चाहिए
विनाश के लिए बस मन में नकारात्मक भाव चाहिए
सोच-समझ कुंद हो गई, सच समझने से डरने लगे
सही-गलत को मापने का तो साहस रखना चाहिए
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विश्वगुरू बनने की बात करें
विश्वगुरू बनने की बात करें, विज्ञान की प्राचीन कथाएं पढ़े हम शान से।
सवा सौ करोड़ में सवा लाख सम्हलते नहीं, रहें न जाने किस मान में।
अपने ही नागरिक प्रवासी कहलाते, विश्व-पर्यटन का कीर्तिमान बना
अब लोकल-वोकल की बात करें, यही कथाएं चल रहीं हिन्दुस्तान में।
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दिखाने को अक्सर मन हंसता है
चोट कहां लगी थी,
कब लगी थी,
कौन बतलाए किसको।
दिल छोटा-सा है
पर दर्द बड़ा है,
कौन बतलाए किसको।
गिरता है बार-बार,
और बार-बार सम्हलता है।
बहते रक्त को देखकर
दिखाने को अक्सर मन हंसता है।
मन की बात कह ले पगले,
कौन समझाए उसको।
न डर कि कोई हंसेगा,
या साथ न देगा कोई।
ऐसे ही दुनिया चलती है,
जीवन ऐसे ही चलता है,
कौन समझाए उसको।
आंसू भीतर-भीतर तिरते हैं,
आंखों में मोती बनते हैं,
तिनका अटका है आंख में,
कहकर,
दिखाने को अक्सर मन हंसता है।
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मर रहा है आम आदमी : कहीं अपनों हाथों
हम एक-दूसरे को नहीं जानते
नहीं जानते
किस देश, धर्म के हैं सामने वाले
शायद हम अपनी
या उनकी
धरती को भी नहीं पहचानते।
जंगल, पहाड़, नदियां सब एक-सी,
एक देश से
दूसरे देश में आती-जाती हैं।
पंछी बिना पूछे, बिना जाने
देश-दुनिया बदल लेते हैं।
किसने हमारा क्या लूट लिया
क्या बिगाड़ दिया,
नहीं जानते हम।
जानते हैं तो बस इतना
कि कभी दो देश बसे थे
कुछ जातियां बंटी थीं
कुछ धर्म जन्मे थे
किसी को सत्ता चाहिये थी
किसी को अधिकार।
और वे सब तमाशबीन बनकर
उंचे सिंहासनों पर बैठे हैं
शायद एक साथ,
जहां उन्हें कोई छू भी नहीं सकता।
वे अपने घरों में
बारूद की खेती करते हैं
और उसकी फ़सल
हमारे हाथों में थमा देते हैं।
हमारे घर, खेत, शहर
जंगल बन रहे हैं।
जाने-अनजाने
हम भी उन्हीं फ़सलों की बुआई
अपने घर-आंगन में करने लगे हैं
अपनी मौत का सामान जमा करने लगे हैं
मर रहा है आम आदमी
कहीं अपनों से
और कहीं अपने ही हाथों
कहीं भी, किसी भी रूप में।
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वक्त कब कहां मिटा देगा
वक्त कब क्यों बदलेगा कौन जाने
वक्त कब बदला लेगा कौन जाने
संभल संभल कर कदम रखना ज़रा
वक्त कब कहां मिटा देगा कौन जाने
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अभिनन्दन करते मातृभूमि का
वन्दन करते, अभिनन्दन करते मातृभूमि का जिस पर हमने जन्म लिया।
लोकतन्त्र देता अधिकार असीमित, क्या कर्त्तव्यों की ओर कभी ध्यान दिया।
देशभक्ति के नारों से, कुछ गीतों, कुछ व्याखानों से, जय-जय-जयकारों से ,
पूछती हूं स्वयं से, इससे हटकर देशहित में और कौन-कौन-सा कर्म किया।
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एक मुस्कान हो जाये
देर से
तुम्हें निहारते निहारते
मेरे जीवन में भी
रंग करवट लेने लगे है।।
इस में
अपनों से
मन की बात कह ली हो
तो चलो
एक उड़ान हो जाये
एक मुस्कान हो जाये
बस यूं
गुमसुम गुमसुम न बैठो।
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लौट-लौटकर जीती हूं जीवन
चेहरे की रेखाओं को
नहीं गिनती मैं,
मन के दर्पण में
भाव परखती हूं।
आयु से
अपनी कामनाओं को
नहीं नापती मैं,
अधूरी छूटी कामनाओं को
पूरा करने के लिए
दर्पण में
राह तलाशती हूं मैं।
अपनी वह छाया
परखती हूं,
जिसके सपने देखे थे।
कितने सच्चे थे
कितने अपने थे,
कितने छूट गये
कितने मिट गये
दोहराती हूं मैं।
चेहरे की रेखाओं को
नहीं गिनती मैं,
अपनी आयु से
नहीं डरती मैं।
लौट-लौटकर
जीती हूं जीवन।
जीवन-रस पीती हूं।
क्योंकि
मैं रेखाएं नहीं गिनती,
मैं मरने से नहीं डरती।
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पता नहीं ज़िन्दगी में क्या बनना है
तुम्हें ज़िन्दगी में कुछ बनना है कि नहीं? अंग्रेज़ी में बस 70 अंक और गणित में 75। अकेले तुम हो जिसके 70 अंक हैं, सब बच्चों के 80 से ज़्यादा हैं। हिन्दी में 95 आ भी गये तो क्या तीर मार लोगे, शिक्षक महोदय वरूण को सारी कक्षा के सामने डांटते हुए बोले। चपड़ासी भी नहीं बन पाओगे इस तरह तो, आजकल चपड़ासी को भी अच्छी इंग्लिश आनी चाहिए, क्या करोगे ज़िन्दगी में। अपने पापा को बुलाकर लाना कल।
वरूण डरता-डरता घर पहुंचा । मां जानती थी कि आज अर्द्धवार्षिक परीक्षा का रिपोर्ट कार्ड होगा। बच्चे का उतरा चेहरा देखकर कुछ नहीं बोली, बस ,खाना खिलाकर खेलने भेज दिया। फिर बैग से रिपोर्ट कार्ड निकाल कर देखा और दौड़कर बाहर से वरूण को बांह खींचकर ले आई और गुस्से से बोली, रिपोर्ट कार्ड क्यों नहीं दिखाया ?वरूण रोने लगा, लेकिन मां ने पुचकार कर पकड़ लिया, अरे ,मैंने तो शाबाशी देने के लिए बुलाया है। इतने अच्छे अंक आये हैं रोता क्यों है? हिन्दी में 95 । वाह! अंगे्रज़ी में कुछ कम हैं पर कोई बात नहीं, कौन-सा अंगे्रज़ी का टीचर बनना है। और गणित में भी ठीक हैं। पापा भी खुश हो जायेंगे। वरूण बोला किन्तु मां, सर तो कहते हैं 100 आने चाहिए।
100? कोई रूपये हैं कि सौ के सौ आ जायेंगे, तू चिन्ता न कर।
संध्या पापा की आवाज़ सुनकर दरवाजे़ के पीछे छिप-सा गया। लेकिन वरूण हैरान था कि पापा भी खुश हैं। आवाज़ दी, कहां हो वरूण, लो तुम्हारी पसन्द की मिठाई लाया हूं। वरूण फिर भी सहमा-सा था। पापा उसके मुंह में गुलाबजामुन डालते हुए बोले , वाह बेटा अंग्रेज़ी में 70 अंक, मेरे तो सात आते थे, हा हा ।
और वरूण अचम्भित-सा खड़ा था समझ नहीं पा रहा था कि उसके अंक कैसे हैं।
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देखो किसके कितने ठाठ
एक-दो-तीन-चार
पांच-छः-सात-आठ
देखो किसके कितने ठाठ
इसको रोटी, उसको दूध
किसी को पानी
किसी को भूख
किसकी कितनी हिम्मत
देखें आज
देखो तुम सब
हमरे ठाठ
किके्रट टीम तो बनी नहीं
किस खेल में होते आठ
अपनी टीम बनाएंगे
मौज खूब उड़ायेंगे
सस्ते में सब निपटायेंगे
पढ़ना-लिखना हुआ है मंहगा
बना ले घर में ही टीम
पढ़ोगे-लिखोगे होंगे खराब
खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब
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अपने ही घर को लूटने से
कुछ रोशनियां अंधेरे की आहट से ग्रस्त हुआ करती हैं
जलते घरों की आग पर कभी भी रोटियां नहीं सिकती हैं
अंधेरे में हम पहचान नहीं पाते हैं अपने ही घर का द्वार
अपने ही घर को लूटने से तिज़ोरियां नहीं भरती हैं।